शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

इससे मीडिया का खास हित साधता है

प्रभाष जोशी

सूचना के अधिकार आंदोलन की शुरूआत हुई थी हम तभी से जानते थे कि इससे मीडिया का खास हित साधना है। इसलिए हमने कोशिश की कि अखबारों और उनके संस्थानों को इसमें शामिल किया जाए। सबसे पहले तो राजस्थान के अखबारों को इसमें शामिल किया गया क्योंकि उसी ज़मीन पर यह आंदोलन चल रहा था। राजस्थान पत्रिका इसमें खुशी- खुशी शामिल हुआ। इसके बाद भास्कर भी शामिल हुआ। खास तौर पर रिपोर्टर और स्ट्रिंगर की इसमें विशेष रुचि थी क्योंकि उन्हें मालूम था कि इससे उनका काम आसान होगा।

हालांकि अपने देश में अखबार वालों की मदद करने की परंपरा चली आई है, और यह परंपरा समाज में ही नहीं सरकार में भी चलती है। पत्रकारों के लिए जितनी आसानी से चीजों को खोदकर निकालना संभव होता है उतना किसी और के लिए नहीं होता। यह सही है कि आधिकारिक तौर पर कोई मदद नहीं करता लेकिन व्यक्ति के नाते कोई भी मदद कर देता है। राजनीतिक हलकों में आसानी से जानकारी उपलब्ध होती ही है, सरकार में भी आप किसी को पकड़कर काम करें तो धीरे-धीरे सारी जानकारी निकलकर आ सकती है। मैं अपने भाषणों के दौरान कहता था कि अपने देश में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जहां किसी अखबार या किसी पत्रकार के विरुद्ध गोपनीयता के कानून का इस्तेमाल किया गया हो। अखबार वालों को जो कुछ भी करना था इतने वर्षों में में उन्होंने किया है, इतनी खोजी पत्राकारिता अपने यहां होकती रही है, लेकिन किसी सरकार ने किसी अखबार या पत्रकार पर ये मुकदमा नहीं चलाया कि आपने स्टेट सीक्रेट कानून को तोड़ा है, इसलिए आपके खिलाफ कारवाई होगी। सरकार की जानकारी निकालकर आपने सरकार का अधिकार भंग किया है इसका मुकदमा अभी तक किसी पर नहीं चला है।

मैंने, अरुणा राय, अजीत भट्टाचार्य, निखिल चक्रवर्ती ने अखबार वालों से कहा कि इस अभियान को आपको उठाना चाहिए क्योंकि इसे तो आपका आंदोलन होना चाहिए लेकिन अभी इसे सामाजिक कार्यकर्ता चला रहे हैं। प्रेस इंस्टिट्यूट के चेयरमैन तो अजीत भट्टाचार्य थे ही, प्रेस कौंसिल के लिए हमने जस्टिस सावंत को लगाया। वे उसके चेयरमैन थे। एक बार ये दोनों इसमें आ गए तो एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का भी इसमें आना आसान हो गया। ये तीनों संस्थान इस कानून के बनवाने के पक्ष में आ गए तो आप मान लीजिए कि दिल्ली का जो मीडिया एस्टेब्लिशमेंट है और सरकार से जो डील करने वाले लोग हैं, उन सबको लग गया कि यह कानून तो बनना ही चाहिए। इस तरह पहले तो पूरे राजस्थान में और फ़िर यह आंदोलन दिल्ली आया। इसके लिए कहना ठीक होगा कि एक तरफ तो यह आंदोलन जनता के स्तर पर लगभग निरक्षर लोगों ने चलाया, ऐसे लोगों ने जो लिखना-पढ़ना जानते नहीं थे, जो लोग धरने पर बैठते थे वे बेहद मामूली लोग थे। सारी दुनिया में सूचना का अधिकार पढ़े- लिखे लोगों की मेहनत से बना लेकिन अपने देश में इस कानून के बनने में पढ़े-लिखे लोगों का योगदान इतना नहीं रहा जितना कि साधारण किस्म के और निरक्षर लोगों का रहा है। लेकिन फ़िर भी यह भास-आभास, समझ देश के अखबार वालों को थी कि ये कानून बना तो हमारा काम आसान हो जाएगा। हालांकि अपने देश में अखबार वालों को काम करने के लिए कानूनों की ज्यादा ज़रूरत नहीं है। मैंने तो यह पाया है कि अखबार को काम करने के लिए कानूनों की ज़रूरत ही नहीं है। अगर आप जाएं और कहें कि हम फलां- फलां अखबार या चैनल के लिए खबर करना चाहते हैं तो लोग खुद उसे सूचना देने को तैयार रहते हैं। जो नहीं देते उनका उसे दबाने या छिपाने में निजी स्वार्थ होता है लेकिन उस एक आदमी के खिलाफ सूचना देने के लिए सौ लोग आपको उसी विभाग में मिल जाएंगे। अखबार वालों का काम तो अपने यहां आसान रहा है लेकिन सूचना का कानून बनने के बाद से एक तरह से औपचारिक रूप से पुख्ता हो गया है। इससे अखबार वालों की स्थिति पहले की अपेक्षा सुविधाजनक हुई है। बल्कि मैं ये मानता हूं कि कानून के बाद भी सूचना लेने में सामाजिक कार्यकर्ताओं को उतनी आसानी नहीं से सूचना नहीं मिलती जितनी आसानी से अखबार वालों को मिल जाती है।

साथ ही दो बातें और हैं - एक तो पहले जो लोग अखबार को सूचना देते थे वे पीठ पीछे देते थे और डरते थे लेकिन अब सामने से देते हैं और दूसरा अखबार वालों को भी उनकी बनाई स्टोरी के स्थान पर, एक प्लांट की जाने वाली स्टोरी के स्थान पर, अच्छी, वास्तविक स्टोरी मिलने की संभावना बढ़ती है।

मैं ये मानता हूं कि अखबारों में काम करने वाले लोगों का, पत्रकारों का सबसे बड़ा हित इसमें है कि हम अपने देश के साधरण लोगों को सूचना प्राप्त करने के अधिकार के प्रति जागरूक ही नहीं, उनको सक्रिय रूप से सूचना प्राप्त करने के लिए प्रेरित करें। उसमें दो फायदे हैं। एक तो नागरिक को ये खुद महसूस होगा कि उसको जो जानकारी मिल रही है उससे उसके कामकाज और जीवन का स्तर बेहतर होता है। दूसरा, ऐसा करने में हम एक ऐसे समाज का निर्माण करते हैं जिसमें जानकारी विस्तृत रूप से फैली हो। जो समाज अच्छी तरह से जानकार और सूचित हो, उस समाज में लोकतंत्र ही नहीं पत्रकारिता भी बेहतर हो सकती है। क्योंकि तब गप बाजियों और एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले तत्वों को अखबारों में मौका मिलने के बजाय अच्छी व प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उससे हमारा समाज और लोकतंत्र पहले से बेहतर होता है। इसलिए इसकी लगातार कोशिश होनी चाहिए कि सूचना के अधिकार को लोगों को स्तर पर सक्रिय रूप से फलीभूत करने के लिए हम मीडिया को उतना ही अच्छा इस्तेमाल करें जितना कि अखबार निकालने और चैनल चलाने में होना चाहिए ताकि इस देश के नागरिक न सिर्फ सूचना प्राप्त करने के तौर तरीकों में कुशल हों, वो उस जानकारी को बेहतर इस्तेमाल कर सकें। ये अपनी पत्रकारिता के विश्वसनीयता के स्तर को पहले की अपेक्षा ज्यादा बढाएगा। इसलिए ये समाज के हित में है कि सूचना के अधिकार को फलीभूत करने के लिए मीडिया वालों और सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाले अभियानों और कार्यकर्ताओं के बीच ज्यादा अच्छा सहयोग चलता रहे।

पिछली तीन साल की बात करूं तो मैं कुल मिलाकर ये देखता हूं कि सूचना के अधिकार को जितना समर्थन और महत्व कानून बनने से पहले अखबारों की तरफ से मिल रहा था, उतना अब नहीं मिल रहा। उसका एक कारण तो ये है कि अखबारों में आजकल सामाजिक सरोकारों की तरफ काम करने के बजाय मनोरंजन उद्योग में काम करना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। इसलिए जिन चीजों से मनोरंजन होता है और चैनलों की कमाई हो सकती है उसको ज्यादा महत्व दिया जाता है। सामाजिक सरोकार की चीजों को कम महत्व मिल रहा है।

एक और बात यह कि अखबार वालों को तो इस कानून का इस्तेमाल खूब करना चाहिए। अगर कोई यह सोचे कि इसमें समय लगता है तो यह गलत है। पत्रकारों को सूचना देने में तो वे जल्दी करेंगे क्योंकि देरी होने पर इसकी भी स्टोरी हो सकती है। अखबार वालों को तो खासकर इसे प्रोत्साहित करना चाहिए।

आज अगर मैं अखबार का संपादक होता तो सूचना के अधिकार पर एक अलग बीट बनाकर रिपोर्टर लगा देता। मैं समझता हूं कि अखबार का उद्देश्य है कि हम अपने पढ़ने वालों को ज्यादा से ज्यादा जानकार और अच्छी राय रखने वाला बना सकें। और सूचना का अधिकार ऐसा करने में मददगार है। और मैं अपने अखबार का उद्देश्य पूरा करने के लिए इसे एक समानान्तर अधिकार के रूप में प्रोत्साहित करता।

(प्रभाष जोशी मूर्धन्य पत्रकार हैं और सामाजिक सरोकारों में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं)

1 टिप्पणी:

Ghar Ka Vaidya ने कहा…

Sahe Kah Rahe. Media ke hit jahan hota hai vahe media hota hai.

Ghar Ka Vaidya