सिद्धार्थ पाण्डेय
खोजी पत्रकार और बहुत बार विवादास्पद विषयों को कवर करने के कारण मुझे मनुष्य की प्रकृति के काले पक्ष को देखने का मौका मिला। कुछ रिपोर्टों में मेरा सीधा टकराव व्यवस्था, लोगों के स्वार्थ और कुबेरपतियों से हुआ जो सच को खरीद सकते थे या अपने राह के रोडे़ को आसानी से किनारे कर सकते थे। बहुत लोगों ने मुझसे कहा कि जब लहरों के साथ बहना आसान है तो तुम धारा के विपरीत जाने का प्रयास क्यों करते हो। मेरे हिसाब से इसका जवाब हो सकता है कि बहुत बार मीडिया अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे करोड़ों लोगों की आखिरी आशा होती है। बहुत से जिन्हें हल्के में ले लेते हैं, उनके लिए मीडिया आशा की अंतिम किरण है। बडे़ शहरों की जगमगाहट से कुछ दूरी पर एक अलग तरह का भारत बसता है जहां जीवन की सामान्य गति से जीने वाला एक मासूम और एक बर्बर और असभ्य विश्व मिश्रित रूप से रहता है। देश की राजधानी में बीआरटी बस कॉरिडोर चुनावों के समय प्रमुख मुद्दा हो सकता है। लेकिन ग्रामीण भारत में विषय अधिक मूल हैं। वहां स्थानीय स्कूल में शिक्षक की नियुक्ति, पीने का पानी या स्वास्थ्य की मूलभूल सुविधाओं की लड़ाई शामिल जैसे विषय अहम है।
बहरहाल विभाजन और विभिन्नताएं बहुत वास्तविक हैं और हमेशा से समाज में रही हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में यात्रा के दौरान मैंने निरा अंध्कार, दरिद्रता और लोगों के लालच को प्रत्यक्ष देखा। यह भी पाया कि देश में लोगों के बीच एक अलग तरह की जागृति भी आ रही है जो पहले इतने संगठित रूप में एक सामान्य उद्देश्य के लिए कभी देखने को नहीं मिली। आज गरीब-अमीर, सभी धर्म , जाति, सम्प्रदाय के लोग एक स्वर में बदलाव की मांग कर रहे हैं और अपने शासकों से जवाब चाह रहे हैं। आज देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा युवाओं का है। अधीर माने जाने वाले इस वर्ग ने लोगों की आवाज को आगे बढ़ाया है और अपने राजनेताओं से जवाब मांगा है।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में नागरिकों के अधिकार के लिए शायद इस तरह की जागृति सूचना के अधिकार कानून के लिए दिखाई दी, जिसे तीन साल पहले बनाया गया था। सामान्य नागरिकों के दो दशकों के संघर्ष के बाद यह कानून बना। इस संघर्ष में अधिकतर वो लोग शामिल थे जिनके शरीर में एक कमीज से थोड़ा ज्यादा कपड़ा था। बहुतों ने सैकड़ों मील की यात्रा की, रैलियां कीं और इस कानून के लिए अभियान चलाए। यह उन्हीं लोगों का प्रतिबिंब है जो अब बेहतर जीवन के लिए परिवर्तन की मांग कर रहा है। शायद यह एक नए भारत का अहम मोड़ है, जिसमें लोग परिवर्तन और जवाबदेही के लिए शासन के उत्तरदायी लोगों से सफलता पूर्वक कानून का इस्तेमाल कर जवाब मांगे।
आज इस कानून की विडंबना यह है कि जिन पर लाल फीताशाही के एजेन्ट और सूचना देने में आनाकानी के आरोप लगते रहे हैं, वही इस कानून का सबसे अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। शायद इनमें से बहुत लोगों ने कानून के लागू न होने के लिए षडयंत्र भी रचे। कानून बनने के एक साल बाद ही इसे कमजोर करने के लिए सरकार की तरफ से संशोधन का प्रस्ताव आया। इसके विरोध में कार्यकर्ताओं और देश भर के नागरिकों ने हाथ से हाथ मिलाकर इस मौलिक अधिकार के संशोधन का विरोध किया। शहरों में कॉलेज के विद्यार्थी, बॉलीवुड स्टार, रॉक बैंड और पूरे देश में लोग कंधे से कन्धा मिलाकर इसके विरोध में खडे़ दिखे। अंतत: सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा और कानून की मूल आत्मा और ताकत बरकरार रही।
उस समय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा के सांसद रॉबर्ट खारसींग की बैठक मुझे याद है। वे जंतर मंतर में कानून का विरोध कर रहे लोगों का साथ देने त्रिणमूल कांग्रेस के सांसद दिनेश त्रिवेदी के साथ आए थे। सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक होने के बावजूद उन्होंनें कहा- मैं उस कानून का विरोध कैसे कर सकता हूं, जिसने लोगों को राशन कार्ड, जीवन और मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने में मदद की है। मेरी चेतना उस कानून का विरोध कैसे कर सकती है जिसने समाज के आखिरी पायदान पर खडे़ लोगों को उनके मूल मानवीय अधिकारों का प्राप्त करने की आस बंधाई है। एक ऐसा कानून जिसने कुछ चीजें ऐसी की हैं जिन्हें सांसद के रूप में मैं नहीं कर सकता था।
आज कानून बनने के तीन साल बाद जिन लोगों ने इसका इस्तेमाल करके खुद को लाल फीताशाही से मुक्त करने का प्रयास किया है, उनकी संख्या में काफी इजाफा हुआ है। इन्होंने नए भारत लोगों के साथ मिलकर सतर्कता से परिवर्तन लाने वाले इस कानून को कमजोर करने के प्रयास का विरोध किया है। सूचना के अधिकार ने उम्मीदों के दरवाजे खोले हैं और नागरिक अब सतर्कता के साथ सरकार पर नजर रखे हैं।
(लेखक एनडीटीवी से जुडे़ हैं)
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