शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

सूचना के अधिकार ने खोले नये द्वार

विष्णु राजगढ़िया

सूचना का अधिकार मीडिया के लिए संभावनाओं के नये अवसर लाया है। एक पत्रकार के बतौर मैंने इस कानून के आने के बाद जिस आजादी और अधिकार का एहसास किया है, वह काफी सुखद अनुभूति है। इस कानून ने यह संभव कर दिया है कि पत्रकार किसी भी मामले से जुड़े दस्तावेजों की पूरी फाइलों का अध्ययन करके तथ्यपरक रिपोर्टिंग कर सके। देश के कई प्रमुख प्रकाशन संस्थानों ने सूचना का अधिकार का उपयोग करके एक्सक्लूसिव खबरें निकालने के अनूठे प्रयोग किये हैं।
मेरे पास ऐसे दर्जनों अनुभव हैं जिनमें सूचना के अधिकार ने काफी मदद पहुंचायी है। सबसे दिलचस्प अनुभव झारखंड विधानसभा से जुड़े हैं। लोकतंत्र के इस मंदिर के संबंध में कई विवादास्पद किस्से चर्चा में थे। लेकिन सूचना कानून आने से पहले मीडिया के लिए उन पर खबर लिखना संभव नहीं हो पाता था। दस्तावेजों के बगैर लिखने से संसदीय विशेषाधिकार का खतरा था। हमने ऐसे कई मामलों पर सूचना के आवेदन डाले। इससे काफी खबरें निकलीं जिन्हें प्रमुखता से प्रभात खबर ने प्रकाशित किया। जैसे-
1. झारखंड विधानसभा परिसर में तीस वातानुकूलित कमरों का गेस्टहाऊस है। इसके किराये की पूरी राशि ट्रेजरी में जमा होनी चाहिए थी। लेकिन ट्रेजरी में मामूली रकम जमा की जाती। प्रति कमरा शुल्क भी 100 रुपये के बदले अवैध रूप से 300 रुपये लिये जाते। सूचना अधिकार के तहत मिले दस्तावेजों से सारी पोल खुल गयी। 09।12।2005 को प्रभात खबर में बड़ी खबर छपी।

2. झारखंड विधानसभा में नियुक्तियों में भारी अनियमितता हुई। हजारों बेरोजगार सड़कों पर उतर आये। अक्टूबर 2005 में 75 अनुसेवकों की बहाली में भी अनियमितता हुई। इन पहलुओं पर सूचनाधिकार के जरिये महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल हुए।

3. झारखंड विधानसभा में पदोन्नतियों में भी भारी अनियमितता हुई। सूचनाधिकार के जरिये महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल हुए।

4. झारखंड विधानसभा परिसर में अक्टूबर 2005 में विभिन्न निर्माण-कार्यों को लेकर अचानक हंगामा हुआ। घटिया सामिग्रयों के इस्तेमाल, मनमाने एवं अनावश्यक कार्यों, बारह करोड़ के काम में 45 फीसदी कमीशन जैसे गंभीर आरोप लगे। सूचनाधिकार से जुड़ी प्रभात खबर की टीम ने इन पहलुओं की पड़ताल के लिए 22 नवंबर 2005 को भवन निर्माण विभाग में आवेदन देकर जानकारियां हासिल कीं।

5. विधानसभा के हर सत्र में विभिन्न विभागों द्वारा गैरकानूनी तरीके से खरीदे उपहारों तथा विधायकों, पत्रकारों, अधिकारिओं के बीच उनके वितरण किया जाता। इन उपहारों की राशि कहां से आती है, कोई नहीं जानता। इनकी खरीद एवं इसके वितरण में जनप्रतिनिधि , अधिकारियों , सप्लायरों एवं बिचौलियों के नापाक गटबंधन की साफ झलक दिखती है। इस संबंध में मांगी गयी सूचना ने सभी विभागों में हड़कंप मचा दी।

6. झारखंड सरकार के विधि विभाग में भी हमें बड़ी सफलता मिली। झारखंड हिंदू धर्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष राजेंद्रनाथ शाहदेव ने एक अवैधानिक फैसले के जरिये लगभग दो अरब की परिसंपत्ति को मनोरमा ट्रस्ट के बदले किसी की निजी संपत्ति में बदल दिया था। मामला कैबिनेट में पहुंचने पर विधि विभाग से जांच करायी गयी। रिपोर्ट दबा दी गयी। मैंने 29 दिसंबर 2005 को सूचना के अधिकार आवेदन द्वारा विधि विभाग से यह रिपोर्ट मांगी। इससे मनोरमा ट्रस्ट मामले में हुई घोर अनियमितता सामने आयी।

7. ऐसी ही एक बड़ी सफलता राज्य के ग्रामीण विकास विभाग में मिली। मैंने ग्रामीण विकास विभाग से राज्य के विभिन्न प्रखंडों में नरेगा के क्रियान्वयन सम्बन्धी आंकड़े मांगे। लेकिन जो ग्रामीण विकास विभाग नरेगा कानून को मजाक समझ रहा था, वह भला सूचना कानून को कितनी तवज्जो देता। अंतत: मामला सूचना आयोग पहुंचा। आयोग ने राज्य के ग्रामीण विकास आयुक्त तथा 20 जिलों के उपायुक्तों को एक ही दिन सूचना आयोग में तलब कर लिया। इसने पूरे राज्य की नौकरशाही में हड़कंप मचा दी। सभी जिलों के अधिकारियों ने रातोंरात सारे आंकड़े जुटाकर हमें उपलब्ध कराये।

८ एक उदाहरण धनबाद के अल-एकरा बीएड कॉलेज का देखा जा सकता है. वर्ष 2006-07 में इसमें नामांकन की मेधासूची को सार्वजनिक नहीं किया गया। यहां तक कि मीडिया को भी मेधासूची उपलब्ध नहीं करायी गयी। इसी बीच एक नागरिक ने जिला शिक्षा अधिकारी के पास सूचना का आवेदन देकर पूरी मेधासूची हासिल कर ली। पता चला कि कई उम्मीदवारों को मेधासूची में नाम होने के बावजूद गुमराह करके नामांकन से वंचित कर दिया गया था। मीडिया के लिए ऐसी सूचनाएं एक्सक्लूसिव खबर बनीं। दिलचस्प बात यह कि अगले सत्र में कॉलेज प्रबंधन ने मीडिया को मेधासूची खुद ही उपलब्ध करा दी।

9. मुंबई के तीन-चार लोगों ने 1998-99 में आइडीबीआई से बीस करोड़ से भी ज्यादा ऋण लिया। रांची के तुपुदाना औद्योगिक क्षेत्र में तीन कारखाने लगाने के नाम पर। दो कारखाने तो खुले ही नहीं, तीसरा नाममात्र का खोलकर बंद कर दिया गया। अब तीनों कारखाने बंद पड़े हैं। विभिन्न स्रोतों से मिले तथ्यों के आधार पर प्रभात खबर में एक से छह दिसंबर तक छह किश्तों में खबर छपी। इस प्रकरण में आइडीबीआई बैंक से महत्वपूर्ण सूचनाएं मिल सकती थीं। लेकिन बैंक ने कहा कि किसी के व्यक्तिगत खाते की जानकारी नहीं दी जा सकती। हालांकि बैंक ने अपने जवाब में माना कि तीनों कारखानों में भारी गबन हुआ है, लेकिन सूचना देने से मना किया। मामला केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा तो गबन सम्बन्धी सूचना हासिल हुई।

10. अवैध देशी शराब के कारण कई वर्षों तक झारखंड को उत्पाद-कर एवं बिक्री-कर में अरबों का नुकसान हुआ। लेकिन अधिकारीगण आश्चर्यजनक रूप से खामोश रहे। विधानसभा में माले विधायक विनोद सिंह ने मामला उठाया तो सदन को गुमराह करने वाला जवाब दिया गया। मीडिया ने जब कभी ऐसी खबरें छापीं तो तथ्य को झुठलाया गया। वित्त मंत्री रघुवर दास ने सूचना मांगी तो फाइल दबी रह गयी। लेकिन प्रभात खबर इंस्टीट्यूट के छात्र दयानंद राय ने सूचना का आवेदन डालकर पूरा कच्चा चिट्ठा निकाल लिया। पता चला कि वर्ष 2001-02 में मिला सोलह करोड़ का राजस्व वर्ष 2005 में दस गुना नीचे आ गया, मात्र डेढ़ करोड़। प्रभात खबर में यह पेज वन की एक्सक्लूसिव खबर बनी।

11. किसी स्वयंसेवी संस्था के निबंधन के लिए उसके आवेदन सम्बन्धी दस्तावेजों में उसका स्थायी पता बताना जरूरी है। झारखंड में 160 ऐसी संस्थाओं को निबंधन दे दिया गया जिनके आवेदन में स्थायी पता नहीं था। प्रभात खबर इंस्टीट्यूट की छात्रा सरिता ने 03।01।2006 को सूचना के अधिकार द्वारा इसका भंडाफोड़ किया।

12. चुनावों के दौरान सरकारी प्रयोग हेतु निजी वाहनों को जब्त किया जाता है। ऐसे वाहनों को रखने के लिए मैदान में बांस वगैरह से घेराबंदी की जाती है। लेकिन क्या घेराबंदी का यह काम इतना महंगा होगा कि झारखंड जैसे राज्य को दो-तीन करोड़ रुपये खर्च करने पड़ जायें? यह रहस्य सामने आया शक्ति पांडे के सूचनाधिकार आवेदन से। उन्होंने फरवरी 2005 में हुए लोकसभा चुनाव तथा अप्रैल 2005 में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान जब्त वाहनों हेतु रांची के मोराबादी मैदान की घेराबंदी के खर्च का ब्यौरा मांगा था। पता चला कि लोकसभा चुनाव के दौरान घेराबंदी का खर्च लगभग एक लाख हुआ। विधानसभा चुनाव में यह लगभग तीन लाख हो गया। यानी महज एक साल में तीन गुना। ऐसे तथ्य प्रभात खबर के लिए एक ´एक्सक्लूसिव न्यूज´ का आधार बने।

सच तो यह है कि अब तक कि पत्रकारिता में अधिकार पूर्वक दस्तावेजों के अध्ययन की गुंजाइश नहीं होने के कारण मीडिया कर्मी काफी सहमे और उपकृत रहा करते थे। उन्हें समाचार पाने के लिए नेताओं और अधिकारियों से मधुर संबंध बनाने होते थे। इसके लिए वह जाने या अनजाने में इस या उस पक्ष का उपकृत बनता था। मधुर रिश्तों के आधार पर खबरें निकालना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन इसकी सीमा यह है कि कई बार संवाददाता को खबर देनेवाले ऐसे स्रोतों के हाथ की कठपुतली बनने को विवश होना पड़ता है। ऐसे में कई बार उसकी रिपोर्टिंग महज किसी के जनसंपर्क का उपकरण बनकर रह जाती है। जब तक संवाददाता ऐसे अधिकारियों के अनुकूल खबर लिखता है, तब तक उसे खबरें मिलेंगी। लेकिन ज्योंहि वह किसी कटु सच्चाई को सामने लाने की ओर बढ़ेगा, ऐसे अधिकारी उससे मुंह मोड़ लेंगे।
लेकिन सूचना का अधिकार इस सीमा को तोड़ता है। अब हमारे लिए यह संभव है कि वह सामान्य किस्म की खबरें सामान्य तरीकों और मधुर रिश्तों के आधार पर निकालें और विशेष खोजी खबरों तथा कड़वी सच्चाइयों को सामने लाने के लिए सूचना के अधिकार का उपयोग करें। ताकि कोई रिश्तों की दुहाई देकर दबाव न डाल सके।

( विष्णु राजगढ़िया प्रभात खबर के धनबाद संस्करण के संपादक रह चुके हैं और सूचना के अधिकार आंदोलन से जुड़े हैं)

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