बुधवार, 7 जनवरी 2009

सूचना का कमाल, लोगों ने छोड़ी शराब

उत्तर प्रदेश के बहराइ जिले में सूचना के अधिकार के इस्तेमाल का एक अनूठा मामला सामने आया है। इस कानून के तहत मिली सूचना का ही प्रभाव है कि बहराइच जिले के गांवों में परिवारों ने शराब से तौबा कर ली है। अभी तक सूचना के अधिकार का इस्तेमाल सरकारी फाइलों में छिपे सच को सामने लाने और इस प्रक्रिया में कर्मचारियों पर नियमानुसार काम करने का दबाव बनाने में होता रहा है। सरकारी फाइलें खुलने के डर से ही बहुत से कर्मचारी अपना आचरण सुधर लेते हैं। इसकी हजारों मिसालें दी जा सकती हैं। लेकिन फाइलों से जानकारी बाहर आए और उसका असर समाज पर इस प्रकार पड़े कि लोग शराब पीना तक छोड़ दें, ऐसा पहली बार हुआ है।
यह मामला किसी एक परिवार तक सीमित नहीं है। कई परिवार के लोगों ने शराबी पीनी छोड़ दी है और लोगों का यह सिलसिला अब तक जारी है। यह किस्सा है बहराइच जिले कतरनियाघाट में स्थित वनग्रामों का। यहां के बिछिया बाजार वनग्राम में कई सालों से देशी शराब का ठेका चला आ रहा था। मेहनत-मजूरी करने वाले यहां के लोग अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा शराब पर ही फूंक देते थे। गांव वालों के आर्थिक हालात पहले से ही काफी नाजुक थे, उस पर कुछ परिवारों में परिवार के मुखिया या किसी और की शराब पीने की लत से ये परिवार दरिद्रता से जूझ रहे थे।
देहात समाजसेवी संस्था से जुडे़ सामाजिक कार्यकर्ता जंग हिन्दुस्तानी इस इलाके के लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं। उनका मुख्य संघर्ष इन लोगों के अधिकारों को लेकर है। इसमें भी विशेषकर मजूदरी न मिलना, विभिन्न कल्याण योजनाओं का लाभ न मिलना, राशन न मिलना आदि समस्याओं को लेकर पिछले कई सालों से संघर्ष चला आ रहा है। जिसमें सूचना के अधिकार के आने के बाद से उल्लेखनीय सफलता भी मिली है। जंग हिन्दुस्तानी यह देखकर अफसोस करते थे कि वनग्रामों के कई लोग अपनी मेहनत मजदूरी का पैसा घर परिवार में लगाने की जगह शराब में उड़ा देते थे। इससे उनकी आर्थिक स्थिति तो बुरी से बुरी हो ही रही थी इलाके में असामाजिक गतिविधियां भी होती थीं। उन्होंने लोगों को समझाने के लिए पहले भी कोशिश की थी लेकिन उसका कोई खास असर नहीं हुआ। इसी क्रम में वह जानना चाहते थे कि एक आम परिवार शराब पर कितना पैसा खर्च कर रहा है।
30 जून 2007 को उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत सरकार से पूछा कि इलाके की शराब की दुकान से उसे कितना राजस्व प्राप्त हुआ है। तो पता चला कि पिछले तीन साल में महज उस इलाके में शराब की ब्रिकी से सरकार को 40 लाख 86 हजार 40 रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ। इलाके में न तो कोई टूरिस्ट पैलेस और न होटल आदि। कुल मिलाकर कुछ वनग्रामों की आबादी है। राजस्व की इस राशि के हिसाब से करीब 70 लाख रुपये की शराब इलाके में तीन साल के दौरान बिकी थी। जंग हिन्दुस्तानी ने अपने साथियों के साथ गांव-गांव जाकर ऐसे लोगों की सूची तैयार की जो शराब पीते थे। इस प्रक्रिया में पता चला कि इलाके के कुल 300 परिवारों में शराब पी जाती है। इसकी सामान्य गणना करने पर निकल कर आया कि इलाके में हर शराबी प्रतिदिन औसत 20 रुपये की शराब पी रहे थे। जबकि अधिकतर परिवार गरीब थे और किसी तरह मेहनत-मजूरी करके अपने परिवार का गुजारा चला रहा थे। इलाके में दिन भर मेहनत करने के बाद मुश्किल से 50-60 रुपये की मजदूरी मिलती है। शराब पीने वाले लोग इसमें एक तिहाई कमाई शराब में उड़ा रहे थे।
सूचना के अधिकार के तहत मिली इस जानकारी को लोगों के समक्ष रखा गया और उन्हें बताया गया कि वे शराब पर कितना पैसा खर्च कर रहे हैं। लोगों को बताया गया कि जो पैसा बच्चों की पढ़ाई, स्वास्थ्य, घर-गृहस्थी चलाने आदि में खर्च किया जा सकता था और जिससे गरीबी कम की जा सकती थी, उसे शराब पर बहाया जा रहा है।
इतने पुख्ता तथ्यों के साथ जब बात लोगों के सामने रखी गई तो इसने अपना असर दिखाया। जंग हिन्दुस्तानी ने लोगों को यह भी याद दिलाया कि अपने हक के एक-एक रुपये की खातिर वे लोग जो संघर्ष करते आए हैं वह कुछ मिनटों में नशे में उड़ा दिया जा रहा है। इन बातों ने अपना प्रभाव दिखाया।
लोगों को यह बात धीरे-धीरे समझ में आ गई कि शराब ही उनके दुखों को मूल कारण है। उन्हें एहसास हो गया कि यदि शराब की लत छोड़ दी जाए तो उनकी अधिकांश समस्याएं हल हो सकती हैं। उसी दिन से कुछ ग्रामीणों ने शराब छोड़ने की कसम खाई। गांव में शराब छोड़ने वाले लोगों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी होती जा रही है। जो पैसा पहले वे शराब पर खर्च कर रहे थे, उसे बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़ों आदि पर खर्च करने लगें। कैलाशनगर वनग्राम के गीताप्रसाद कहते हैं- शराब छोड़ने से हमें हद से ज्यादा फायदा हुआ है, पहले हमारा एक भी पैसा बैंक में जमा नहीं था लेकिन अब मेरे 8 हजार रुपये बैंक में जमा हैं। शराब छोड़ चुके शिवचरण का कहना है- पहले हम हद से ज्यादा शराब पीते थे, लड़ाई झगड़ा करते रहते थे। सूचना के अधिकार से पता चलने पर हमने सोचा कि यदि पैसा बचेगा तो हमारे बच्चे पढ़ेगें, हम भूखे नहीं मरेंगे, यही सोचकर शराब छोड़ दी। अब हमारे बच्चे स्कूल जाने लगे हैं और हम सुकून में हैं। कैलाशनगर के द्वारिका प्रसाद ने भी यही सोचकर शराब की लत से मुक्ति पा ली।

माफ़ हुआ किसानों का 32 लाख का कर्ज

भारत सरकार ने ऋणग्रस्त किसानों के कर्जमाफी की घोषणा तो कर दी लेकिन बहराइच जिले में बैंक किसानों को यह लाभ देने से बच रहे थे। बैंक द्वारा कर्ज माफी के पात्र किसानों की घोषणा न करने के कारण कर्ज दाता परेशान थे। बैंक किसानों का कर्ज माफ करने के लिए पैसों की मांग भी कर रहे थे। इस संबंध में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया गया तो समस्त पात्र किसानों की सूची बोर्ड पर लगा दी गई। जिसका नतीजा यह हुआ कि क्षेत्र के 57 किसानों का करीब 32 लाख रूपये का कर्ज माफ हो गया।
आवेदनकर्ता जंग हिन्दुस्तानी ने लखनऊ क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के जन सूचना अधिकारी को लिखे आवेदन में बैंक की तीन शाखाओं (प्रेमीदास कुटी, चाकूजोत और भिलोरा बासू) के संबंध में जानकारी मांगी। आवेदन में पूछे गए प्रश्न-
1- उपरोक्त शाखा में तैनात बैंक कर्मियों के नाम, पद, पता व वेतनमान की लिखित जानकारी दें
2- उपरोक्त शाखाओं से सम्बंधित उपभोक्ताओं की बैंकवार संख्या की जानकारी दें
3- उपरोक्त शाखाओं से सम्बंधित समस्त ऋणदाताओं की लिखित व प्रामाणिक जानकारी दें। बैंकवार सूची प्रदान करें।
4- उपरोक्त शाखाओं से सम्बंधित समस्त कर्जमाफी के दायरे में आने वाले ऋण दाताओं की बैंकवार सूची प्रदान करें।
5- कर्जमाफी के संबंध में केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा जारी किए गए समस्त शासनादेशों की प्रामाणिक छायाप्रति उपलब्ध कराएं।
बैंक ने आवेदन में पूछे गए इन प्रश्नों के जवाब तो नहीं दिए क्योंकि इन सवालों के जवाब देने में वे खुद फंस रहे थे। हालांकि आवेदन प्राप्त होने के बाद कर्जमाफी के पात्र किसानों की सूची बैंक के बोर्ड में लगा दी गई। जिससे लोगों को पता चल गया कि उनका कर्ज माफ हुआ है या नहीं। इस तरह सूचना के अधिकार की बदौलत 57 किसानों के नामों की घोषणा बैंक को करनी पड़ी और उनका करीब 32 लाख का ऋण माफ हो गया। आवेदनकर्ता जंग हिन्दुस्तानी ने आवेदन में मांगी गई सूचनाओं की प्राप्ति हेतु राज्य सूचना आयोग में अपील कर दी है और सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।

सूचना मत मांगिए, हमसे गलती हो गई....

अधिकारी अपनी मनमानियों से किस प्रकार आम लोगों को तंग करते हैं, बिना किसी आधर पर लोगों को परेशान करने के लिए नोटिस भेजकर पैसों की उगाही करने का प्रयास करते हैं, इसका उदाहरण बहराइच जिले के सत्यनारायण वर्मा के साथ देखने को मिला। लेकिन जैसे ही सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल किया गया, अधिकारियों की मिलीभगत सार्वजनिक हो गई।
दरअसल सत्य नारायण वर्मा पटसिया चौराहा, थाना फकरपुर, बहराइच में एक दवाई की दुकान चलाते हैं। जिला पंचायत ने 24 फरवरी 2008 को एक नोटिस भेजकर उनकी आय 40 हजार मानते हुए 12 सौ रूपये वार्षिक कर के रूप में भरने को कहा। साथ ही कहा गया कि 30 दिन में कर अदा न करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई जाएगी।
मामले की तह तक जाने के लिए सत्यनारायण ने अपर मुख्य अधिकारी, जिला पंचायत कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी को सूचना के अधिकार के तहत आवेदन किया जिसमें नोटिस से सम्बंधित विवरण मांगा। यह आवदेन 12 फरवरी 2008 को सूचना के अधिकार के लाइफ एंड लिबर्टी उपबंध के अन्तर्गत डाला गया था। इस उपबंध के तहत 48 घंटे में सूचना मुहैया करानी होती है। आवेदन ने असर दिखाया। आवेदन दाखिल करने के एक हफ्ता बाद पंचायत का एक कर्मचारी आवेदनकर्ता के पास गया और नोटिस भेजने की गलती पर माफी मांगी। कर्मचारी ने कहा-गलती से आपके पास नोटिस चला गया था, आप सूचना मत मांगिए, हम आपसे कभी पैसा वसूलने नहीं आएंगे। उस दिन के बाद नोटिस भेजकर पैसा मांगने की घटनाएं समाप्त हो गईं और कोई कर्मचारी फ़िर पैसा मांगने नहीं आया।

कांजीहाउस में बंद हुई मनमानी वसूली

सूचना के अधिकार की बदौलत ग्रामीणों से बिछिया बाजार स्थित वन विभाग के कांजीहाउस से गैर कानूनी वसूली बंद हुई है। कांजीहाउस वह स्थान होता है जहां आवारा जानवरों को बंद किया जाता है और निर्धारित शुल्क लेने के बाद ही उन्हें छोड़ा जाता है। बिछिया बाजार के कांजीहाउस में भी जानवरों को छोड़ने के लिए शुल्क निर्धारित था लेकिन गांव के किसी भी निवासी को सही दरें मालूम नहीं थीं। कांजीहाउस मालिक व ठेकेदार ग्रामीणों से निर्धारित दर से कई गुना अधिक शुल्क वसूलते थे। उदाहरण के लिए एक भैंस को छोड़ने के लिए मनमाने तरीके से 150 रूपये लिए जाते हैं। प्रति गाय 100 रूपये, प्रति बकरी 50 से 75 रूपये तक वसूले जाते थे।
कांजीहाउस की ज्यादतियों और मनमानियों से तंग आकर सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. जंग हिन्दुस्तानी ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत दिनांक 25 जून 2007 को जनसूचना अधिकारी, अपर मुख्य जिला पंचायत, बहराइच से आवेदन दाखिल कर इस संबंध में जानकारी मांगी। आवेदन में पूछा गया कि जनपद में कुल कितने कांजीहाउस है और कहां-कहां स्थित हैं? बिछिया बाजार कांजीहाउस की स्थापना कब हुई और अब तक के समस्त ठेकेदारों के नाम बताए जाएं। कांजीहाउस में बंद पशुओं के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए? साथ ही पशुओं को छोड़ने के लिए जुर्माने की दर, सम्बंधित नियमों, शासनादेशों की प्रामाणिक छायाप्रति भी मांगी गई।
जवाब में जो जानकारी मिली वो चौंकाने वाली थी। वसूली जाने वाली जुर्माने की राशि और निर्धारित राशि में काफी अंतर था। पता चला कि जिस भैंस को छोड़ने के लिए 150 रूपये वसूले जाते थे, उसकी निर्धारित जुर्माना राशि 25 रूपये है। इसी तरह बकरी को छोड़ने के लिए 5 रूपये, एक वर्ष तक के बछडे़ के लिए 10 रूपये, ऊँट के लिए 25 और हाथी के लिए 50 रूपये की दर निर्धारित थी। यह जानकारी भी मिली कि भैंस की प्रतिदिन की खुराक 6 रूपये, गाय की 5 रूपये, बकरी की 2 रूपये आदि है।
जानवरों की सही दरों की जानकारी मिलने के लिए बाद जंग हिन्दुस्तानी ने सरकारी दरों को फोटोकॉपी करवाकर जगह-जगह छपवा दीं ताकि गांव के सभी लोगों को सही दरों का पता चल जाए और वे अतिरिक्त शुल्क देने से बचें। इस तरह सूचना के अधिकार कानून की बदौलत बिछिया बाजार का कांजीहाउस अब भ्रष्ट ठेकेदारों से चुंगल से मुक्त हो चुका है।

गोसदन की संपत्ति अधिकारी के घर

बहराइच जिले के बिछिया बाज़ार स्थित राजकीय गोसदन में पशु तो एक भी नहीं है, लेकिन यहां के दो कर्मचारी हर महीने 21 हजार रूपये का वेतन घर बैठे पाते हैं। 1952 में बना ये गोसदन बिछिया रेलवे स्टेशन के पास पशुओं के रखरखाव और देखभाल के लिए बना था। लेकिन देखभाल किसी और की हो रही थी। गोसदन के लिए आबंटित 24 कुर्सियां पशुधन विभाग के लोक सूचना अधिकारी के घर की शोभा बढ़ाती मिलीं। 2 लाख 34 हजार की बताई गई गोसदन की परिसंपत्ति मौजूद ही नहीं है, उसे भी अधिकारी अपने निजी हित के लिए इस्तेमाल करते मिले। इस तरह की तमाम अनियमिताएं सूचना के अधिकार के जरिए उजागर हुई हैं।
आवेदनकर्ता जंग हिन्दुस्तानी ने 30 जून 2007 को मुख्य पशुधन विकास अधिकारी से गोसदन के संबंध में अनेक प्रश्न किए। आवेदन में गोसदन की स्थापना के समय और वर्तमान परिसंपत्तियों के बारे में जानकारी मांगी गई। गोसदन की स्थापना से अब तक आए और वर्तमान में मौजूद पशुओं की संख्या, गोसदन में अब तक हुए निर्माण कार्यों की जानकारी, अब तक मृत पशुओं की संख्या, गोसदन में तैनात कर्मचारियों के नाम, पद तथा पते आदि का विवरण भी उपलब्ध कराने को कहा गया। साथ ही 2006 से आगे की कार्ययोजना हेतु स्वीकृत धनराशि की जानकारी भी चाही।
पशुधन विकास अधिकारी कार्यालय की तरफ से 7 अगस्त 2007 को दिए गए जवाब में अधिकांश सवालों के उत्तर नदारद थे लेकिन कुछ जवाब चौंकाने वाले थे। मसलन, वर्तमान में गोसदन में उपलब्ध पशुओं की संख्या सात बताई गई जबकि वहां एक भी पशु नहीं था। गोसदन बनने से अब तक कुल 196 पशु यहां लाए गए जिनमें 189 पशु मर चुके हैं। श्री कुंवर मुकेश गोसदन के मैनेजर के रूप में कार्य कर रहे हैं और इसके रखरखाव के लिए 14 हजार का वेतन पाते हैं। गाय चराने के लिए रखे गए शिवकुमार 7 हजार का वेतन ले रहे हैं।
जवाब में जनवरी 2006 से आगे की कार्ययोजना के बारे में बताया गया है कि पशुओं के खाने के लिए टब, जनरेटर और पानी निकालने के लिए पंप खरीदा जा चुका है तथा बोरिंग कराने की कार्रवाई चल रही है। इस कार्य हेतु 2 लाख 34 हजार रूपये की राशि स्वीकृत की गई।
लेकिन जवाब में बताई गई यह परिसंपत्ति गोसदन में मौजूद नहीं थी बल्कि उसका इस्तेमाल पशुधन विभाग के अधिकारी के घर पर हो रहा था। इसके अलावा गोसदन को आंबटित 24 कुर्सियां भी पशुधन विभाग के अधिकारी के घर इस्तेमाल हो रही थीं।

रातों-रात दुरूस्त हुआ स्कूल

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के बरदिया गांव में सूचना के अधिकार की एक अर्जी ने ऐसा असर दिखाया कि वहां का बदहाल माध्यमिक स्कूल रातों-रात दुरूस्त हो गया। अर्जी दाखिल होते ही अधिकारियों ने मिस्त्री लगाकर स्कूल के टूटे फर्श, टपकती छत और दीवारों से झड़ती बालू को ठीक करवा कर दिया। यह असर सूचना के अधिकार का था।
बरदिया गांव एक थारू जनजाति हुल गांव है। गांव के लोगों को शिकायत थी कि उनके ग्राम पंचायत के पूर्व माध्यमिक विद्यालय के नवनिर्मित अतिरिक्त कक्ष की छत टपक रही है तथा कई जगह पफर्श टूट चुके है। लोगों का कहना था कि स्कूल की जर्जर हो चुकी दीवारों से बालू झड़ती है। ग्रामीणों ने इस अपनी शिकायत के प्रमाण के लिए 3 अगस्त 2007 को स्कूल की जर्जरावस्था तस्वीरें भी खींच लीं। इन्हीं तथ्यों एवं तस्वीरों के आधार पर 3 अगस्त को ही बहराइच के बेसिक शिक्षा अधिकारी को सूचना के अधिकार के तह आवेदन किया गया। आवेदनकर्ता जंग हिन्दुस्तानी ने आवेदन में शिक्षा सत्र 2006-07 के दौरान विद्यालय के संबंध में अनेक प्रश्न पूछे। मसलन, कक्षा वार छात्रा-छात्राओं की संख्या, कुल कितने दिन विद्यालय खुला, कितने दिन मिड डे मील पकाया गया एवं पूरे साल इस पर कितना भुगतान किया गया और इस दौरान कुल कितना गेंहू, चावल और गैस का इस्तेमाल हुआ।
दूसरे प्रश्न में आवेदनकर्ता ने स्कूल में कुल पदों की संख्या, कार्यरतों की संख्या, रिक्त पदों की संख्या, शिक्षा मित्रों की संख्या, छात्रावृत्ति एवं ड्रेस पाने वालों छात्रों के नाम एवं पतों की जानकारी मांगी। तीसरे प्रश्न में आवेदक ने विद्यालय भवन के संबंध में सवाल पूछे जिसमें कुल कक्षों की संख्या, कार्यालय कक्षों की संख्या, प्रयोग किए जा रहे कक्षों की संख्या, अतिरिक्त कक्षों की संख्या तथा प्रयोग न किए जाने वाले कक्षों का कारण जानना चाहा। चौथे प्रश्न में आवेदक ने 2006-07 में स्वीकृत अतिरिक्त कक्षों की संख्या और उक्त वर्ष में बने कक्षों की जानकारी मांगी। अंतिम और पांचवे प्रश्न में जंग हिन्दुस्तानी ने अतिरिक्त कक्ष स्वीकृत होने की तिथि, कक्ष के लिए स्वीकृत धनराशि, निर्माण कार्य शुरू होने की तिथि, निर्माण में लगे मजदूरों के नाम और पते और उनको मिली मजदूरी की जानकारी मांगी। इसके अतिरिक्त निर्माण कार्य में प्रयुक्त ईंट, सीमेंट, बालू, लकड़ी, सरिया आदि सामान का विवरण भी मांगा।
कक्ष की स्थिति पर हां या ना में सवालों के जवाब देने के उद्देश्य से पूछा गया कि क्या स्कूल की छत टपकती है, क्या फर्श टूट गया है, क्या दीवार धंस गई है, क्या दीवार से बालू गिरता है, क्या नींव कम गहरी है और क्या भवन कभी भी गिर सकता है? कक्ष का निर्माण कराने वाले, सत्यापन करने वाले तथा कक्ष के गिरने के लिए जिम्मेदार कर्मचारी एवं अधिकारियों के नाम और पद भी अंत में पूछे गए।
अधिकारियों के आवेदन में पूछे गए सवालों से होश उड़ गए। उन्होंने जवाबों से बचने के लिए रातों रात स्कूल की मरम्मत करवा दी। सूचना न देने पर आवेदनकर्ता ने राज्य सूचना आयोग में शिकायत कर दी है और सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

क्या है सूचना के अधिकार कानून में तीसरा पक्ष

नीरज कुमार
सूचना के अधिकार कानून के नजरिए से देखें तो जो व्यक्ति या आवेदक सूचना मांगता है वह प्रथम पक्षकार माना जाता है और जिस विभाग या लोक प्राधिकारी से सूचना मांगता है वह द्वितीय पक्षकार होता है। इस तरह की सूचनाओं में आमतौर पर किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती। लेकिन यदि आवेदक द्वारा मांगी जा रही सूचना आवेदक से सीधे-सीधे सम्बंधित होकर किसी अन्य व्यक्ति से सम्बंधित हो तो यह अन्य व्यक्ति तृतीय पक्ष कहलाता है। तीसरे पक्ष से सम्बंधित व्यक्ति की सूचना को तृतीय पक्ष की सूचना कहा जाता है। सूचना के अधिकार कानून में तृतीय पक्ष की गोपनीयता को संरक्षित करने का प्रावधान है। कानून की धारा 11 में ऐसी सूचनाएं जो किसी पर-व्यक्ति से सम्बंधित होती है, वह सूचना आवेदक को दिए जाने से पूर्व तीसरे पक्षकार से इजाजत लेनी पड़ती है।

ऐसे मामलों में लोक सूचना अधिकारी की जिम्मदारी होती है कि वह आवेदन प्राप्त होने के पांच दिनों के भीतर तीसरे पक्षकार को इस आशय की सूचना देगा तथा अगले 10 दिनों के भीतर सूचना जारी करने की सहमति या असहमति प्राप्त करेगा। लेकिन कानून में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ऐसी सूचना जिसको जारी करने में किसी प्रकार का सामाजिक हित सधता हो या तीसरे पक्ष की सूचना को जारी करने से होने वाली संभावित क्षति लोक हित से ज्यादा बड़ी न हो तो उस दशा में मांगी गई सूचना जारी की जा सकती है।

कानून में यह एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लोक सूचना अधिकारी को है कि वह मांगी गई सूचना तृतीय पक्षकार व लोक हित को अच्छी तरह समझ बूझ कर जारी करे। लेकिन कई मामलों में देखने में आया है कि लोक सूचना अधिकारी व्यक्तिगत स्वार्थ या विभागीय दबाव के चलते तृतीय पक्ष से सम्बंधित धारा 11 का गलत इस्तेमाल सूचनाओं को जारी करने से रोकने में कर रहे हैं। ऐसा होने से इस महत्वपूर्ण एवं लाभकारी कानून का फायदा आम जनता ठीक से नहीं उठा पा रही है। ऐसे समय में सूचना आयुक्तों की जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है कि वह तृतीय पक्ष से सम्बंधित सूचनाओं को जारी करने में लोक हित का विशेष ख्याल रखें जिससे कानून की मूल भावना पारदर्शिता और जवाबदेयता बची रहे। साथ ही गलत तरीके से सूचनाओं को बाधित करने वाले लोक सूचना अधिकारियों पर कानून की धारा के मुताबिक जुर्माना लगाएं एवं उनके खिलाफ अनुशासनात्कम कार्रवाई की भी अनुशंसा करें।

तीसरे पक्ष से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण फैसले
एक कर दाता द्वारा जमा की गई आयकर रिटर्न की सूचना भी तृतीय पक्ष से सम्बंधित मानी गई है। सूचना आयोग ने एक मामले की सुनवाई के दौरान आयकर रिटर्न की प्रतिलिपि नहीं दिलवाई । आयोग का मानना था कि आयकर रिटर्न से व्यक्ति विशेष की व्यवसायिक गतिविधि का पता चलता है और करदाता द्वारा यह सूचना विभाग को वैश्वासिक संबंधों के तहत दी जाती है, जिसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। लेकिन इसी तरह के एक दूसरे मामले में आयोग ने आयकर एसेसमेंट की जानकारी सार्वजनिक करने में कोई आपत्ति नहीं जताई। जबकि आयकर असेसमेंट में आयकर रिटर्न से अधिक व्यक्तिगत एवं व्यवसायिक सूचनाएं निहित होती हैं। इसी से समझा जा सकता है कि कानून तो सूचना दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन सूचना दी जाए या नहीं इसका सारा दारोमदार सूचना आयुक्त पर ही है।

ऐसे कई मामले भी सामने आए हैं जिसमें सूचना आयुक्तों ने वैश्वासिक संबंध में उपलब्ध कराई गई सूचना लोकहित में उपलब्ध कराने के आदेश दिए हैं। ऐसे ही एक मामले में एक दंपत्ति ने सूचना के अधिकार कानून के तहत एक डॉक्टर के शैक्षणिक प्रमाण पत्रों की प्रतिलिपि मांगी। जिसे मेडिकल संस्थान ने देने से मना कर दिया। संस्थान का यह मानना था कि शैक्षणिक प्रमाण पत्रों की प्रतिलिपियां पर-व्यक्ति की व्यक्तिगत सूचना है जिसे दिए जाने से उसकी निजता का हनन होता है। आयोग में सुनवाई के दौरान दंपत्ति ने यह सूचना लोकहित में जारी करने की दलील दी। उनका कहना था कि शैक्षणिक दस्तावेज जिस डाक्टर के मांगे गए हैं, उसने उनके पुत्र का इलाज किया था और उनके पुत्र की इलाज के दौरान मृत्यु हो गई थी। उन्हें संदेह था कि डाक्टर के दस्तावेज फर्जी हैं। आयोग ने भी इस दलील पर सहमति जताई और सूचना जनहित में जारी करने के आदेश दिए।

उम्मीदों की लौ जगाता सूचना का अधिकार

संतोष झा
मेरठ जिले का नगला शेखू एक ऐसा गांव है, जिसे देखकर ऐसा लगता है कि सूचना का अधिकार कानून अपने मूल मकसद तक पहुंचने में कामयाब हो रहा है। इस गांव के 15-20 किसानों ने आरटीआई का इस्तेमाल किया जिसमें 5 किसानों के कृषि ऋण माफ हो गए हैं। विदित है कि पिछले बजट सत्र के दौरान भारत सरकार ने आने वाले आम चुनावों को भुनाने के लिए 71 हजार करोड़ रफपये का कृषि ऋण माफ करने का ऐलान किया और सरकार आश्वस्त हो गई की किसानों की सारी परेशानियों को अंत हो गया। परंतु सरकार एवं किसानों के बीच बैंक अधिकारियों ने नियम शर्तों का ऐसा मकड़जाल तैयार कर दिया जिसमें छोटे-छोटे किसान कागजी औपचारिकताओं में उलझ गए और सरकार द्वारा दी गई सहूलियत से वंचित रह गए।
इस गांव के इलाहाबाद बैंक की एक शाखा है जिसमें किसानों का बचत एवं ऋण खाता है। सरकार ने किसानों की सुविधा के लिए ग्रीन कार्ड एवं शक्ति कार्ड दे रखे हैं। ग्रीन कार्ड से फसलों के लिए कर्ज मिलता है और शक्ति कार्ड अन्य कर्ज के लिए है। सरकार द्वारा किसानों के कर्ज माफी की घोषणा के बाद गांव के किसानों ने कर्ज माफी के लिए आवेदन किया। वहां के लोगों को कहना है कि छोटे किसानों खासकर जिनके पास एक-दो एकड़ से भी कम जमीन है जो अपनी ऊंची पहुंच भी नहीं रखते हैं और रिश्वत देने में भी असमर्थ हैं, उनका कर्ज माफ करने से यह कहकर मना कर दिया गया कि वे इसके पात्र नहीं हैं। इस बात की जानकारी संजय मलिक द्वारा मिली जो इस गांव के निवासी हैं। जब इस बात की तहकीकात के लिए किसानों के साथ उस गांव के बैंक अधिकारी के पास गए तो अधिकारी ने कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया। जबकि सूचना कानून की धारा 4 कहती है कि हर लोक प्राधिकारी को स्वैछिक घोषणा द्वारा 17 तरह की सूचना जनता तक पहुंचानी पडे़गी। परंतु अधिकारी स्पष्ट तौर पर कुछ भी बताने को तैयार नहीं थे।
इसके बाद करीब 20 किसानों ने आरटीआई कानून के तहत आवेदन तैयार दाखिल कर बैंक से जवाब तलब किया गया। आवेदन में किसानों ने पूछा कि किस नियम के तहत उनका कर्ज माफ नहीं किया गया है। कई किसानों के आवेदन का जवाब तो बाद में आया परंतु 5 किसानों का कर्ज माफी की चिट्ठी आ गई जिनमें मनवीर सिंह के 50 हजार, जयप्रकाश के 48 हजार, इन्द्रपाल सिंह के 32 हजार, सतवीर के 36 हजार और विनोद कुमार का ११०० रुपये का कर्ज माफ हो गया। पर अभी भी कई किसान कर्ज माफी की बाट जोह रहे हैं।
बैंक कर्ज माफ न करने के लिए किस तरह की बहानेबाजी करते हैं, इसकी एक बानगी देखिए-
अजय मलिक ने फरवरी महीने में 38 हजार का बैंक से कर्ज अपने पिता के नाम पर लिया था। कर्जमाफी के उनके आवेदन को बैंक ने यह कहकर खारिज कर दिया कि गन्ना की फसल उगाने वाले किसान कर्जमाफी के पात्र नहीं है। जबकि क्षेत्र के कई गन्ना किसानों का कर्ज माफ हुआ है जिन्होंने अजय मलिक के साथ ही कर्ज लिया था।
इतना ही नहीं बैंक गरीब किसानों की जानकारी के अभाव का भी खूब फायदा उठा रहे हैं। बैंक ने बिना किसानों की अनुमति लिए उनके बचत खाते से पैसा निकालकर ऋण खाते में डाल दिए। जयपाल सिंह, हुसन सिंह, बृजपाल सिंह आदि इसके उदाहरण हैं। कई खाता धारियों का कहना है कि जैसे ही सरकार ने कर्जमाफी की घोषणा वैसे ही बैंक अधिकारियों ने पिछली तारीख में ही उनके बचत खाते से पैसा निकालकर ऋण खाते में डाल दिया जिससे वे कर्ज माफी के दायरे में नहीं आ सके। इसके स्पष्टीकरण के लिए बैंक अधिकारियों से संपर्क किया गया तो उन्होंने चुप्पी साध ली।
सरकार किसानों के कर्जमाफी को अपनी एक बड़ी उपलिब्ध बता रही है और इसके लिए अपनी पीठ थपथपाते नहीं थक रही है। इसके प्रचार के लिए करोड़ों रुपये भी सरकार ने खर्चें हैं। लेकिन वास्तव में किसानों को इसका कितना लाभ पहुंचा है यह गावों में भूख और गरीबी मे जिंदगी जी रहे किसानों की दुर्दशा देखकर पता लगाया जा सकता है। केन्द्र से 1 रुपया चलकर गांव तक आते-आते 15 पैसे हो जाता है, यह बात हमारे प्रधानमंत्री राजीव गाँधी कह चुके हैं, उनके पुत्र राहुल गाँधी भी कह चुके हैं किसानों की 1 रुपये में से केवल 5 पैसा ही पहुंच रहा है। ऊंची विकास दर से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था क्या इसी 95 पैसे की बदौलत कुलांचे भर रही है?

सूचना आयुक्त ही कर रहे हैं कानून से खिलवाड़

भागीरथ श्रीवास
जिनके ऊपर कानून के पालन की जिम्मेदारी है जब वही कानून की धज्जियाँ उड़ाने लगें तो अच्छे से अच्छा कानून दम तोड़ सकता है। सूचना के अधिकार कानून की स्थिति भी कुछ ऐसी ही हो रही है। सम्बंधित लोक सूचना अधिकारियों से सूचना न मिलने पर राज्य सूचना आयोग में अपील करने का प्रावधान है लेकिन अब जरा राज्य सूचना आयोगों की एक बानगी देखिए-
मामला उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग का है। यहां एक अपील पर 15 सुनवाइयां हुईं, 5 सूचना आयुक्तों ने मामला सुना, 5 बार कारण बताओ नोटिस जारी हुए फ़िर भी आवेदक को सूचनाएं नहीं मिलीं। 14 वीं सुनवाई में दो अधिकारियों पर 25-25 हजार जुर्माने के आदेश भी हुए और अगली ही सुनवाई में सूचना आयुक्त ने जुर्माना माफ कर दिया। नाराजगी व्यक्त करने पर सूचना आयुक्त का यह कहना कि मैं जो चाहूंगा आदेश में लिखूंगा, आवेदक मुझे कानून न बताए, सूचना मांगने आए हो या झगड़ा करने, ये कहकर सुनवाई की अगली तारीख 15 जनवरी 2008 तय कर दी।
उन्नाव निवासी देवदत्त शर्मा ने 27 नवंबर 2006 को शिक्षा निदेशालय एवं वित्त नियंत्रक कार्यालय से जो सूचनाएं मांगी थीं, वह अब तक नहीं मिलीं हैं। राज्य सूचना आयोग के 5 सूचना आयुक्तों द्वारा मामले को सुनने के बाद भी न तो आवेदक को वांछित सूचनाएं हासिल हुईं हैं और न ही अधिकारियों पर जुर्माना लगाया गया। हालांकि 14 वीं सुनवाई में जुर्माने का आदेश तो हो गया लेकिन अगली ही सुनवाई में उसे रद्द कर दिया गया।
दरअसल देवदत्त शर्मा को उनकी मृत पत्नी उषा शर्मा की भविष्य निधि की 1 लाख 55 हजार की राशि मिलनी थी। वह श्री नारायण बालिका डिग्री कॉलेज उन्नाव में अध्यापिका थीं। सितंबर 2000 में नगर मजिस्ट्रेट ने लखनऊ के लोकायुक्त को लिखे एक पत्र में इस राशि की पुष्टि भी की थी। बाद में कॉलेज की प्रिंसिपल और उन्नाव के जिला विद्यालय निरीक्षक ने भी यह बात मानी थी। बाजवूद इसके निदेशक ने उन्हें 1 लाख 40 हजार रुपये ही दिए गए यानि 15 हजार कम। देवदत्त शर्मा ने सूचना के अधिकार अन्तर्गत शिक्षा निदेशक और वित्त नियंत्रक कार्यालय से जानना चाहा था कि किस नियम के तहत उन्हें कम रकम दी गई है। लोक सूचना अधिकारियों ने आवेदन का 10 जुलाई 2007 को उत्तर दिया जिसमें जो सूचना दी गईं वह पूरी तरह असत्य, अपूर्ण एवं भ्रामक थीं।
आवेदन में मांगी गई सूचनाएं ने मिलने पर मामला राज्य सूचना आयोग गया, लेकिन आयोग ने भी उनके मामले को गंभीरता से नहीं लिया। सूचना आयुक्त वीरेन्द्र कुमार सक्सेना, संजय यादव, एम ए खान, राम सरन अवस्थी और सुनील कुमार चौधरी ने बारी-बारी से इस मामले को सुना और सभी आयुक्तों ने अधिकारी को कारण बताओ नोटिस भी जारी किए। परंतु लोक सूचना अधिकारी ने नोटिस का जवाब देना तो दूर सुनवाई में हाजिर होना भी जरूरी नहीं समझा। 15 सुनवाइयों में मात्र दो बार लोक सूचना अधिकारी के प्रतिनिधि हाजिर हुए। सूचना आयुक्तों ने जहां लोक सूचना अधिकारियों को मौके पर मौके दिए वहीं आवेदक को हर बार उनसे निराशा ही हाथ लगी।
कानून के साथ खिलवाड़ करने वाले सूचना आयुक्तों को हटाने एवं उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए आवेदक महामहिम राज्यपाल तक गुहार लगा चुके हैं लेकिन इसका नतीजा भी सिफर ही रहा। कहना गलत न होगा कि उत्तर प्रदेश में सूचना का अधिकार कानून सूचना आयुक्त के कारण अपना वजूद खोता जा रहा है।

केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश के बाद भी नहीं मिली सूचनाएं

दिल्ली में आन्ध्रा बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) लेने वाले अरूणेश गुप्ता करीब सात साल से पेंशन पाने के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन उन्हें अभी तक सफलता नहीं मिली है। सूचना का अधिकार कानून भी उनके लिए अधिकारियों और सूचना आयुक्त की मनमानी के आगे नाकाफी साबित हुआ है।
साल 2001 में बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के समय अरूणेश गुप्ता की पेंशन कानून के नियमानुसार 7 हजार होनी चाहिए थी लेकिन बैंक ने मनमाने ढंग से 4 हजार 155 रूपये की पेंशन बना दी। अरूणेश गुप्ता का कहना है कि बैंक ने उनकी पेंशन के आकलन के समय पेंशन कानून का नियम 35 नहीं लगाया और उनके सेवाकाल के 5 वर्षों को नहीं जोड़ा। उनका कहना है कि बैंक ने अपने एक सर्कुलर में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वालों को 5 साल सेवा काल का अतिरिक्त लाभ देने की बात कही थी लेकिन उन्हें यह लाभ देने से वंचित ही रखा गया। बैंक की इस मनमानी की वजह जानने के लिए उन्होंने अनेक चिटि्ठयां लिखीं लेकिन किसी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया गया। अंतत बड़ी उम्मीद के साथ उन्होंने एक अगस्त 2006 को वित्त मंत्रालय में आवेदन दाखिल कर इसका कारण जानना चाहा। लेकिन वहां से भी निराशा ही हाथ लगी।
मंत्रालय से आवेदन में मांगी गई सूचना न मिलने पर आवेदक ने केन्द्रीय सूचना आयोग में अपील की, जहां सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम ने 31 मार्च 2007 को बिना आवेदक को सुनवाई में बुलाए आदेश पारित कर दिया। आवेदक द्वारा इसकी शिकायत करने और तथ्यों का प्रस्तुत करने पर आयोग ने 15 दिनों के भीतर बैंक को सूचना देने का आदेश एवं कारण बताओ नोटिस जारी किया। मार्च 2008 में सूचना देने का एक एक अन्य आदेश फ़िर पारित हुआ। बावजूद इसके आवेदक को अब तक वांछित सूचनाएं नहीं मिली हैं उल्टा मंत्रालय ने उन पर सूचना का अधिकार कानून को दुरूपयोग करने के आरोप लगाए हैं। इस बीच उनका मामला देख रहीं सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम भी सेवामुक्त हो गईं और अब तक उनका मामला लटका हुआ है।

नेशनल बुक ट्रस्ट ने मानी गलती, बदला जाएगा पुस्तक का मुखपृष्ठ

पुस्तकों के प्रकाशन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट (एन बी टी) ने एक आरटीआई आवेदन के जवाब में एक पुस्तक के मुखपृष्ठ पर धूम्रपान करते चित्र को छापने पर खेद व्यक्त किया है और अपनी गलती मानी है। ट्रस्ट ने भविष्य में इसे दोहराए न जाने की बात भी कही है। फरीदाबाद के रहने वाले गौरव बजाज ने आरटीआई आवेदन के जरिए धूम्रपान करते चित्र पर एनबीटी का स्पष्टीकरण मांगा था। दरअसल गजानन माधव मुक्तिबोध की गद्य रचना `डबरे पर सूरज का बिंब´ पुस्तक के मुखपृष्ठ पर छपे चित्र पर आवेदक को आपत्ति थी। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर मुक्तिबोध को धूम्रपान करते दिखाया गया था।
आवेदन में गौरव बजाज ने पूछा था कि धूम्रपान को प्रोत्साहित करने वाला यह चित्र किसकी गलती से छप गया और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आवेदन में गौरव ने कहा कि चित्र से धूम्रपान विरोधी चल रहे अभियान को इस पुस्तक ने किसी न किसी रूप में नुकसान पहुंचाया है। इस नुकसान की क्षतिपूर्ति कैसे होगी। आवेदक ने यह भी पूछा कि आने वाले समय में ऐसी गंभीर चूकें न हों इस सिलसिले में नेशनल बुक ट्रस्ट क्या कदम उठाएगा।
आवेदन का जवाब देते हुए एनबीटी ने धूम्रपान करते चित्र छापने की गलती स्वीकार करते हुए कहा कि एनबीटी इसके लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है। ट्रस्ट ने यह भी कहा कि एनबीटी इस चूक का निराकरण भविष्य में पुस्तक का मुखपृष्ठ बदलकर किया जाएगा। साथ ही यह भी कहा कि भविष्य में ऐसी चूकें न हों, इसके लिए ट्रस्ट और अधिक सर्तकता बरतेगा।

शैलेष गाँधी पर मिलीभगत का आरोप

जिस केन्द्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, उन्हीं पर आरटीआई आवेदक आर डी मिश्रा ने पक्षपात और लोक सूचना अधिकारी (पीआईओ) से मिलीभगत का आरोप लगाया है। आर डी मिश्रा का कहना है कि शैलेष गाँधी ने सुनवाई के दौरान बिना उनका पक्ष सुने, केवल लोक सूचना अधिकारी की दलीलों के आधार पर अपना फैसला सुनाकर मामला खत्म कर दिया। आवेदक का तो यहां तक कहना है कि लोक सूचना अधिकारी ने सुनवाई से पहले ही सूचना आयुक्त से मिलकर अपना पक्ष रख दिया था।

आर डी मिश्रा ने दिल्ली नगर निगम के संपत्ति कर विभाग से 24 अक्टूबर 2007 को आरटीआई आवेदन के जरिए स्थानांतरण नीति और राजस्व कर इंस्पेक्टर का तबादला न होने का कारण जानना चाहा था। आवेदक को नियत समय में मांगी गई सूचना तो नहीं मिली लेकिन इंस्पेक्टर की तरफ से भेजा गया कोर्ट का नोटिस जरूर मिल गया। नोटिस में कहा गया था कि आवेदक ने जो जानकारी मांगी है, उससे इंस्पेक्टर की विभाग में बेइज्जती हुई है, इसलिए वह मानहानि के लिए 15 लाख रुपये का हर्जाना दे। इसके बाद राजस्व कर इंस्पेक्टर ने कोर्ट में केस कर दिया और आवेदक से 10 लाख रुपये हर्जाने के रुप में मांगे। हैरान आवेदक का कहना है तबादला न होने की सूचना मांगने पर किसी की मानहानि कैसे हो सकती है?

आवेदक ने बड़ी उम्मीद के साथ केन्द्रीय सूचना आयोग में अपील की। 26 दिसंबर 2008 को हुई सुनवाई में सूचना आयुक्त ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली और केवल सूचना देने का आदेश देकर पल्ला झाड़ लिया। कानून का इस्तेमाल करने पर अधिकारी द्वारा आवेदक को परेशान क्यों किया जा रहा है, इस पर सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने आवेदक को कोई राहत नहीं दिलाई।

और मैं आरटीओ दलाल से आरटीआई कार्यकर्ता बन गया.....

कानपुर के शंकर सिंह पहले स्थानीय परिवहन कार्यालय (आरटीओ) मे दलाली करते थे लेकिन अब समाज से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर चुके हैं। इसके लिए वे सहारा ले रहे हैं सूचना के अधिकार का। हालांकि इसकी कीमत उन्हें परिवार से बेदखल होकर चुकानी पड़ी है। अक्सर जान से मार देने की धमकियाँ मिलती रहती हैं। इन सब के बावजूद भी उन्हें अब जीने में मजा रहा है। अपने जीवन में आए इस परिवर्तन को उन्होंने अपना पन्ना के साथ साझा किया। प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश-

आपकी कहानी बड़ी दिलचस्प है। कैसे आया यह बदलाव?
पहले मैं आरटीओ कार्यालय में होने वाले काम में दलाली खाता था। ओवरलोडिंग ट्रक से वसूली की जाती थी और मैं भी इस भ्रष्टाचार में शामिल था। मुझे जनवरी 2006 में एक कार के फर्जी रजिस्ट्रेशन के मामले में फंसा दिया गया था, जिससे मेरी काफी बेइजती हुई थी। मेरे साथ मारपीट भी की गई। मुझे ये सब बहुत बुरा लगा। सूचना के अधिकार के बारे में पता चलने के बाद मैनें आरटीओ कार्यालय से ही सबसे पहले सवाल पूछे और कार्यालय के सामने सबसे पहले आरटीआई कैंप लगाया। इस प्रकार आरटीओ दलाल से आरटीआई कार्यकर्ता बन गया।

कमाई में पहले और अब की स्थिति में क्या बदलाव आया है? पुराने साथियों और अधिकारियों का रुख कैसा है?
अब मैं बहुत तंगी में जी रहा हूं। मेरे करीब 300 साथी थे। वे कहते हैं कि अधिकारी उनपर रिश्वत लेने के लिए दबाव डालते हैं। उनकी रोजी-रोटी इससे जुड़ी है, वे मजबूरी में रिश्वत ले रहे हैं क्योंकि उन्हें अफसरों का पेट भरना होता है। अफसरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। अब तो उनकी रिश्वत और भी अधिक हो गई है। 360 रुपये के लाइसेंस फीस में 840 रुपये की रिश्वत ली जाती है।

तमाम परेशानियों के बावजूद अब जिंदगी कैसी लग रही है?
अब जीने में मजा आ रहा है। मैं अपने कामों से काफ़ी संतुष्टि महसूस करता हूं। लेकिन यदि दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो तो ज्यादा सुकून मिलेगा।

आपके अंदर आए बदलाव को लेकर परिवार का रुख कैसा रहा?
परिवार में बहुत विरोध हुआ। बातचीत बंद हो गई और मुझे परिवार से अलग होना पड़ा। मुझे अब अपना पुश्तैनी घर छोड़कर किराए के मकान में रहना पड़ रहा है। घर वालों को समझाया तो वे बोले- दुनिया के साथ चलो। गाँधी मत बनो। मेरे अकेले से बदलाव नहीं आएगा

सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से क्या धमकियाँ भी मिलीं?
हां। आये-दिन धमकियाँ मिलती रहती हैं। उप जिलाधिकारी से सूचना मांगी तो उन्होनें उल्टा मुझसे ही सवाल पूछने शुरू कर दिए कि बताओ तुम्हारी शर्ट में कितने बटन हैं, तुम्हारी बीबी ने कल कौन सी साड़ी पहनी थी आदि-आदि। डीएम कार्यालय से तो हमें धक्के देकर कमरे से निकाल दिया गया। कस्टम विभाग से सूचना मांगी तो उन्होंने ऑफिस में ही बंद करवा दिया। ये अधिकारी लोग पेनल्टी लगने पर भी नहीं सुधार रहे हैं।

सूचना लेने में क्या अड़चनें आ रही हैं?
जन सूचना अधिकारी जानकारी देने को तैयार ही नहीं हैं। झूठी सूचना दे देते हैं क्योंकि सूचना देने से वे खुद ही फंस जाते हैं। अपीलीय अधिकारी और लोक सूचना अधिकारी की आपस में सांठगांठ होती है। सूचना आयुक्त भी बिकाउ हैं। शासन-प्रशासन दोनों कानून को खत्म करना चाहते हैं।

आगे क्या करने का इरादा है?
हम लोग नरेगा में हो रही धांधली को आरटीआई से उजागर करने की तैयारी कर रहे हैं। किसानों की अनेक समस्याएं हैं। उनके जॉब कार्ड नहीं बनाए जा रहे हैं। खाद्य और आपूर्ति विभाग में भी काम करने का विचार है। 12 किलो की जगह केवल 7 किलो राशन लोगों को दिया जा रहा है।

मंदिर ट्रस्ट के अधिकारियों ने हड़पे 1.3 करोड़

ईश्वर का पवित्र स्थान माने जाने मंदिर भी भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से अछूते नहीं हैं। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मिली है कि उड़ीसा के पुरी जिले के काकटपुर में स्थित मां मंगला मंदिर में 1.3 करोड़ का फंड मंदिर के अधिकारियों हड़पा है। इस घोटाले का पर्दाफाश काकटपुर निवासी 42 वर्षीय नरगिह बहर के आरटीआई आवेदन से हुआ है।
आवेदन के अन्तर्गत प्राप्त जानकारी के अनुसार मंदिर ट्रस्ट को 2006-07 के दौरान मंदिर की दुकानों की नीलामी से 16 लाख 65 हजार 750 रफपये प्राप्त हुए लेकिन अधिकारी प्रमोद कुमार मोहंती ने काकटपुर स्थित पुरी ग्राम्य बैंक में महज 9 लाख 48 हजार 675 रुपये ही जमा कराए। इसी तरह मार्च 2005 में भोग और पूजा की दुकानों की नीलामी से 2 लाख 82 हजार 800 रुपये हासिल हुए जिसे बैंक में जमा तक नहीं कराया गया। इसके अतिरिक्त 2005-06 के दौरान दान पात्र खोलते समय 2 लाख 63 हजार 352 रुपये एकत्रित किए गए और इस खोलते वक्त जनता को आमंत्रित नहीं किया गया। जवाब में पता चला कि 2006-07 में पात्र से प्राप्त हुई धनराशी को मंदिर की आय में नहीं बताया गया। इस तरह अधिकारियों ने मंदिर ट्रस्ट के कुल 1.3 करोड़ रुपये का गबन कर लिया।
नरगिस बहर ने बताया कि इस पूरे घोटाले में मंदिर ट्रस्ट के तीन अधिकारी सुकांत कुमार जीना, उग्रसेन जीना और प्रमोद कुमार मोहंती संलिप्त रहे। सुकांत कुमार जीना 2003-04 के दौरान मंदिर ट्रस्ट एक्ज्यूक्यूटिव अधिकारी रहे, 2004-05 के दौरान उग्रसेन जीना और 2005 से 2008 तक प्रमोद कुमार मोहंती इस पद पर रहे। आवेदन के तहत हासिल आडिट रिपोर्ट बताती है कि सुकांत कुमार जीना और उग्रसेन जीना के कार्यकाल में करीब 68 लाख का घपला हुआ जबकि प्रमोद कुमार मोहंती से समय 62 लाख का घोटाला हुआ।
नरगिस बहर को जैसे ही मंदिर में व्याप्त इन अनिमितताओं और घोटाले की भनक लगी तो उन्होंने सूचना के अधिकार जरिए अधिकारियों का सारा काला चिट्ठा जनता के सामने ला दिया। मामला सामने आते ही एन्डोवमेंट कमिश्नर एल पांडा ने प्रमोद कुमार मोहंती को बर्खास्त कर दिया और पुलिस ने मामले की तह तक जाने के लिए जांच शुरू कर दी है।

हरियाणा के आधे स्कूलों में नहीं हैं हेडमास्टर

हरियाणा के शिक्षा विभाग में दायर सूचना के अधिकार आवेदन से जानकारी मिली है कि राज्य के लगभग 50 प्रतिशत स्कूलों में हेडमास्टर नहीं हैं। हेडमास्टरों के 2004 पदों में से 984 पद रिक्त पडे़ हैं। इनमें 607 पद हाईस्कूल और 377 पद मिडिल स्कूल के हेडमास्टरों के हैं। हरियाणा के जीन्द निवासी सतपाल द्वारा दाखिल आरटीआई आवेदन के जवाब में यह जानकारी मिली है।
शिक्षा विभाग के मुताबिक हेडमास्टरों के 75 प्रतिशत पद शिक्षकों को पदोन्नत करके भरे जाते हैं जबकि 25 प्रतिशत हेडमास्टरों की सीधी नियुक्ति होती है। स्कूलों की यह स्थिति हाल ही में 426 हेडमास्टरों की नियुक्ति के बाद है। मिडिल स्कूलों में 377 रिक्त पदों के अलावा 12 सौ अन्य मिडिल स्कूल ऐसे हैं जिनमें हेडमास्टरों की कोई व्यवस्था नहीं है, जबकि ये स्कूल शिक्षा विभाग के सभी मापदंडों पर खरे उतरते हैं।
राज्य में शिक्षा के हालात का अंदाजा फतेहगढ़ जिले के गोरखपुर गांव के बालिका उच्च विद्यालय को देखकर लगाया जा सकता है। इस स्कूल को लगभग 7 महीने पहले हेडमास्टर नसीब हुआ है, वह भी 14 साल बाद। स्थानीय निवासियों और विधायक के दखल देने के बाद ही स्कूल को शिक्षक और हेडमास्टर मिल पाए। निकटवर्ती मोची और चोबारा गांव के स्कूलों की दशा भी बेहतर नहीं है। दोनों स्कूल बिना हेडमास्टर के चल रहे हैं।
सूचना के अधिकार के जरिए इस खुलासे के बाद शिक्षा मंत्री राजन गुप्ता ने खाली पदों को भरने का आश्वासन दे दिया है। हालांकि उन्होंने माना है कि पिछले कई सालों से पदोन्नति से भरे जाने वाले पद अनेक कारणों के चलते नहीं भरे गए हैं।

सूचना देने के लिए मांगे 8 लाख रूपये

हरियाणा राज्य औद्योगिक एवं संरचनात्मक विकास निगम ने आरटीआई आवेदनकर्ता एच आर वैश्य से मांगी गई सूचना उपलब्ध कराने के लिए 8 लाख रूपये की मांग की है। वैश्य ने निगम द्वारा गुड़गांव के उद्योग विहार में उद्यमियों को आबंटित किए प्लॉट, उसके बदले लिया गया शुल्क और क्षेत्र के विकास में खर्च की गई राशि का ब्यौरा मांगा था। इस पर निगम के लोक सूचना अधिकारी की तरफ से सूचना शुल्क के लिए 8 लाख 27 हजार रूपये की मांग की गई। बताया गया कि 4 लाख रूपये दो हजार प्लॉट के विवरण से सम्बंधित कागजों के हैं। प्रत्येक प्लॉट का विवरण 20 पेज में है। 4.27 लाख की राशि अन्य सूचनाओं के लिए मांगी गई। गौरतलब है हरियाणा में आवेदन शुल्क 50 रूपये और छायाप्रति शुल्क 10 रूपये प्रति पेज रखा गया है।
आवेदनकर्ता ने निगम से सीडी में सूचना मांगी ताकि छायाप्रति शुल्क एवं अन्य शुल्कों को सैकड़ों में लाया जा सके लेकिन निगम के लोक सूचना अधिकारी जीवन भारद्वाज ने सीडी में सूचना देने से मना कर दिया और दलील दी कि बहुत से लोग उन्हें तंग करने के लिए सूचना के अधिकार का दुरूपयोग कर रहे हैं। उनका कहना था कि वैश्य ने जो सूचना मांगी वो निगम के इतिहास की जानकारी मांगने के बराबर है। हम सीडी में सूचना नहीं दे सकते क्योंकि सारा डाटा सीडी में देने योग्य नहीं है।

सूचना अधिकारी को भी नहीं पता कानून के प्रावधान

सूचना के अधिकार के तहत 30 दिन में सूचना न मिलने पर नि:शुल्क सूचना देने का प्रावधान है पर भोपाल के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी ही इस प्रावधान से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि डेढ़ महीने में भी सूचना न मिलने पर भोपाल के जानो रे अभियान के कार्यकर्ता प्रशांत कुमार दूबे ने जब प्रथम अपील की तो अधिकारी ने उनसे सूचना देने के लिए पैसे मांगे। एक अक्टूबर को स्वास्थ्य विभाग कार्यालय के अपीलीय अधिकारी को प्रशांत कुमार दूबे ने याद दिलाया कि सूचनाधिकारी कानून की धरा 7 के मुताबिक 30 दिन की अधिकतम समयावधि बीत जाने के बाद सूचना नि:शुल्क मिलनी चाहिए। इस पर अधिकारी भड़क गए और उनके साथ अभद्र व्यवहार करने लगे।
बाद में अधिकारियों ने बताया कि हमें इस प्रावधान की जानकारी नहीं है। आवेदक ने जब उन्हें अधिनियम की प्रति दी और कहा कि इसके आधार पर उन्हें सूचना नि:शुल्क मिलनी चाहिए। अधिकारियों ने आवेदक द्वारा प्रस्तुत किए गए अधिनियम की प्रति की तुरंत छायाप्रति करवाई और कहा कि हमारे पास इसकी प्रति है ही नहीं।
सूचना के अधिकार के तीन वर्ष पूरे होने के बाद भी राज्यों के सचिवालयों में स्थिति यह है कि अधिकारियों को कानून की जानकारी नहीं है और वो उल्टे सूचना मांगने वालों के साथ अभद्र व्यवहार करते हैं। क्या ऐसे अधिकारियों से कानून के ठीक से क्रियान्वयन की उम्मीद की जा सकती है?

पेंशन के लिए दर-दर भटकने को मजबूर स्वतंत्रता सैनानी

जिन स्वतंत्रता सैनानियों ने आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, उनके लिए न तो राज्य सरकार गंभीर है और न ही केन्द्र। सरकार के इसी सौतेले बर्ताव के कारण 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने वाले शारदानंद सिन्हा पिछले 18 वर्षों से स्वतंत्रता सैनानी पेंशन के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। राज्य के गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक गुहार लगा चुके हैं लेकिन किसी ने उनकी तरफ ध्यान तक नहीं दिया। 21 अप्रैल 2008 को खत के माध्यम से अपनी व्यथा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बताई लेकिन मुख्यमंत्री के यहां से भी निराशा ही हाथ लगी।
शारदानंद सिन्हा ने 28 सितंबर 1991 में स्वतंत्रता सैनानी पेंशन के लिए पटना स्थित स्वतंत्रता सैनानी निदेशक के यहां आवेदन दिया था। आवेदन के साथ उन्होंने 1951 में शाहबाद (वर्तमान भोजपुर) के जिलाधिकारी द्वारा जारी किया गया स्वतंत्रता सैनानी का प्रमाण पत्र भी संलग्न किया था। स्वतंत्रता सैनानी के सम्पूर्ण साक्ष्य होने के बावजूद उनके आवेदन पर विचार नहीं किया गया। न तो उन्हें पेंशन दी गई और न ही किसी अन्य प्रकार की सुविधा। सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर इसकी वजह जाननी चाही लेकिन वह भी बेअसर साबित हुआ। आरटीआई आवेदन पत्र प्राप्ति की रसीद तो उनके पास आती रही लेकिन संतोषजनक जवाब कहीं से नहीं मिले। राज्य सूचना आयोग ने भी बिना विचार किए उनकी याचिका खारिज कर दी। राज्य सरकार ने आवेदन के एक जवाब में कहा कि 31 मार्च 1982 के बाद के आवेदन पर विचार नहीं किया जा सकता जबकि केन्द्र सरकार वर्ष 1996 तक के आवेदन पर पर विचार करने की बात कहती है।
शुरूआत में शारदानंद सिन्हा ने पेंशन के लिए आवेदन इसलिए नहीं किया क्योंकि वे उस वक्त आत्मनिर्भर थे बोकारो इस्पात फैक्ट्री में नौकरी करते थे। (उस समय झारखंड राज्य नहीं बना था और बोकारो बिहार के अन्तर्गत आता था) इस कारण सरकार से सहायता लेना ठीक नहीं समझा। रिटायरमेंट के बाद जब बुढ़ापे ने दस्तक दी और उनका शरीर जवाब देने लगा तो उन्हें सरकार से पेंशन लेने की जरूरत महसूस हुई लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। राज्य, केन्द्र और सूचना आयोग में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों ने उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया।
शारदानंद ने जिन ब्रिटिश शासकों के जुल्मों के आगे घुटने नहीं टेके वही अब भ्रष्ट अधिकारियों के सामने लाचार नजर आ रहे हैं। पेंशन के पैसों से अधिक उन्हें उस सम्मान की दरकार है जिसके वे हकदार हैं।

कब थमेगा सूचना मांगने वालों के दमन का सिलसिला?

सूचना का अधिकार भ्रष्ट अधिकारियों एवं संगठनों के गले की फांस बन गया है। भ्रष्ट लोगों को जब लगता है कि सूचना का अधिकार उन्हें बेपर्दा कर देगा तो वे उससे बचने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकते। कभी सूचना देने वाले को धमकाते और पिटवाते हैं तो कभी उन्हें फंसाने के लिए झूठी एफआईआर दर्ज करवा देते हैं, ताकि सूचना मांगने वाले का हौसला ही पस्त हो जाए।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में रहने वाले रौबी शर्मा के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। रौबी शर्मा सूचना के अधिकार के जरिए दैनिक जागरण समूह और कानपुर विकास प्राधिकरण (केडीए) की मिलीभगत का पर्दाफाश कर चुके हैं। उनका कहना है कि केडीए ने सभी नियमों और कानूनों को ताक पर रखकर दैनिक जागरण समूह को करीब साढ़े पांच एकड़ जमीन मल्टीप्लेक्स बनाने को दे दी। मास्टर प्लान के अनुसार जागरण को दी गई जमीन आयुर्वेदिक पार्क और शमशान घाट हेतु थी। वर्तमान में इस जमीन पर जागरण समूह के रेव मल्टीप्लेक्स बने हुए हैं। इस मामले में वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका भी दाखिल कर चुके हैं।
रौबी शर्मा का कहना है कि मुंह बंद करने के लिए पहले उन्हें रुपयों की पेशकश की गई, फ़िर धमकी मिली और अब जागरण के इशारों पर झूठी एफआईआर दर्ज करा दी गई है। एफआईआर दर्ज कराने वाले रामसिंह ने आरोप लगाया है कि रौबी शर्मा ने उन्हें नौकरी का आश्वासन देकर 2 हजार रूपये लिए और जब नौकरी न मिलने पर पैसे मांगे तो रौबी शर्मा ने उन्हें जातिसूचक गालियां दीं और पैसे भी वापस नहीं किए। जबकि रौबी शर्मा का कहना है कि वह उस व्यक्ति को जानते तक नहीं।
बकौल रौबी शर्मा यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि जेल भिजवाकर उन्हें किसी बहाने से मरवा डालें तथा गंभीर आरोपों में फंसा दिखाकर माननीय उच्च न्यायालय को गुमराह करें और उनके द्वारा दाखिल जनहित याचिकाओं को बेअसर साबित कर सकें। अपने साथ हो रहे अन्याय की आवाज वे एसएसपी, राज्य की मुख्यमंत्री , प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति आदि तक पहुंचा चुके हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई राहत नहीं मिली है।

भ्रष्टाचार के खुलासे के बाद शुरू हुई प्रताड़ना

मध्य प्रदेश के 11 जिलों से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम की जानकारी मांगने और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करने पर बड़वानी जिले के अब्दुल मोहीन को लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग और पुलिस ने प्रताड़ित और परेशान करना शुरू कर दिया। साथ ही लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के कार्यपालक अभियंता ने उनके बीपीएल कार्ड धारक होने पर सवाल उठाते हुए एसडीएम से जांच भी बिठवा दी। हालांकि जांच में वे ठीक पाए गए, उसके बाद ही खरगौन जिले से उन्हें वांछित सूचनाएं उपलब्ध कराई गईं।
दरअसल अब्दुल ने मोहीन ने सूचना के अधिकार के जरिए खुलासा किया था कि प्रदेश के जिलों में जो राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी नियंत्रण कार्यक्रम चल रहा है उसमें बड़े पैमाने पर घोटाला और धांधली हुई है। इस कार्यक्रम के तहत हर गांव में 25 लोगों को प्रशिक्षण दिया जाना था जिनमें 15 सरकारी कर्मचारी और 10 जनप्रतिनिधियों को शामिल होना था। प्रशिक्षण में मूलत: यह बताया जाना था कि पीने के पानी की गुणवत्ता कैसी होनी चाहिए और कौन-सा पानी पीने योग्य है। एक गांव के प्रशिक्षण के लिए 2650 रूपये की राशि की स्वीकृति मिली। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने एक टेंडर जारी कर वसुधा विकास संस्थान नाम की गैर सरकारी संस्था को यह दायित्व सौंप दिया।
मोहीन का कहना है कि संस्था ने फर्जी दस्तावेज तैयार किए और बिल विभाग को भेज दिया। सूचना के अधिकार के अन्तर्गत जब उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त लोगों की सूची बड़वानी जिले से निकलवाई तो प्रशिक्षित गांव में वे लोग नहीं पाए गए जिनका नाम उस सूची में शामिल था। खरगौन, धार, झबुआ, खंडवा आदि आदिवासी जिलों से भी सूचना के अधिकार से यही जानकारी मिली। मोहीन ने पुलिस में भी संस्था की शिकायत की। मोहीन कहते हैं कि पुलिस ने 2 लाख रूपये की घूस लेकर मामला दबा दिया और उन्हीं को परेशान करने लगे। पुलिस थाने में दर्ज मोहीन के बयान की कॉपी भी नहीं दी गई और उल्टा उन्हीं से बोला गया कि तुम्हें बोलने का अधिकार नहीं है। मोहीन लोक यांत्रिकी विभाग और गैर सरकारी संस्था पर पिछडे़ आदिवासी जिलों के लोगों के हितार्थ चलाए जा रहे इस कार्यक्रम धांधली का आरोप लगा रहे हैं। और इन आरोपों को पुख्ता करने वाले तमाम सबूत भी उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए निकलवाए हैं। वे अब भ्रष्टाचार और स्वयं को प्रताड़ित करने के मामले को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की तैयारी में हैं।

सात सुनवाइयों के बाद भी नहीं मिली सूचना

उत्तर प्रदेश सूचना आयोग के आयुक्त संजय यादव ने आरटीआई आवेदनकर्ता आशा भटनागर की अपील की सात सुनवाइयां करने के बाद भी मांगी गई सूचनाएं नहीं दिलाईं हैं। 25 अक्टूबर 2006 में आयोग में गए इस मामले में सूचना के बजाय हर बार एक नई तारीख मिल जाती है। आवेदनकर्ता करीब 70 वर्षीय हैं जिन्हें हर बार सुनवाई के लिए दिल्ली से लखनउ जाना पड़ता है, जिनकी आयोग में जाने की हिम्मत भी अब जवाब देने लगी है।
दरअसल आशा भटनागर ने 1979 में उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद में 5 हजार रूपये में पठानपुरा स्कीम, सुल्तानपुर के तहत प्लॉट का पंजीकरण कराया था जो 26 बरस गुजर जाने के बाद भी नहीं मिला। प्लॉट न मिलने की वजह जानने के लिए ही आशा भटनागर ने 22 जुलाई 2006 को आरटीआई आवेदन दाखिल कर उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद से पूछा कि क्या यह स्कीम अब भी लागू है या नहीं। आवेदन में यह भी पूछा कि क्या स्कीम के तहत नोएडा, गाजियाबाद आदि स्थानों में प्लॉट मिल सकता है।
तय समय सीमा के अंदर न तो परिषद के लोक सूचना अधिकारी ने जवाब दिया और न ही अपीलीय अधिकारी ने। इस संबंध में संपत्ति प्रबंधक की तरफ से 6 अक्टूबर 2006 को एक पत्र अवश्य मिला जिसमें आधी अधूरी सूचनाएं थीं। मामला अन्तत: आयोग में गया लेकिन वहां भी सूचना आयुक्त संजय यादव ने मामले को लटकाए रखा। 15 मई 2008 को आयुक्त द्वारा दी गई सुनवाई के तारीख में आवेदक तो पहुंच गए लेकिन खुद सूचना आयुक्त संजय यादव गैरहाजिर हो गए। आवेदनकर्ता ने अब सूचना प्राप्त होने की आस छोड़ दी है और अगली सुनवाई में न जाने पर विचार कर रहे हैं। देखने वाली बात यह है कि जब सूचना आयुक्त का रवैया ही इस तरह का है तो लोक सूचना अधिकारियों से क्या उम्मीद की जाए।

सूचना देने के लिए मांग 2500 रूपये

पहले ढाई हज़ार रूपये जमा करो, उसके बाद सूचना मिलेगी। ये दो टूक जवाब था बहराइच के नानपारा नगर के विद्युत वितरण उपखंड एवं लोक सूचना अधिकारी का। आवेदनकर्ता भोलेनाथ ने लोक सूचना अधिकारी से बहराइच के कैलाशपुरी क्षेत्र में बिजली के कनेक्शन की संख्या, लोगों को जारी की गई आर सी एवं उस पर की गई कार्रवाई, क्षेत्र में नियुक्त कर्मचारियों की संख्या आदि के बारे में जानना चाहा था। भोलेनाथ को 30 दिन की अवधि में आवेदन में पूछे गए प्रश्नों के जवाब तो नहीं मिले लेकिन उक्त राशि जमा करने का संदेश जरूर मिल गया।

सोमवार, 5 जनवरी 2009

दिल्ली नगर निगम आरटीआई की अवहेलना में सबसे आगे

यह उपलब्धि दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) ने 3 लाख 81 हजार का जुर्माना खाकर हासिल की है। केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा सूचना के अधिकार की अवमानना के लिए किसी विभाग पर लगाया गया यह सबसे अधिक जुर्माना है। आयोग ने अपने गठन से अगस्त 2008 तक कुल 146 मामलों में जुर्माना लगाया है जिसमें 32 जुर्माने दिल्ली नगर निगम के लोक सूचना अधिकारियों के नाम हैं। आयोग विभिन्न लोक प्राधिकरणों के लोक सूचना अधिकारियों पर करीब 21 लाख रुपये का जुर्माना लगा चुका है।
केन्द्रीय सूचना आयोग ने यह जानकारी आरटीआई कार्यकर्ता सिद्धार्थ मिश्रा के आवेदन के जवाब में दी है। आयोग के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी तरून कुमार ने जानकारी दी कि अगस्त 2008 तक निगम पर कुल लगाए गए 3.81 लाख रुपये के जुर्माने में से 2 लाख 71 हजार अभी तक वसूले नहीं जा सके हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग ने समस्त 146 मामलों में कुल 21 लाख 69 हजार रुपये का जुर्माना आयोग ने लगाया है।
दिल्ली नगर निगम के बाद नंबर आता है दिल्ली प्रशासन और दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का। कानून की अवमानना करने पर दिल्ली प्रशासन पर कुल 13 बार और दिल्ली विकास प्राधिकरण पर आठ बार जुर्माना लग चुका है।

उप रजिस्ट्रार पर दस हजार का जुर्माना

पंजाब राज्य सूचना आयुक्त रवि सिंह ने डेरा बस्सी तहसील कार्यालय के उप रजिस्ट्रार एवं लोक सूचना अधिकारी पर आरटीआई आवेदक को सूचना न देने और सुनवाई के दौरान आयोग में अनुपस्थित रहने पर दस हजार का जुर्माना लगाया है। लोक सूचना अधिकारी ने जीरकपुर निवासी आर सी खुराना को न तो आवेदन में मांगी गई सूचनाएं दीं और न ही वो आयोग की तीन सुनवाई में उपस्थित हुए। आयोग के कारण बताओ नोटिस का भी लोक सूचना अधिकारी ने कोई जवाब नहीं दिया। अधिकारी के इस रवैये को देखकर आयोग ने पाया कि अधिकारी जानबूझ कर सूचना नहीं दे रहे हैं। अत: आयोग ने सख्त रुख अपनाते हुए लोक सूचना अधिकारी पर 10 हजार का जुर्माना लगा दिया और आवेदक को 15 दिनों में सूचना उपलब्ध कराने के आदेश दिए।

शिक्षा विभाग के लोक सूचना अधिकारी पर 25 हजार का जुर्माना

केन्द्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के लोक सूचना अधिकारी पर आरटीआई आवेदन में पूछे गए सवालों के जवाब न देने पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है।
आवेदनकर्ता प्रकाश कुमार ने शिक्षा विभाग के लोक सूचना अधिकारी से वसंत वैली और रेयान इंटरनेशनल स्कूल में आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चों के कोटे के तहत दिए गए दाखिले के संबंध में जानकारी मांगी थी। आवेदन में पूछा गया था कि इस कोटे के अन्तर्गत स्कूल को कितने आवेदन प्राप्त हुए हैं और कितने बच्चों को दाखिला दिया गया है। आवेदनकर्ता ने शिक्षा विभाग से यह प्रश्न भी पूछा था कि कोटे के तहत दाखिला न देने पर स्कूल के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाती है? आवेदन का जवाब न मिलते देख प्रथम अपील दायर की गई लेकिन वहां से भी कोई जवाब नहीं प्राप्त हुआ। अन्तत: मामला केन्द्रीय सूचना आयोग पहुंचा जहां अधिकारी को जानकारी न देने पर कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। नोटिस का संतोषजनक जवाब न मिलने पर सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने लोक सूचना अधिकारी पर 25 हजार का जुर्माना लगा दिया और शीघ्र सूचना देने के आदेश दिए।

रिटायर्ड शिक्षक ने पाई भविष्य निधि

सूचना का अधिकार श्याम करन यादव के लिए वरदान साबित हुआ है। इस कानून की मदद से उन्होंने अपने पिता नत्थूमल यादव का दो साल से रुका हुआ पेंशन हासिल किया है।
आजमगढ़ के चंदेश्वर में स्थित श्री दुर्गा जी जूनियर हाई स्कूल से जून 2006 में नत्थूमल यादव रिटायर हुए थे। रिटायरमेंट के बाद जब उन्होंने भविष्य निधि के लिए आवेदन किया तो स्कूल ने चुप्पी साध ली। अपने पिता को पीएफ न मिलते देख श्याम करन यादव ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत जानना चाहा कि किस कारण उनके पिता का पीएफ रोका गया है। उन्होंने पूछा कि यदि उनके पिता का पीएफ स्कूल के किसी बकाया के आधार पर रोका गया है तो वह राशि बताई जाए।
स्कूल प्रशासन ने उनके आरटीआई आवेदन का जवाब देना उचित नहीं समझा। मामला सूचना आयोग में गया जहां सूचना आयुक्त बृजेश कुमार मिश्रा ने सुनवाई के बाद स्कूल को मांगी गई सूचना देने का आदेश दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि स्कूल प्रशासन हरकत में आया और श्याम करन यादव के पिता का पीएफ मिल गया।

मिलने लगा राशन

बवाना के ही रहने वाले सुबोध का राशन कार्ड, डीलर ने बोगस बताकर रद्द कर दिया। कार्ड दुरूस्त कराने के लिए सुबोध ने एक फार्म भरा और लेकिन उस पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। लेकिन जैसे ही सूचना के अधिकार के जरिए भरे गए फार्म पर की गई दैनिक प्रगति रिपोर्ट मांगी गई, उनका राशन कार्ड बनकर आ गया।
सुबोध ने आरटीआई कार्यकर्ता वसीम खान की मदद से आईटीओ स्थित विकास भवन में 20 अक्टूबर 2008 को खाद्य आपूर्ति विभाग में आवेदन जमा किया। आवेदन में पूछा कि उनके आवेदन पर की गई दैनिक प्रगति रिपोर्ट और उन अधिकारियों के नाम एवं पद बताएं जाएं जिन्हें आवेदन पर कार्रवाई करनी थी। साथ ही प्रश्न किया कि अपना काम ठीक से न करने पर दोषी अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाएगी।
आवेदन के जवाब में 6 नवंबर 2008 को मंडल 22 के खाद्य एवं संभरण अधिकारी संजय गुप्ता ने बताया कि नवंबर महीने से आपको राशन मिलने लगेगा। इससे बाद उन्हें राशन कार्ड मिल गया। हालांकि आवेदन में पूछे गए सवालों के उत्तर नहीं मिले लेकिन आवेदक का रुका काम हो गया।

रजिया बेगम ने पाया राशन कार्ड

बवाना की रहने वाली रजिया बेगम ने राशन कार्ड बनवाने के लिए आवेदन दिया लेकिन उस पर कार्रवाई नहीं हुई। सूचना का अधिकार इस्तेमाल कर राशन कार्ड न बनने की वजह जाननी चाही तो राशन कार्ड बनकर आ गया।
रजिया बेगम ने 22 अक्टूबर को आपूर्ति विभाग में दिए आवेदन में सवाल की कुछ ऐसे पूछे थे जिनके जवाब अधिकारियों के पास नहीं थे। आवेदन में उन्होंने 13 सितंबर को जमा किए गए राशन कार्ड बनवाने की अर्जी की दैनिक प्रगति रिपोर्ट मांगी। साथ ही उन अधिकारियों के नाम और पद की जानकारी भी मांगी जिन्हें उनकी अर्जी पर कार्रवाई करनी थी। 11 नवंबर को खाद्य और संभरण अधिकारी की तरफ से भेजे गए पत्र में उन्हें आवेदन में पूछे गए सवालों के जवाब तो नहीं मिले लेकिन यह जरूर कहा गया कि आप अपना कार्ड राशन दफतर से ले लें।

74 पुलिस अधिकारियों पर अभियोग

दिल्ली पुलिस के 74 अधिकारियों पर वर्ष 2000 से 2007 के दौरान कुल 50 अभियोग चले हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश के बाद दिल्ली सरकार ने यह जानकारी श्रुति सिंह चौहान को मुहैया कराई है। पहले लोक सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी ने निजी सूचना की आड़ में यह जानकारी देने से मना कर दिया था। लेकिन सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी के आदेश के बाद उन्हें यह जानकारी देनी पड़ी।
श्रुति सिंह चौहान ने आरटीआई आवेदन में 1 जनवरी 2000 से 30 अप्रैल 2007 के दौरान दिल्ली सरकार के गृह विभाग से उन अधिकारियों की लिस्ट मांगी थी जिनके खिलाफ अभियोग चलाने की मांग की गई थी। साथ ही मांग करने वाले विभाग का नाम भी पूछा गया था। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस फेहरिस्त में कांस्टेबल से लेकर एसीपी रेंक तक के अधिकारी शामिल हैं। यह जानकारी भी मिली कि 47 मामलों में दिल्ली पुलिस ने ही इन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। जबकि दो मामलों में सीबीआई और एक मामले में मेरठ के पुलिस अधीक्षक ने दोषी अधिकारियों पर अभियोग चलाने की सिफारिश की।

ओलिम्पिक: बाबुओं को मिला खिलाड़ियों से अधिक खर्च

क्या आपको पता है कि बीजिंग ओलंपिक में पदक जीतकर देश का सम्मान बढ़ाने वाले खिलाड़ियों को कितना जेब खर्च खर्च मिला था? आपको जानकर हैरानी होगी कि खिलाड़ियों और कोचों को जहां प्रतिदिन 50 डॉलर जेब खर्च के लिए मिलते थे, वहीं उनके साथ गए मंत्री एवं अधिकारी गण प्रतिदिन 75 डॉलर जेब खर्च के लिए पाते थे। यूनियन यूथ अफेयर्स और खेल मंत्रालय ने डीएनए अखबार द्वारा दायर आरटीआई आवेदन के जवाब में यह जानकारी दी है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार खिलाड़ियों के साथ बीजिंग जाने वाले दल में यूथ अफेयर एवं खेल मंत्री एम एस गिल, लोकसभा सदस्य विजय बहुगुणा और कृष्णा तीरथ शामिल थीं। इनके अतिरिक्त राज्यसभा सदस्य भुवनेश्वर कालिता और खेल सचिव सुधीर नाथ, दो संयुक्त सचिव और भारतीय खेल प्राधिकरण के निदेशक सावन चटर्जी भी दल का हिस्सा थे। खेल मंत्रालय का कहना है कि 12.19 लाख रफपये 13 नेताओं और नौकरशाहों की यात्राओं और ठहरने पर खर्च किए गए।
खिलाड़ियों को मिलने वाले इस खर्च के बारे में बाक्सर विजेन्द्र सिंह का कहना है कि हमें प्रतिदिन 50 डॉलर मिलते थे जिससे विदेश में बमुश्किल अच्छा भोजन किया जा सकता है। उनके अनुसार एशियाड खेलों की स्थिति तो और भी बदतर है जहां खिलाड़ियों को कोई भत्ता ही नहीं दिया जाता।