विनीता देशमुख
क्या एक पत्रकार को वास्तव सूचना के अधिकार की जरूरत है? पत्रकार होने के नाते उसे सूचना तो मिल ही जाती हैं। क्या वह स्टोरी के लिए 30 दिन की प्रतीक्षा कर सकता है? उसे तो हर वक्त गर्मागर्म खबरें देनी होती है। इन दोनों प्रश्नों का उत्तर हां है। मैं इन दोनों को एक-एक करके स्पष्ट करना चाहूंगी।
सूचना का अधिकार लागू होने के बाद पत्रकार के लिए परिस्थितियां बेहतर हुई हैं। अब उसे स्रोत पर निर्भर होने की जरूरत नहीं है। वह सभी सफेद और काले तथ्यों का प्राप्त कर अधिक विश्सनीय और खोजी स्टोरी कर सकता है। सच को जनता के बीच लाने के लिए वह अपने अधिकारी स्रोत को आसानी से किनारे कर गर्व के साथ कह सकते हैं कि वह अब उनके बिना भी सूचना हासिल कर सकते हैं।
जहां तक सूचनाओं के लिए तीस दिनों की प्रतीक्षा का सवाल है तो कहा जा सकता है इसकी भी हमेशा जरूरत नहीं है। कानून की धरा 4 तहत से सरकारी कार्यालय में फाइलों का नियमित निरीक्षण कर सकता है। इससे बिना प्रतीक्षा अच्छी स्टोरी मिल सकती हैं। तीस दिन की प्रतीक्षा के बाद हमारे पास तथ्य और दस्तावेज एकत्रित हो जाते हैं जिनसे काफी अच्छी स्टोरी की जा सकती है। मैंने इन दोनों मामलों में सूचना के अधिकार का अच्छी तरह से इस्तेमाल किया है जिनका जिक्र में करना चाहूंगी।
• साल 2000 में महाराष्ट्र सूचना का अधिकार कानून प्रभावी था। उस समय करदाताओं के पैसों पर पुणे नगर निगम के कारपोरेटर द्वारा किया गया स्टडी टूर सुर्खियों में रहा। इस स्टडी टूर का उद्देश्य पुणे की बेहतरी के लिए एक परियोजना को लागू करना था। जब समाचार पत्रों ने इस विषय पर लिखा तो मैंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया। मैंने जो सूचना हासिल की उससे साफ हो गया कि कारपोरेटर स्टडी टूर के नाम पर छुटि्टयां मना रहे हैं जिसकी कोई जवाबदेयता नहीं थी। सभी को एक अपने टूर की एक आधिकारिक रिपोर्ट लिखनी थी और सुझाव देने थे। प्राप्त दस्तावेजों से पता चला कि दौरे में स्कूल के बच्चों की तरह प्रस्ताव लिखा गया और सुझाव भी बेहद हास्यास्पद थे। कुछ कारपोरेटरों ने तो पुणे-मुंबई एक्सप्रेस वे में लगे फूलों की तारीफ लिखी। उनके सुझाव थे कि पुणे के ढलानों पर दक्षिण की तरह चाय बागान और दो प्रमुख झीलों के चारों तरफ नारियल के पेड़ लगाए जाएं। इन तथ्यों से न केवल एक अखबार के लिए अच्छी रिपोर्ट बनी बल्कि निगम आयुक्त को भी ऐसे टूर के लिए सख्त निर्देश जारी करने पडे़। इस प्रकार पत्रकारों और नागरिकों द्वारा सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से प्राधिकरण पर दबाव बनाया जा सका है।
• मैंने सूचना के अधिकार का सबसे सफल और खोजी प्रयोग डाओ केमिकल्स इंटरनेशनल लिमिटेड पर किया, जो पुणे के निकट तथाकथित रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर स्थापित कर रहा था। डाओ केमिकल्य ने फरवरी माह में देश के प्रमुख दैनिक और स्थानीय अखबारों में विज्ञापन छपवाया कि यह सिर्फ एक रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर है जिसमें किसी केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। इस मामले की तह तक जाने के लिए मैंने महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव संजय खंडारे से संपर्क किया और डाओ के प्लांट लगाने से सम्बंधित दिए गए दस्तावेजों की जानकारी मांगी। खंडारे ने कहा कि मेरे पास इसका उत्तर नहीं है यदि आप चाहें तो इसे सूचना के अधिकार से हासिल कर सकती हैं। संभवत: यदि मांगी गई सूचनाएं साधारण तरीके से उपलब्ध करा दी जाती तो खंडारे पर राजनैतिक आकाओं की गाज गिर सकती थी इसलिए कानून के जरिए सूचनाएं उपलब्ध कराने पर उनका बचाव हो जाता है क्योंकि ऐसे निर्णय अक्सर उच्च स्तर पर लिए जाते हैं। मैंने कानून की धारा 4 को महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम में अपनाया। दस्तावेजों से पता चला कि महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने डाओ केमिकल को रिसर्च और डेवलपमेंट की अनुमति नहीं बल्कि उत्पादन की
मंजूरी दी है। डाओ द्वारा दिए गए आवेदन के अनुसार वह पर्यावरण संरक्षण कानून की अनुसूची 1 के तहत 20 हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल कर रहा है, जिसके लिए पर्यावरण विभाग की अनुमति लेना अनिवार्य है। पता चला कि महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने डाओ के लिए अनुमति लेना अनिवार्य नहीं किया। महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम से जानकारी मिली कि डाओ को अतिरिक्त छूट दी गई। निगम को मुख्य कार्यकारी अधिकारी की फाइल नोटिंग में पाया गया कि पुणे कार्यालय को इसे महत्वपूर्ण परियोजना मानते हुए 48 घंटे के भीतर चाकन में सौ एकड़ जमीन की मंजूरी दिलाने की बात कही। प्रदूषण बोर्ड के दस्तावेजों से जानकारी भी मिली कि महाराष्ट्र की नदी नियमन नीति की भी अवहेलना हुई। नियम है कि नदी की दो किमी की सीमा के भीतर केमिकल फेक्ट्री नहीं लगाई जा सकती। जबकि डाओ केमिकल बमुश्किल इंद्रयानी नदी से 1.2 किमी दूर है। भूमि के दस्तावेजों से यह भी पता चला कि डाओ ने बिना अनुमति लिए 14800 पेड़ काटे हैं। लोगों को अब डाओ केमिकल के संदेहास्पद इरादों को सबूत मिल गया था। लोगों के विरोध को इससे बल मिला और समूचा कामगार समुदाय (सबसे बडे़ वोट बैंक ) ने राज्यस्तरीय विरोध शुरू कर दिया। इस विरोध का ही परिणाम था कि उस वक्त लंदन में मौजूद मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को एसओएस काल और डाओ के काम की समीक्षा करने का आश्वासन देना पड़ा। इसी दौरान मेरे साप्ताहिक टेबलॉयड इंटेलिजेंट पुणे के खुलासे के फलस्वरूप समिति को महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को डाओ केमिकल को दी गई अनुमति को दुरुस्त करने को कहा। नई अनुमति में कहा गया कि डाओ को केवल रिसर्च एंड डेवलपमेंट की मंजूरी मिलेगी उत्पादन की नहीं और उसमें भी पर्यावरण के सख्त नियम लागू होंगे। हालांकि समिति ने बड़ी चालाकी से एक पंक्ति में कह दिया कि डाओ निर्माण कार्य पुन: शुरू कर सकता है। ग्रामीणों ने निर्माण शुरू नहीं होने दिया जिसमें हिंसक घटनाएं भी हुईं। अब दोबारा समिति का गठन किया गया है और उसकी रिपोर्ट का इंतजार है। इसी दौरान इंटेलिजेंट पुणे ने इस मुद्दे को अपने विभिन्न अंकों के 85 पृष्ठों पर प्रकाशित किया और सरकार का लगातार दबाव बनाया।
• एक अन्य मामले में इसी साल सितंबर में राज्य सरकार ने 1.03 करोड़ वर्ग फीट जमीन पुणे के पड़ोस (बानेर-बालेवाडी) में आरक्षित कर दी। यह जमीन स्थानीय क्षेत्रा में बगीचों, अस्पतालों, अग्निशमन आदि जन सुविधाओं हेतु थी। मैंने सूचना के अधिकार और कार्यकर्ताओं की मदद से संपूर्ण अधिसूचना और नक्शा टाउन प्लानिंग डिपार्टमेंट से प्राप्त किया। हमने पाया कि शहर का भविष्य खतरे में है। नियमानुसार राज्य सरकार ने आपत्तियों एवं सुझावों के लिए 60 दिनों का समय दिया है जिसकी अंतिम तारीख 1 दिसंबर है। मैंने हरित पुणे अभियान के तहत विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं के साथ खिलाफ एक जनआंदोलन चलाया और अब तक कुल 30 हजार आपत्तियां प्राप्त कीं। सूचना के अधिकार की बदौलत हमे सरकार के खतरनाक इरादों की जानकारी मिली और अब उसके विरुद्ध व्यापक जनआंदोलन चल रहा है।
मेरे पास ऐसे ढेरों उदाहरण हैं लेकिन मैंने कुछ व्यापक असर वाले अनुभवों को ही साझा किया है। पत्रकार सूचना के अधिकार की धरा 4 का इस्तेमाल कर सच को जन सामान्य के बीच ले जा सकते हैं और सरकार पर पारदर्शी और नागरिकोन्मुखी बनने क दबाव डाल सकते हैं।
(लेखिका साप्ताहिक टैबलॉयड इंटेलिजेंट पुणे की संपादिका हैं)
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