शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

जन आंदोलन में बदलता कानून

मनोज कुमार सिंह

मैं गोरखपुर में सूचना अधिकार आन्दोलन से शुरू से ही जुड़ा। 26 अप्रैल 2006 से 28 अप्रैल तक चौरीचौरा से मगहर तक सूचना अधिकार को लेकर हुई 60 किलोमीटर की पदयात्रा में भी मैं शामिल हुआ। इसके बाद गोरखपुर में एक जुलाई 2006 से 17 जुलाई तक आयोजित हुए घूस को घूंसा अभियान में मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा। इस दौरान हमने दर्जनों आवेदन पत्र तैयार कराए। बतौर पत्रकार मैने स्वयं सूचना अधिकार कानून का इस्तेमाल जन आन्दोलनों और सार्वजनिक हित से जुड़े मामले में जानकारी प्राप्त करने के लिए किया।

इस अधिकार का सर्वप्रथम इस्तेमाल मैंने कुशीनगर जिले में मैत्रय परियोजना के सम्बन्ध में जानकारी मांगने में किया। यह परियोजना कुशीनगर में स्थापित की जा रही है जिसके तहत भगवान बुद्ध की 500 फीट उंची प्रतिमा स्थापित करने के अलावा कुछ अन्य निर्माण कार्यों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार किसानों का 660 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर रही है। इसके खिलाफ किसान आन्दोलन कर रहे हैं। इस दौरान प्रशासन की ओर से अफवाह फैलायी गयी कि अधिकतर किसानों ने मुआवजा ले लिया है और मुट्ठी भर किसान ही निहित स्वार्थों में आन्दोलन कर रहे हैं। इस समय तक किसी को भी जानकारी नहीं थी कि कितने किसानों की जमीन इस परियोजना में ली जा रही है और कितने किसानों ने मुआवजा लिया है। मैने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत यही जानकारी मांगी। जो जानकारी मिली वह चौंकाने वाली थी। प्रशासन द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार इस परियोजना के लिए 2977 किसानों की 660 एकड़ जमीन ली जा रही है और अभी तक सिर्फ 633 किसानों ने जमीन का मुआवजा लिया है। इस सूचना को मैने अपने समाचार पत्र हिन्दुस्तान में प्रकाशित भी किया। इससे स्थिति साफ हो गयी कि मुआवजे के नाम पर किसानों को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है। इस जानकारी के सार्वजनिक होने के बाद किसानों ने अपने आन्दोलन को और मजबूती से आगे बढ़ाया। अभी हम लोग इस परियोजना के सम्बन्ध में कुछ और कागजात निकालने का प्रयास कर रहे हैं ताकि परियोजना के नाम पर पर्दे के पीछे किए गए सांठगांठ का पर्दाफाश कर सकें।
  • किसानों को ठगने के लिए सरकार ने फैलाई अफवाह
  • बच्चे मरते रहे लेकिन सोती रही सरकार
इसी प्रकार पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से मौतों के बारे में मैंने सूचना अधिकार कानून के तहत जानकारी मांगी। हालांकि यह जानकारी मैने अपने नाम के बजाय इस मुद्दे पर कार्य कर रहे चिकित्सक डॉ आरएन सिंह के नाम से मांगी। इस सूचना को मांगने के पीछे पृष्ठभूमि यह थी कि इंसेफेलाइटिस से पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत होती है। अनुमान के मुताबिक पिछले 30 वर्ष में केवल सरकारी अस्पतालों में इस बीमारी से 10 हजार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। वर्ष 2005 में इंसेफेलाइटिस से बच्चों की मौत जब अन्तराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी तब सरकार ने 1-15 वर्ष के बच्चों का इंसेफेलाइटिस से बचाव का टीका लगाया। यह टीका चीन से आयात किया गया था। टीका लगाने के साथ ही इस पर विवाद शुरू हो गया कि इस टीके का एक डोज लगना चाहिए कि दो या तीन। इस बारे में सरकार ने अपनी ओर से कभी कुछ नहीं कहा और विशेषज्ञ इस बारे में कई तरह की बात रखते रहे। इसी को ध्यान में रखकर केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से सूचना अधिकार के तहत सवाल पूछा गया कि टीके का कितने डोज लगने चाहिए तथा इंसेफेलाइटिस से अब तक कितने बच्चों की मौत हुई है और सरकार इस रोग से बचाव के लिए क्या-क्या उपाय कर रही है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसके जवाब में जो जानकारी दी उससे कई नए तथ्य सामने आए। सबसे बड़ी जानकारी तो यह थी कि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2001 से जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंडोम से मौतों का रिकार्ड रखना शुरू किया जबकि इसका पहला केस 1978 में ही पाया गया था और उस समय से उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में हजारों लोगों विशेषकर बच्चों की मौत हो चुकी थी। कोई भी समझ सकता है कि सरकार इस रोग से लड़ने के प्रति कितनी संवेदनशील है। सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक 2001 से सितम्बर 2008 तक इस बीमारी से देश के 16 राज्यों में 5312 लोगों की मौत हो चुकी है जिसमें से 3410 उत्तर प्रदेश के थे। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने जवाब में यह भी साफ किया कि जापानी इंसेफेलाइटिस से बचाव के लिए लगाये जा रहे टीके का एक ही डोज पर्याप्त है क्योंकि इससे 90 फीसदी से ज्यादा प्रतिरक्षण प्राप्त होता है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा दिए गए जवाब पर मैने खबर बनायी और पहली बार इस मामले में कई नए तथ्य लोगों को पता चले।

इस तरह कई मामलों में मैने आरटीआई का उपयोग किया। आरटीआई के उपयोग के कारण मेरे पास बतौर पत्रकार सदैव एक-दो एक्सक्लूसिव खबरें रहती हैं। मेरे ऑफिस में प्रतिदिन एक-दो लोग आरटीआई के आवेदन तैयार करवाने आते हैं या फोन पर इसके बारे में जानकारी मांगते हैं। जब उन्हें अपने सवाल का जवाब मिल जाता है तो वे मुझे जानकारी देने आते हैं। मैं अक्सर उन जानकारियों को खबर के रूप में प्रकाशित करता हूं ताकि लोग इसके बारे में और जागरूक हों और आरटीआई का अधिक से अधिक इस्तेमाल करें।

हम और हमारे साथी सूचना के अधिकार पर अक्सर कोई न कोई कार्यक्रम रखते हैं। हमने कुशीनगर और सिद्धार्थ नगर जिले में पत्रकार साथियों के साथ वर्कशॉप आयोजित किए और उन्हें आरटीआई के प्रयोग के बारे में बताया। आज इन जनपदों में कई पत्रकार आरटीआई का उपयोग कर रहे हैं।

सूचना अधिकार अधिनियम की तीसरी वर्षगांठ पर इस बार हम कोई कार्यक्रम तो नहीं कर सके लेकिन मैने कई पत्रकार साथियों के साथ बैठकर सार्वजनिक हित के एक दर्जन से अधिक मामलों पर आरटीआई के तहत जानकारी प्राप्त करने के लिए आवेदन तैयार किया और उसे सम्बंधित विभागों को भेजा।

(लेखक गोरखपुर में दैनिक हिन्दुस्तान समाचार पत्र से जुडे़ हैं एवं विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं)

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