गुरुवार, 24 सितंबर 2009

पाँच महीने में अढाई कोस

जम्मू कश्मीर में पुराने सूचना के अधिकार कानून को बदलकर नए कानून को लागू हुए पांच महीने हो गए हैं लेकिन इस कानून के तहत सूचनाएं लेना लोगों के लिए अब भी टेढ़ी खीर बना हुआ है। राज्य में न तो लोगों को और न ही अधिकारियों को इस कानून की जानकारी है। जम्मू कश्मीर आरटीआई मूवमेंट के संयोजक डॉ. मुजफ्फर रजा भट्ट बताते हैं कि अधिकारी इस कानून के तहत आवेदन ही नहीं लेते, जो लेते हैं उन्हें ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। उनका कहना है कि हमने बीएसएनएल, जम्मू-कश्मीर प्रोजेक्ट कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (जेकेपीसीसी), डायरेक्टोरेट ऑफ स्टेट मोटर गैराज, सेटलमेंट कमीशन ऑफिस , चीफ कंजरवेटर ऑफ फोरेस्ट ऑफिस से जनहित में सूचनाएं लेनी चाही लेकिन वहां अब तो लोक सूचना अधिकारी ही नियुक्त नहीं किए गए हैं। जबकि कानून बनने के सौ दिन में अधिकारी नियुक्त हो जाने चाहिए। दूसरी तरफ राज्य सरकार ने भी इस कानून के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया है। कुछ चुनिंदा कार्यालयों में लोक सूचना अधिकारी तो नियुक्त हैं लेकिन वे सूचनाएं देने में तनिक भी गंभीर नहीं हैं। राज्य में जब कानून बना था तो राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को खूब वाहवाही मिली थी। अपने चुनावी घोषणा पत्रा में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सूचना के अधिकार की बात की थी। और सत्ता में आने के बाद उन्होंने पुराने कानून का बदलकर नया कानून लागू भी करवाया। बताया जा रहा था कि राज्य का यह कानून केन्द्रीय आरटीआई कानून से भी अधिक प्रभावशाली है। जम्मू-कश्मीर के आरटीआई एक्ट में पहली बार किसी राज्य सूचना आयोग के लिए अपीलों और शिकायतों के निपटारे के लिए समय सीमा तय की गई। इन तमाम बातों के होते हुए भी कानून में कई खामियां रह गईं जिन्हें दूर करने की कोशिश नहीं की गई। स्थिति यह है कि राज्य में अब तक आयोग के लिए सूचना आयुक्तों का चयन भी नहीं हो पाया है और यह मामला अभी आधार में ही लटका हुआ है। कानून में कुछ ऐसे प्रावधन भी हैं जो इसे आम और गरीब आदमी की पहुंच से दूर करते हैं। मसलन, आरटीआई आवेदन शुल्क के रूप में 50 रुपये और सूचना लेने के लिए 10 प्रति पेज निर्धारित किया गया है। जबकि केन्द्रीय कानून में यह शुल्क क्रमश: 10 रुपये और 2 रुपये है। बीपीएल कार्डधरकों के लिए भी नि:शुल्क सूचना का कोई प्रावधान नहीं है। दस्तावेजों के निरीक्षण के लिए भी शुल्क निर्धरित किया गया है। ऐसे में आरटीआई कार्यकर्ताओं को सरकार की पारदर्शिता और जवाबदेयता के कथनों पर संदेश होने लगा है।
अपना पन्ना में प्रकाशित

निर्मल होता निर्मल गुजरात अभियान

निर्मल गुजरात अभियान के तहत गुजरात में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए लगभग मुफ्त शौचालय बनाने की एक योजना है। लेकिन जमीनी स्तर तक आते-आते इस योजना की हवा निकाल दी गई है। फिलहाल, सूचना के अधिकार कानून के इस्तेमाल से कुछ जिलों में एक बार फ़िर यह योजना पटरी पर आ चुकी है। दरअसल, गुजरात के पंचमहल और कलोल के कुछ लोगों ने नागरिक अधिकार केंद्र नाम की एक गैर सरकारी संस्था से संपर्क कर बताया कि इन लोगों के घरों में इस अभियान के तहत शौचालय का निर्माण नहीं किया गया है, साथ ही ठेकेदार ने इन लोगों से अधिक पैसे भी वसूल लिए हैं। इस योजना के तहत लाभान्वितों को भी अपनी तरफ से एक निश्चित रकम (900 रूपये) देनी होती है। लोगों की इस शिकायत पर संस्था ने सूचना कानून के तहत कलोल नगरपालिका से इस अभियान (शौचालय निर्माण) के संबंध में सवाल पूछे। मसलन, ठेकेदार, अधिकारियों, लाभान्वितों के नाम, ठेका मिली कंपनी को जारी की गई एनओसी इत्यादि के बारे में पूछा गया। लेकिन प्रथम अपील के बाद भी सूचना नहीं मिली। राज्य सूचना आयोग में भी पिछले 14 महीनों से इस मामले पर कोई सुनवाई नहीं हुई।इसके बाद संस्था ने एक और आरटीआई आवेदन नगरपालिका वित्त बोर्ड में डाला और यही सब सवाल पूछे। प्रथम अपील के बाद संस्था को वांछित सूचनाएं मिल गईं। गुजरात सरकार ने मानव सेवा खादी ग्रामोद्योग विकास संघ को इस अभियान के कार्यान्वयन के लिए नोडल एजेंसी नियुक्त किया था। और इस संस्था ने कस्तूरबा महिला सहायक गृह उद्योग सहकारी संघ लि को इस अभियान के लिए ठेका दे दिया था। इतनी जानकारी मिलने के बाद संस्था ने घर-घर जा कर इस योजना की जमीनी हकीकत की जांच पड़ताल शुरु की। रिकॉर्ड के मुताबिक कलोल में 2008-09 के दौरान 150 शौचालय का निर्माण किया जाना था। बकायदा कलोल नगरपालिका के मुख्य अधिकारी ने 111 शौचालय निर्माण के लिए कांट्रेक्टर को भुगतान करने के लिए एनओसी भी जारी कर दी थी। लेकिन संस्था द्वारा की गई जांच से पता चला कि एक भी ऐसा घर नहीं मिला जहां शौचालय निर्माण का कार्य पूरा हो चुका हो। कई जगहों पर तो काम शुरु भी नहीं हो सका था। किसी भी शौचालय को सीवर से नहीं जोड़ा गया था। कुछ लोगों के अधूरे बने शौचालय को यह कह कर ध्वस्त कर दिया गया था कि इसे फ़िर से बनाया जाएगा। कई लोगों से शौचालय निर्माण के नाम पर ज्यादा रकम भी वसूली गई थी। इतनी सूचना एकत्र कर संस्था ने एक रिपोर्ट बनाई और इसे जिलाधाकारी के पास जमा कराया। जिलाधिकारी ने उप जिलाधिकारी को इसकी जांच करने को कहा। उप जिलाधिकारी ने भी संस्था की रिपोर्ट को ही सही ठहाराया। इसके बाद जिलाधिकारी के मासिक बैठक में, जहां नगरपालिका के मुख्य अधिकारी भी उपस्थित थे, जिलाधिकारी ने मुख्य विकास अधिकारी को फटकार लगाई और नौकरी से निकालने और जेल भेजने की चेतावनी दी। साथ ही जिले में सभी जगहों पर इस अभियान के तहत सही ढंग से शौचालय निर्माण करवाने का आदेश दिया। सूचना कानून का ही असर है कि ठेकेदार को फ़िर से सभी शौचालयों का निर्माण कराना पड़ा है। सीवर से भी इन शौचालयों को जोड़ा जा रहा है। जिन लोगों से अधिक पैसे लिए गए थे, उनके पैसे लौटाए गए।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

आईए! सूचना के बाद अब स्वराज मांगे

सूचना के अधिकार ने शासकों और शासितों का रिश्ता बदल दिया है....... बिहार के झंझारपुर गांव का अनपढ़ रिक्शा चालाक मज़लूम जिसने इंदिरा आवास योजना के पैसे के बदले रिश्वतखोर बीडीओ को यह कहकर चौंका दिया कि वह सोचना की अर्जी लगा देगा (उसे सूचना का का अधिकार कहना भी नहीं आता),......... या बुंदेलखंड की वे अनपढ़ मांएं जिन्होंने अपने बच्चों को मिलने वाली स्कूल वर्दी और किताबों का हिसाब मांगकर भ्रष्ट अफसरों को पूरे चित्रकूट ज़िले के प्राईमरी स्कूलों में वर्दी और किताबें बांटने को मजबूर किया और सवा दो करोड़ रुपए की चोरी रोकी ......... या फिर बहराईच ज़िले के कतार्नियाघट जंगलों में अपने वजूद का सरकारी सबूत ढूंढ रहे वनग्रामवासी, जिनके सवालों ने सरकार को मजबूर किया कि वह खुद उनके वहां होने के सबूत तैयार करे.... आज दूर दराज़ के आदिवासी इलाकों में बैठा एक अनपढ़ ग्रामीण भी शासकों से न सिर्फ सवाल पूछ रहा है बल्कि जवाब न देने की स्थिति में उन्हें दंडित करवाने के कदम भी उठा रहा है। शायद इसीलिए यह कानून लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में अभी तक किए गए प्रयासों में सबसे अधिक लोकिप्रय भी बन गया है. आज ऐसे सैकड़ों नहीं हज़ारों मामले हैं जहां इस कानून ने शासन प्रक्रिया में आम आदमी की हैसियत बढ़ाई है. लेकिन पिछले कई वर्षों के अनुभव से यह भी सामने आया है कि इस कानून की सीमा है. अगर ठीक से लागू हो सके तो यह व्यवस्था को पारदर्शी तो बना सकता है लेकिन जवाबदेह नहीं. इसे एक बड़े ही सटीक उदाहरण से समझा सकता है - सूचना अधिकार के लिए मेगसेसे से सम्मानित अरविंद केजरीवाल गाज़ियाबाद के कौशाम्बी इलाके में रहते हैं. अपने मोहल्ले की टूटी फूटी सड़कों के बारे में उन्होंने सूचना मांगी कि इन्हें कब और कितने पैसे में बनाया गया था। सूचना दी गई कि चार महीने पहले ही इन पर 42 लाख रुपए खर्च कर बनाया गया था. यह सूचना एकदम झूंठ थी क्योंकि वे सड़कें पिछले दस साल से बनी ही नहीं थीं. यह जनता के 42 लाख रुपए के सीधे सीधे गबन का मामला है लेकिन वे पुलिस में गए तो उसने हाथ खड़े कर दिए. डीएम से लेकर सीएम तक को लिखा लेकिन कोई नतीज़ा नहीं. यहां सूचना के अधिकार ने तो अपना काम कर दिया लेकिन हमारी शासन व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें आम आदमी कुछ कर ही नहीं सकता. लोकतंत्र के नाम पर हमारे पास महज़ एक अधिकार है, पांच साल में अपना वोट देने का. व्यवस्था से शिकायत हो तो हम ज्यादा पांच साल में अपना वोट सरकार बदलने के लिए दे सकते हैं. और साठ साल से लोग यही करते आए हैं. केन्द्र और राज्यों को मिलाकर देखें तो हमने हर पार्टी और नेता को सत्ता में बिठाकर देख लिया है. व्यवस्था के सामने आम आदमी की हैसियत वहीं की वहीं है. सिर्फ सूचना का अधिकार कानून एक ऐसा कानून रहा है जिसने आम आदमी को व्यवस्था से सवाल पूछने की ताकत दी है. सूचना कानून के तहत प्राप्त सूचनाओं से, देश भर में ऐसे मामलों का खुलासा हुआ है जहां सड़कें, हैंडपंप इत्यादि कागजों पर ही बना दिए गए. इसके आगे लोग शिकायत करते हैं तो कोई कार्रवाई नहीं होती. अब ज़रूरत इस बात की है कि हम इससे आगे के कदम की बात करें.
लेकिन आगे का कदम होगा क्या? हज़ारों लोग हैं जिन्होंने ऊपर के उदाहरण की तरह सूचना निकलवा कर भ्रष्टाचार उजागर किया है। लेकिन इसके बाद क्या?
अब यह व्यवस्था चाहिए कि सरकारी अमला लोगों के सीधे नियंत्रण में हो. किसी इलाके के सरकारी कर्मचारी, उनका काम, विभागों का पैसा, योजनाओं का लाभ ... सब कुछ जनता की खुली बैठकों में तय हो. वहां से जो बात निकले वही जनता का आदेश हो. नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का काम महज़ उस पर अमल करना हो. और जो नेता या अधिकारी जनता के आदेश में न चले, उसे हटाने, दंडित करने की ताकत जनता के पास हो. यानि लोग खुद, कानूनी रूप से उन कामों को करवा सकें जिन्हें किए जाने की उम्मीद हम ऊपर के अफसरों और नेताओं से लगाए रहते हैं. अगर हम खुद को लोकतंत्र कहते हैं तो हमें लोगों को सबसे ऊपर लाना ही होगा. यही स्वराज होगा. तो आईए! सूचना के अधिकार के बाद अब स्वराज मांगें।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

देश और समाज की समस्याओं के प्रति कितनी गंभीर है हमारी शिक्षा व्यवस्था?-

देश भले ही भ्रष्टाचार और आतंकवाद की विकराल समस्याओं से जूझ रहा हो लेकिन देश की शिक्षा व्यवस्था यह ज़रूरी नहीं मानती कि आने वाली पीढ़ियों को इन दोनों समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाने में उसकी भी कोई भूमिका है। सूचना के अधिकार के तहत दाखिल आवेदनों के जवाब में शिक्षा व्यवस्था का भावी समाज के प्रति यह गैर ज़िम्मेदाराना रुख सामने आया है।
भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय देश के लोगों के शिक्षित होने की दिशा और दशा तय करने का दावा करता है। करीब छह महीने पहले इस मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई थी कि इन दोनों समस्याओं के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने के लिए और आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार के खिलापफ जनमानस तैयार करने के मकसद से देश की शिक्षण संस्थाओं में विभिन्न स्तर पर पाठयक्रमों में क्या कुछ पाठ जोड़े गए हैं। मंत्रालय ने इन आवेदनों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधन एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) को अग्रसित कर दिया। यूजीसी ने तो एक लाइन में लिखकर दे दिया कि उच्च शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में उसकी कोई भूमिका नहीं है।
दूसरी तरफ एनसीईआरटी ने दोनों आवेदनों के जवाब में बताया है कि उसके पाठ्यक्रम में भ्रष्टाचार या आतंकवाद के बारे में कोई विशेष पाठ नहीं है। गौरतलब है कि एनसीईआरटी का नया पाठ्यक्रम 2005 में ही लागू हुआ है। इस नए पाठ्यक्रम में देश की दो सबसे बड़ी समस्याओं के प्रति आने वाली पीढ़ियों को संवेदनशील बनाने का कितना ध्यान रखा गया है यह खुद एनसीईआरटी के जवाब से देखा जा सकता है -
आतंकवाद
6 अक्टूबर 2008 को दाखिल सूचना अधिकार आवेदन का जवाब अपील/शिकायत आदि दाखिल करने और सूचना आयोग का कड़ा नोटिस मिलने के बाद दिए गए जवाब में एनसीईआरटी ने लिखा है कि 2005 के पाठ्यक्रम के आधर पर तैयार पाठ्यपुस्तकों में आतंकवाद पर कोई विशेष पाठ हमारी पुस्तकों में नहीं है। हालांकि इनमें भारत की अखंडता और विश्व शांति पर मंडराते खतरे के रूप में आतंकवाद को रेखांकित किया गया है। राजनीतिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विजुअल एलीमेंट्स के माध्यम से आतंकवाद की चर्चा की गई है।´
एनसीईआरटी का यह दावा सकून देने वाला हो सकता था लेकिन सूचना के अधिकार के इस आवेदन का जवाब देते हुए पाठ्यपुस्तकों के उन हिस्सों की पफोटोकॉपी प्रदान की गई हैं जिन पाठों के आधर पर एनसीईआरटी ने उपरोक्त दावा किया है। एक नज़र जवाब के उस हिस्से पर भी:-
• भारत की अखंड्ता को बनाए रखने और आने वाली पीढ़ियों को आतंकवाद के प्रति संजीदा करने की कोशिश में पढ़ाए जा रहे पाठों में एनसीईआरटी ने पहला पाठ कक्षा 11 की पुस्तक का उपलब्ध् कराया है। यह पाठ (पृष्ठ संख्या ११६) संसद में कानून पास होने की प्रक्रिया के बारे में है और बताता है कि किस तरह कुछ कानून यथा लोक पाल बिल अभी अध्र में लटका है, 2002 में आतंकवाद रोधी कानून 2002 राज्य सभा में खारिज हो गया था। यहां पर आतंकवाद शब्द को एनसीईआरटी ने पीले मार्कर पेन से रेखांकित कर दिया है।
• इसके अगले पृष्ठ में संचार माध्यमों के लाभ हानि पर बात करते हुए लिखा गया है कि एक तरपफ सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासी संस्कृति और जंगल जैसे मुद्दों पर दुनिया भर से संपर्क करने में इनका लाभ ले रहे हैं वही अपराधी और आतंकवादी भी इससे अपना नेटवर्क फैलाते हैं। (यह पृष्ठ आतंकवाद के बारे में नहीं बल्कि इंटरनेट के फायदे नुकसान के बारे में है)
• अगले पन्ने में अधिकारियों की बात करते हुए ज़िक्र आता है कि क्या आतंकवाद से पीड़ित एक देश को किसी दूसरे देश के नागरिक अधिकारियों का हनन करना चाहिए? यहां भी आतंकवाद शब्द आया है, शायद इसीलिए इस पृष्ठ की फोटोकापी सूचना के
अधिकार के तहत उपलब्ध् कराई गई है।
• इसके आगे के पन्ने में भी इंटरनेट के उपयोग पर चर्चा है जिसमें लिखा है कि इंटरनेट के विभिन्न पहलू हैं जिसमें एक तरपफ संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं इसका इस्तेमाल बर्ड फ्रलू जैसी बीमारियों के प्रति जागरूकता पफैलाने के लिए करती हैं वहीं आतंकवादी इसका इस्तेमाल अपना नेटवर्क बढ़ाने में करते हैं।
• इसके बाद शांति (पीस) पर एक पाठ है जिसकी पहली ही लाइन में आतंकवाद शब्द आया है इसलिए एनसीईआरटी ने अपने दावे में इसे भी शामिल कर लिया है। इस पाठ में दुनिया भर में अशांति के माहौल पर चर्चा हुई है जैसे कि रवांडा के हालात भारत और पाकिस्तान के हालात आदि। यहां पर दुनिया में बढ़ते आतंकवाद के बारे में कुछ चर्चा है। इस पाठ में आगे आतंकवाद के खतरों पर चर्चा है, जिसमें वल्र्ड ट्रेड सेंटर आदि हमलों का ज़िक्र है।
• इसी तरह कक्षा 12 की पुस्तकों में जहां जहां भी आतंकवाद शब्द ढूंढने से मिलता है उस पृष्ठ की फोटोकापी उपलब्ध् करा दी गई है। इसमें भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध और वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले और भारत पाकिस्तान तनाव का ज़िक्र है।
• इसी पुस्तक के कुछ अन्य पृष्ठों की फोटोकॉपी भी उपलब्ध् कराई गई है जिसमें मुख्यत: संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों और आतंकवाद को एक राजनैतिक हिंसा के रूप में परिभाषित किया गया है।
• हैरानी की बात है कि पुस्तक में जितनी चर्चा अमेरिका, विश्व सुरक्षा आदि पर खतरे को लेकर है उसके मुकाबले भारतीय संदर्भ में आतंकवाद को हल्के ढंग से पेश किया गया है। आतंकवाद के मूल को समझने, इसके बढ़ने के कारणों और भारतीय परिप्रेक्ष्य में संभावित समाधनों का तो ज़िक्र भी नहीं है।
• 12 वीं की पुस्तक में ही आगे सुरक्षा नीतियों की समीक्षा की गई है। इसकी भी फोटोकॉपी उपलब्ध् कराई गई है।
गौरतलब है कि यह सब पफोटोकॉपी यह कहते हुए दी गई हैं कि आने वाली पीढ़ियों को आतंकवाद के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षा व्यवस्था क्या पढ़ा रही है?कितनी ज़िम्मेदारी निभा रही है? सूचना के
अधिकार के तहत आवेदन में यही जानकारी मांगी गई थी।
भ्रष्टाचार
इसी प्रकार सूचना के
अधिकार के तहत जानकारी मांगते हुए एक आवेदन यह भी डाला गया था कि आने वाली पीढ़ियों को भ्रष्टाचार के प्रति जागरूक करने के लिए शिक्षा व्यवस्था क्या ज़िम्मेदारी निभा रही है? पाठ्यक्रम में क्या सामग्री इस आशय के साथ जोड़ी गई है। यह आवेदन 16 अक्टूबर को डाला गया था। इसका जवाब भी इध्र-उध्र घूमते हुए सूचना आयोग के नोटिस के बाद एनसीईआरटी से प्राप्त हुआ।
यहां भी यही कहानी है। कक्षा 9 से कक्षा 12 तक की पुस्तकों के कुछ अध्यायों की सूची। उसके बाद उनकी फोटोकॉपी।
• फोटोकॉपी सेट के पहले ही पन्ने पर एक जगह `करप्ट´ शब्द आया है। पूरा वाक्य इस प्रकार है, `.......इन जांचों से पता चला है कि पिनोशे (चिली का पूर्व तानाशाह) न सिपर्फ क्रूर था बल्कि भ्रष्ट भी था..... प्रदान की गई फोटोकापी में करप्ट (भ्रष्ट) शब्द को रेखांकित किया गया है। (चिली में लोकतंत्र पर एक पैराग्राफ में आया एक वाक्य `पिनोशे एक भ्रष्ट शासक था।´ सिर्फ यह वाक्य किस प्रकार बच्चों को भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनशील बनाता है और कैसे इसे पढ़कर बच्चों के मन में यह भावना जागेगी कि भ्रष्टाचार एक गलत बात है और उसे बड़ा होकर भ्रष्ट नहीं बनना चाहिए.... क्या एनसीईआरटी को इस बात का जवाब नहीं देना चाहिए?
• इसी के अगले पृष्ठ पर पोलैंड के लोकतंत्र पर चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार शब्द आया है। (सरकार में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और कुप्रबंध्न ने शासकों के लिए मुश्किल खड़ी कर दी) यहां भी पूरे पृष्ठ पर इस एक अकेले शब्द को हरे पेन से रेखांकित कर दिया है।
• इसके अगले पन्ने पर लोकतंत्र पर एक क्लास में चर्चा के दौरान एक चार जगह भ्रष्टाचार शब्द आया है। उसे भी उपरोक्त प्रकार से रेखांकित किया गया है।
• इसी तरह अगले पन्ने पर लोकतंत्र पर सवाल उठाते हुए पिफर एकबार भ्रष्टाचार शब्द आता है जिसे रेखांकित कर उसकी फोटोकापी प्रदान कराई गई है।
• इसी तरह एक पृष्ठ पर वाक्य आया है कि सेना देश का सबसे अनुशासित और भ्रष्टाचार मुक्त विभाग है। इस पृष्ठ को भी उपरोक्त सवालों के जवाब में सूचना देते हुए उपलब्ध् करवाया गया है।
• अगले पन्ने पर नागरिक समूह बनाने पर चर्चा है जिसमें एक वाक्य आता है कि नागरिक, प्रदूषण और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अभियान चलाने के लिए भी समूह बना सकते हैं।
यहां सवाल सिर्फ सूचना के
अधिकार का नहीं है। सूचना तो प्रदान कर ही दी गई है, भले ही अपील और आयोग के नोटिस के बाद मिली हो। सवाल है कि देश को चलाने के लिए अरबों रुपए खर्च कर चल रही शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार कल के नागरिक तैयार कर रही है।
पिनोशे एक भ्रष्ट आदमी था, क्या यह कहने से हम बच्चों को भ्रष्टाचार के खतरे के प्रति संवेदनशील बनाते हुए यह उम्मीद कर सकते हैं कि इसे पढ़ने वाला बच्चा जब नागरिक बनकर आगे आएगा तो वह भ्रष्ट नहीं बनेगा, रिश्वत नहीं लेगा देगा। जिस देश की व्यवस्था को भ्रष्टाचार का घुन लगा हो उस देश की शिक्षा व्यवस्था यह कहकर अपनी पीठ ठोक रही है कि हमारे पाठ्यक्रम में नैतिकता के महत्व पर ज़रूर दिया गया है। वह भी उपरोक्त अध्यायों के दम पर! यह कैसा मज़ाक है?
यही स्थिति आतंकवाद के मामले में है। देश पिछले कई दशक से आतंकवाद से जूझ रहा है। हमारा रक्षा-सुरक्षा बजट बढ़ रहा है। हम हथियारों के बड़े खरीददार बनते जा रहे हैं। सुरक्षा के कड़े से
कड़े नियम बना रहे हैं लेकिन फ़िर भी यह समस्या बढ़ी ही है। अभी तो नामी गिरामी शिक्षा संस्थानों से निकले युवाओं को भी आतंकवाद ने अपनी गिरफ्रत में ले लिया है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था में लगे लोग उपरोक्त पाठ्यक्रम के बल पर अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं।
देश को आगे ले जाने वाल शिक्षा कैसी होगी इसकी ज़िम्मेदारी हमने शिक्षा व्यवस्था को दी है। और खुद एनसीईआरटी के जवाब से तथा उसके जवाब से उभरे तथ्यों से ये सवाल उभरता है कि क्या यह ज़िम्मेदारी ठीक से निभाई जा रही है?

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

निगौडा सूचना का अधिकार

चंदन राय
मंत्रियों के मुरझाए चेहरे सहसा नियॉन बल्ब की मानिंद चमक उठे। महारानी की जय जयकार से राजमहल की दीवारें भी हिलने लगी थीं। महारानी ने उड़ती हुई नजर से चाटुकारिता में निपुण मंत्रियों की तरफ देखा। महारानी के राज सिंहासन पर विराजते ही मंत्रियों ने भी श्रेष्ठता के अनुसार जमीन पर आसन ग्रहण किया। उत्तम प्रदेश में महारानी के बारे में यह प्रसिद्ध था कि अपने दरबार में वे अपने बराबर किसी कुर्सी का होना पसंद नहीं करती। शायद विचार यह हो कि मंत्री अपनी नजरों में इतने गिरे हों कि सपने में भी बगावत के बारे में न सोच सकें। खैर इन दिनों एक और भय महारानी की रातों की नींद हराम किए था। हुआ यूं कि जनता की मांग पर उन्होंने एक आम सभा में सूचना का अधिकार लागू करने की घोषणा कर दी थी। बात यहीं तक होता तो गनीमत थी। मुई जनता तो मानो विद्रोह पर उतर आई थी। अब उन्हें महारानी की विलासिता और विदेश दौरे भी खटकने लगे थे। फ़िर भी महारानी बर्दाश्त कर लेती, पर एक अनोखी घटना ने उन्हें आपातकालीन दरबार लगाने को मजबूर कर दिया था। किसी सिरफिरे ने उनके विदेशी नस्ल के कुत्तों पर होने वाले खर्च की जानकारी मांग ली थी। अब मुई जनता को क्या मालूम कि विदेशी कुत्ते उनकी तरह गली कूचों में नहीं पला करते। इधर दिल्ली दरबार में भी महारानी की बड़ी अम्मा को नजले जुकाम होने लगे थे। मुददा वही निगोड़ा सूचना का अधिकार। तभी महारानी के मुंहलगे चमचे ने उनके कान में जाकर कोई मंत्र फुसफुसाया। महारानी का चेहरा खुशी से चमक उठा। महारानी के चेहरे पर छायी लाली को देखकर ही मंत्रियों के चेहरे पर भी चमक वाली घटना घटित हुई थी।
अब बात आगे की। मंत्रिपरिषद में खलबली मची थी कि आखिर उसने कौन सा ऐसा मंत्र फूंक दिया कि महारानी की बांछें खिल उठी। तभी महारानी ने भरी सभा में एलान किया कि महारानी, उनके विश्वासपात्र मंत्री, गुप्तचर विभाग और सेना से जुडी जानकारी जनता को नहीं दी जा सकती। सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत की सलामत। फुरसत के क्षणों में जनता को एक झुनझुना बजाने के लिए थमा दिया गया था। अब बजाते रहो जी भर के । आखिर लड़ने से अधिकार थोड़े ही मिलते हैं। ये तो महारानी की कृपा है कि अभी तक मुफ्त में ली जा रही हवा पर उन्होंने पहरे नहीं बिठाए। नहीं तो क्या मजाल कि इधर की हवा उधर हो जाए। अब भरते रहो टैक्स पर टैक्स। चापलूस मंत्रियों ने आंखें बंद कर और गर्दन उपर उठाकर गर्दभ राग में रेंकना शुरू किया। तभी एक दूत ने आकर खबर दी कि जनता ने बगावत के लिए तैयारी शुरू कर दी हैं। अब महारानी की खैर नहीं। एक बार फ़िर वही चिंता की लकीरें महारानी के चेहरे पर घिर आई थी और मंत्री चिंतामग्न हो कोई और उपाय तलाशने में लग गए।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

सूचना का सिपाही- मुजीबुर्र रहमान

घूस मत दो, सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करो। इसी तर्ज पर छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में रहने वाले मुजीबुर्र रहमान काम करते हैं और लोगों के रफके हुए जायज काम करवाने में मदद करते हैं। सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद से ही मुजीबुर्र को इसकी ताकत का एहसास हो गया था और तभी से इन्होंने इस कानून का जनहित में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। इनके आवेदनों का ही असर था कि अनेक लोगों के रुके हुए पेंशन मिले। बरसों से तिकड़मबाजी के जरिए अपने पसंदीदा स्थान पर पोस्टिंग का मजा ले रहे अधिकारियों के तबादले हुए। आवासीय क्वार्टर का व्यवसायिक इस्तेमाल कर रहे लोगों को नोटिस जारी हुआ और व्यवसायिक इस्तेमाल बंद हुआ।
कोल इंडिया की सहायक कंपनी साउथ इस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड में काम करने वाले मुजीबुर्र अपनी कंपनी की तानाशाही के खिलाफ ही खम ठोंककर खडे़ हो गए। दरअसल कोल इंडिया और उसकी सहायक कंपनी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने हेतु प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष के लिए धन इकट्ठा करती है और इसके लिए वह अपने कर्मचारियों की आय का एक हिस्सा काटती है। इसी क्रम में 42 करोड़ रुपये एकत्रित हुए लेकिन इसमें से 30 करोड़ रुपये की प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंचाए गए। मुजीबुर्र ने आरटीआई डालकर पीएमओ, कोल इंडिया और साउथ इस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड से इस संबंध में सूचनाएं मांगी लेकिन कहीं से भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला। अंत में केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्णय के बाद कोल इंडिया को 12 करोड़ की जगह ब्याज सहित 15 करोड़ की राशि प्रधानमंत्री कार्यालय भेजनी पड़ी। मुजीबुर्र इसे सूचना के अधिकार की सबसे बड़ी जीत मानते हैं।
हालांकि यह सब मुजीबुर के लिए इतना आसान नहीं रहा। सूचना मांगने पर उन्हें अपनी ही कंपनी के निदेशक की तरफ से अनेक बार धमकियाँ भी मिलीं, फ़िर भी वे विचलित नहीं हुए। सूचना के अधिकार पर यकीन किया और डटे रहे। ऐसे सूचना के सिपाही को हमारा सलाम।

(अपना पन्ना में प्रकाशित)

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

सूचना नहीं, मिली नौकरी

आरटीआई से सिर्फ सूचना मिलती हो, ऐसी बात नहीं है। अगर यकीन न आए तो रेवाड़ी की सपना यादव के इस उदाहरण को ही देख लें। मामला गुडगांव ग्रामीण बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी की नियुक्ति से जुड़ा है। सपना ने भी इस पद के लिए आवेदन किया था। लेकिन उसका चयन नहीं हो पाया। सपना परिणाम से संतुष्ट नहीं थी। आरटीआई के तहत सपना ने चयन प्रक्रिया से सम्बंधित प्रश्न पूछे। 7 दिसंबर 2007 को दाखिल आवेदन में सपना ने लिखित परीक्षा में अपनी मेरिट, चयन के लिए साक्षात्कार और शैक्षणिक योग्यता के लिए भारांक की जानकारी मांगी।
सपना को उम्मीद थी कि उसका निश्चित तौर पर चयन हो जाएगा लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उसने इसका कारण आरटीआई की मदद से जानना चाहा। आवेदन के जवाब में बैंक ने जानकारी दी कि मांगी गई सूचनाएं आरटीआई कानून के दायरे में नहीं आती। बैंक अधिकारियों ने कानून की धारा 8(१)(डी) की आड़ लेकर सूचना देने से मना कर दिया। प्रथम अपील का भी कोई परिणाम नहीं निकला। बाद में सपना में राज्य सूचना आयोग और फ़िर केन्द्रीय सूचना आयोग में अपील की। सीआईसी ने अगस्त 2008 में मामले की सुनवाई की और सपना के पक्ष में निर्णय सुनाया। आयोग ने बैंक को सभी सूचनाएं उपलब्ध कराने का आदेश दिया। दिलचस्प रूप से बैंक ने सूचना तो उपलब्ध नहीं कराई अलबत्ता 11 सितंबर 2008 को सपना को फोन कर प्रोबेशनरी अधिकारी के तौर पर बैंक ज्वाइन करने का अनुरोध किया। यह सपना के लिए आश्चर्य की बात तो थी ही साथ ही सपना का आश्चर्य उस वक्त और बढ़ गया जब पांच दिन बाद वह बैंक ज्वाइन करने पहुंची और उसे पता चला कि अन्य पांच छह लोगों को उपरोक्त पद पर नियुक्ति के लिए नियुक्ति पत्र जारी कर दिया गया है।

(अपना पन्ना में प्रकाशित)

सोमवार, 6 जुलाई 2009

संसदीय विशेषाधिकार का पेंच

नीरज कुमार
अमेरिका से एटमी डील के विवाद के दौरान यूपीए सरकार को जब सदन में विश्वास मत हासिल करना था, उसके कुछ घंटे पहले सदन में भारत के संसदीय इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना घटित हुई। भाजपा के तीन सांसदों ने सदन में नोटों की गडि्डयां लहराते हुए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पर यह आरोप लगाया कि यह नोट उन्हें सरकार के पक्ष में विश्वास मत के दौरान वोट देने के लिए घूस के रूप में मिले हैं जिसे एक मीडिया चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन के दौरान अपने कैमरे में कैद कर लिया था और उसे लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी को सौं दिया था। अरविंद केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया समेत कई लोगों ने जब सूचना के अधिकार के तहत आवेदन करके वीडियो टेप्स सार्वजनिक करने की मांग की तो लोकसभा ने मना कर दिया लोकसभा ने बताया कि वीडियो टेप अभी संसदीय समिति के पास हैं और जांच की प्रक्रिया चल रही है। जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक इस सूचना के दिए जाने से धरा 8 (१)(सी) का उल्लंघन होता है। इस धारा में बताया गया है कि ऐसी सूचना जिसके सार्वजनिक किए जाने से संसद या किसी राज्य के विधानमंडल के विशेषाधिकार का हनन होता है, उसे सूचना के अधिकार के तहत दिए जाने से रोका जा सकता है।

ऐसा ही एक मामला जिनमें वर्तमान केन्द्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी ने महाराष्ट्र के सामान्य प्रशासनिक विभाग से मुख्यमंत्री राहत कोष में मुंबई ट्रेन धमाकों के बाद प्राप्त अनुदानों के खर्चों का ब्यौरा मांगा था। सूचना यह कहकर देने से खारिज कर दी गई कि मुख्यमंत्री राहत कोष एक निजी ट्रस्ट है और कानून के दायरे में नहीं आता। जबकि शैलेष का मानना था कि राहत कोष एक पब्लिक बॉडी है और आयकर छूट का लाभ उठाती है। मुख्यमंत्री जनता का सेवक होता है इसलिए इस सूचना के दिए जाने से विधानमंडल के विशेषाधिकारों का हनन नहीं होता है।
एक मासिक पत्रिका से जुडे़ रमेश तिवारी ने उत्तर प्रदेश के स्पीकर और स्टेट असेंबली के सचिव के पास एक आवेदन किया था। आवेदन के माध्यम से यह जानना चाहा था कि क्या कोई लेजिसलेटर अपने आप से कोई सरकारी ठेका ले सकता है और यदि ऐसा ठेका लिया गया है तो क्या ऐसे सदस्य की असेंबली से सदस्यता रद्द की जा सकती है?

असेम्बली से रमेश को जब कोई जवाब नहीं मिला तो मामले को उन्होंने उत्तर प्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त के समक्ष प्रस्तुत किया। आयोग के तात्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त एम ए खान ने स्पीकर और सचिव को सूचना के अधिकार कानून के तहत नोटिस जारी कर दिए। नोटिस पाते ही सबसे पहले तो रमेश का आवेदन खारिज कर दिया और उसके बाद असेंबली में एक रेजोल्यूशन पास किया गया जिसके माध्यम से सूचना आयोग को चेतावनी दी गई कि आयोग का इस मामले में कोई लेना देना नहीं है और इस तरह की सूचना मांगे जाने से और आयोग द्वारा नोटिस भेजे जाने से विधानमंडल के विशेषाधिकार का हनन होता है। आयोग को आगे से ऐसे मामलों में सावधान रहने की चेतावनी दी गई।

राहुल विभूषण ने इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड और तीन सांसदों के बीच हुए पत्र व्यवहार की प्रतिलिपि मांगी थी। दरअसल एक रिटेल आउटलेट (पेट्रोल पंप ) को अनुबंधों की शर्तों का उल्लंघन करने के कारण बंद कर दिया गया था। इस पेट्रोल पंप को दोबारा खुलवाने के लिए तीन सांसदों ने पेट्रोलियम मंत्री को पत्र लिखा था। राहुल ने इस पत्र के जवाब की प्रतिलिपि मांगी थी जिसे यह कहकर देने से मना कर दिया गया कि इसे दिए जाने से संसद के विशेषाधिकारों को हनन होता है। आयोग में सुनवाई के दौरान आयुक्त ने माना कि सांसद द्वारा लिखे गए पत्र का संसद या संसदीय कार्रवाई से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है और इस सूचना के सार्वजनिक किए जाने से संसद के किसी विशेषाधिकार का कोई हनन नहीं होता है। आयुक्त ने मांगी गई सूचना को 15 कार्यदिवस में आवेदक को सौंपे जाने का आदेश दिया।

माया की `माया´

हिंदी पट्टी के पिछड़े राज्यों में से एक है, उत्तर प्रदेश। सामाजिक रुप से पिछड़ा हुआ और आर्थिक रुप से भी। लेकिन प्रदेश की मुख्यमंत्री बजाए असली मुद्दों पर ध्यान देने के पांच सितारा होटलों में रात्रि -भोज (पार्टी) का आयोजन करती है और वो भी जनता के पैसों पर। सूचना का अधिकार कानून के इस्तेमाल से निकली एक खास रिपोर्ट:-
दलित उत्थान की बात करने वाली मायावती की जन्मदिन की पार्टियां हमेशा से सुर्खियाँ बटोरती रही हैं। वजह, ऐसे मौकों पर होने वाली शाहखर्ची, सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल, कार्यकर्ताओं से मंहगे उपहार लेने जैसे आरोप। खैर ये आरोप तो विरोधी दलों की तरफ से लगाए जाते रहे हैं, लेकिन सूचना का अधिकार कानून के तहत जो जानकारी मिली है, उससे खुद को दलितों की मसीहा मानने में फक्र महसूस करने वाली मायावती की सखसियत के एक अलग ही पहलू का पता चलता है।
आरटीआई से निकली जानकारी के मुताबिक ये पूरा वाकया कुछ यूं है। मई 2007, राज्य विधान सभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज कर मायावती सरकार बनाती हैं। 13 मई 2007 को माया सरकार शपथ ग्रहण करती है। और 25 मई 2007 को माननीय मुख्य मंत्री दिल्ली के पांच सितारा होटल ओबरॉय में एक शानदार पार्टी (रात्रि-भोज) का आयोजन करती है। उपलब्ध दस्तावेज के मुताबिक इस रात्रि-भोज में विशिष्ट महानुभावों को आमंत्रित किया गया। हालांकि इस दस्तावेज में इन विशिष्ट महानुभावों के नाम का जिक्र नहीं है।
जाहिर है, विशिष्ट होटल में (पांच सितारा) विशिष्ट महानुभावों को दी गई पार्टी (रात्रि-भोज) का खर्च भी विशिष्ट ही आना था। सो, इस एक रात की पार्टी का खर्च आया 17 लाख 16 हज़ार 8 सौ 25 रुपये। और इस धनराशि का भुगतान स्थानीय आयुक्त, उत्तर प्रदेश शासन, नई दिल्ली के माध्यम से सचिवालय प्रशासन विभाग की ओर से किया गया। यह सूचना राज्य संपत्ति विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई गई है।
हो सकता है कि लोगों को ये रकम मामूली लगे। लेकिन सवाल धनराशि का नहीं है। सवाल पांच सितारा होटल में पार्टी देने का भी नहीं है। मायावती अपने जन्मदिन की पार्टियों पर जितना खर्च करती है उसके मुकाबले 17 लाख की रकम कोई बहुत बड़ी रकम नहीं मानी जा सकती। लेकिन सवाल उस व्यवस्था का है जहां हमारे नुमांइदों को ये सोचने की फुर्सत नहीं है कि जो एक पैसा भी वो अपने उपर खर्च करते है, वो गरीब जनता के हिस्से का होता है। वो गरीब जनता जिसकी प्राथमिकता आज भी रोटी, कपड़ा और मकान है। सवाल हमारे नेताओं की उस मानसिकता का भी है जो उन्हें पांच सितारा होटलों में पार्टी आयोजित करने के लिए प्रेरित करता है। और इसका एक बेहतरीन उदाहरण खुद मायावती ही है जो अपने जन्मदिन समारोह मनाने के लिए अंबेडकर पार्क का ही चुनाव करती थी। लेकिन 2007 के विधान सभा चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते जैसे बसपा का नारा बहुजन से बदल कर सर्वजन हो गया, कुछ उसी तर्ज पर सत्ता मिलने के बाद, मायावती की तरफ से दी जाने वाली पार्टियां भी पार्क से निकल कर पांच सितारा होटलों तक पहुंच गई।

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स्टेट गेस्ट हाउस के नाम पर..

एक आकड़े के मुताबिक हरेक साल जाड़े के मौसम में लगभग 2000 लोग ठंड की वजह से मर जाते हैं। वजह इन लोगों के पास सर छुपाने की छत नहीं होना। 2001 की जनगणना के हिसाब से देश में 4 लाख 47 हज़ार 5 सौ 22 ऐसे परिवार है, जिनके पास अपना कहने को घर नहीं। दूसरी ओर इसी देश के नीति-नियंताओं के लिए बने सरकारी गेस्ट हाउस पर सलाना करोड़ों रुपये का खर्च आता है। सूचना का अधिकार कानून के इस्तेमाल से मिले दस्तावेज के मुताबिक दिल्ली में स्थित विभिन्न राज्यों के स्टेट गेस्ट हाउस के रख-रखाव पर ही जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये बहा दिए जाते हैं। और इतने के बाद भी कुछ ऐसे मंत्री या मुख्यमंत्री है जिन्हें इन अतिथि गृहों में रुकना नहीं भाता। सो, उनके लिए पांच सितारा होटल की भी बुकिंग की जाती है।
आरटीआई के तहत उपलब्ध कराए गए दस्तावेज के मुताबिक, बिहार भवन और बिहार निवास के रख-रखाव पर, वित्तीय वर्ष 2006-07 में लगभग डेढ़ करोड़ (१४४००८७०) रुपयें व्यय हुए हैं। वही उत्तर प्रदेश भवन और उत्तर प्रदेश सदन पर उपरोक्त वित्तीय वर्ष में 75 लाख 75हज़ार 6 सौ 70 रुपये का खर्च आया। जबकि झारखंड सरकार का अपना कोई भवन नहीं है(2006-07 के दौरान) इसलिए ये किराए पर चलता है। और किराए के तौर पर 8 लाख 73 हज़ार 4 सौ 60 रुपये प्रति माह भुगतान किया जाता है। यानि एक वित्तीय वर्ष का किराया ही सिर्फ 1 करोड़ रुपये से ज्यादा। और सबसे दिलचस्प जवाब तो पंजाब सरकार का रहा जिसके मुताबिक पंजाब भवन के वार्षिक रख-रखाव का हिसाब-किताब उन्हें नहीं मालूम।
देश की राजनीतिक सत्ता का केंद्र है, दिल्ली। सो, लगभग सभी राजनैतिक दलों, राज्य सरकारों, उनके मंत्रियों और अधिकारियों का दिल्ली आना-जाना लगा रहता है। और यहां इन लोगों के ठहरने के लिए बकायदा हरेक राज्य सरकार का अपना राजकीय अतिथि गृह भी (स्टेट गेस्ट हाउस) है। आरटीआई कानून के तहत बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और झारखंड राज्य सरकारों से उपरोक्त गेस्ट हाउस के संबंध में कुछ जानकारी मांगी गई थी। जैसे 01-01-2007 से 10-11-2007 के बीच कितने मंत्रियों, मुख्यमंत्री , राज्यपाल, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इत्यादि अपने दिल्ली प्रवास के दौरान स्टेट गेस्ट हाउस में न रुक कर होटलों या निजी संस्थानों में ठहरे हैं और इसके लिए राज्य सरकार को अलग से भुगतान करना पड़ा हो। इसके साथ ही स्टेट गेस्ट हाउस के सलाना खर्च (रख-रखाव) के बारे में जानकारी मांगी गई थी।
झारखंड
बिहार से अलग हो कर अस्तित्व में आए झारखंड का नवंबर 2007 तक दिल्ली में अपना कोई गेस्ट हाउस नहीं था। इसलिए यह किराये पर चल रही था। किराये के तौर पर प्रति माह लगभग 9 लाख (८७३४६०) की दर से भुगतान किया जाता था। लेकिन झारखंड के मंत्रियों, मुख्यमंत्री और राज्यपाल महोदय को शायद किराये के मकान में ठहरना अच्छा नहीं लगता था। तभी इन महानुभावों के दिल्ली प्रवास के दौरान (01-01-2007 से 01-11-2007 के बीच) उन्हें होटलों और निजी संस्थानों में ठहराने पर 34 लाख रुपये खर्च किए गए। इन महानुभावों में राज्य के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा, राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी, झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित 11 वरिष्ठ मंत्रीगण भी शामिल थे। इन मंत्रियों के दिल्ली दौरे पर नज़र डालें तो पता चलता है कि 11 महीनें में 11 मंत्री, 61 बार दिल्ली प्रवास पर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दी गई सूचना (सूचना कानून के तहत) के मुताबिक 01-01-2007 से 01-11-2007 के बीच यूपी भवन और यूपी सदन के अलावा कहीं भी किसी मंत्री या मुख्यमंत्री या अधिकारी को उनके दिल्ली प्रवास के दौरान नहीं ठहराया गया। हां, जहां यूपी सदन के सलाना रख-रखाव पर 56 लाख (लगभग) रुपयें का खर्च आया वहीं यूपी भवन के उपर ये खर्च 20 लाख रुपये का था। लेकिन सबसे दिलचस्प मामला रहा मंत्रियों के दिल्ली दौरों का। 11 महीने में 16 मंत्रियों ने मिलकर 125 बार दिल्ली प्रवास का लुत्फ़ उठाया।

बिहार
बिहार सरकार ने उपरोक्त सूचना एकत्र करने के लिए इस आरटीआई आवेदन को सरकार के सभी विभाग में भेज दिया था। लगभग 5 विभागों और उच्च न्यायालय की तरपफ से सीधे भेजी गई सूचना के मुताबिक सम्बंधित विभाग के मंत्री या अधिकारी अपने दिल्ली प्रवास दौरे पर हमेशा बिहार भवन/निवास में ही रूके हैं। हालांकि अभी भी अन्य कई विभागों से सूचना नहीं आ सकी है।

पंजाब
और सबसे दिलचस्प जवाब रहा पंजाब सरकार का जिसके मुताबिक राज्य सरकार की तरफ से दिल्ली दौरे पर गए किसी भी अधिकारी या मंत्री को निजी संस्थानों या होटलों में ठहरने की इजाजत नहीं है और न ही इसके लिए उन्हें कोई भत्ता दिया जाता है। लेकिन पंजाब सरकार को ये नहीं मालूम है कि दिल्ली स्थित पंजाब भवन के वार्षिक रख-रखाव पर राज्य सरकार को कितना खर्च करना पड़ता है।

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शनिवार, 4 जुलाई 2009

निशाने पर आरटीआई

शशि शेखर
भारत देश आज भी अंग्रेजों के बनाए अधिकतर कानून के सहारे ही चल रहा है। साठ सा बाद भी बाबा आदम के जमाने में बने ऐसे कानूनों को हटाने या बदलने की जरूरत देश कर्णधारों को महसू नहीं होती, जो उन्हें आम लोगों पर सत्ता और ताकत देते है, लेकिन 4 साल पुराने आरटीआई कानून से आखिर हमारे नेताओं को ऐसी क्या दुश्मनी है कि जिसे देखों वही इसमें संशोधन की बात कर रहा है।
और अब तो सिर्फ बात ही नहीं हो रही है। 2 जून 2009 को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर 14 महत्वपूर्ण विषयों को इस कानून के दायरे से बाहर निकालने का तुगलकी फरमान भी जारी कर दिया। यहां तक कि इस बारे में राज्यपाल के नाम से अधिसूचना जारी करने से पहले इस मामले पर राज्यपाल की सहमति लेना भी जरूरी नहीं समझा गया।
यह अलग बात है कि अचानक मीडिया में मामला उछल गया और सरकार को 5 दिन बाद ही अपना फैसला बदलना पड़ा। हालांकि 5 मामले अभी भी ऐसे है जिन्हे सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करने पर मायावती सरकार अड़ी हुई है। ये मुद्दे हैं, राज्यपाल की नियुक्ति,मंत्रियों राज्यमंत्रियों एवं उप मत्रियों की नियुक्ति, मंत्रियों के लिए आचरण संहिता, राज्यपाल की ओर से राष्ट्रपति को भेजे जाने वाली मासिक अर्ध शासकीय पत्र की सामग्री, हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित पत्रावली इत्यादि, जिन पर सूचना नहीं दी जा सकती है।
यानि उत्तर प्रदेश सरकार ने कानून के नियमों में बदलाव कर अपने हर गुनाह और भ्रष्टाचार को छुपाने की व्यवस्था कर ली है। अब मंत्री या सांसद जो चाहे करे, जनता को उस पर सवाल उठाने का हक नहीं होगा।
आरटीआई कानून की जिस धारा 24 की आड़ लेकर राज्य सरकार ने जो बदलाव किए हैं उसमें सिर्फ सुरक्षा और जांच एजेंसी जैसे विषय ही शामिल है। और इसमें भी संशोधन के लिए विधानमंडल द्वारा प्रस्ताव पास होना जरूरी है। लेकिन ऐसा लगता है कि मायावती के लिए कानून को तोड़ना-मरोड़ना मानो बच्चों का खेल हो। सरकार क्या बताएगी कि जिस राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, उस विषय को आरटीआई कानून से बाहर करने का क्या मतलब है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मंत्रियों की आचरण संहिता को जनता से छुपाना, क्या लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन नहीं है।
कानून के जानकारों और विधिवेत्ताओं की राय में मायावती सरकार का यह कदम असंवैधानिक होने के साथ-साथ अलोकतांत्रिक भी है। असंवैधानिक इसलिए भी क्योंकि सरकार ने बड़े ढ़िठाई के साथ राज्यपाल के नाम से अधिसूचना जारी कर दी और ऐसा करने से पहले राज्यपाल की सहमति भी नहीं ली गई।

उधर, अधिसूचना जारी होते ही, सूचना के अधिकार से जुड़ी कई स्वंयसेवी संस्थाओं और कार्यकर्ताओं की तरफ से सरकार के इस कदम का विरोध भी शुरू हो गया। जनभावना को देखते हुए कुछ राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दें पर अपना विरोध दर्ज कराया और राज्यपाल से इस अधिसूचना को निरस्त करने की मांग की।
अंतत:, बढ़ते जनअसंतोश और चौतरफा विरोध के चलते सरकार ने अपने फैसले में थोड़ा परिवर्तन करते हुए, 9 विषयों को पुन: कानून के दायरे में रख दिया जिसमें महाधिवक्ता की नियुक्ति, मंत्रियों, सांसदों के खिलाफ शिकायक की जांच, पद्म पुरस्कारों से जुड़ी सूचना, उप्र कार्य नियमावली 1975 की अधिसूचनाएं, साइफर कार्य, अन्य राज्यों के कार्य नियमावली से संबंधी कार्य, भारत सरकार के एलोकेसन ऑफ रूल्स ऑफ बिज़नेस, सचिवालय अनुदेश संशोधन एवं व्याख्या, उप्र कार्य (बंटवारा) नियमावली 1975 की अधिसूचनाएं जैसे मुद्दे शामिल है।
हालांकि अभी भी 5 अति महत्वपूर्ण मुद्दों को आरटीआई की छतरी से बाहर ही रखा गया है। और ये वो मुद्दे हैं, जहां सरकारी भ्रस्ताचार और मनमानी करने की सबसे अधिक संभावना है। आखिरकार, सरकार के इस कदम को क्या माना जाए? जनतंत्र की मूल भावना की हत्या या फिर उत्तर प्रदेश सरकार की निरंकुशता।

(अपना पन्ना में प्रकाशित)

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कमजोर होता कानून, टूटती उम्मीदें

चार साल पहले बड़ी उम्मीदों के साथ आए सूचना अधिकार कानून से लोगों का भरोसा टूट रहा है। इसका श्रेय सबसे पहले अंग्रेजों के ज़माने से अपनी मनमानी करती आ रही नौकरशाही को दिया जा सकता है जो कहीं अपने भ्रष्टाचार के चलते तो कहीं अहंकार के चलते इस कानून को कुचलने का काम करते रहे हैं। लेकिन इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी सूचना आयुक्त के पदों पर बैठे लोगों की बनेगी। सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बैठने वाले पूर्व नौकरशाहों से तो कोई उम्मीद थी ही नहीं क्योंकि वे तो पहले से ही काम करने में मनमर्जी और गोपनीयता के पोषक रहे हैं लेकिन लालबत्ती की चमक, आगे पीछे घूमते पुलिस वाले और अफसरी रौब के आगे उनका अस्तित्व भी मिट गया, जिनसे उम्मीद थी कि वे कुछ दम दिखाएंगे। हालात ये हैं कि इस कानून के तहत सूचना मांगने वाले बहुत से लोगों को आयोग में अपील करना, समय और धन की बरबादी लगने लगा है।
तब क्या सूचना अधिकार कानून निष्क्रिय हो गया है? क्या यह कानून दम तोड़ रहा है? इस कानून का इस्तेमाल करने वाले अधिकतर लोगों की राय में यह अब कारगर नहीं रह गया है। इनमें से भी ज्यादातर का मानना है कि लोक सूचना अधिकारी के स्तर पर अगर सूचना नहीं मिली तो उसके बाद आयोग में जाना बेकार है। किसी राज्य में चले जाइए या केंद्र स्तर पर देख लीजिए इसके हज़ारों उदाहरण मिल जाएंगे।
नीचे हम ऐसे उदाहरण दे रहे हैं जिन्हें पढ़कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज सूचना के अधिकार कानून के साथ नौकरशाही और सूचना आयुक्तों ने मिलकर क्या खेल खेला है। साथ ही ऐसे उदाहरण भी दे रहे हैं जिन्हें पढ़कर हर नागरिक के मन में यह साफ हो सके कि आखिर यह कानून जरूरी क्यों है।

सूचना का अधिकार कानून आज एक मज़ाक बनकर रह गया है क्योंकि-
1 जुर्माना! नहीं लगाना
केंद्र और राज्यों के लगभग तमाम सूचना आयुक्त सूचना न देने वाले अधिकारियों पर जुर्माना लगाने से बचते रहे हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग में अब तक महज 211 मामलों में जुर्माना लगाया गया है। देश के मुख्य सूचना आयुक्त ने इसे हिंसा मानते हुए यह कहकर पल्ला झाड़ लिया था कि `मैं तो अहिंसा में विश्वास करता हूं।´ फ़िर भी केंद्रीय सूचना आयोग में सबसे ज्यादा जुर्माना लगाने वाले आयुक्त भी वही हैं। यहां तक कि जनता जनार्दन की मांग पर आयुक्त बनाए गए शैलेष गाँधी भी अपनी श्रेष्ठता एक दिन में अधिक से अधिक मामले निपटा कर दिखाने में लगे हैं, जबकि यह साफ हो चुका है कि जुर्माने का प्रावधन नहीं होता तो सूचना अधिकार के तहत सूचना कभी मिली ही नहीं होती। जब तक सूचना न देने वाले अधिकारियों पर जुर्माना लगना शुरू नहीं होता, जब तक यह कानून मजाक ही बनता रहेगा।

2. कह दिया सो कह दिया
केन्द्रीय सूचना आयोग ने इस कानून के तहत शिकायत या दूसरी अपील दाखिल करने के नियम ऐसे बनाए हैं कि अच्छे अच्छे पढ़े लिखे अपील तैयार करने में मात खा जाएं। अपील बनाने में इतनी औपचारिकताएं हैं कि कोई साधारण आदमी सही से अपील बना ही नहीं सकता। इसी के चलते आयोग में आने वाली 45 फीसदी अपील खारिज हो चुकी हैं। कानपुर आईआईटी में पढ़ा चुके और जाने माने साहित्यकार गिरिराज किशोर की अपीलें भी यहां इसलिए खारिज हो चुकी हैं क्योंकि वे इन तानाशाही नियमावली के अनुरूप नहीं थीं। इतना ही नहीं केंद्रीय सूचना आयोग ने अपनी नियमावली में परिवर्तन कर स्पष्ट किया है कि वह अब पुनर्विचार याचिकाओं पर विचार नहीं करेगा। यानि अगर कोई वादी आयोग के फैसले से असंतुष्ट है तो वह कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। आयोग उनकी एक नहीं सुनने वाले। केंद्रीय सूचना आयोग की तर्ज़ पर अब उत्तर प्रदेश सूचना आयोग भी चल पड़ा है।

3. आरटीआई का इस्तेमाल, मिसयूज कैसे?
भ्रष्ट अफसरों और नेताओं के साथ-साथ देश के लगभग सभी सूचना आयुक्त यह कहते मिल जाएंगे कि सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल ठीक लोग नहीं कर रहे हैं। लोग इसका `मिसयूज´ कर रहे हैं। उन्हें यह कौन समझाए कि कानून बनाते वक्त संसद ने इसमें सिर्फ अच्छे लोगों के इस्तेमाल के लिए की शर्त नहीं डाली है। इतना ही नहीं कई सूचना आयुक्त जिनमें केंद्रीय सूचना आयुक्त एम एम अंसारी सबसे आगे हैं, यह कहते घूमते हैं कि इस अधिकार से लोग अपने निजी मामले सुलझाने में लगे हैं। अंसारी साहब से यह बात कई बार पूछी गई है कि क्या सूचना का अधिकार सिर्फ देश सेवा में लगे लोगों को ही मिलेगा। क्या एक आदमी जो रिश्वत नहीं देता उसे यह जानने का हक़ नहीं है कि उसके पासपोर्ट आवेदन का क्या हुआ? क्या किसी गरीब को यह जानने का हक़ नहीं है कि उसके हिस्से का राशन कहां जा रहा है? क्या किसी सरकारी कर्मचारी को यह जानने का हक़ नहीं है कि उसका ट्रांसफर क्यों किया गया, उसका प्रमोशन क्यों नहीं हुआ? जिस व्यवस्था में लोगों को मोटरसाइकिल की आर.सी. तक बिना रिश्वत दिए न मिलती हो वहां लोगों से उम्मीद की जाए कि सरकार के बड़े-बड़े कामों के बारे में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल शुरू करें, ऐसी सोच पीड़ा देती है। जो सूचना आयुक्त इस तरह के मामलों को सूचना के अधिकार के इस्तेमाल में कमी के रूप में देखते हैं वे ही इस कानून की भ्रूण हत्या के ज़िम्मेदार हैं।

4. पैसा जनता का पर जवाबदेही नहीं
एक हाई प्रोफाइल संस्था, जो सरकार के पैसे से चलती है। सरकारी कोठी में जिसका दफ्तर है वह सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आती, ऐसी लिखित सलाह खुद देश के मुख्य सूचना आयुक्त जनाब वज़ाहत हबीबुल्ला संस्था को देते हैं और संस्था उसके आधार पर सूचना देने से मना कर देती है। यह अलग बात है कि हाई कोर्ट के निर्देश के बाद तीन सूचना आयुक्तों की पीठ ने जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड नाम की इस संस्था को सूचना अधिकार कानून के दायरे में माना है। इस मामले में सूचना मांगने वाले बी आर मन्हास जिन्होंने 27 नवंबर 2006 को यह सूचना मांगी थी, उन्हें आज तक सूचना नहीं मिली है, अब भी हौसला बनाए हुए हैं। लेकिन उनके प्रयासों को देखकर कितने लोग सूचना मांगने की हिम्मत जुटा सकते हैं?

5. आयोग का क्या औचित्य?
सूचना के अधिकार की सर्वोच्च संस्था केन्द्रीय सूचना आयोग भी अहम मुद्दों पर निर्णय लेने से कैसे बचना चाहता है, इसकी एक मिसाल कैबिनेट मंत्रियों की संपत्ति सार्वजनिक किए जाने का मामला है। कैबिनेट सदस्यों की संपत्ति के सार्वजनिक करने के मामले में आयोग ने कहा कि यदि लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी यदि चाहें तो कैबिनेट सदस्यों की संपत्ति सार्वजनिक की जा सकती है। इससे निर्णय से सवाल उठता है कि यदि आयोग इतने महत्वपूर्ण मामले पर स्पष्ट फैसला देने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष पर छोड़ देता है तो ऐसे में आयोग का क्या औचित्य?

6. बदमिजाज सूचना आयुक्त
सुनवाइयों और सूचना मिलने की उम्मीद से आयोग जाने वाले आवेदनकर्ताओं की आशाएं उस वक्त टूटती हैं जब सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बैठे आयुक्त महोदय सूचना दिलाने के बजाय आवेदक को ही डांटते-डपटते हैं। कभी-कभी तो ये आयुक्त धमकी तक दे देते हैं। `फटीचरगिरी पत्रकारिता करते हो, दो टके के पत्रकार सारी पत्रकारिता भुला दूंगा, तेरा अखबार बंद करवा दूंगा, निकल जा मेरे कक्ष से।´ ये वचन उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त बृजेश कुमार मिश्रा ने पत्रकार मुन्ना लाल से एक सुनवाई के दौरान कहे। मुन्ना लाल 16, फरवरी 2009 को प्राधिकृत वादी के तौर आयोग में सुनवाई के लिए गए थे।
इसी तरह बांदा के राजाभैया जब उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में पहुंचे तो सूचना आयुक्त सुनील चोधरी ने कहा, `आप ही हैं राजाभैया, तुमने क्या आरटीआई का ठेका ले रखा है।´ बहरहाल ये तो राज्य सूचना आयोग की स्थिति है लेकिन केन्द्रीय सूचना आयोग भी इस मामले में कम नहीं है। सामाजिक कार्यकर्ता से सूचना आयुक्त बने शैलेष गाँधी तक के बारे में लोग ऐसी शिकायतें कर रहे हैं कि वे अफसरों के सामने आवेदकों को कहते हैं, `आप डिपार्टमेंट को परेशान कर रहे हैं।´

7. लटकते मामले, बढ़ती निराशा
सूचना का अधिकार पेंडेंसी की वजह से भी दम तोड़ रहा है। आयोग अदालती ढर्रे पर चलने लगे हैं। लोगों को सुनवाई के लिए एक से दो साल तक इंतजार करना पड़ रहा है। सूचना आयोगों की सुस्ती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग ने सात सूचना आयुक्त होने के बावजूद साल 2008 में मात्रा 880 मामलों की सुनवाई की है।
महाराष्ट्र सूचना आयोग का ऑडिट करने पर पता चला है कि आयोग के छह सूचना आयुक्त प्रतिदिन औसतन 5 अपील या सुनवाइयों को निस्तारित करते हैं। यही कारण है कि पेंडिंग केस की संख्या में यह आयोग पहले स्थान पर है। महाराष्ट्र सूचना आयोग की हालत यह है कि यहां 15438 मामले पेंडिंग हैं जिस कारण सुनवाई की पहली तारीख लगने में डेढ़ से दो साल का समय लग रहा है। कर्नाटक सूचना आयोग की स्थिति यह है कि मार्च 2009 के अंत तक यहां पेंडिंग मामलों की संख्या 5200 है। सुनवाई के मामले में पश्चिम बंगाल सूचना आयोग तो और दो कदम आगे है। आयोग ने तीन सालों में मात्र 116 सुनवाइयां की हैं। उत्तर प्रदेश सूचना आयोग का भी कुछ ऐसा ही हाल है जहां सूचना के बजाय सिर्फ तारीखें ही मिल रही हैं। लखनउ के डीएवी महाविद्यालय में रीडर देवदत्त शर्मा की 17 सुनवाईयां आयोग में लगीं, पर उन्हें अब तक सूचनाएं नहीं मिली हैं। लखनउ के ही अशोक कुमार गोयल को 18 सुनवाइयों के बाद भी सूचना नहीं मिली है।

8. क्यों नहीं वसूला जाता जुर्माना
सूचना आयोग एक तो जुर्माने नहीं लगाता। दूसरा, गलती से जो जुर्माने लगा भी देता है, उसे वसूलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता। बानगी के तौर पर महाराष्ट्र और केन्द्रीय सूचना आयोग को लिया जा सकता है। महाराष्ट्र सूचना आयोग ने साल 2008 में सूचना कानून का पालन न करने वाले लोक सूचना अधिकारियों पर 2 लाख 21 हजार 600 रुपए का जुर्माना लगाया था। लेकिन इस जुर्माने का महज एक प्रतिशत हिस्सा ही अब तक वसूला जा सका है। दूसरी तरफ केन्द्रीय सूचना आयोग ने 2005 से 2008 के बीच दिल्ली नगर निगम पर 3 लाख 81 हजार का जुर्माना लगाया लेकिन इसमें से केवल 1 लाख 10 हजार रुपए ही वसूल पाया है।

9. जेल भी भिजवा सकता है आयोग
सूचना आयुक्तों के पास सूचना दिलवाने का जो अधिकार कानून ने उन्हें दिया है, उसका इस्तेमाल वो भले ही न करें, लेकिन अपने अफसर होने के गुमान ने उन्हें बदतमीज और बेलगाम बना दिया है। शायद तभी ये सूचना आयुक्त आवेदकों या कार्यकर्ताओं पर झूठा केस दर्ज कराने से लेकर उन्हें जेल भिजवाने में भी नहीं हिचकते।
ताजा मामला महाराष्ट्र सूचना आयोग का है, जहां मुख्य सूचना आयुक्त सुरेश जोशी के आदेश पर मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता कृष्णराज राव और उनके 11 साथियों पर झूठा केस दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया गया। यही हाल उत्तर प्रदेश सूचना आयोग का भी है, जहां यूपी आरटीआई टास्क पफोर्स के अध्यक्ष शैलेन्द्र सिंह को सूचना आयोग के इशारे पर रात को एक बजे घर से गिरफ्तार किया गया।
इस मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग भी दूध का धुला नहीं है। केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश पर 40 महिलाओं को गिरफ्तार किया गया था। ये महिलाएं जुलाई 2009 को अपने केस को पदमा बालासुब्रमण्यम की बैंच से ट्रांसफर करवाने के लिए आयोग गई थी। मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के अनेक आश्वासनों के बाद भी जब ऐसा नहीं किया गया तो वे आयोग में सत्याग्रह करने लगी। आयोग को महिलाओं का यह रवैया रास नहीं आया और इन्हें गिरफ्तार करवा दिया गया।

10. आयुक्तों के खिलाफ 67 शिकायतें
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल कार्यालय को सूचना आयुक्तों के खिलाफ सितंबर 2008 तक 67 शिकायतें मिल चुकी हैं और इनमें से किसी भी शिकायत पर राज्यपाल कार्यालय की तरफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। यह जानकारी खुद राज्यपाल कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने सूचना का अधिकार जागरूकता मंच के राम सरन शर्मा द्वारा दायर आवेदन के जवाब में दी है। उत्तर प्रदेश के आयुक्तों के अलावा देश भर के कई आयुक्तों की शिकायतें मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक पहुंची हैं। फ़िर भी इनके खिलाफ अब तक कोई ठोस कार्रवाई हुई हो, ऐसा देखने को नहीं मिला। जाहिर है, ऐसे आयुक्तों से कोई क्या उम्मीद करे।

11 जनता के सामने पारदर्शी नहीं होना चाहती सरकारें
सरकार चाहे केंद्र की हो या किसी राज्य की, जनता के प्रति जवाबदेही और पारदर्शिता को छोड़कर आप उनसे कुछ भी मांग सकते हैं। सड़क, पानी, बिजली यहां तक कि साइकिल, टीवी और दो रुपए किलो चावल तक आपको भीख में दे सकते हैं। हर सरकार खुद को जनता की, आम आदमी की, गरीबों की, किसानों की सरकार कहते नहीं थकती, लेकिन जनता कामकाज और खर्चे के बारे में पूछे, यह कैसे हो सकता है।
सूचना के अधिकार को लेकर यही रवैया है तमाम सरकारों का। उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने तो तमाम हदें पार करते हुए इस कानून के पंख ही काट डाले हैं। उन्होंने मंत्रियों की आचार संहिता तक को कानून के दायरे से बाहर निकाल दिया है।

12. तोहफे में मिलती है सूचना आयुक्त की कुर्सी
सामान्य परिस्थितियों में एक आईएएस अफसर के लिए भी मुख्य सचिव जैसा ओहदा पाना एक कठिन काम है। तमाम मेहनत, तिकड़म और जोड़-तोड़ आदि के बाद कुर्सी मिलती भी है तो महज़ एक दो साल के लिए, लेकिन जब नेताओं से नज़दीकी और राजनीतिक घरानों में निष्ठा के चलते ही इतना बड़ा पद मिलता हो, वह भी सीधे पांच साल के लिए। उस पर भी ताकत इतनी कि कोई आसानी से हटा भी न सके। सूचना के अधिकार कानून की रखवाली के लिए सूचना आयुक्तों की कुर्सी को मिली यह ताकत ही इसका अभिशाप बन गई। राज्य सूचना आयोग में आयुक्त का दर्जा मुख्य सचिव के बराबर का होता है। मुख्य सूचना आयुक्त और केंद्र की तो बात इससे ऊपर ही है। किसी को लालबत्ती पानी है तो किसी को बनाए रखनी है। इसी के चलते बड़ी संख्या में नौकरशाह इस कुर्सी की ओर लपक रहे हैं।
आज आयुक्त की कुसियों पर ज्यादातर ऐसे लोग बैठे हैं जिन्हें सूचना के अधिकार, पारदर्शी और जवाबदेह शासन व्यवस्था की न तो कोई समझ है और ने कोई इच्छा। उन्होंने ज़िंदगी में ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे उन्हें इस पद के योग्य माना जा सके। एकमात्र योग्यता रही नेताओं और राजनीतिक घरानों से नज़दीकियां। उत्तराखंड, पंजाब, कर्नाटक सहित कई राज्यों में तो राज्यों के मुख्य सचिवों ने सीधे मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी संभाली, भले ही इसके लिए उन्हें वक्त से पहले रिटायरमेंट लेना पड़ा हो। उत्तर प्रदेश में तो सतीश मिश्रा के साथ काम करने वाले उनके चार जूनियरों को ही आयुक्त बना दिया गया है। पूरे देश में आयोगों का यही हाल है। आज यही लोग सुनिश्चित कर रहे हैं कि सूचना के अधिकार का ढिंढोरा भी बजता रहे और उनके आकाओं के भ्रष्टाचार पर भी कोई आंच न आए।

13. बंद होने की कगार पर सूचना आयुक्त के कार्यालय
फंड की कमी के चलते महाराष्ट्र सूचना आयोग के नागपुर और औरंगाबाद सूचना आयुक्त के कार्यालय बंद होने की कगार पर हैं। फंड उपलब्ध न होने की वजह से महीनों से कार्यालय के टेलीफोन, स्टेशनरी, बिजली और यात्रा का बिल नहीं चुकाया गया है। नागपुर के सूचना आयुक्त विलास पाटिल, औरंगाबाद के विजय भोरगे और पुणे के विजय कुवलेकर ने खुलेआम राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त सुरेश जोशी पर फंड उपलब्ध न कराने और कानून के विरुद्ध काम करने के आरोप लगाएं हैं। जब एक ही आयोग के आयुक्तों के बीच टकराव हो और वे बिजली, स्टेशनरी की कमी से जूझ रहे हों तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वहां सूचना मांगने वाले लोगों को न्याय मिलेगा।

14. सूचना के बदले पैसे
गाज़ियाबाद के रहने वाले कुलदीप सक्सेना ने बिजली विभाग से अपने इलाके के बिजलीघर की क्षमता और तीन महीने की सप्लाई के बारे में जानकारी मांगी तो विभाग ने उन्हें कहा कि सूचना देने के लिए एक कर्मचारी लगाना पडे़गा जिस पर 5000 का खर्च आएगा। इसी तरह भोजपुर जिले के गुप्तेश्वर सिंह ने राशन विभाग से अनाज और मिट्टी के तेल के बारे में सूचना मांगी तो उनसे 78 लाख रुपए की मांग की गई। वह भी तीस दिन की अधिकतम समयावधि के बाद। इसी तर्ज़ पर मेरठ विश्वविद्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने संदीप पहल को सूचना देने के लिए क्लर्क और चपरासी के एक-एक महीने का वेतन मांगा। संदीप ने बीएड पाठ्यक्रम में सीटों की संख्या, इस सम्बन्ध में जारी किए गए शासनादेशों की प्रति तथा आरक्षण का लाभ पा रहे छात्रों के बारे में जानकारी मांगी थी। यह हथकंडा देश के सैकड़ों लोक सूचना अधिकारी आज़मा रहे हैं।

15. सूचना देने के कैसे-कैसे बहाने
सूचना कानून के तहत सूचना न देने के लिए लोक सूचना अधिकारी ऐसे अजीबोगरीब तर्क देते हैं, जिसका कोई मतलब नहीं होता। उत्तर प्रदेश सूचना आयोग संस्था के लेटरहेड पर सूचना मांगने पर आवेदन निरस्त कर देता है। रंजन कुमार की शिकायत संख्या 4269, मधुसुदन श्रीवास्तव की शिकायत 42700, अशोक कुमार सिंह की शिकायत एस 10-418(सी , मोज्जिमिल अंसारी की शिकायत संख्या एस 262(सी ) एवं कुंवर मनोज सिंह की शिकायत संख्या एस 10-173 (सी) इसी आधर पर निरस्त कर दी गईं। लखनऊ के सुरेन्द्रपाल रस्तोगी ने भारतीय निर्वाचन आयोग से जानकारी मांगी कि पोलिंग बूथ में तैनात किए जाने कर्मियों को अलग-अलग राज्यों में कितना मेहनताना दिया जाता है। आयोग ने आवेदन को धरा 6(३) के तहत विभिन्न राज्यों के निर्वाचन आयोगों में प्रेषित कर दिया। जम्मू-कश्मीर निर्वाचन आयोग की तरफ़ से आवेदक को पत्र मिला जिसमें कहा गया कि आवेदन हिन्दी के बजाय अंग्रेजी में भेजें।

16. आवेदन शुल्क का पेंच
आवेदन लेने में फीस का पेंच इस तरह फंसा है कि इसने एक सामान्य से कानून का इस्तेमाल भी पेचीदा बना दिया है। एक तरफ़ हरियाणा, जैसे राज्यों में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन करने के लिए 50 रुपए देने पड़ते हैं वहीं अरुणाचल में यह फीस 10 रुपए से 500 रुपए तक है। हाई कोर्ट्स में तो यह 500 रुपए कर ही दी गई है। जहां 10 रुपए भी फीस है वहां भी हाल बेहाल है। नकद की रसीद नहीं, डिमांड ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर किस नाम से बनेगा कोई बताने को तैयार नहीं। गाजियाबाद के सुशील राघव जब अपना आरटीआई आवेदन यूपीएसआईडीसी के कार्यालय में जमा करने पहुंचे तो लोक सूचना अधिकारी ने पहले तो नगद आवेदन शुल्क लेने से ही मना कर दिया और बाद में कैश के बदले चैक जमा करने को कहा। इसके अलावा कई राज्य सरकारों ने आरटीआई नियमावली में संशोधन कर, आवेदन शुल्क 50 रुपए और फोटोकोपी शुल्क 10 प्रतिपेज कर दिया है। कुछ राज्यों में तो अपील के लिए भी शुल्क निर्धारित है, जबकि मूल कानून में अपील के लिए किसी भी तरह के शुल्क का प्रावधान नहीं है।

17. लोक सूचना अधिकारियों की गुंडई
आयोग तो आयोग, लोक सूचना अधिकारी भी आवेदकों पर फर्जी मुकदमा करने, धमकाने, जेल भिजवाने से लेकर उनके साथ मारपीट करने में पीछे नहीं हैं।
`जागरुक आदमी जेल मे सड़ते है या किसी गली में मरे पड़े मिलते हैं।´ यह बात उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने लखनऊ के सलीम बेग को कही। बेग ने सूचना के अधिकार कानून के तहत कॉन्सटेबल पद के लिए आवेदकों के नाम, पते एवं चयनित उम्मीरवारों के नाम, पता और आरक्षण अनुपात की जानकारी मांगी थी। जब सूचना आयोग ने सारी सूचनाएं उपलब्ध कराने का आदेश दिया तो विभाग के लोक सूचना अधिकारियों को यह नागवार गुजरा। चूंकि मामला पुलिस विभाग से जुड़ा था, सो पुलिस ने फर्जी एफआईआर दर्ज कर बेग को 17 दिनों के लिए जेल में बंद कर दिया।
इसी तरह बीएसएनएल, आजमगढ़ के अधिकारी और कर्मचारी आरटीआई आवेदनों से इस तरह परेशान हो गए कि उन्होंने सूचना मांगने वाले स्थानीय निवासी रवि कुमार मौर्य की कार्यालय में ही पिटाई कर दी। साथ की झूठा पुलिस केस भी दर्ज करा दिया। रवि ने कार्यालय में हमेशा देर से आने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों की सूचना मांगी थी। आजमगढ़ के ही इन्द्रसेन सिंह को जिला प्रशासन ने इसलिए गिरफ्तार करवा दिया क्योंकि उन्होंने एक ऐसी संस्था के लेटरहेड पर आवेदन जमा किया था जो रजिस्टर्ड नहीं थी।

18. धारा 8 के मायने
सूचना देने से बचने के लिए लोक सूचना अधिकारियों और अपीलीय अधिकारियों द्वारा आरटीआई कानून की धारा 8 का अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने के कई उदाहरण सामने आएं हैं। तमिलनाडु के सी. रमेश ने जब आरटीआई के तहत फरवरी 2002 से मार्च 2002 के दौरान तात्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन और प्रधानमंत्री अटल बिहारी के बीच हुए पत्र व्यवहार की प्रतिलिपि मांगी तो सूचना कानून की धरा 8(१)(ए) का हवाला देते हुए सूचना देने से मना कर दिया गया। कहा गया कि इसे सार्वजनिक किए जाने से देश की एकता और अखंडता पर विपरीत असर पड़ सकता है। दिल्ली के दिव्यज्योति जयपुरियार ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी उत्तर पुस्तिका उपलब्ध कराने की मांग की तो दिल्ली विश्वविद्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने धारा 8 का हवाला देते हुए जवाब दिया कि उत्तरपुस्तिका सार्वजनिक करने से देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, इसलिए इसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। दिल्ली के अफरोज ने बाटला हाउस एनकाउंटर के संबंध में दिल्ली पुलिस से कुछ सूचनाएं मांगी थी। जवाब में कानून की धरा 8(१)(बी) की आड़ लेते हुए बताया गया कि मामला कोर्ट में विचाराधीन है, इसलिए सूचनाएं नहीं दी जा सकतीं। जबकि कोर्ट ने सूचना सार्वजनिक न किए जाने का कोई आदेश प्रकाश में नहीं आया था। नई दिल्ली के प्रमोद सरीन ने दिल्ली कॉलेज और इंजीनियरिंग की संयुक्त प्रवेश परीक्षा परिणाम से असंतुष्ट होकर आरटीआई के तहत प्रश्न पत्र, ओएमआर शीट की छायाप्रति मांगी। विश्वविद्यालय प्रशासन ने यह कहते हुए सूचना देने से मना कर दिया कि प्रश्न पत्र और उनके जवाब विश्वविद्यालय की बौधिक संपदा है, इसलिए इन्हें कानून की धारा 8(१)(दी) के तहत नहीं दिया जा सकता। जबकि केन्द्रीय सूचना आयोग का कहना था कि प्रश्न पत्र और उत्तर कुंजी तैयार करना ऐसी कोई कला नहीं, जिसे बौधिक संपदा माना जाए।

19. अदालत कानून से ऊपर
जिस सुप्रीम कोर्ट ने किसी समय सूचना के अधिकार को मूलभूत अधिकार के रूप में व्याख्यायित किया था, उसी सुप्रीम कोर्ट के जज खुद को इस कानून के दायरे से बाहर मानते हैं और ऐसा कहने में शर्म भी महसूस नहीं करते। महामहिम न्यायविदों को इसमें अन्याय लगता है कि आम जनता न्याय की कुर्सी पर बैठे लोगों से पारदर्शिता की मांग करे। दिल्ली के रहने वाले सुभाष अग्रवाल और जाने माने अधिवक्ता प्रशांत भूषण की दाद देनी होगी कि उन्होंने सूचना के अधिकार के प्रति न्यायपालिका के रवैये को एक मुद्दा बना दिया। कई उच्च न्यायालयों में आज भी सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने के आवेदन की फीस 500 रुपए है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो नियमावली बनाने में इस कानून के प्रावधानों को तोड़ मरोड़ दिया है। सवाल है कि देश की न्यायपालिका खुद को पारदर्शी और जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए तैयार है या नहीं। अगर नहीं तो फ़िर सेना और सीबीआई सहित करीब दर्जन भर विभाग तो ऐसे हैं ही जो शुरू से ही सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखे जाने के लिए छटपटा रहे हैं।

20. कर्मचारियों पर विभागीय डंडा
अगर आप सरकार में काम करते हैं और अपने ही विभाग से सूचना मांगने की हिम्मत करना चाहते हैं तो आपको अफसरों की डांट, बिना वजह आरोप, फालतू की जांच और यहां तक की तबादला और निलंबन जैसी कार्रवाई के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। मध्य प्रदेश के देवास में केन्द्रीय विद्यालय के प्राईमरी शिक्षक मांगीलाल कजोडिया ने अपने ही विद्यालय से सूचनाएं मांगी तो पहले उन्हें कारगिल भेज दिया गया और बाद में नौकरी से ही निकाल दिया गया। कजोडिया ने अपने शिक्षक संघ के बारे में कुछ दस्तावेज और तबादला नीति के बारे में सूचना मांगी थी।
यही हाल रेलवे प्रोटेक्शन स्पेशल फोर्स में चालक ओंकार गुप्ता का भी हुआ जब उन्होंने अपने ही विभाग की तानाशाही को आरटीआई से उजागर किया। ओमकार ने चालकों के काम के घंटे, उन्हें मिले अवकाश, चालक को रिलीवर देने की जिम्मेदारी आदि जानकारियां मांगी थीं। इसके जवाब में ओंकार की तनख्वाह ही कम कर दी गई।
इसी तरह साउथ इस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड में कार्यरत मुजीबुर्र रहमान ने जब अपनी ही कंपनी से प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष में जमा किए गए धन की जानकारी मांगी तो उन्हें कंपनी के निदेशक की तरफ़ से धमकियाँ मिलनी शुरू हो गईं और उनके ख़िलाफ़ तमाम तरह की जांच बिठा दी गई।


जरूरी है सूचना का अधिकार क्योंकि........
1. सब पढ़ें, सब बढ़ें
सूचना कानून ने शिक्षा व्यवस्था में लगी जंग को थोड़ा बहुत सापफ करने का काम किया है, और इसी का कमाल है कि दिल्ली की पुनर्वास बस्ती, सुंदर नगरी में रहने वाला मोहन अब अर्वाचीन पब्लिक स्कूल में पढ़ता है। आरटीआई की बदौलत ही मोहन का दाखिला इस स्कूल में फ्रीशिप कोटे के तहत हो पाया है। दिल्ली में इस तरह के हजारों उदाहरण हैं। कल्याणपुरी में रहने वाली सुनीता ने तो सूचना के अधिकार का सहारा लेकर स्कूल की सभी छात्राओं छात्रवृत्तिदिलाई। सुनीता ने आरटीआई के तहत छात्रवृत्ति न मिलने का कारण पूछा। दो दिन बाद ही अधिकारी स्कूल में इस संबंध में जांच करने आए। सुनीता ने बेबाकी से प्रिंसिपल की शिकायत की। इसके कुछ दिनों बाद स्कूल की सभी छात्राओं को छात्रवृति वितरित कर दी गई। इसी तरह हरियाणा के सोनीपत जिले के सिलारपुर मेहता गांव की साठ वर्षीय सुमित्रा देवी ने आरटीआई की मदद से न सिर्फ़ प्रशासन की लापरवाही को उजागर किया बल्कि गरीब स्कूली लड़कियों के लिए साइकिल वितरण की एक सरकारी योजना और सर्वशिक्षा अभियान के तहत मिलने वाले स्कूल ड्रेस का लाभ भी छात्र -छात्राओं को पहुंचाया। इसी तर्ज पर इलाहाबाद के गुलरहाई और चित्रकूट के भरथौल प्राथमिक विद्यालय के छात्र-छात्राओं को भी आरटीआई डालने के बाद स्कूल ड्रेस मिल गई।

2. कहीं मिली नौकरी तो कहीं प्रोमोशन
आरटीआई की बदौलत लोग अब नौकरी भी पा रहे हैं, अब उन्हें प्रोमोशन भी मिल जाता है। और यह सब कुछ बिना रिश्वत दिए हो रहा है। ऐसा ही एक मामला रेवाड़ी की सपना यादव का है। सपना ने गुड़गांव ग्रामीण बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी पद के लिए आवेदन किया था। लेकिन उसका चयन नहीं हो पाया। आरटीआई के तहत सपना ने चयन प्रक्रिया से सम्बंधित प्रश्न पूछे। जवाब न मिलने पर मामला सीआईसी गया जहां आयोग ने बैंक को सभी सूचनाएं उपलब्ध कराने का आदेश दिया। दिलचस्प रूप से बैंक ने सूचना तो उपलब्ध नहीं कराई, अलबत्ता सपना को फोन कर प्रोबेशनरी अधिकारी के तौर पर बैंक ज्वाइन करने का अनुरोध जरूर किया। इसी तरह बिहार के मधुबनी जिले के चन्द्रशेखर ने जब पंचायत शिक्षक नियुक्ति के लिए घूस नहीं दी तो उन्हें यह कहकर नियुक्ति नहीं दी गई कि जिस महाविद्यालय से उन्होंने प्रशिक्षण हासिल किया है, वह फर्जी है। जबकि उसी महाविद्यालय से प्रशिक्षित अन्यों की नियुक्ति कर दी गई। चन्द्रशेखर ने जब प्रखंड विकास अधिकारी से इस मामले में सवाल किए तो उनकी नियुक्ति पंचायत शिक्षक के रूप में कर दी गई। नियुक्ति के अलावा बहुत से लोग पदोन्नत भी हुए हैं। उड़ीसा वन विकास निगम में सेक्शनल सुपरवाईजर के पद पर कार्यरत गणपति बहरा को वरिष्ठता के आधार पर प्रोमोशन नहीं दिया गया जबकि उनके जूनियरों को प्रोमोशन दे दिया गया। इस संबंध में आरटीआई डाली तो उन्हें सेक्शनल सुपरवाईजर से सब डिवीजन मैनेजर के पद पर प्रोमोट कर दिया गया।

3. खत्म हुआ पेंशन का टेंशन
लोगों के लिए सूचना का अधिकार जादू की एक छड़ी साबित हुआ है। सूचना कानून ने ऐसे हजारों लोगों को पेंशन दिलाने में अहम भूमिका निभाई है, जिनकी पेंशन विभागीय लापरवाही के कारण जारी नहीं की जा रही थी। उड़ीसा की 70 वर्षीय कबनाकलता त्रिपाठी का 13 साल से लटका पेंशन आरटीआई डालने के बाद एक महीने में ही मिल गया। कबनाकलता के पति श्याम सुंदर त्रिपाठी स्वतंत्रता सैनानी थे। कबनाकलता को 1993 से 1995 के बीच पेंशन राशि का भुगतान नहीं किया गया लेकिन जैसे ही आरटीआई डाली गई, इसके लिए दोषी अधिकारियों के नाम और पद पूछे, पेंशन राशि का भुगतान हो गया। बिहार के मधुबनी जिले के गंगापुर पंचायत के 200 पेंशनार्थी राष्ट्रीय वृधावस्था एवं सामाजिक सुरक्षा पेंशन पाने के उद्देश्य से उप डाक घर में पासबुक खुलवाने हेतु महीनों चक्कर लगाते रहे। पोस्टमास्टर इन लोगों के खाते खोलने को तैयार नहीं था। सूचना के अधिकार के अन्तर्गत लोगों ने आरटीआई आवेदन डालकर मधुबनी के डाक अधीक्षक से इस बारे में सवाल पूछे। आवेदन आने के बाद मधुबनी के डाक अधीक्षक ने मामले की जांच की। उन्होंने दोषी पोस्ट मास्टर गणेश सिंह को तत्काल निलंबित करते हुए सभी पेंशन धारियों का खाता दूसरे पोस्ट ऑफिस में खुलवा दिया।

4. सुधरता पीडीएस सिस्टम
राशन चोरी और राशन कार्ड का न बनना, ये दो समस्याएं हिन्दुस्तान में आम हैं। लेकिन जन वितरण प्रणाली में लगे घुन को भी आरटीआई ने धीरे-धीरे साफ़ किया है। दिल्ली में तो इसके सैकड़ों उदाहरण हैं हीं, पुरी की अनासारा गांव की 68 वर्षीय जनातुन बेगम और उनके पति को अंत्योदय योजना के तहत मिलने वाला अनाज आरटीआई की वजह से दोबारा मिलने लगा। यह अनाज उनके जीवन-यापन का एकमात्र सहारा था। आरटीआई डालकर राशन न मिलने की वजह पूछने के बाद अधिकारी और डीलर जनातुन के घर आए और एक क्विंटल चावल मुफ्त में देकर गए। इसी तरह बिहार के जहानाबाद जिले के कताईबिगहा गांव में ग्रामीणों को सही मात्रा में राशन और मिट्टी का तेल मिलने लगा है।

5. सुधारना पड़ा रवैया
आम आदमी के प्रति सरकारी अफसरों का रवैया कैसा होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन आरटीआई आवेदनों ने ऐसे अफसरों को अपने व्यवहार में बदलाव लाने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे ही कुछ मामले बहराइच जिले में देखने को मिले। जिले के गिरिजापुरी कॉलोनी में स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में बैंक कर्मी समय पर नहीं आते थे, विधवाओं एवं छात्रो के खाते नहीं खोले जाते थे, कैशियर पास बुक फ़ेंक देता था। इस तरह की घटनाएं आम थीं। लेकिन जंग हिन्दुस्तानी की सूचना के अधिकार की एक अर्जी ने वहां सब कुछ ठीक कर दिया। बैंककर्मियों का व्यवहार भी सुधरा है। जंग हिन्दुस्तानी ने बैंक शाखा के लोक सूचना अधिकारी को लिखे आवेदन में बैंक कर्मचारियों से सम्बंधित ब्यौरा, मौजूदा सुविधाओं की जानकारी मांगी थी। एक अन्य उदाहरण सत्य नारायण वर्मा का है। सत्य नारायण वर्मा पटसिया चौराहा बहराइच में एक दवाई की दुकान चलाते थे। जिला पंचायत ने एक नोटिस भेजकर उनकी आय 40 हजार मानते हुए 12 सौ रूपये वाशी कर के रूप में भरने को कहा। सत्यनारायण ने जिला पंचायत कार्यालय में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन कर नोटिस से संबंधित विवरण मांगा। एक हफ्ता बाद पंचायत का एक कर्मचारी आवेदनकर्ता के पास गया और बोला - गलती से आपके पास नोटिस चला गया था, आप सूचना मत मांगिए, हम आपसे कभी पैसा वसूलने नहीं आएंगे।

6. अब नहीं चलेगा पुलिसिया डंडा
पुलिस की तानाशाही जगजाहिर है, लेकिन सूचना के अधिकार ने पुलिस की तानाशाही को कुछ हद तक कम जरूर किया है। उदाहरण के लिए पटना के सगुना निवासी अमित आनंद की जमीन कोइलवर थानाध्यक्ष के कब्जे से मुक्त हो गई। यह सूचना के अधिकार से ही संभव हुआ। अमित आनंद की रैयती जमीन को पुलिस ने अपनी धौंस दिखाकर गलत तरीके से अपने कब्जे में कर ली था। इसी तरह का एक मामला देवरिया जिले का भी है। यहां के धनेसर यादव की बेटी का गांव के कुछ लोगों ने अपहरण कर लिया था। धनेसर ने देवरिया कोतवाली को प्रार्थना पत्र देकर अभियुक्तों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने की गुहार लगायी थी, लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। तब धनेसर यादव ने सूचना कानून के तहत पुलिस कप्तान कार्यालय को आवेदन दिया जिसमें अपने शिकायत पर की गई कार्रवाई के बारे में पूछा। आवेदन मिलते ही पुलिस ने एफआईआर दर्ज करते हुए धनेसर की अगवा पुत्री को बरामद कर लिया तथा अभियुक्त भी गिरफ्तार कर लिए गए।

7. किसानों को हासिल हुए एक करोड़ रूपये
सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड के बांदा जिले के गरीब किसानों को 1 करोड़ रूपये की राशि सूचना कानून की बदौलत हासिल हुई। जिले के त्रिवेणी बैंक ने किसानों की फसल बीमा की दावा राशि का भुगतान नहीं किया था। अप्रैल 2008 में राजभैया ने बैंक पूछा कि जिले के जिन किसानों के क्रेडिट कार्ड बनें, उनकी फसल का बीमा किया गया है या नहीं। जवाब न मिलने पर मामला राज्य सूचना आयोग पहुंचा। सूचना आयोग के आदेश का असर हुआ। किसानों के खातों में करीब एक करोड़ की राशि शीघ्र स्थानांतरित कर दी गई।

8. बेनकाब हुआ डओ
डओ कंपनी की यह कारस्तानी जनता के सामने शायद कभी नहीं आ पाती, अगर सूचना का अधिकार नहीं होता। डओ केमिकल्स पुणे के निकट तथाकथित रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर स्थापित कर रहा था। पुणे की विनीता देशमुख ने आरटीआई के तहत महाराष्ट्र सरकार के विभिन्न विभागों से इस मामले में सूचना मांगी। प्राप्त दस्तावेजों से पता चला कि महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड ने डओ कंपनी को केमिकल उत्पादन की मंजूरी दी है, जबकि इस कंपनी ने दावा किया था कि उनका यह प्लांट केवल रिसर्च सेंटर होगा यानि कोई उत्पादन कार्य नहीं होगा। इसके अलावा महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी की फाइल नोटिंग में पुणे कार्यालय को इसे महत्वपूर्ण परियोजना मानते हुए 48 घंटे के भीतर चाकन में सौ एकड़ जमीन की मंजूरी दिलाने की बात लिखी थी। इतना ही नहीं, डओ ने बिना अनुमति लिए 14800 पेड़ भी काट डाले। सूचना कानून से इतनी जानकारी निकलने के बाद यह मुद्दा मीडिया में खूब उछला। चाकन और उसके आसपास रहने वाले लोगों को जब सच्चाई का पता चला तो उन लोगों ने राज्यस्तरीय विरोध शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह निकला कि उस वक्त लंदन में मौजूद मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को डाओ के काम की समीक्षा करने का आश्वासन देना पड़ा।

9. क्लीनिकल ट्रायल में बच्चों की मौत
बड़े नामों के पीछे की असली कहानी है, एम्स का यह मामला। यह मामला भी तभी प्रकाश में आ सका जब आरटीआई कानून का इस्तेमाल किया गया। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में ढ़ाई साल (2006-०८) के दौरान हुए क्लीनिकल ट्रायल में 49 बच्चों की मौत हुई। यह क्लीनिकल ट्रायल करीब 4000 बच्चों पर किया गया था। जिसमें से करीब 2700 बच्चे एक साल से कम्र उम्र के थे। सूचना कानून के तहत दी गई जानकारी से पता चला है कि इन ट्रायल में कई विदेशी मेडिसिन और ड्रग को शामिल किया गया था। ट्रायल में दो ऐसे ड्रग इस्तेमाल किए गए थे जो केवल व्यस्कों को दिए जाते हैं। ट्रायल किए गए बच्चों की उम्र 1 से 16 साल के बीच थी। इस खबर के मीडिया में आने के बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस मामले की जांच के आदेश भी दिए।

10. जनता की कमाई, शाहखर्ची में उड़ाई
आम आदमी के पैसों का इस्तेमाल हमारे नेता और नौकरशाह कैसे करते हैं, इसका खुलासा किया सूचना के अधिकार कानून ने। मिली सूचना के मुताबिक चार साल में इन मंत्रालयों के चाय-पानी पर आम आदमी की गाढ़ी कमाई में से लगभग 26 करोड़ रफपये खर्च कर दिए गए। जाहिर है यह तस्वीर भारत की नहीं बल्कि शाइनिंग इंडिया की है। पानी की कहानी से अलग इन नेताओं की एक कहानी और भी है और वो है तेल का खेल। यानि जितनी तेज इन्हें प्यास लगती है उतनी ही तेज प्यास इनकी गाड़ियों को भी लगती है। ये अलग बात है कि इस प्यास को बुझाने के लिए पानी की जगह तेल (ईंधन) खरीदने पर जम कर खर्च किया जाता है। इसके अलावा, साल 2003 से 2008 के बीच 44 मंत्रालयों एवं उनके अधीन विभिन्न विभागों के मंत्रियों और अधिकारियों ने केवल स्थानीय यात्राओं पर 58 करोड़ 54 लाख रुपये उड़ा दिए हैं।

11. खुलासा लूट की छूट का
शाहखर्ची के अलावा हमारे नेता जनता के हिस्से में आने वाले राहत पैकेज और राहत कोष पर अपनी गिद्ध दृष्टि रखते हैं। आरटीआई कानून ने ऐसे नेताओं की भी पोल खोली है। विदर्भ के किसानों के नाम पर आने वाला राहत पैकेज नेताओं और अधिकारियों के रिश्तेदारों में बांटा गया है। आरटीआई से पता चला कि भूतपूर्व कांग्रेस सांसद उत्तमराव पाटिल और उनके परिवार के सदस्यों ने इस पैकेज के तहत 10 गाय हासिल की। क्षेत्रा के विधायक डिगरास संजय देशमुख की पत्नी और मां को एक-एक गाय मिली। नागपुर जिले के पूर्व मंत्री शिवाजी राव मोघे के संबंधियों को आठ गाय हासिल हुई। इसी तर्ज पर वाणी के पूर्व विधायक वामाराव कसावर के 4 संबंधियों को 8 गाय मिलीं। दुसरी ओर, महाराष्ट्र मुख्यमंत्री राहत कोष प्राकृतिक आपदाओं या दुर्घटनाओं के मामले में राहत देने का काम कम लेकिन कबड्डी, फुटबोल प्रतियोगिता और गजल के महफिलों पर खर्च करने का काम ज्यादा करती है। 2003-05 के दौरान करोड़ों रपए उपरोक्त मदों पर खर्च कर दिए गए।

12. सफ़ेद हाथी है स्टेट गेस्ट हाउस
दिल्ली में स्थित विभिन्न राज्यों के स्टेट गेस्ट हाउस के रख-रखाव पर ही जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये बहा दिए जाते हैं। और इतने के बाद भी कुछ ऐसे मंत्री या मुख्यमंत्री है जिन्हें इन अतिथि गृहों में रुकना नहीं भाता। सो, उनके लिए पांच सितारा होटल की भी बुकिंग की जाती है। आरटीआई के तहत उपलब्धकराए गए दस्तावेज के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2006-07 में बिहार भवन और बिहार निवास के रख-रखाव पर, लगभग डेढ़ करोड़, उत्तर प्रदेश भवन और सदन पर 76 लाख रुपये का खर्च आया। जबकि झारखंड सरकार का अपना कोई भवन नहीं है (2006-07 के दौरान) इसलिए किराए के तौर पर 9 लाख रुपये प्रति माह भुगतान किया जाता है।

13. जजों की विदेश यात्राओं में कटौती
आरटीआई की बदौलत उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के जजों का अपने सम्बन्धियों के साथ विदेशों में छुटि्टयां मनाने और अनावश्यक यात्राओं पर रोक लगाने की कवायद शुरू हो गई है। आरटीआई के इस्तेमाल से मिली सूचना के मुताबिक उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने अपनी पत्नी के साथ विदेश यात्रा की थी, जबकि नियम के मुताबिक उस यात्रा के दौरान मुख्य न्यायाधीश अपनी पत्नी को साथ नहीं ले जा सकते थे। मामला सामने आते ही सरकार ने कई दिशानिर्देश जारी किए हैं जिसमें जजों की विदेश यात्राओं में 30 प्रतिशत तक कटौती की बात है। इसके अलावा आवश्यक यात्राओं पर ही जाने की बात कही गई है, साथ ही सत्र के दौरान ऐसे दौरों से बचने की सलाह भी दी गई है।

14. पकड़ी गई लोक सेवा आयोग की धांधली
छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग से आरटीआई से मिली जानकारी से पता चला कि साल 2003 में आयोजित लोक सेवा आयोग की परीक्षा में स्केलिंग, कट ऑफ़ मार्क्स और मूल्यांकन में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हुई है। अभ्यर्थी राजेश कुमार (रोल नं. १०५१८८) को सांख्यकी की 300 अंक की परीक्षा में 304 अंक दिए गए। वर्षा डोगरे का चयन कट ऑफ़ मार्क्स से अधिक अंक (१२९०) पाने के बाद भी नहीं हो पाया जबकि उससे कम अंक प्राप्त करने वाले कई अभ्यर्थियों का चयन हो गया। यह तो महज कुछ उदाहरण भर हैं, ऐसी और भी गई धांधलियां सामने आई हैं। इन तथ्यों के आधार पर बिलासपुर उच्च न्यायालय में रिट दायर की गई तो आयोग के अध्यक्ष अशोक दरबारी ने भी माना की परीक्षा में बड़े पैमाने पर धांधली हुई है। फिलहाल मामला उच्चतम न्यायालय में चल रहा है।

15. सड़कें भी बनवाता है आरटीआई
देश के अलग-अलग हिस्सों में सूचना के अधिकार ने सड़क निर्माण और मरम्मत में अहम भूमिका निभाई है। दिल्ली के मॉडल टाउन में रहने वाले मोहित अपने इलाके की सड़कों की दुर्दशा से परेशान थे। सड़कों में जगह-जगह गड्ढे थे। दिल्ली जल बोर्ड ने सीवर डालने के लिए उनके घर के आगे सड़क खोद दी थी। एमसीडी से इसी लापरवाही का जवाब मांगने के लिए मोहित ने आरटीआई दायर दी। आरटीआई की अर्जी आते ही एमसीडी हरकत में आई और सड़क मरम्मत का कार्य एक महीने से भी कम समय में संपन्न हो गया। इसी तरह पूर्वी दिल्ली के विजयनगर, डबल स्टोरी ब्लॉक नंबर एक और चार में नाला बनाने के लिए सड़क तोड़ी गई जो छह महीने तक टूटी ही पड़ी रही। इस मामले में आरटीआई डाली गई तो सड़क की मरम्मत नौ दिन में हो गई। उड़ीसा में भी ऐसी ही एक मिसाल देखी गई। पुरी जिले के कोणार्क क्षेत्र के करमंगा गांव में आरटीआई की बदौलत रातों रात सड़क बनवा दी गई।

16. पहले फेल फ़िर पास
स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों ने पहले कभी नहीं सोचा था कि परीक्षा परिणाम से असंतुष्ट होने पर वे अपनी उत्तरपुस्तिका देख सकते हैं। लेकिन सूचना के अधिकार ने अब इसे मुमकिन कर दिखाया है। अनेक सूचना आयोगों और उच्च न्यायालयों ने ऐसे कई मामलों में उत्तरपुस्तिका दिखाने का आदेश दिया है। हालांकि इन आदेशों का पूर्णत: पालन नहीं हो रहा है, लेकिन बिहार के मलयनाथ का मामला इस दिशा में एक महत्वपूर्ण और सकारात्मक कदम माना जा सकता है। मलयनाथ नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे थे। परीक्षा में फेल होने पर उन्होंने आरटीआई के तहत विश्वविद्यालय प्रशासन से अपनी उत्तरपुस्तिका दिखाने की मांग की। उत्तर पुस्तिका की दोबारा जांच की गई तो पता चला कि वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हैं।

17. नोटिस मिलते ही भेज दिया अनुदान
गोरखपुर के मिर्जा कमर बेग के बेटे मिर्जा सालिक बेग का एक गुर्दा खराब हो गया था। इस कार्य में ढाई लाख रूपए खर्च होने थे। गरीब बेग के लिए इतना पैसा जुटा पाना मुश्किल था। मदद के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में आवेदन भेजा। इस तरह के मामलों में स्वास्थ्य मंत्रालय गरीब लोगों को अनुदान देता है। स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कोई सूचना नहीं मिली। आखिरकार कर्ज लेकर बेग ने अपने बेटे का गुर्दा प्रत्यारोपण करवाया। स्वास्थ्य मंत्रालय के इस व्यवहार से व्यथित बेग ने सूचना अधिकार कानून का सहारा लेते हुए मंत्रालय के जनसूचना अधिकारी से पूछा कि नियमानुसार अनुदान कब तक मिल जाना चाहिए था और उनके मामले में अनुदान क्यों नहीं दिया गया? मंत्रालय की ओर से उनके आवेदन का कोई जवाब नहीं दिया गया। तब बेग ने केंन्द्रीय सूचना आयोग में शिकायत की। आयोग ने जनसूचना अधिकारी को नोटिस देकर इस मामले के अभिलेख के साथ प्रस्तुत होने का आदेश दिया। नोटिस मिलते ही स्वास्थ्य मंत्रालय हरकत में आ गया और बेग को अनुदान के तौर पर 20 हजार रुपए भेज दिए।

18. डर से ही हो गया काम
असम के तिनसुखिया जिले के रहने वाले नारायण परियाल जब भी एसबीआई बैंक की न्यू तिनसुखिया शाखा में पैसा निकालने के बाद पास बुक में प्रविष्टी कराने जाते तो बैंककर्मी काम से बचने की कोशिश करते थे। इससे आजिज आकर नारायण ने एक बार बैंक परिसर से ही आरटीआई हेल्पलाइन पर फोन करके इस मामले पर मदद मांगी। इस बातचीत को ब्रांच मैनेजर सुन रहा था, जो बात खत्म हो हाने के बाद नारायण के पास आया और बोला कि आपको आरटीआई पफाइल करने की जरूरत नहीं है, आपका काम हो जाएगा।

19. मिड डे मील में सुधार
अहमदाबाद में मिड डे मील योजना के तहत स्कूली बच्चों को दोयम दर्जे का भोजन मिलता था। भोजन में कई बार तो कीड़े भी पाए गए। भोजन की गुणवत्ता की जांच की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस मामले में इंदुपुरी गोसाईं ने आरटीआई के तहत जवाब-तलब किया तो न केवल भोजन की लेबोरेट्री जांच हुई बल्कि उसकी गुणवत्ता भी सुधरी और निगरानी की समुचित व्यवस्था भी हुई। यह सब एक सप्ताह के भीतर हो गया। देश के अलग-अलग हिस्सों से इस तरह के अनेक मामले सामने आए हैं, जहां आरटीआई की बदौलत मिड डे मील व्यवस्था में गुणात्मक सुधर हो सका है।

20. मिली मजदूरी
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना के तहत काम करने वाले मजूदरों को 2 लाख रुपए का भुगतान संभव हुआ। तालाब खुदाई में लगे इन मजदूरों को समय पर भुगतान नहीं किया गया था। बांदा के ही सामाजिक कार्यकर्ता राजा भैया ने आरटीआई डालकर पूछा था कि तालाब निर्माण के इस काम में कितने लोगों को काम मिला है और कितनों को मजदूरी का भुगतान किया गया है। प्राप्त सूचना के अनुसार यहां काम में लगे मजदूरों का भुगतान एक माह से नहीं हो पाया था। धांधली सामने आते ही मुख्य विकास अधिकारी ने मामले की जांच की और इसके लिए दोषी अधिकारी को निलंबित तो किया ही, साथ ही मजदूरों के लिए 2 लाख रुपए की राशि आबंटित की।

ब्रिटिश सरकार का काला कारनामा

सूचना का अधिकार कानून एक भ्रष्ट सरकार की चूलें तक हिला सकता है। ब्रिटेन का ताजा राजनैतिक घटना क्रम सबूत है कि अगर जनता को ठीक से इस कानून का इस्तेमाल करने दिया जाए तो जनता के आगे सरकार की ताकत बहुत छोटी पड़ जाती है।
मामला ब्रिटेन मे पत्रकारिता पढ़ाने वाली एक महिला हीदर ब्रुक की सूचना के अधिकार आवेदन से शुरु हुआ जिसमें उन्होनें सांसदों के खर्च का विवरण मांगा था। और आज यही मामला इतना बड़ा हो गया है कि सरकार के कई ताकतवर नेताओं को कुर्सी छोड़नी पड़ी है, यहां तक कि, वहां के लोक सभा (हाउस ऑफ कॉमन्स) के अध्यक्ष, माइकल मार्टिन को भी इस्तीफा देना पड़ा है। ब्रिटेन के 300 साल के संसदीय इतिहास में यह अपनी तरह की पहली घटना है। और इस घटनाक्रम में सबसे उल्लेखनीय बात यही है कि यह सूचना के अधिकार के एक आवेदन और उससे मिले जवाब से उठा तूफान है।
ब्रिटेन में सूचना की स्वतंत्रता (एफओआई एक्ट) कानून के तहत निकली इस खबर ने वहां की राजनीति में तूफान ला दिया है। लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन की हालत ऐसी हो गई है जो अपने दागी सांसदों और अपने उपर लगाए गए आरोपों को न तो निगल पा रहे है और न ही उगल।
दरअसल, मई महीने में ब्रिटेन की एक अखबार द टेलिग्राफ में हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्यों द्वारा जनता के पैसों का दुरुपयोग और शाहखर्ची से सम्बंधित खबर, रोजाना एक सीरीज के रुप में छपी। ये खबर सूचना कानून के इस्तेमाल से निकली है। उपलब्ध सूचना के मुताबिक गलत दावे कर, सांसदों, मंत्रियों ने जनता की कमाई के लाखों पाउंड ऐसे-ऐसे मदों पर खर्च किए हैं, जिसके बारे में सोच कर भारतीय नेताओं को भी शर्म आ जाए। इन आदरणीय सांसदों ने कीट-कैट बार, मसाज़ चेयर, शौचालय के सीट की खरीदारी से ले कर, पाइप रिपेयरिंग, घर के पुननिर्माण, घर के आस-पास के गड्ढे़ भरवाने, गिरवी रखे मकान को छुड़ाने तक के लिए जनता के पैसों का इस्तेमाल किया है।
गॉर्डन ब्राउन ने तो लंदन स्थित अपने फ्लैट की साफ-सफाई के लिए 6000 पाउंड का दावा किया है जो उन्हें अपने भाई को देना था, क्योंकि सफाई का काम उनके भाई ने किया था। और सबसे दिलचस्प दावा तो गृह मंत्री जेक्यू स्मिथ का था, जिन्होंने अपने पति द्वारा अश्लील फ़िल्म देखने के लिए खरीदी गई 2 सीडी के पैसे भी वसूल लिए। अब स्मिथ को इसकी कीमत अपना पद गवां कर चुकानी पड़ी है। ज्यादातर सांसदों ने करदाताओं के पैसों से एक मकान के रहते एक या दो और मकान इस आधार पर ले लिए ताकि वो अपनी संसदीय जिम्मेवारी को ठीक से निभा सकें, और इसकी कीमत भी जनता को ही चुकानी पड़ी। लेकिन सांसदों द्वारा मुनाफा कमा कर इन मकानों को बेचे जाने के मामले भी सामने आए हैं।
विपक्ष के नेता डेविड कैमरुन ने जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग की है। ब्रिटेन में जून 2010 से पहले चुनाव होने है। ब्रिटेन के राजनैतिक विश्लेषकों की माने तो इस घोटाले के कारण लेबर पार्टी के ज्यादातर सांसदों को इस बार चुनाव लड़ने का मौका तक नहीं मिल सकता।