शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

महाराष्ट्र सूचना आयोग में भ्रष्टाचार?

महाराष्ट्र में राज्य सूचना आयोग का एक नया कारनामा सामने आया है और यह मामला है खुलेआम भ्रष्टाचार का. जुलाई 2008 में सूचना आयोग ने करीब सवा सात लाख रुपए के  कंप्यूटर व लेपटॉप खरीदे थे. आरोप है कि ये सामान 2008-09 के बजट से नहीं बल्कि बीते वर्ष यानि कि 2007-08 के  बजट से खरीदा गया लेकिन कागज़ों में हेराफेरी करते हुए इसका परचेज़ आर्डर पिछले वित्त वर्ष की समाप्ति से ठीक दो दिन पहले जारी हुआ दिखाया गया है. घटना क्रम कुछ इस प्रकार है
  •  रिकार्ड के मुताबिक 29 मार्च 2008 को कंप्यूटर व लेपटॉप खरीद के लिए आर्डर जारी किए गए.  
  • सामान सप्लाई करने वाली कंपनियों के साथ खरीद का आदेश जारी करते वक्त शर्त रखी गई थी कि अगर वे 4 सप्ताह के अन्दर सप्लाई नहीं करती हैं तो देरी के लिए उन पर कुल खरीद मूल्य पर 0.05 प्रतिशत का ज़ुर्माना प्रति सप्ताह लगेगा. इस तरह अप्रैल 2008 के अन्तिम सप्ताह तक सप्लाई न होने की स्थिति में सप्लाई करने वाली कंपनियों पर 35,616/- रुपए का ज़ुर्माना लगाया जाना था.
  • आयोग के ही रिकार्ड के मुताबिक यह सप्लाई जुलाई 2008 में हुई. लेकिन कंपनियों को पूरा भुगतान कर दिया गया.
  • आडिट टीम ने सप्लाई में ढाई महीने की देरी के बावजूद कंपनियों पर पेनल्टी न लगाने के लिए आयोग से जवाब मांगा.
  • आयोग ने आडिट ऑब्जेक्शान का जवाब दिया कि कंपनी ने सप्लाई में देरी नहीं की है, सप्लाई तो समय पर हुई है लेकिन परचेज़ आर्डर कंपनी को देने में देरी हुई थी.

अब सवाल यह उठता है कि -
  • अगर कंपनी ने समय ने जुलाई 2008 में सप्लाई करके भी 4 सप्ताह की निर्धारित समय सीमा का पालन किया है, जैसा कि सूचना आयोग के जवाब में दावा किया गया है, तो क्या इसका मतलब है कि कंपनियों को परचेज़ ऑर्डर जून 2008 में दिया गया था?
  • अगर कंपनियों को यह परचेज़ ऑर्डर जून 2008 में दिया गया था तो 29 मार्च 2008 से लेकर जून 2008 तक यह किसके पास और क्यों पड़ा रहा. यह कोई छोटा मोटा परचेज़ आर्डर नहीं था.
जानकारों की आशंका है कि यह एक घोटाला है जिसमें पिछले वित्त वर्ष के बजट से फर्जी तरीके से खरीद फरोख्त की गई है. इसमें कागज़ों में हेराफेरी की गई है ताकि जुलाई में जारी परचेज़ आदेश को पिछले वित्त वर्ष के अन्तिम सप्ताह में भी दिखाया जा सके.
(सौजन्य : विहार ध्रुवे एवं क्रष्णराज  राव)

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

माननीयों का इलाज

हरियाणा स्वास्थ्य विभाग सरकारी अस्पतालों को सुबिधाओ  से सुसज्जित करने के चाहे लाख दावे करता हो लेकिन जब बात अपने या अपनों पर आती है तो सरकार को भी निजी अस्पतालों में ही जिन्दगी दिखाई देती है। सरकारी खर्चे  पर अपना व अपने परिवार का इलाज करवाने वाले विधायको  में आधे   से अधिक  अब भी निजी अस्पतालों को ही तवज्जो दे रहे हैं। सीधे  शब्दों में कहें तो वे सरकारी अस्पतालो को अपने उपचार के लायक नहीं समझ रहे हैं। या यूं कहिए प्रदेश की बागडोर हाथ में रखने वाले  विधायको , मुख्य संसदीय सचिवों तक को सरकारी डाक्टरों के अमले पर विश्वास नहीं है।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

आरटीआई ने बन्द करवाया अवैध् होटल

लोनावाला के रहने वाले किशोर जैन के घर के सामने उनके पड़ोसी ने होटल खोल लिया, जब किशोर जैन ने लोनावाला नगर पालिका से आरटीआई तहत यह पूछा कि एक आवासिय कॉलोनी में होटल खोलने की इज़ाजत किसने और कैसे दी तो उन्हें पता चला कि होटल गैरकानूनी तरीके से चल रहा। आरटीआई के तहत मिली इस सूचना के आधार पर उन्होंने नगर पालिका से होटल बन्द कराने के लिए शिकायत की पर उनकी शिकायत पर कोई कार्यवाई नहीं की गई। इसके बाद किशोर जैन अदालत में गये और पिछले महीने  मुम्बई उच्च न्यायालय के आदेश पर गैरकानूनी तरीके से चल रहे होटल को सील कर दिया गया।
सोना चादी  के कारोबारी किशोर जैन की दुकान मुम्बई के बान्द्रा इलाके में है। उन्होंने 1988 में मुम्बई पुने हाईवे पर लोनावाला में जमीन  खरीद  कर घर बनाया। मकसद था शहर की शोरगुल से दूर एक ऐसी जगह हो जहां आराम और शान्ति से रहा जा सके। लेकिन वर्ष 2007 में उनका यह घर उनके लिए अशान्ति और टेंशन का कारण बन गया। उनके घर के सामने वाले बंगले में एक होटल खुल गया, जिसके कारण वहां रात दिन शोरगुल होने लगा। साथ ही बंगले में होटल के हिसाब से गैरकानूनी निर्मण भी करा लिया गया। किशोर जैन को आश्चर्य हुआ कि एक आवासिय कॉलोनी में होटल खोलने की इजा़जत कैसे मिल गई। उन्होंने इसका पता लगाने के लिए फरवरी 2007 में आरटीआई के तहत लोनावाला नगर पालिका से इस सम्बंध् में जानकारी मांगी। जो सूचना उन्हें दी गई उससे पता चला कि नगर पालिका ने उस इलाके में होटल खोलने के लिए किसी को कोई इज़ाजत कभी नहीं दी है।

रविवार, 12 सितंबर 2010

सूचना आयुक्त शैलैष गांधी के कामकाज की पहली जनसुनवाई

सूचना के अधिकार को लेकर यह अपनी तरह की पहली जनसुनवाई थी. इस कानून का इस्तेमाल करने वाले करीब 250 लोग सूचना आयुक्त शैलैष गांधी के कामकाज पर अपनी राय देने और चर्चा करने आए थे. दिल्ली स्थित गांधी शान्ति प्रतिष्ठान  में हुई इस जनसुनवाई में खुद सूचना आयुक्त शैलैष गांधी अपने ही कामकाज की कमियां सुन रहे थे.और वस्तुत: यह जनसुनवाई से ज्यादा एक संवाद की प्रक्रिया की शुरूआत थी जो सूचना के अधिकार कानून को मजबूती देने के लिए बहु प्रतीक्षित थी. कार्यक्रम का संचालन करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि यह संवाद सिर्फ सूचना आयुक्त शैलैष गांधी द्वारा सुने गए मामलों को लेकर है. बाकी सूचना आयुक्तों के फैसलों या सूचना कानून की कमियों की चर्चा का यहां कुछ लाभ नहीं होगा.
जनसुनवाई में सबसे बड़ा मुदा उठा - आयोग के आदेश के बाद भी सूचना न मिलना. लोगों ने अपने अपने मामलों के  सजीव उदाहरण देकर सैकड़ों कहानियां सुनाईं जहां उन्हें सूचना आयुक्त शैलैष गांधी के फैसले से तो सन्तुष्टि  तो  थी लेकिन उनके आदेश के महीनों बाद भी उन्हें सूचना नहीं मिली है. आदेश पर अमल न होने के इतने सारे मामलों को खुद सूचना मांगने वालों के मुंह से सुनने के बाद शैलैष गांधी ने भी कबूल किया कि आदेशों पर पर अमल नहीं होना वाकई एक बड़ी समस्या है. उन्होंने घोषणा की कि महीने में कम से कम एक दिन अब वे ऐसे मामलों को देंगे जहां उनके आदेश के बाद भी सूचना उपलब्ध नहीं कराई जा रही है.
हालांकि यह कोई स्थाई समाधान नहीं है और अरविन्द केजरीवाल ने सुझाव दिया कि अगर सूचना देने के  आदेश के बाद भी मामले की सुनवाई जारी रखें और मामले को तब ही बन्द करें जब आवेदक को सूचना मिल जाए तो इसका आसान समाधान निकल सकता है. इस सुझाव पर शैलैष गांधी का तर्क था कि इससे उनके पास लंबित मामलों की संख्या बढ़ जाएगी और अभी वो जिस तरह दो महीने के अन्दर ही अपील पर सुनवाई शुरू कर देते हैं जबकि बाकी आयुक्तों के यहां 8 से 10 महीने का वक्त लगता है, यह क्रम टूट जाएगा. इस पर उपस्थित लोगों ने एक स्वर मे कहा कि अगर आदेशों पर अमल नहीं होगा तो ऐसे सैकडों आदेश हर महीने पारित करने का भी क्या लाभ होगा.

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

नियमों को ताक पर रखकर नियुक्ति

तमाम अयोग्यताओं के बावजूद मुख्यमंत्री के नज़दीकी रहे अधिकारी के पुत्र को मिली सीधे क्लास-1 के पद पर अनुकंपा नियुक्ति

प्रदेश में अनुकंपा नियुक्ति का एक अनूठा मामला सामने आया है जहां एक अधिकारी की मृत्यू के बाद उनके पुत्र को सीधे अधिकारी बना दिया गया। नियम के मुताबिक अनुकंपा नियुक्ति के तहत केवल क्लर्क या चपरासी स्तर की नौकरी दी जा सकती है। लेकिन इस मामले में सीधे मुख्यमंत्री ने दखल दिया और तमाम नियम कायदों को ताक पर रख दिया गया।
मण्डी निवासी सामाजिक कार्यकर्ता रणबीर सिंह चौहान ने सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करते हुए इस मामले का खुलासा किया है। मामला इस तरह है कि 2007 में सतर्कता विभाग के ज़िला अटॉर्नी श्री रविन्द्र धैल्टा की मृत्यू 9 पफरवरी 2007 को हो गई थी। 5 मार्च 2007 को उनके पुत्र विकास धैल्टा ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए सीधे मुख्यमंत्री के पास आवेदन किया। दिलचस्प बात यह है कि 13 जुलाई 2007 को इस हिमाचल की केबिनेट ने भी पास कर दिया और 13 सितम्बर 2007 को विकास धैल्टा को बाकायदा अतिरिक्त ज़िला अटॉर्नी के रूप में नियुक्त कर दिया गया। गौरतलब है कि यह एक क्लास-1 पद है और नियमत: क्लास 1 या क्लास -2 पद पर किसी की नियुक्ति अनुकंपा के आधार पर नहीं की जा सकती। नियम के मुताबिक अनुकंपा नियुक्ति केवल क्लास-3 या क्लास-4 के पदों पर की जा सकती है।
इसके साथ ही अनुकंपा नियुक्ति उस परिवार के आश्रितों को दी जाती है जिनका कोई अन्य सदस्य सरकारी नौकरी में न हो। लेकिन यहां तो स्वर्गीय रवीन्द्र धैल्टा की पत्नी भी आईपीएच विभाग में सहायक के पद पर कार्यरत हैं। प्राप्त सूचना के मुताबिक विकास धैल्टा ने मुख्यमंत्री के पास लिखे आवेदन में दावा किया था कि पिता की मृत्यू के बाद अपनी मां, दादी और बहन के लालन पालन की ज़िम्मेदारी उनके कंधे पर आ पड़ी है अत: उन्हें अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति दी जाए। आम तौर पर इस तरह के आवेदनों पर फैसला लेने में सरकारी विभाग 8-10 साल लगा देते हैं लेकिन इस मामले में नियुक्ति विभाग, गृह विभाग और वित्त विभाग ने कुछ ही महीनों में सारी कार्रवाई पूरी कर विकास की नियुक्ति भी करवा दी। यहां तक कि चुनाव आचार संहिता लगने के चलते नियुक्ति के लिए चुनाव आयोग से मंजूरी लेने का काम भी आनन फानन में पूरा कर लिया गया।

ज़िला जज मेरठ के पीआईओ पर जुर्माना लगा, हटा और अब पत्रावली गायब

उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने मेरठ के ज़िला जज कार्यलय के पीआईओ (लोक सूचना अधिकारी) के खिलाफ सूचना नहीं देने के कारण पहले तो 25,000 रूपये का जुर्माना लगया फिर बिना कारण बताये ही जुर्मान हटा कर केस बन्द कर दिया। जब आवेदक ने इस मामले पर पुन: सुनवाई करने का अनुरोध् किया तो सुनवाई के फैसला सुरक्षित कर लिया गया और बाद में आवेदक को सूचना दी गई कि केस की पत्रावली नहीं मिल रही है। अब जब पत्रावली ही नहीं मिल रही है तो ना जुर्माना लगेगा और ना ही सूचना मिलेगी।
यह मामला मेरठ के कृष्ण कुमार खन्ना का है। उन्होंने मेरठ ज़िला जज के अधीन अदालतों में पेशकारों और अहलकारों द्वारा ली जा रही रिश्वत के रोकथाम के लिए ज़िला जज के कार्यालय में 66 आवेदन किये। उनके आवेदनों पर जब कोई कार्यवाई नहीं हुई तो उन्होंने आवेदनों पर की गई कार्यवाई का विवरण आरटीआई के तहत मांगा। कृष्ण कुमार ने आरटीआई का आवेदन 14 मई 2007 को पंजीकृत डाक से भेजा था जिसे ज़िला जज कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी बच्चू लाल ने लेने से मना दिया।

क्या संसद से ऊपर है आरटीआई ?

-विष्णु राजगढ़िया
लोकसभा के मौजूदा सत्र में दस अगस्त को दिलचस्प वाकया हुआ। खेल मन्त्री एमएस गिल कामनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों से जूझ रहे थे। इसी दौरान उन्होंने कह डाला कि सांसद चाहें तो सूचना कानून के सहारे ऐसे मामलों के दस्तावेज हासिल कर सकते हैं। इस जवाब ने मानो आग में घी का काम किया। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नाराज होकर पूछ डाला- ``क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?´´
लोकतन्त्र की सर्वोच्च संस्था में उपस्थित जनप्रतिनिधियों को किसी भी मामूली भारतीय की तरह सूचना मांगने की सलाह पर ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। लिहाजा कोई सांसद इस सलाह पर शायद ही अमल करे। लेकिन अनुभव बताते हैं कि सूचना कानून के सहारे कोई भी सामान्य नागरिक कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार से जुड़ी ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां आसानी से निकाल सकता है। ऐसी जानकारियां किसी सांसद या विधायक को संसद या विधानसभा में मिलना काफी मुश्किल और शायद असम्भव है।
आखिर मामला क्या है? सूचना कानून में साफ लिख दिया गया है कि जिस सूचना के लिए संसद या विधानसभा को इंकार नहीं किया जा सकता, उसके लिए किसी नागरिक को भी इंकार नहीं किया जायेगा। स्पष्ट है कि आज कोई भी नागरिक हर वैसी सूचना मांग सकता है जो किसी सांसद या विधायक को मिल सकती है। दूसरी ओर, अब तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं बना है कि संसद या विधानसभा में हर ऐसी सूचना मिल सकती है, जो सूचना कानून के जरिये आम नागरिक को प्राप्त है। इसके कारण आज आम नागरिक हमारे जनप्रतिनिधियों की अपेक्षा ज्यादा धरदार तरीके से शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने योग्य दस्तावेजी सबूत हासिल कर रहे हैं।
संसद और विधानसभाओं में सवाल पूछने और जवाब देने के तरीके को देखें तो सूचना कानून से इसका पर्क पता चलता है। आम तौर पर लिखित प्रश्नों में जनप्रतिनिधि को अपनी ओर से कोई विशिष्ट सूचना पेश करते हुए यह पूछना होता है कि यह सच है अथवा नहीं। इसके लिए जनप्रतिनिधि के पास ठोस प्रारंभिक सूचना होना जरूरी होता है। क्या यह सच है, अगर हां तो क्यों शैली में पूछे गये इन प्रश्नों में अगर आपके पास पहले से पर्याप्त सूचना नहीं तो जवाब भी ठन-ठन गोपाल होने की पूरी गुंजाइश रहती है।
इसी तरह, सदन में आये प्रश्नों के जवाबों की भी खास प्रकृति होती है। नौकरशाहों द्वारा तैयार जवाबों के आधर पर सदन में मन्त्री अपना पक्ष रखता है। इसमें सवाल उठाने वाले जनप्रतिनिधि को सारे सम्बंधित दस्तावेज नहीं दिये जाते बल्कि उस पर सरकार का पक्ष रखा जाता है। इसमें सवाल उठाने वाले को दस्तावेजों के अध्ययन के आधार पर जवाबतलब करने का समुचित अवसर प्राय: नहीं मिल पाता।
दूसरी ओर, सूचना कानून ने प्रश्नोत्तर की इन सीमाओं से आगे जाकर सम्बंधित मामले के सारे दस्तावेज हासिल करने की जबरदस्त ताकत दी है। इसमें कोई सवाल उठाने के लिए नागरिक के पास अपनी प्रारंभिक एवं ठोस सूचना की जरूरत नहीं। वह एक साधरण पंक्ति लिखकर कॉमनवेल्थ खेलों की पूरी फाइल मांग सकता है। इस तरह फाइल लेने का कोई सामान्य प्रावधान संसद या विधानसभा में नहीं है।
तब क्या यह कहना अतिश्योक्ति है कि सूचना कानून ने आज हर नागरिक को सांसद और विधायक से भी ज्यादा ताकत दी है?
संसद और विधानसभा के सत्रों को देखें तो यह बात और स्पष्ट हो सकेगी। जनता ने अपने जनप्रतिनिधि चुनकर भेजे। उन्हें नागरिकों की ओर से सवाल पूछने का दायित्व सौंपा गया। लेकिन साल में महज बीस से पचास दिन चलने वाले सदन की प्रक्रिया प्राय: विचारहीन शोरशराबे या औपचारिकताओं में डूबी रहती है। प्रश्नोत्तर काल का ज्यादातर समय हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। महालेखाकर की रपटों, बजटों, योजनाओं, कानूनी संशोधनों या विधायकों को कई बार पढ़ा तक नहीं जाता, बहस तो दूर की बात। जनप्रतिनिधियों के लिए सवाल पूछने की गुंजाइश अत्यन्त सीमित रह जाती है। कुछ सवाल पूछे भी गये तो जवाब नदारद। जवाब मिला भी तो कार्रवाई खुदा जाने।
कोई विधायक-सांसद सवाल पूछना चाहे तो कोई जरूरी नहीं कि वह स्वीकृत हो जाये। हुआ भी तो जरूरी नहीं कि सदन में उस पर चर्चा हो। हुई भी तो जरूरी नहीं कि जवाब मिले। एक बार मामला खत्म, तो पिफर अगले सत्रा का इन्तजार। एक दिन में कोई सांसद या विधायक कितने सवाल पूछ सकेगा, इसकी भी सीमा है। उन्हें यह कहकर टाला जा सकता है कि विभाग से सूचना की प्रतीक्षा की जा रही है। ऐसे हजारों उदाहरण पेश किये जा सकते हैं जिनमें सांसद, विधायक के सवालों का जवाब बरसों तक नहीं मिला।
इस तरह, सदन में पूर्ण विफल जनप्रतिनिधि अपने कीमती समय का बड़ा हिस्सा समितियों की बैठकों और टूर-दौरों में, उद्घाटन और अभिनन्दनों में, विवाह और शोक समारोहों की शोभा बनने में गंवा देता है। इससे भी कुछ समय निकला तो दलीय गुटबन्दी।
दूसरी ओर, सूचना कानून में एक माह की समय सीमा लागू है। नागरिकों के सवालों को स्थगित नहीं किया जा सकता। जवाब देना होता है। नहीं दिया तो सूचना आयोग दिला देगा। सूचना मांगने का कोई मौसम नहीं। यही कारण है कि आज कोई सवाल उठाने, जवाब मांगने के लिए नागरिक किसी जनप्रतिनिधि का मुंहताज नहीं। वह हर चीज का हिसाब खुद मांगने, जांच करने को स्वतन्त्र है। साठ साल में संसद और विधानसभा में जितने सवाल पूछे गये, उससे ज्यादा सूचना पांच साल में नागरिकों ने खुद ही हासिल कर ली है।
मजेदार बात यह है कि आज ऐसे सांसदों, विधयकों, पूर्व मन्त्रियों की बड़ी संख्या है जो सूचना कानून का शानदार उपयोग कर रहे हैं। पूर्व सांसद रमेन्द्र कुमार का स्पष्ट मानना है कि एक नागरिक के बतौर उन्हें यह कानून ज्यादा ताकत देता है। विधायक विनोद सिंह के अनुसार जो सूचना एक विधायक के बतौर उन्हें झारखण्ड विधानसभा में नहीं मिल सकी, वही सूचना उन्होंने एक नागरिक के तौर पर सूचना कानून के जरिए आसानी से हासिल कर ली। एक आइपीएस के खिलाफ तत्कालीन एडीजीपी वीडी राम की जांच रिपोर्ट का मामला काफी चर्चित है। माले के चर्चित विधायक महेन्द्र सिंह द्वारा लगाये गये गम्भीर आरोपों के बाद यह जांच गठित हुई थी। लेकिन स्पीकर के आदेश के बावजूद विधानसभा में यह रिपोर्ट पेश नहीं की गई। जिस विधानसभा के कारण वह जांच हुई, उसी विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। महेन्द्र सिंह ने इसे बार-बार सदन में उठाया। उनकी हत्या के बाद उनके पुत्रा विधायक विनोद सिंह ने भी सदन में रिपोर्ट पेश करने की मांग की। लेकिन विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। इसी बीच विनोद सिंह ने एक नागरिक के बतौर सूचना कानून के सहारे वही रिपोर्ट आसानी से हासिल कर ली।
एक और दिलचस्प उदाहरण। वर्ष 2006 में झारखड विधानसभा में तेजतर्रार विधायक बंधू तिर्की ने विकास योजना की अरबों की राशि बैंकों में जमा रखने पर सवाल पूछे। सदन में जवाब मिला कि सूचना एकत्र की जा रही है। छह महीने बाद फिर यही जवाब। विधायक को कोई सूचना नहीं मिली। यह देखकर इन पंक्तियों के लेखक ने आरटीआई आवेदन देकर सरकार से यही सूचना मांग डाली। देखते-ही-देखते हजारों पृष्ठों की सूचना मिल गई।
किसी भी विषय पर सवाल उठाने के लिए सम्बंधित अधिकारिक दस्तावेजों का अध्ययन आवश्यक है। सूचना कानून ने हर नागरिक को यह ताकत दी है। संसद और विधानसभा के प्रश्नोत्तर की प्रकृति भिन्न है। जनप्रतिनिधियों को अगर अधिकारिक दस्तावेजों का पूर्व अध्ययन करने का अवसर मिले तो उनके द्वारा उठाये गये सवाल ज्यादा धरदार हो सकते हैं। इसलिए समय आ गया है, जब सदन में सवालों और उन पर सरकार के जवाब को ज्यादा सार्थक और परिणामदायक बनाने के लिए सांसदों और विधायकों को सम्बंधित दस्तावेज कुछ दिनों पहले हासिल करने का अवसर मिले। अभी उन्हें सदन में या एक दिन पहले सिर्फ बेहद सीमित जवाब पकड़ा दिये जाते हैं। उन पर पूरक प्रश्नों के जरिये बहुत कुछ निकालना कई बार सम्भव नहीं हो पाता।
इसलिए आज सवाल यह नहीं है कि संसद से भी ऊपर आरटीआई है अथवा नहीं। सवाल सिर्फ इतना है कि इस कानून ने पारदर्शिता और जवाबदेही के जो नये आयाम खोले हैं, उनका सदुपयोग हमारे जनप्रतिनिधि किस प्रकार से करना चाहते हैं। अगर कोई जनप्रतिनिधि सदन के लिए अपने सवाल बनाने में आरटीआई का उपयोग करे तो आसानी से समझ लेगा कि ``क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?´´