मंगलवार, 3 मार्च 2009

क्या जवाबदेही और पारदर्शिता से डरती है देश की सबसे बड़ी अदालत?

देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट सवालों के कटघरे में है। और ये सवाल खुद इस अदालत की विश्वसनीयता, आम जनता के साथ उसके रिश्ते में जवाबदेही और पारदर्शिता और उसके जजों के आचरण पर लगे धब्बों के संबंध में हैं। 26 फरवरी की सुबह सुप्रीम कोर्ट के सामने करीब 300 सामाजिक कार्यकर्ता हाथों में तख्ती, बैनर, हैंडबिल लिए ठीक सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर बैठे। न कोई नारेबाज़ी, न कोई हो हल्ला, न कोई रास्ता जाम, न कोई भाषणबाज़ी। ये लोग चुपचाप करीब छह घंटे तक सुप्रीम कोर्ट के गेट पर हाथों में बैनर लिए खड़े रहे। आने जाने वाले वकीलों तथा अन्य लोगों को अपनी मांगों का एक पर्चा थमाते गए। अलग-अलग संगठनों और आंदोलनों से जुड़े ये लोग मांग कर रहे थे कि सूचना का अधिकार कानून न्यायपालिका पर भी पूरी तरह लागू हो तथा सारे जज अपनी अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करें। क्योंकि अगर नेताओं और अफसरों के लिए अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करना लाज़िमी है तो भला जज इससे ऊपर कैसे रह सकते हैं? जजों को भी कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।
हैरानी की बात है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने किसी समय भारतीय संविधान की धारा 19 ए में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में किसी नागरिक की बोलने की आज़ादी तब तक कोई मायने नहीं रखती जब तक कि उसे जानने की आज़ादी न हो। अत: देश के हर आदमी को यह जानने का मूलभूत अधिकार है कि उसके द्वारा चुनी गई तथा उसके ही टैक्स के पैसे से काम कर रही सरकार क्या काम कर रही है। 1976 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले ने ही सूचना के अधिकार कानून की नींव रखी और इसके बाद 2005 में इसे सुनिश्चित करता हुआ एक प्रभावशाली अधिनियम देश में लागू हुआ। सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या में आम आदमी के जानने का जो हक़ निकल कर आया था यह कानून उसी हक़ को पाने की गारंटी देता है। लेकिन जब तक सरकार से जानने की बात थी तब तक तो ठीक लेकिन इस कानून में न्यायपालिका को भी शामिल करने से कुलबुलाहट मचने लगी।
जिस सप्रीम कोर्ट ने जानने के हक़ को मूलभूत अधिकार बताया था उसी के वर्तमान मुखिया आज खुद को आम आदमी के जानने के हक़ से ऊपर बता रहे हैं। यानि कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को चरितार्थ करने में लगे हैं। जब तक नेताओं की बात हो अफसरों की बात हो तो सब कुछ पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन जैसे अपने ऊपर उंगली उठती है तो अदालतें भी बंगलें झांकने लगती हैं। सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर आए लोगों का भी यही सवाल था कि आखिर अदालतें इस देश के लोगों के लिए ही तो हैं। देश के लोगों के पैसे से ही तो जजों के आलीशान गाड़ी बंगलों के खर्चे निकलते हैं। अदालत के तमाम खर्चे देश के लोग इसीलिए उठाते हैं कि कहीं अन्याय की स्थिति में उन्हें न्याय मिलेगा। लेकिन जनता के पैसे से जनता के लिए काम पाए कुछ लोग जनता से ऊपर कैसे हो सकते हैं?
इस धरने और पूरे विवाद की बुनियाद में है अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले और इस सबके बावजूद अदालतों का खुद को विशेष मानते हुए जनता के प्रति जवाबदेही और पारदर्शिता से बचने की कोशिश। घटना क्रम में सबसे अहम पड़ाव आया है दिल्ली के कपड़ा व्यापारी सुभाष चंद्र अग्रवाल के सूचना के अधिकार आवेदन से। सूचना के अधिकार के करीब 1000 से ज्यादा आवेदन डाल चुके अग्रवाल सूचना के अधिकार को एक वरदान मानते हैं। अग्रवाल ने मुख्य क्या न्यायाधीश के यहां दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज के भ्रष्टाचार की शिकायत की थी लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत इस बारे में जानकारी मांगी। इसी क्रम में अग्रवाल ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति का ब्यौरा मांगा। गौरतलब है कि 7 मई 1997 में पास एक प्रस्ताव के तहत जजों को अपनी तथा अपने परिवार की संपत्ति का ब्यौरा देश के मुख्य न्यायाधीश को देना होता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के लोक सूचना अधिकारी ने सूचना के अधिकार के तहत इस ब्यौरे को सार्वजनिक किए जाने से मना कर दिया। सुभाष अग्रवाल ने इसके बाद केंद्रीय सूचना आयोग का दरवाज़ा खटखटाया। सुनवाइयों के लंबे दौर के बाद केंद्रीय सूचना आयोग ने 6 जनवरी 2009 को फैसला सुनाया और सुप्रीम कोर्ट के लोक सूचना अधिकारी को सूचना उपलब्ध करवाने को कहा। केंद्रीय सूचना आयोग के इस फैसले को मीडिया में खूब तरजीह मिली लेकिन इसके तुरंत बाद देश के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि जजों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया जा सकता और केंद्रीय सूचना आयोग के पफैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दे दी गई। यह एक अनोखा मामला था जब बड़ी अदालत अपनी रक्षा की दुहाई देते हुए छोटी अदालत में जा पहुंची।
देश की सबसे बड़ी अदालत अपने जजों की संपत्ति को गोपनीय रखने के लिए अपने से छोटी अदालत की शरण में गई तो लोगों की निगाह उठनी स्वभाविक थी। लोगों में चर्चा चली कि आये दिन जजों पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लग रहे हैं उनमें दम है तभी तो यह सब छिपाने की कोशिश की जा रही है। अगर सब कुछ साफ़ साफ़ है तो यह जानकारी छिपाने के लिए इतनी हाय तौबा क्यों? खुद लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने यह मुद्दा उठाया कि जब सांसद अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करते हैं तो भला जजों को इससे अलग कैसे रखा जा सकता है?
लेकिन सूचना के अधिकार को लेकर न्यायपालिका के रवैये से लोगों की नाराज़गी सिर्फ़ इस एक मामले तक सीमित नहीं है। इस कानून के लागू होने के बाद से ही अदालतों ने जिस तरह खुद को इस कानून के दायरे से ऊपर दिखाने की कोशिश की है उसने भी लोगों और अदालतों के बीच विश्वास को कम किया है। सूचना के अधिकार कानून से खुद को ऊपर स्थापित करने की कोशिश में सुप्रीम कोर्ट के अधिकारियों की ओर से पहले यह कोशिश की जा चुकी है कि उनके मामले में दूसरी अपील केंद्रीय सूचना आयुक्त के यहां दाखिल करने की जगह सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के यहां दाखिल की जाए। प्रावधानों से ऊपर देश के कई उच्च न्यायालयों में आम आदमी की हैसियत का मज़ाक उड़ाते हुए सूचना मांगने की फीस 500 रुपए कर दी गई है। यही नहीं अपील के लिए भी 50 रुपए का शुल्क रखा गया है। इसी तरह फोटोकॉपी के लिए प्रति पृष्ठ 5 रुपए की फीस कर दी है। यानि कि किसी गरीब आदमी को सूचना चाहिए तो वह आवेदन डालने की हिम्मत ही न कर सके। केंद्र और अधिकतर राज्य सरकारों के मामलों में आवेदन डालने के लिए 10 रुपए की फीस है। अपील के लिए कोई शुल्क नहीं है। साथ ही फोतोकोपी के लिए 2 रुपए प्रति पृष्ठ की फीस है। दिल्ली हाई कोर्ट में तो सूचना के अधिकार के आवेदन सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे तक यानि मात्र दो घंटे ही स्वीकार किए जाते हैं।

मंत्री भी गोपनीय रखना चाहते हैं अपनी कमाई की जानकारी
सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर आने की कुलबुलाहट सिर्फ़ अदालतों में ही दिखती हो ऐसा नहीं है। हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी मंत्रियों और उनके परिवार के नाम संपत्ति के ब्यौरे को सार्वजनिक करने से मना कर दिया था। सुभाष अग्रवाल के ही सूचना अधिकार आवेदन के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि ये जानकारी सूचना अधिकार कानून की धारा 8(१)(ई) तथा (जे) के तहत उपलब्ध नहीं कराई जा सकती। इन दोनों धाराओं में कहा गया है कि ऐसी सूचना जो वैश्वासिक नातेदारी (फ्रयूडिशियरी रिलेशनशिप) के तहत प्रदान की गई हो अथवा किसी की निजी सूचना हो, वह सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध नहीं कराई जाएगी जब तक कि इसका दिया जाना जनहित में न हो।
हुआ यूं था कि सुभाष अग्रवाल ने केबिनेट सचिव से केंद्रीय मंत्रियों तथा उनके परिजनों की संपत्ति का पिछले दो साल का ब्यौरा मांगा था। केबिनेट सचिव कार्यालय ने यह आवेदन प्रधानमंत्री कार्यालय को प्रेषित कर दिया। 19 मई 2008 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने पहले तो यह तमाम सूचना केबिनेट सचिव कार्यालय को उपलब्ध करा दीं ताकि इन्हें सूचना के अधिकार के जवाब में आवेदक को उपलब्ध कराया जा सके। लेकिन न तो केबिनेट सचिव कार्यालय से और न ही प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें कोई सूचना मिली। समय बीतने पर अग्रवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग के पास अपील दाखिल कर दी। इसके बाद 17 दिसंबर 2008 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने अग्रवाल को एक पत्र लिख कर सूचित किया कि उनके द्वारा मांगी जा रही सूचना कानून की धरा 8(१)(ई) तथा (जे) के तहत गोपनीय मानी गई है अत: प्रदान नहीं की जा सकती। सवाल यहां भी वही है कि ये मंत्री और उनके रिश्तेदार आखिर कितना कमाते हैं और अगर इमानदारी से कमाते हैं तो जनसेवकों को जनता से छिपाने की आवश्यकता क्या है?
खुद सूचना आयुक्त भी नहीं होना चाहते पारदर्शी
दूसरों को आदेश देना और बात है, लेकिन खुद को पारदर्शी रखने के लिए जो नैतिक ताकत चाहिए वह केंद्रीय सूचना आयोग के पास भी नहीं दिखती। अदालतों के जजों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किए जाने का फैसला देने वाले सूचना आयुक्त भी जब खुद की बारी आती है तो कानून की आड़ में छिपने लगे हैं। उनका भी तर्क है कि कानूनन वे ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सूचना आयुक्त वज़ाहत हबीबुल्लाह ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि सभी केंद्रीय सूचना आयुक्तों ने अपनी अपनी संपत्ति का ब्यौरा आयोग को दे दिया है लेकिन उसे वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं किया जा रहा है।
गौरतलब है कि हाल ही में नियुक्त चार नए सूचना आयुक्तों में से एक शैलेष गांधी ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा केंद्रीय सूचना आयोग की वेबसाइट पर डाले जाने कई मांग की थी लेकिन उनका अनुरोध नहीं स्वीकार किया गया। इसके बाद शैलेष गांधी ने सूचना कार्यकर्ताओं के मध्य लोकप्रिय ईमेल ग्रुप हम जानेंगे पर अपनी करीब साढ़े पांच करोड़ रुपए की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक कर दिया था। लेकिन बाकी सूचना आयुक्त अभी यह साहस नहीं दिखा सके हैं। अगर सूचना आयुक्त यह पहल करते हैं तो देश के बाकी नौकरशाहों के लिए यह एक बड़ा संदेश होगा।

क्या जज न्याय से परे हैं?

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल ने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सील करने का आदेश दिया जिससे सीधे-सीधे उनके बेटों और उनके सहयोगियों को लाभ पहुंचा। इस तरह श्री सब्बरवाल ने अपने पद का दुरूपयोग किया। न्यायाधीश वाई सब्बरवाल के बेटों ने उसके बाद 15 करोड़ रु का मकान खरीदा जबकि उस समय उनकी घोषित आय लाखों में ही थी। सरकार का कहना है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के गलत कामों की जांच की जाए। इतना ही नहीं मिड डे अखबार के जिन पत्रकारों ने इस घोटाले का पर्दाफाश किया, उन्हें न्यायालय की अवमानना के जुर्म में उच्च न्यायालय ने जेल भेजने की सजा सुना दी। कलकत्ता होई कोर्ट के जज सौमित्र सेन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जगजाहिर हैं। सौमित्रा सेन को महाभियोग के जरिए पद से हटाने के लिए राज्यसभा के 58 सदस्यों ने तो सभापति को याचिका भी सौंपी है।
न्यायाधीश जगदीश भल्ला के परिवार ने नोएडा में 7 करोड़ रुपये के बाजार मूल्य की जमीन मात्र 5 लाख रुपये में एक ऐसे भू माफिया से खरीदी जिसके खिलाफ कई फौजदारी मामले उन्हीं की निचली अदालतों के तहत चल रहे थे। कमेटी फॉर ज्यूडिशियल एकांउटेबिलिटी द्वारा कई बार शिकायत किए जाने के बावजूद भी कोई भी जांच नहीं की गई। उल्टा उन्हें हिमाचल के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिया गया।
पिछले दस सालों के दौरान जज नियुक्त करने की कमेटी से सलाह किए बिना और निर्धरित प्रक्रिया का उल्लंघन करके उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में कितने की जजों की नियुक्ति की गई है। कुछ जजों को तो उनके खिलाफ खुफिया विभाग द्वारा भ्रष्टाचार के मजबूत रिपोर्टों के दिए जाने के बाद भी नियुक्त कर दिया गया है। सरकार कहती है कि जजों की नियुक्ति सम्बन्धी फाइलें गुप्त हैं। तो क्या सरकार को भ्रष्ट न्यायपालिका की जरूरत है?
हाल ही में गाजियाबाद में प्रोविडेन्ट फंड घोटाला उजागर हुआ जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठासीन जज, उच्च न्यायालय के 10 जज और जिला अदालतों के 23 जज शामिल हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश प्रोविडेन्ट फंड में पफंसे जजों से सीधे सवाल पूछने की इजाजत पुलिस को नहीं दे रहे हैं। उन्होंने पुलिस को केवल लिखित सवाल भेजने के निर्देश दिए हैं। इतना ही नहीं जजों पर घोटाले के सूत्र धार आशुतोष अस्थाना को छिपाने के आरोप भी लगे हैं। घोटाले में लिप्त 69 कर्मचारियों को तो जेल भेज दिया गया लेकिन जजों पर हाथ डालने की हिम्मत किसी ने नहीं की।
1991 में वीरास्वामी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के बिना किसी भी जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। इस तरह न्यायपालिका ने किसी भी आपराधिक कार्रवाई से अपने को पूरी तरह से मुक्त कर लिया है, फ़िर जज का अपराध चाहे कितना भी गंभीर क्यों न हो। जजों द्वारा कई बार घोर अपराध किए जाने के बावजूद मुख्य न्यायाधीश ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की इजाजत नहीं दी है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश जजों की संपत्ति के ब्यौरे को भी सार्वजनिक करने से इंकार करते हैं जबकि नेताओं और नौकरशाहों के लिए संपत्ति का खुलासा करना जरूरी होता है। फ़िर जजों से क्यों नहीं? मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि कोई भी स्वाभिमानी जज अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने को राजी नहीं होगा। इतना ही नहीं, वे तो यह भी कहते हैं कि मुख्य न्यायाधीश का पद सूचना के न्यायाधीश के तहत नहीं आता। मजेदार बात यह है कि चुनाव लड़ने वाले नेताओं की संपत्ति का ब्यौरा देने का आदेश खुद सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था। कई उच्च न्यायालयों ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत अपनी सुविधानुसार नियम बना लिए हैं जिसमें प्रशासनिक और वित्तीय मामलों पर सूचना लेने की मनाही है। यही वजह है कि जजों या अन्य लोगों की नियुक्ति, लंबित पडे़ मामलों और यहां तक की अदालतों के बजट के बारे में भी सूचना आम जनता को नहीं मिल रही है।

जम्मू-कश्मीर में ताकतवर होगा आरटीआई

जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने कहे अनुसार राज्य को केन्द्र के समकक्ष सूचना के अधिकार देने की पूरी तैयारी कर ली है। इसके लिए जम्मू-कश्मीर सूचना के अधिकार कानून का मसौदा तैयार कर लिया गया है। इससे पहले राज्य में जो सूचना का अधिकार कानून लागू था, उसमें कई खामियां थीं और नागरिकों को सूचना मिलने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। नए कानून में केन्द्रीय कानून के तमाम अच्छे बिन्दुओं के साथ कुछ ऐसे प्रावधन भी किए गए हैं जो इस कानून को केन्द्रीय कानून से बेहतर बनाते हैं। इस कानून में सबसे मजबूत पहलू सूचना आयोग द्वारा मामले को निपटाने की तय समय सीमा है। इसमें बताया गया है कि सामान्य परिस्थितियों में दूसरी अपील 60 दिन में निस्तारित हो जानी चाहिए। कुछ परिस्थितियों में 120 दिन की समय सीमा तय की जा सकती है लेकिन इसके पीछे ठोस आधार होना चाहिए और सूचना आयुक्त को इनका रिकॉर्ड लिखित रखना होगा। इस तरह की समय सीमा अब तक न तो केन्द्रीय सूचना आयोग में है और न ही किसी राज्य सूचना आयोग में।
पूर्ववर्ती कानून में जुर्माने का प्रावधान भी काफी कमजोर था। सूचना देने में देरी करने पर 50 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से अधिकतम 5 हजार तक के जुर्माने का प्रावधान था। लेकिन अब नए कानून में 250 रुपये प्रतिदिन और अधिकतम 25 हजार तक का जुर्माना लगाया जा सकेगा। कानून के नए मसौदे में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति विवादास्पद है। इसमें बताया गया है कि सूचना आयुक्त के लिए वही व्यक्ति योग्य होगा जिसने जम्मू कश्मीर सरकार की मुख्य सचिव, सचिव या आयुक्त के रूप में सेवा की हो। केन्द्र और राज्य सूचना आयोगों में अब तक का अनुभव रहा है कि नौकरशाह इस पद के लिए उपयुक्त साबित नहीं हो रहे हैं। उनसे कहीं बेहतर पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रबंधन, कानून क्षेत्र से आए व्यक्ति साबित हो रहे हैं।

प्रतिदिन औसतन पांच मामले निस्तारित करते हैं महाराष्ट्र के सूचना आयुक्त

महाराष्ट्र सूचना आयोग का ऑडिट करने पर पता चला है कि आयोग के छह सूचना आयुक्त प्रतिदिन औसतन 5 अपील या सुनवाइयों को निस्तारित करते है। यानि एक आयुक्त हर माह करीब 150 मामलों पर विचार करता है। ऑडिट से ज्ञात हुआ है कि नागपुर के सूचना आयुक्त विलास पाटिल ने पिछले साल सर्वाधिक 2003 मामले निस्तारित किए। मुंबई के सूचना आयुक्त सुरेश जोशी 1983 मामले निपटाकर दूसरे स्थान पर रहे। नवी मुंबई के सूचना आयुक्त नवीन कुमार सबसे कम 1298 मामले निस्तारित किए तो पुणे के विजय कुवलेकर ने 1728 मामलों का निपटारा किया। ऑडिट के लिए आरटीआई दायर करने वाले भास्कर प्रभु का कहना है यदि सूचना आयुक्त इसी दर से मामलों को सुनेंगे और अपनी गति नहीं बढ़ाएंगे तो शीघ्र ही सूचना के अधिकार से लोगों का विश्वास उठ जाएगा।
गौरतलब है कि राज्य सूचना आयोग में दिसंबर 2008 तक 15026 लंबित मामले थे जो सुनवाई की बाट जोह रहे हैं। ऐसे में सूचना आयुक्तों का धीमा काम कार्यकर्ताओं को नहीं भा रहा है। उनका कहना है कि एक सूचना आयुक्त हर माह 250 से 300 के आसपास मामलों को आसानी से निस्तारित कर सकते हैं। उन्होंने शैलेष गाँधी और अन्नपूर्णा दीक्षित द्वारा एक महीने में निपटाए गए मामलों को मिसाल के तौर पर पेश किया है। अन्नपूर्णा दीक्षित ने एक महीने में 330 और शैलेष गाँधी ने 670 मामलों को निस्तारित कर एक रिकॉर्ड कायम किया है और अन्य सूचना आयुक्तों पर तेजी से काम करने का दबाव बनाया है।

सोमवार, 2 मार्च 2009

न्यायालय की अवमानना

नीरज कुमार
सूचना के अधिकार अधिनियम , 2005 की धारा 8(१)(बी) में ऐसी सूचनाएं जिनके प्रकाशन पर किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा अभिव्यक्त रूप से प्रतिबन्ध लगाया गया हो या जिसके प्रकटन से न्यायालय की अवमानना होती हो, उसके सार्वजनिक किए जाने पर रोक लगाई गई है। अगर कोई मामला किसी कोर्ट में निर्णय के लिए विचारधीन है, इसका यह कदापि अर्थ नहीं है कि उससे सम्बंधित कोई सूचना नहीं मांगी जा सकती। विचाराधीन मामलों के संबंध में कोई सूचना सार्वजनिक किए जाने से कोर्ट की अवमानना हो, यह जरूरी नहीं है। हां, कोई विशेष सूचना जो कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक किए जाने पर रोक लगा दी हो, अगर उसे सार्वजनिक किए जाने की बात होगी तो कोर्ट की अवमानना जरूर होगी। गोधरा जांच के दौरान उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में रेल मंत्रालय को विशेष तौर पर निर्देश दिए थे कि गोधरा नरसंहार की जांच रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत न करें। आदेश के माध्यम से न्यायालय ने रिपोर्ट के सार्वजनिक किए जाने पर रोक लगा दी। उपरोक्त सूचना के दिए जाने से कोर्ट की अवमानना भी हो सकती और धरा 8(१)(बी) का उल्लंघन भी।
ऐसे मुद्दों पर निर्णय देते वक्त अधिकारियों को केवल वही सूचनाएं देने से मना करनी चाहिए जो न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक किए जाने को निषिद्ध कर रखा हो। कुछ मामलों में देखने में आ रहा है कि सरकारी अधिकारी इस धारा का इस्तेमाल सूचना नहीं देने के बहाने के रूप में धड़ल्ले से कर रहे हैं। दिल्ली पुलिस का तो यह तकिया कलाम बनता जा रहा है। गोपाल ने डीसीपी (दक्षिण) के पास अपने सात साल के बेटे के साथ हुए अमानवीय दुष्कर्म की एफआईआर दर्ज कराई। गोपाल का आरोप था कि पुलिस ने ले-देकर मामला रफा-दफा कर दिया। दो-तीन महीने बीत जाने के बाद भी आरोपी फरार था। उसके घर का पता दिए जाने के बावजूद पुलिस ने तफ्तीश में गंभीरता नहीं दिखाई। जब आरटीआई दायर की गई तो पुलिस ने कानून की धारा 8(१)(बी) लगा दी।
अफरोज ने एम्स और दिल्ली पुलिस से बाटला हाउस एन्काउंटर के दौरान मारे गए तथाकथित आतंकियों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट, एफआईआर की कॉपी, दिल्ली में हुए सीरियल धमाकों की तफ्तीश के दौरान गिरफ्तारी आदि की जानकारी मांगी थी। जवाब में बताया गया कि मामला न्यायालय में विचाराधीन है और सूचना नहीं दी जा सकती जबकि कोर्ट के द्वारा सूचना सार्वजनिक नहीं किए जाने के संबंध में दिया गया ऐसा कोई भी आदेश प्रकाश में नहीं आया।
ऐसे समय में जब सूचना न देना एक नजीर बनती जा रही हो, सूचना आयुक्तों की भूमिका बहुत बढ़ जाती है और इस भूमिका को आयुक्तों ने बखूबी निभाया है। यहां तक कि सूचना न दिलवाने के लिए मशहूर आयुक्त (भूतपूर्व) पदमा बालासुब्रमण्यम ने भी लीक से हटकर अधिकांश मामलों में सूचनाएं दिलवाईं हैं। पिछले एक साल में इस मुद्दे पर केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा दिए गए कुछ फैसलों को देखने से तो यही नतीजा निकलता दिखाई देता है। मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने भूतपूर्व पेट्रोलियम मंत्री कैप्टन सतीश शर्मा के बारे में मांगी गई सूचना के संबंध में आयोजित की गई फुल बैंच सुनवाई के दौरान बकायदा सूचनाएं सार्वजनिक किए जाने के पक्ष में 5-6 पेजों में विस्तार से स्पष्टीकरण दिया। साथ ही यह भी बताया कि अपीलार्थी ने क्षतिपूर्ति की मांग नहीं की थी, यदि की होती तो वह भी दिलवाई जाती। सूचना तो बहरहाल दिलवाई ही गई।

क्या कहती है कानून की धारा
सूचना के अधिकार कानून में कोर्ट की अवमानना को परिभाषित नहीं किया गया है। इसे समझने के लिए न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 का सहारा लिया जा सकता है। अधिनियम की धारा 2(ए)(बी) और (सी) में बताया गया है कि-
ए- दीवानी या फौजदारी दोनों तरह से कोर्ट की अवमानना हो सकती है।
बी- यदि किसी कोर्ट के निर्णय, डिक्री, आदेश, निर्देश, याचिका या कोर्ट की किसी प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन किया जाए या कोर्ट द्वारा दिए गए किसी वचन को जानबूझकर भंग किया जाए तो यह कोर्ट की दीवानी अवमानना होगी।
सी- किसी प्रकाशन, चाहे वह मौखिक, लिखित, सांकेतिक या किसी अभिवेदन या अन्य किसी माध्यम या कृत्य द्वारा-
1- बदनाम या बदनाम करने की कोशिश या अभिकरण या कोर्ट को नीचा दिखाने की कोशिश की जाए या
2- किसी न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात या हस्तक्षेप
3- न्याय व्यवस्था को किसी प्रकार से हस्तक्षेप या बाधित करना या बाधित करने की कोशिश करना।

`हजारों वर्ष की मानसिकता को बदलने में वक्त लगेगा´

किसी समय सूचना के अधिकार की आत्मा में बचाए रखने में केन्द्रीय सूचना आयुक्त ओपी केजरीवाल अहम भूमिका निभाई थी। फाइल नोटिंग के सम्बन्ध में जब उन्होंने प्रधानमंत्री को सख्त चिठ्ठी लिखी तो उनकी छवि बोल्ड और आवेदक के पक्ष में फैसला देने वाले सूचना आयुक्त के रूप में उभरीहालाँकि जितनी सख्ती की उम्मीद उनसे की गई थी उतनी सख्ती नहीं दिखीइस पद पर तीन साल तक काम करने के बाद वे फरवरी में रिटायर हुए हैं। इस पर उनसे हुई बातचीत के अंश:

आप सरकार के कई विभागों के प्रमुख रहे हैं। सूचना आयुक्त का पद अन्य अन्य पदों से किस प्रकार अलग रहा है?
मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूं कि मैं इस कानून के आरंभ से ही जुड़ा रहा। इस कानून का दायरा अन्य कानूनों और विभागों से बिलकुल अलग है। आप पूरे मानव इतिहास को देख लीजिए, आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि शासित वर्ग अपने शासक वर्ग से सवाल पूछ सके। इससे आप समझ सकते हैं कि यह कितना क्रांतिकारी कानून है जो शासित वर्ग को अधिकार देता है कि वह बड़े से बड़े अधिकारी से सवाल पूछ सके।

आपने कहा कि सूचना का अधिकार एक क्रांतिकारी कानून है, क्या आपके तीन साल के कार्यकाल के दौरान कोई ऐसा केस आया जिसे आप समझते हैं कि अगर वह सूचना नहीं होती तो ऐसा नहीं हो सकता था?
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां मैं कह सकता हूं कि यदि सूचना का अधिकार कानून नहीं होता तो बहुत मुश्किल होती। जैसे एक केस आया कि एमरजेंसी के दौरान सरकार ने किसी की जमीन ली और उसे एक प्रमाणपत्र दिया कि आपको मुआवजा दिया जाएगा। उसके बाद वह व्यक्ति प्रमाणपत्र लेकर भटकता रहा, कहीं सुनवाई नहीं हुई। बीच में उसे कह दिया गया कि आपकी फाइल खो गई है। सूचना का अधिकार कानून आ जाने के बाद उसने अपने केस के बारे में सूचनाएं मांगी। मामला मेरे पास आया। सुनवाई में सरकारी अधिकारी ने माना कि फाइल दोबारा बना ली गई है और इन्हें जमीन जल्दी ही दे दी जाएगी। एक उदाहरण और है। क्लास फोर का एक कर्मचारी रिटायर हुआ। उसकी ग्रेचुएटी का कुछ फंड 12 साल तक नहीं मिला। उसने इसके लिए जगह-जगह गुहार लगाई। पैरवी लगाकर फाइल मूव भी करवाई, लेकिन पैसा नहीं मिला। आरटीआई डालने पर जब आयोग में उसकी सुनवाई हुई तो अधिकारी चेक लेकर आयोग में आए। वह चेक 2035 रुपये का था। अब आप सोच सकते हैं कि 2035 रुपये के लिए सरकार ने कितने अधिकारियों, कितना समय और कितने नोट सीट बरबाद किए होंगे। भाई कानून है तो उसके हिसाब से मिल सकता है तो दो, नहीं तो मना कर दो। लेकिन ऐसा नहीं होता उसी चीज को बार-बार इधर से उधर टरकाया जाता है। पहली बार हमने देखा कि चमत्कार हो रहे हैं।

पिछले तीन सालों में देखा गया है कि आपने इस कानून के क्रियान्वयन को लेकर काफी बोल्ड बयान दिए हैं। खासकर फाइल नोटिंग से सम्बंधित आपके बयान के बाद ही एक सहमति बनी कि फाइल नोटिंग सूचना के अधिकार के तहत दिखाई जाएगी। इसके बारे में आप क्या कहेंगे?
मैनें अक्टूबर 2005 में ज्वाइन किया और नवंबर में एक दिन अखबार में देखा कि पीएमओ से एक गाइडलाइन चली है जिसमें फाइल नोटिंग को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर किया जा रहा था और उसी के तहत हमें काम करना होगा। हमने सोचा कि इतने कमजोर कानून के लिए क्या काम करना, पहले तो सोचा त्यागपत्र दे दूं। फ़िर सोचा एक बार प्रोटेस्ट तो करें, फ़िर हमनें प्रधानमंत्री को एक खुली चिट्ठी लिखी। हमें भी बिलकुल अंदाजा नहीं था कि इतना असर होगा। इसका क्रेडिट जाता है मीडिया और जनता को। इस मुद्दे को मीडिया और फ़िर जनता ने उठाया और वो वहीं पर रुक गया। हमने मसला उठाया था कि यदि कोई बदलाव होना है तो संसद से हो। कोई व्यक्ति कैसे कानून बदल सकता है? इसके आठ महीने बाद संसद के माध्यम से कोशिश की गई कि फाइल नोटिंग नहीं दिखलाई जाएगी। कैबिनेट ने इसे पास भी कर दिया। जिस दिन कैबिनेट ने इसे पास किया एक टीवी टीम मेरे आई तो मैंने कहा कि अगर ऐसा हो रहा है तो इस कानून से इसकी आत्मा निकाली जा रही है। इसके बाद तो जन साधारण का इतना दबाव पड़ा कि इसे संसद में नहीं रखा गया। यह कुछ बिरले केसों में है, जहां कैबिनेट ने कोई प्रपोजल पास किया हो और वह संसद में नहीं रखा गया।

फाइल नोटिंग का क्या महत्व है और यह किस तरह लोगों को प्रभावित करती है?
जो भी मुद्दा सरकार के पास आता है, उसकी एक फाइल बनती है, उसी से सारा काम होता है। हर फाइल में दो हिस्से होते हैं। एक हिस्से में अधिकारी अपनी टिप्पणी करते हैं और दूसरे हिस्से में उस मुद्दे से जुड़ी चिटि्ठयां होती हैं जो विभिन्न विभागों के बीच लिखी जाती हैं। जो असली विवाद है वो आपको समझ में आता है पहले वाले हिस्से से यानि फाइल नोटिंस से। अगर उसको दाब दिया जाए तो जैसे मैने पहले कहा कि उसके प्राण ही नहीं रहेंगे। फाइल नोटिंग से पता चलता है कि किसने क्या कहा और किसने कहां देर की। इससे भ्रष्टाचार का पता चलता है, किसने किसे कांट्रेक्ट देने के लिए कहा, कांट्रेक्ट किस आधार पर दिया गया, ये सब कुछ किसी भी मुद्दे की फाइल नोटिंग से ही पता चलता है।

इस कानून को जिन उम्मीदों के साथ लाया गया था, उन उम्मीदों पर अभी तक खरा नहीं उतरा है और पिछले तीन सालों में लोगों में निराशा बढ़ी है। आपको यह निराशा कितनी सही लगती है?
एक चीज तो है, जब कानून बना तो लोगों की आशाएं बहुत हो गईं। उस कसौटी पर अगर तोलें तो अभी बहुत कुछ करना बाकी है। लेकिन आप देखें कि कितने कम समय में इस कानून का जितना गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है, उतना किसी दूसरे कानून का नहीं पड़ा। अभी चार साल भी नहीं हुए। हजारों वर्षों की छुपाने की मानसिकता आप चार साल में नहीं बदल सकते। शासक वर्ग कहता है हमसे पूछने वाले आप कौन हैं? इस हजारों वर्ष की मानसिकता को बदलने में वक्त तो लगेगा ही। लेकिन इतना होते हुए भी जितना प्रभाव इस कानून का पड़ा है, उसे देखते हुए यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि जल्दी ही यह मानसिकता पूरी तरह से बदल जाएगी।

लेकिन इस कानून के पूरे स्पिरिट के साथ लागू होने में जो बाधाएं आ रही हैं, उसके बारे में आप क्या कहेंगे?
सबसे बड़ी बाधा है मानसिकता। सरकारी अधिकारी सूचना देना नहीं चाहते। अब मुझे ही ले लीजिए, मैं भी ब्यूरोक्रेसी से ही आया हूं। शुरू-शुरू में एक अड़चन या असमंजस थी, लेकिन धीरे-धीरे बात समझ में आई। हम लोग भी तो सीख रहे हैं और सुधार कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में कुछ लोग जल्दी ढल गए, कुछ देर और कुछ अभी तक नहीं ढले हैं। ये बाधा है।

आयोगों की कार्यप्रणाली से लोग बड़े नाराज हैं। इस नाराजगी के लिए आप अपने को कहां तक जिम्मेदार मानते हैं?
दुर्भाग्य की बात है कि कमीशन ने अपनी भूमिका पूरी तरह नहीं निभाई। इसे आप फाइल नोटिंग में देख सकते हैं। तीन साल हो गए लेकिन अभी तक कोई सिस्टम नहीं बना है। न तो हमारे पास अच्छा स्टॉफ है, न पूरा पैसा है, न जगह। इसके लिए आयोग और उसका प्रशासन दोषी है। आप देखिए, हमने कोई आदेश पास किया कि सूचना निश्चित तारीख तक दे दी जानी चाहिए, लेकिन सूचना नहीं दी गई तो आवेदक शिकायत करेगा कि आपके आदेश का पालन नहीं किया गया। अब वह चिट्ठी आयोग में तीन-चार महीने तक पड़ी रहती है, तो इसका असर तो कम होगा ही। इस तरह के हजारों केस आपको आयोग में मिलेंगे। अभी तक यह व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इस तरह की शिकायतों पर 24, 48 या 72 घंटे में कार्रवाई हो।

बहुत से लोग सूचना के अधिकार में वो ताकत देख रहे है जिससे देश के हालात को बदला जा सकता है, इससे आप कितना सहमत हैं?
बिलकुल बदला जा सकता है। कानून में प्रावधान है कि आयोग विभागों को निर्देश दे सकते हैं कि आप प्रशासन में किस प्रकार सुधार ला सकते हैं। हमने इसका प्रयोग किया भी है। जब विभागों का प्रशासन सुधरेगा तो देश में बदलाव अपने आप ही आएगा।

सूचना के अधिकार में जनसाधरण की क्या भूमिका देखते हैं?
मैं जहां भी जाता हूं, एक बात जरूर कहता हूं कि सूचना के अधिकार के सैनिकों की एक आर्मी तैयार करें। किसी एक विभाग में एक महत्वपूर्ण विषय पर साल में एक व्यक्ति आरटीआई डाले और उसका फालो अप करे, फ़िर देखिए क्या असर पड़ता है।

राजनैतिक दावपेंच में खोती पहचान

आजादी की लड़ाई में अनेक स्वतंत्रता सैनानियों के नाम तो इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गए लेकिन बहुत से नाम गुमनामियों में खो गए। सम्मान देने और उनकी याद ताजा बनाए रखने के लिए किसी के नाम पर विश्वविद्यालय-कॉलेज, एयरपोर्ट के नाम रखे गए या किताबों में दर्ज हो गए तो किसी की याद में एक छोटी सी सड़क का नाम रखने में भी मशक्कत करनी पड़ी। और वह भी राजनीतिक दावपेंचों में उलझकर रह गई। लाला फतेह चंद बुत्तन ऐसे ही स्वतंत्रता सैनानी हैं।
परिवार की अनेक कोशिशों के बाद उनके नाम पर दिल्ली के पहाड़गंज इलाके की मुल्तानी धंदा आराकशां रोड से देशराज भाटिया रोड़ को जोड़ने वाली गली नंबर 13 तक को 2003 में दिल्ली नगर निगम ने लाला फतेह चंद बुत्तन मार्ग नाम रखा। लेकिन बाद में निगम में राजनीतिक बदलाव आया तो इस रोड़ का नाम गैर कानूनी तरीकों से बदल दिया गया। वर्तमान स्थिति यह है कि रोड़ के एक छोर पर तो लाला फतेह चंद बुत्तन मार्ग का बोर्ड लगा है जबकि दूसरे छोर और अन्य दो जगह गोविन्द राम वर्मा मार्ग लिखा हुआ है।
लाला फतेह चंद के पुत्र आर एन बुत्तन कहते हैं कि उनके पिता कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता सैनानी थे, इसलिए भारतीय जनता पार्टी के एक पार्षद ने गलत तरीके से सड़क का नाम बदलवा दिया। वे सवाल उठाते हैं कि दिल्ली नगर निगम ने एक ही रोड़ के दो नामों की आंख बंदकर क्लीयरेंन्स कैसे दे दी? जबकि नियम यह है कि आजादी के बाद यदि किसी सड़क का नाम स्वतंत्रता सैनानी के नाम पर रखा गया है तो उसे बदला नहीं जा सकता।
आरटीआई के जरिए अनेक आश्वासनों और सड़क के नामकरण के प्रस्ताव के बावजूद काम न होने के सम्बंधित सवालों के निगम के पास कोई जवाब नहीं हैं। तीन आवेदनों में निगम ने एक का भी पूरा और सही जवाब नहीं दिया है। निगम के जवाब तलब करने के लिए आर एन बुत्तन ने अब केन्द्रीय सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया है और सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।

कौन हैं लाला फतेह चंद बुत्तन
फतेह चंद बुत्तन का जन्म 5 दिसंबर 1895 को पाकिस्तान के मुल्तान शहर के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। 1941 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद लाला लाजपत राय के संपर्क में आए और आजादी की लड़ाई में कूद पडे़। 1919 में महात्मा गाँधी के आवाहन पर मार्शल कानून के दिनों में रोलेक्ट एक्ट के विरोध में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। मुल्तान में वे म्युनिसिपल कमेटी के 16 बार सदस्य भी चुने गए।
आजादी के आंदोलनों में वह विभिन्न जेलों में 26 महीने अन्य बड़े-बडे़ नेताओं के साथ बंद रहे। उन्हें एक बार नजरबंद भी किया गया। कुर्की, जुर्माना आदि की कार्रवाई भी कई बार उनके विरुद्ध हुई। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का मुल्तान में नेतत्व करने पर इन्हें बंदी बनाया गया।
बंटवारे के बाद भारत आ गए और स्वतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली की प्रथम म्युनिसिपल कमेटी का इन्हें सदस्य चुना गया। फ़िर 1951 के आम चुनाव में मुल्तानी धंडा पहाड़गंज क्षेत्र की जनता ने अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए म्युनिसिपल कमेटी का सदस्य चुना। 21 दिसंबर 1956 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।

सिफारिश पर मनचाहा तबादला

सूचना के अधिकार के तहत मिले दस्तावेजों से पता चला है कि हरियाणा के स्वास्थ्य विभाग के ड्रग कंट्रोल अधिकारी मंत्रियों से अपनी नजदीकी के चलते अपने पसंदीदा क्षेत्र में पोस्टिंग पाकर मलाई काट रहे हैं। सूचना के अधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार रमेश वर्मा ने स्वास्थ्य विभाग और मुख्यमंत्री कार्यालय से मंत्रियों और विधायकों के अफसरों के तबादलों के नोट हासिल किए हैं। उन्होंने पिछले पांच सालों की सिफारिशी नोट की सत्यापित प्रति मांगी थी। उन्हें निचले स्तर के कर्मचारियों के सिफारिशी नोट तो आसानी से मिल गए लेकिन राजपत्रित अधिकारियों के सिफारिशी नोटों की प्रति सूचना आयोग के आदेश और मुख्यमंत्री कार्यालय के निरीक्षण के बाद हासिल हुए।
प्राप्त जानकारी के अनुसार हिसार में तैनात जिला ड्रग कंट्रोल अधिकारी आदर्श गोयल और अंबाला में तैनात परविन्द्र मलिक ऐसे अधिकारी हैं जो अलग-अलग मंत्रियों की सिफारिश के बल पर अपने मनपसंद क्षेत्र में तैनाती पा चुके हैं। आदर्श गोयल हरियाणा की राजस्व मंत्री और हिसार से विधायक सावित्री जिन्दल की सिफारिश से हिसार में तैनात हैं। सावित्री जिन्दल के सिफारिशी पत्र के बल पर ही पहले भिवानी में स्थानांतरित किए गए आदर्श गोयल का तबादला हिसार कर दिया गया। बावजूद इसके कि हिसार में पहले से ही एक ड्रग अधिकारी मौजूद था और भिवानी में तैनाती के वक्त इन पर दो जिलों का भार था।
इसी तरह अंबाला में तैनात ड्रग कंट्रोल अधिकारी परविन्द्र मलिक ने भी राज्य के कृषि मंत्री हरमिन्द्र सिंह की सिफारिश के बूते यहां तैनाती पाई। मलिक इन्हीं मंत्री महोदय की कृपा से स्वास्थ्य विभाग की मर्जी के खिलाफ अंबाला में टिके हुए हैं। जबकि अंबाला में एक अन्य जिला ड्रग अधिकारी रिपन मेहता पहले से तैनात हैं। स्वास्थ्य विभाग ने पहले परविन्द्र मलिक का तबादला सिरसा जिले में किया गया था जहां लंबे समय से ड्रग कंट्रोल अधिकारी का पद खाली पड़ा था और जिले के पुलिस अधीक्षक ने मुख्य मंत्री कार्यालय से अनुरोध भी किया था कि जिले में नशीली दवाओं को प्रचलन बहुत अधिक है अत: किसी अधिकारी की तैनाती की जाए। इसके बाद स्वास्थ्य विभाग ने अंबाला जिले में दो अधिकारी होने के कारण परविन्द्र मलिक का तबादला सिरसा कर दिया। लेकिन मलिक की कृषि मंत्री से सिफारिशी चिट्ठी की बदौलत उन्होंने सिरसा ज्वाइन करने से पहले ही अपना तबादला रद्द करवा लिया।
इन राजपत्रित अधिकारियों के अलावा ऐसे क्लर्क भी हैं जिन्होंने नियुक्ति के कुछ ही दिनों के अंतराल पर दूसरी मालदार सीट पर नियुक्ति के लिए वित्त मंत्री संपत सिंह और हिसार के डाबडा हल्के के विधायक पूर्ण सिंह डाबडा से सिफारिशी नोट लिखवाएं हैं।
ऐसा भी नहीं है कि सिफारिशी नोट किसी एक ही पार्टी के विधयक या मंत्री ने लिखे हों। इसमें वर्तमान सत्ताधरी कांग्रेस पार्टी और पूर्व सरकार इंडियन नेशनल लोकदल के मंत्री और विधायक दोनों शरीक हैं।
इतना ही नहीं, ऐसा भी हुआ है कि किसी अधिकारी का तबादला तीन माह पूर्व मुख्यमंत्री कर दे, बावजूद इसके वह अधिकारी अब तक अपने क्षेत्र में टिका हुआ है। फरीदाबाद में तैनात ड्रग कंट्रोल अधिकारी नरेन्द्र आहुजा का तबादला कैबिनेट सचिव कुमारी शारदा राठौर के कहने पर मुख्य मंत्री ने किया था लेकिन नरेन्द्र आहुजा अब तक फरीदाबाद में ही तैनात हैं। मजे की बात यह है कि इस दौरान तबादले का आदेश न तो रद्द हुआ और न ही लागू और नरेन्द्र आहुजा भी तबादले के संबंध में अपनी अनभिज्ञता जता चुके हैं।
मतलब सापफ है अधिकारियों को जनता, विभाग या उस स्थान से कोई मतलब नहीं है जहां उनकी जरूरत है, अगर मतलब है कि इससे कि उन्हें अपनी सुविधा और पसंद के हिसाब से तबादला मिले। उनके लिए जनता नकली दवा गटके या युवा नशीली दवा खाकर गर्त में जाएं तो चलेगा लेकिन ऐसी जगह तबादला नहीं चलेगा जो उन्हें पसंद न हो। ऐसा करने वाले अधिकारी और उनका साथ देने वाले मंत्री को क्या जवाबदेह नहीं बनाया जाना चाहिए?

डीओपीटी के सर्कुलर और अधिसूचनाएँ

सूचना के अधिकार कानून की नोडल एजेन्सी कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने इस कानून के संबंध में 10 फरवरी 2009 तक 23 सर्कुलर और 9 अधिसूचनाएँ जारी की हैं, जिन्हें संक्षेप में बताया जा रहा है-
5 दिसंबर 2008 को जारी सर्कुलर में कहा गया कि सभी लोक प्राधिकरण को अकांउट्स ऑफिसर के नाम से आवेदन शुल्क के रूप में दिए गए बैंकर्स, डिमांड ड्राफ्ट और इंडियन पोस्टल ऑर्डर स्वीकार करने होंगे। अन्यथा वे कानून की धारा 20 के तहत जुर्माने के भागी होंगे। ऐसा ही एक सर्कुलर 23 मार्च 2007 को भी जारी किया गया था जिसमें उपरोक्त उप बंधों के अलावा पीआईओ और एपीआईओ की नियुक्ति, पोस्टर ऑर्डर को स्वीकार करना और निश्चित फॉरमेट में आवेदन देने का दवाब न देने की बात कही गई थी।
28 जुलाई 2008 का सर्कुलर डीम्ड पीआईओ से बारे में था। उसमें कहा गया है कि लोक सूचना अधिकारी सूचना देने के लिए अन्य अधिकारी की मदद ले सकता है। यदि वह अधिकारी पीआईओ की मदद नहीं करता तो आयोग उस पर जुर्माना लगा सकता है।
किस प्रारूप में सूचना दी जाएगी, इसे 10 जुलाई 2008 के सर्कुलर में स्पष्ट किया गया है। सर्कुलर में बताया गया है यदि सूचना फोटो कॉपी या फ्लोपी के रूप में सूचना मांगी गई है तो उसी रूप में दी जाए। इसका मलतब यह नहीं है कि अधिकारी सूचना रीशेप करेगा। जिस प्रारूप में सूचना उपलब्ध होगी, उसी में दी जाएगी।
24 जून 2008 के सर्कुलर में सभी पीआईओ को सूचना मांगने वालों को जरूरी मदद देने और विनम्रता से पेश आने की बात कही गई। प्रशिक्षण कार्यक्रमों को करने का जोर भी इसमें दिया गया।
23 जून 2008 के सर्कुलर में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा अपनाए गए सूचना मुहैया कराने के अच्छे कदमों को राज्यों के सभी मुख्य सचिवों और केन्द्र शासित प्रदेशों पर लागू करने की बात पर जोर दिया गया।
आवेदन को ट्रांसफर करने के संबंध में 12 जून 2008 के सर्कुलर में स्पष्ट किया गया है। इसमें बताया गया है यदि आवेदन में मांगी गई सूचना लोक प्राधिकारी से सम्बंधित नहीं है तो उसे सम्बंधित ये यहां भेजा जाएगा और आवेदक को इस बारे में सूचित किया जाएगा। यदि मांगी गई सूचना विस्तृत और एक से अधिक लोक प्राधिकारी से सम्बंधित है तो सूचना मांगने वाले को सम्बंधित लोक प्राधिकारी के पास अलग से आवेदन देने का परामर्श दिया जाएगा।
22 अप्रैल 2008 का सर्कुलर सामान्यत: आवेदन को एक लोक प्राधिकारी से दूसरे प्राधिकारी को प्रेषित करने और विशेष रूप से प्रधानमंत्री कार्यालय को प्रेषित करने के दिशानिर्देशों से सम्बंधित है।
8 नवंबर 2007, 25 और 27 फरवरी 2008 का सर्कुलर आवेदकों, लोक सूचना अधिकारियों, लोक प्राधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी के हित में जारी किए गए दिशानिर्देशों से सम्बंधित है।
सूचना के अधिकार कानून की धारा 26(१)(ए) राज्य सरकारों को जनता तक कानून को पहुचांने के लिए शैक्षणिक कार्यक्रम आयोजित करने की बात कहती है। 9 जनवरी 2008 का सर्कुलर सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को कानून के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए गैर सरकारी संगठनों की मदद लेने की बात कहता है।
ऐसे लोक प्राधिकरण में जहां एक से अधिक लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किए गए हैं, उनमें आवेदन स्वीकार करने के एक केन्द्रीय बिन्दु स्थापित करने की बात 14 नवंबर 2007 के ज्ञापन में कही गई है।
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर दस्तावेजों को अपडेट करने का जिक्र 14 नवंबर 2007 के अधिसूचना में किया गया है। इसमें सभी लोक प्राधिकारी को अपने दस्तावेजों को दुरूस्त, आधारभूत संरचनाओं को सुधरने और आवश्यक मैनुअल को सार्वजनिक करने को कहा गया।
इसी तारीख का ज्ञापन कानून की दूसरी अधिसूची में वर्णित इंटेलीजेंस और सिक्योरिटी संगठनों में भी लोक सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति का निर्देश देता है।
गोपनीय वार्षिक रिपोर्ट (एसीआर) का स्पष्टीकरण 21 सितंबर 2007 के कार्यालय ज्ञापन में किया गया है। इसमे बताया गया है कि एसीआर कानून की धारा 8(१)(जे) के तहत संरक्षित है फ़िर भी यदि लोक प्राधिकारी पाता है कि एसीआर के सार्वजनिक करने से व्यक्ति विशेष को कोई हानि नहीं है तो इसे सार्वजनिक किया जा सकता है।
31 जुलाई 2007 का सर्कुलर सभी मंत्रालयों और विभागों से उसके लोक प्राधिकारी, सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारियों के विवरणों की सूची की अपेक्षा करता है।
सूचना के अधिकार के तहत प्रथम अपील के दौरान निस्तारण प्रक्रिया अपनाई जाएगी, इसका जिक्र 9 जुलाई 2007 के सर्कुलर में किया गया है। यह सर्कुलर प्रथम अपीलय अधिकारी के लिए बहुत उपयोगी है।
6 अक्टूबर 2005 के सर्कुलर में चुनिंदा पोस्ट ऑफिस को कानून की तहत केन्द्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी के तौर पर अधिसूचित किया गया है।
कानून की धारा 4 मूलत: लोक प्राधिकारी के दायित्वों और स्वेच्छा से सूचनाएं प्रकाशित करने की बात कहता है। 1 जनवरी 2005 का सर्कुलर स्वैच्छिक सूचनाओं के हैंडबुक से सम्बंधित है।
इन सर्कुलर के अलावा डीओपीटी की अधिकांश अधिसूचनाएं आवेदन शुल्क, शुल्क का माध्यम, सूचना शुल्क, अपील प्रक्रिया, दूसरी अधिसूची में संशोधन, सूचना आयोग और आयुक्तों से सम्बंधित हैं।

महंगा पड़ा सूचना मांगना

गोवा के काशीनाथ शेट्टी को राज्य के नौकरशाहों और पुलिस के बारे में सूचना मांगना महंगा पड़ा है। राज्य के विद्युत विभाग में जूनियर इंजीनियर के पद पर कार्यरत काशीनाथ का तबादला दक्षिण गोवा के दूरस्थ इलाके शेल्डम में कर दिया गया है। साथ ही उनके खिलाफ जांच भी बिठा दी गई है।
काशीनाथ और उनकी पत्नी संयोगिता ने विभिन्न आरटीआई आवेदनों के जरिए राज्य के मुख्य सचिव, आईजीपी, कानून सचिव और अन्य नौकरशाहों के बारे में सूचना मांगी थी। काशीनाथ ने मुख्य सचिव जे पी सिंह की वार्षिक संपत्ति विवरण और उनके वाहन के लोगबुक की जानकारी चाही थी। साथ आईजीपी की वार्षिक संपत्ति के विवरण के अलावा 65 वर्षीय कानून सचिव वी पी शेट्टी को कांट्रेक्ट बेसिस पर नियुक्ति किए जाने पर सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया भी जाननी चाही थी।

पुलिस ने दिया आवेदक को शिकायत रजिस्टर

गाजियाबाद पुलिस ने पत्रकार आकाश नागर को सूचना मांगने पर पूरा शिकायत रजिस्टर ही थमा दिया। आकाश ने गाजियाबाद पुलिस से 2008 में चोरी हुई एक कार के बारे में सूचना मांगी थी। इसके लिए उन्होंने नवंबर में मेरठ के आईजीपी को आवेदन दिया था। मेरठ, बागपत, बुलंदशहर और गौतम बुध नगर पुलिस से तो उन्हें सूचना मिल गई लेकिन गाजियाबाद पुलिस ने इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी। सूचना के लिए आवेदक ने जब दबाव बनाया तो एक पुलिस ने चोरी के दस्तावेजों से सम्बंधित पूरा का पूरा शिकायत रजिस्टर की उनके कार्यालय में आकर दे दिया और कहा कि इससे जो सूचना चाहिए, ले लो। पुलिस ने यह भी कहा कि जब पूरी तस्सली हो जाए तो रजिस्टर वापस कर देना। पुलिस ने इतनी भी जहमत नहीं उठाई की आवेदक को मांगी गई सूचनाएँ छांटकर दे दे।

सूचना मांगने पर मिली धमकी

हम तुझे गुंडों से सीधा करवा देंगे, 80 हजार रुपये दोगे तभी तुम्हारा काम होगा। ये बातें दिल्ली नगर निगम के सफाई निरीक्षक नरेश कुमार ने नजफगढ़ के रामप्रकाश को दिल्ली नगर निगम से सूचना मांगने पर कही हैं। रामप्रकाश का कहना है कि उनके बेटे राहुल ने सितंबर और अक्टूबर में तीन आरटीआई आवेदन देकर निगम के सफाई विभाग से नजफगढ़ जोन के सफाई कर्मियों के संबंध में जानकारी मांगी थी। चार महीने बीत जाने के बाद भी निगम ने अब तक कोई सूचना नहीं दी है, जब सूचना के लिए विभाग गए तो सफाई निरीक्षक नरेश कुमार ने धमकी देते हुए गुंडों से पिटवाने की बात कही, साथ ही 80 हजार रुपए की मांग भी की। रामप्रकाश सूचना हासिल करने के लिए अब केन्द्रीय सूचना आयोग में शिकायत की तैयारी कर रहे हैं।

एक साल में मात्र 880 सुनवाइयां

तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग में इस समय 7 सूचना आयुक्त कार्यरत हैं। तीन सूचना आयुक्त शुरूआत से और अन्य चार की नियुक्ति 2008 में की गई। सात सूचना आयुक्त होने के बावजूद साल 2008 में आयोग ने मात्र 880 मामलों की सुनवाई की हैं। अगस्त से दिसंबर के बीच 7 सूचना आयुक्तों ने केवल 517 सुनवाइयां कीं। मार्च के महीने में आयोग ने न्यूनतम 16 सुनवाइयों और सितंबर माह में अधिकतम 180 मामलों को सुना। एक तरफ तमिलनाडु सूचना आयोग हैं तो दूसरी तरफ केन्द्रीय सूचना आयोग जहां केन्द्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने दिसंबर में 500 और जनवरी में 570 से अधिक मामलों का निपटारा किया है।
आरटीआई कार्यकर्ता वी माधव का मानना है कि तमिलनाडु में सूचना आयुक्त अपनी क्षमता का मात्र 7.5 प्रतिशत ही इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके अनुसार सूचना एक आयुक्त दिन में 10 सुनवाइयां आसानी से कर सकते हैं। ऐसा करने से हर महीने सात सूचना आयुक्त 20 दिनों में 1400 सुनवाइयां कर सकते हैं।
जनता के पैसों से कार, वातानुकूलित ऑफिस, चपरासी, मोटी तनख्वाह आदि सुविधाएँ पाने वाले इन सूचना आयुक्तों की पूरे साल में की गई सुनवाइयों का लेखा जोखा इस प्रकार है-
माह सुनवाइयां
जनवरी 66
फरवरी 41
मार्च 16
अप्रैल 98
मई 26
जून 64
जुलाई 92
अगस्त 118
सितंबर 180
अक्टूबर 71
नवंबर 68
दिसंबर 80

ऑडिट करने पर दर्ज कराया केस

जन वितरण प्रणाली की दुकानों का आरटीआई की धारा 4 बी के तहत ऑडिट करने पर पुरी के आरटीआई कार्यकर्ता रबिन्द्र नाथ नायक के खिलाफ केस दर्ज करा दिया गया है। नायक पुरी के महलपाडा और बदतारा ग्राम पंचायत से सूचनाएं एकत्रित कर रहे थे। बदतारा पंचायत के गढरूपा गांव में जन वितरण प्रणाली की दुकान का जब वे ऑडिट करने गए तो वहां प्रोएक्टिव डिस्क्लोजर का कोई नामो निशान नहीं था। उन्होंने पाया कि त्रिशक्ति स्वयं सहायता समूह की डीलरशिप में राशन की दुकान चल रही थी। इस मामले में जब वे समूह ने मुखिया से मिलने उनके घर गए तो उनके पति मिले जिन्होंने न तो वितरण रजिस्टर दिखाया और न ही प्रोएक्टिव डिस्क्लोजर के बारे में बात की। धारा 4 बी के तहत सूचनाएं जारी करने को कहा तो समूह की मुखिया गुन्नीकंडी ने गोप पुलिस थाने में केस दर्ज करा दिया। नायक का कहना है कि उस महिला को न वे जानते हैं और न ही उससे कभी मिले हैं।
इसके बाद 2 फरवरी को थाने के सहायक सब इंस्पेक्टर नायक के घर आए और उनकी पत्नी से बोले- उन्हें (नायक को) थाने भेज देना नहीं तो अच्छा नहीं होगा। अगले दिन नायक थाने गए तो उन्हें बाद में आने को कहा गया। नायक का कहना है कि उनके पास बदतारा के पूर्व सरपंच के फोन आ रहे हैं और वे थाने आकर समझौता करने की बात कह रहे हैं।
गौरतलब है कि 55 वर्षीय रबिन्द्रनाथ नायक सूचना के अधिकार के जरिए अनेक प्रकार की गड़बड़ियां उजागर कर चुके हैं। उनकी कोशिशों की वजह से ही दो अधिकारियों को 25-25 हजार का जुर्माना लगा है। दोषी अधिकारी के खिलाफ वे एफआईआर भी दर्ज करवा चुके हैं। यही नहीं पुरी के माघ मेले में मिट्टी के तेल घोटाले के बारे में भी उन्होंने खाद्य वितरण एवं उपभोक्ता कल्याण विभाग के कमिश्नर एवं सचिव राज कुमार शर्मा से जवाब तलब किया है। सूचना के अधिकार की बदौलत जमीनी स्तर पर लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए उन्हें सूचना श्री अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन लगता है अधिकारियों रबिन्द्र नायक का काम यह रास नहीं आ रहा है, उनके खिलाफ दर्ज मामला इसका एक उदाहरण है।

बंद होने की कगार पर सूचना आयुक्त कार्यालय

महाराष्ट्र में सूचना आयुक्तों के बीच मतभेदों का खामियाजा अब सूचना मांगने वालों को उठाना पडे़गा। फंड की कमी के चलते महाराष्ट्र सूचना आयोग के नागपुर और औरंगाबाद सूचना आयुक्त कार्यालय बंद होने की कगार पर हैं। फंड उपलब्ध न होने की वजह से महीनों से कार्यालय के टेलीफोन, स्टेशनरी, बिजली और यात्रा का बिल नहीं चुकाया गया है। नागपुर के सूचना आयुक्त विलास पाटिल, औरंगाबाद के विजय भोरगे और पुणे के विजय कुलवेकर ने खुलेआम राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त सुरेश जोशी पर फंड उपलब्ध न कराने और कानून के विरुद्ध काम करने के आरोप लगा चुके हैं।
गौरतलब है कि सुरेश जोशी की कार्यप्रणाली की वजह से अन्य सूचना आयुक्त उनसे खासे नाराज हैं और माना जा रहा है कि इसी वजह से मुख्य सूचना आयुक्त अन्य बैंचों को फंड उपलब्ध कराने में हीलाहवाली कर रहे हैं। सुरेश जोशी को लिखे एक पत्र में विलास पाटिल ने कम्प्यूटरों की मरम्मत, पोस्टेज स्टांप, वाहन भत्ते, टेलीफोन बिल्स और पिछले तीन महीने के अखबार का बिल चुकता करने के लिए 2 लाख रुपये की मांग की है। इसके अलावा पाटिल ने फर्नीचर, बिजली के उपकरण आदि के लिए 7.5 लाख रुपये तुरंत उपलब्ध कराने की मांग भी की है।
औरंगाबाद के सूचना आयुक्त विजय भोरगे ने भी सुरेश जोशी को लिखे पत्र में कहा है कि उनका कार्यालय बिना बिलों के भुगतान के चल रहा है। हम अपनी जेब से अब कार्यालय का सामान नहीं खरीद सकते। यदि ऐसा ही होता रहा तो शीघ्र ही कार्यालय बंद करना पडे़गा।
पुणे के सूचना आयुक्त विजय कुवलेकर ने भी लिखित शिकायत में कहा है कि उनकी अगस्त 2008 में चार टाइपिस्टों की मांग का प्रस्ताव अब तक मुख्य सूचना आयुक्त के यहां लंबित है। जून 2008 से पुणे बैंच को वाहन और टेलीफोन भत्ते भी नहीं दिए गए हैं। उनका कहना है कि जिला स्तर पर होने वाली विशेष सुनवाइयों में उन्होंने अपनी जेब से खर्च किया है। मुख्य सूचना आयुक्त से फंड ने मिलने पर मजबूरन विशेष सुनवाइयां रोककर वे अपने कार्यालय में ही सुनवाइयां करने लगे हैं।
सूचना आयुक्तों के अलावा राज्य के आरटीआई कार्यकताओं ने भी सुरेश जोशी खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। गाँधी वादी विचारक अन्ना हजारे तो उनकी शिकायत मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति से भी कर चुके हैं।

सूचना आयुक्त बृजेश मिश्रा ने धमकाया

`फटीचरगिरी पत्रकारिता करते हो, दो टके के पत्रकार सारी पत्रकारिता भुला दूंगा। तेरा अखबार बंद करवा दूंगा। निकल जा मेरे कक्ष से।´ ये वचन उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त बृजेश कुमार मिश्रा ने साप्ताहिक समाचार पत्र `आशा´ के ब्यूरो चीफ मुन्ना लाल से कहीं हैं। मुन्ना लाल 16 फरवरी को आयोग में एक प्राधिकृत वादी के तौर आयोग में सुनवाई के लिए गए थे। सूचना आयुक्त ने मामले की सुनवाई के बजाय मुन्ना लाल को ही धमकाना शुरू कर दिया। मुन्ना लाल ने लखनऊ के हजरत गंज कोतवाली में इसकी शिकायत ली लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से आनाकानी की। उन्होंने अब राज्यपाल को की गई शिकायत में अपनी जान माल का खतरा बताते हुए समुचित कार्रवाई करने की मांग की है और मामला सुप्रीम कोर्ट में रेफर करने को कहा।
मुन्ना लाल का कहना है वे बृजेश कुमार मिश्रा के गलत कृत्यों को अपने पत्र के जरिए उजागर करते रहे हैं जिससे वे बौखला गए हैं। उनका कहना है कि मायावती के करीबी और बसपा नेता सतीश मिश्रा ने अपने जूनियर वकील बृजेश मिश्रा की नियुक्ति सूचना आयुक्त के पद पर अवैध तरीकों से करवाई थी, इसका खुलासा करना उन्हें पसंद नहीं आ रहा हैं। मुन्ना लाल कहते हैं कि बृजेश मिश्रा ने और भी अपमानजनक और अभद्रतापूर्ण बातें कहीं। उन्होंने राज्यपाल से सूचना आयुक्त को तत्काल निलंबित करने की मांग की है।

लिए जा सकते हैं कोर्ट पेपर

कोर्ट से प्रमाणित पेपर्स हासिल करने में याचिकाकर्ताओं को अक्सर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मामला विचाराधीन है यह कहकर सूचना देने से मना कर दिया जाता है। ऐसे में केन्द्रीय सूचना आयोग का एक आदेश उन्हें काफी राहत दे सकता है। आदेश में कहा गया है कि सूचना के अधिकार के जरिए कोर्ट के प्रमाणित दस्तावेजों को हासिल किया जा सकता है।
सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने आरटीआई आवेदक एन वेंकटेशन की अपील पर यह फैसला दिया। वेंकटेशन ने दिल्ली के एक डिस्ट्रिक और सेशन कोर्ट से एक फैसले की प्रमाणित प्रतिलिपि मांगी थी जिसे कोर्ट के लोक सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी ने देने से मना कर दिया था। अपने फैसले में आयुक्त ने कहा कि यदि संसद नागरिकों को यह अधिकार देने से वंचित रखना चाहती तो इसका उल्लेख कानून में किया जाता। किसी को नागरिकों का हक छीनने का अधिकार नहीं है।

मनसा देवी श्राइन बोर्ड को कारण बताओ नोटिस

हरियाणा के मुख्य सूचना आयुक्त जी माधवन ने माता मनसा देवी श्राइन बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी को आवेदनकर्ता आर के गर्ग को सूचना देने में देरी करने पर कारण बताओ नोटिस जारी किया है। श्राइन बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी ने आवेदक को पिछले वित्त वर्ष में मंदिर के विकास पर खर्च का ब्यौरा नहीं दिया था। आवेदक ने आगामी दो साल की योजनाओं के बारे में भी जानकारी मांगी थी।
दरअसल इससे पहले आर के गर्ग ने मंदिर द्वारा फैलाई जा रही गंदगी पर हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण और मंदिर के प्रशासक का ध्यान खींचा था। उन्होंने शिकायत की थी कि मंदिर के निकट बहने वाली नाली में मंदिर का कचरा डाला जा रहा है। गर्ग ने अधिकारियों को इस मामले में कदम उठाने को कहा था। कोई कार्रवाई न होते देख उन्होंने आरटीआई के जरिए जानना चाहा कि मंदिर ने इस संबंध में कितना खर्च किया है। श्राइन बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी ने आरटीआई दाखिल करने के तीन महीने बाद अधूरा और असंतोषजनक जवाब दिया। मामला सूचना आयोग गया जहां आयुक्त ने कारण बताओ नोटिस के साथ विभाग को वेबसाइट दुरूस्त करने के निर्देश भी दिए।

पर्याप्त नहीं हैं वेबसाइट में दी गई सूचनाएं

केन्द्रीय सूचना आयोग ने कहा है आरटीआई के तहत वेबसाइट पर सूचनाएं प्रदर्शित करना ही पर्याप्त नहीं है। आयोग ने वेबसाइट में प्रदर्शित सूचनाओं के बावजूद लोक प्राधिकरणों को सूचनाओं को मुद्रित या सीडी के रूप में तैयार रखने का निर्देश दिया है। एक मामले की सुनवाई करते हुए सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने कहा कि सभी आवेदकों की पहुंच वेबसाइट तक नहीं होती इसलिए लोक सूचना अधिकारियों को सूचना मुद्रित या सीडी के रूप में देने के प्रयास करने चाहिए। चंडीगढ़ के हरीश कोचर बनाम सीबीएसई मामले की सुनवाई में आयोग ने ये बातें कहीं। सीबीएसई ने कोचर को सूचनाओं को सीधे तौर पर उपलब्ध कराने के बजाय वेबसाइट के जरिए लेने की बात कह रहा था। आवेदक ने सीबीएसई से पूछा था कि मान्यता प्राप्त स्कूलों के वार्षिक रिकॉर्ड जो अनिवार्य रूप से जमा किए जाते हैं, उन्हें सीबीएसई संरक्षित रखता है या नहीं। सीबीएसई ने आवेदक के इस सवाल और अन्य सवालों के सीधे जवाब देने के बजाय, वेबसाइट से सूचना लेने को कहा। आयोग ने सीबीएसई की लोक सूचना अधिकारी रमा शर्मा को 25 फरवरी तक निशुल्क सूचना देने के आदेश के साथ अधिकारी के खिलाफ कारण बताओ नोटिस भी जारी किया है।

चेक पोस्ट में भ्रष्टाचार का बोलबाला

आरटीआई के जरिए मिली सूचनाओं से ही भ्रष्टाचार का पता नहीं चलता बल्कि कानून के तहत निरीक्षण से भी भ्रष्टाचार की पोल खुलती है। वडोदरा के विपुल पटेल ने भुज के सामाखयाली चेक पोस्ट का निरीक्षण किया तो वहां अनेक प्रकार की गड़बड़ियां पाईं गईं। पटेल ने आटोमेटिक व्हीकल एन्ट्री एंड टैक्स कलेक्शन सिस्टम में गड़बड़ी पाई। साथ ही पाया कि बहुत से वाहनों का बिना वजन जांचे जाने दिया जा रहा है। चेक पोस्ट में तैनात पोस्ट अधिकारी और अन्य अधिकारियों ने निरीक्षण के वक्त ही गुजरने वाले ट्रकों के वजन की जांच करनी शुरू की।
पटेल का कहना है कि चेक पोस्ट के अधिकारियों ने निरीक्षण करने पर धमकी भी दी और जाने को कहा नहीं तो नतीजे भुगतने को तैयार रहने को कहा। निरीक्षण के करने के बाद उन्होंने अपनी रिपोर्ट सूचना आयोग को दे दी और अधिकारियों पर ट्रक वालों से घूस लेने के आरोप लगाए हैं।

डीडीए दे हर्जाना

सीआईसी ने दिल्ली विकास प्राधिकरण को आवेदक राजीव सपरा ढाई हजार का हर्जाना देने का आदेश दिया है। डीडीए ने राजीव सपरा को आवेदन दाखिल करने के दस महीने बाद भी पूरी सूचनाएं नहीं दी थीं और उन्हें बेवजह परेशान किया था।
राजीव सपरा ने रोहिणी की हाउसिंग सोसाइटी से जुड़ी सूचनाएं मांगी थीं। उन्होंने जानना चाहा था कि डीडीए के गठन का क्या मकसद है? उन्होंने पूछा कि कानून में यह कहां लिखा है कि डीडीए मुनाफे के लिए जमीन का विकास करेगा या ऐसी अन्य गति विधियां करेगा। डीडीए के इंजीनियर ए के सरीन ने 8 मई 2007 को प्लानिंग कमिश्नर को जो पत्र लिखा, उसका क्या आधार था? कमिश्नर के इस पत्र में रोहिणी का पचास प्रतिशत हिस्सा ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी को देने की बात कही गई थी। पत्र यह भी कहा गया था कि कुछ प्लॉट 1981 हाउसिंग स्कीम के तहत लोगों को दिए जाएं।
डीडीए के लोक सूचना अधिकारी ने आवेदन में पूछी गई कुछ जानकारियां तो दीं, लेकिन फैसले का आधार क्या था, इस प्रश्न पर चुप्पी साध ली। मामला मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के यहां गया। हबीबुल्ला ने डीडीए के इस रवैये पर नाराजगी जताई और उसे सूचना देने के आदेश के अलावा ढाई हजार रुपये आवेदक को 15 दिन में देने के आदेश दिए।

पीएमपीएमएल पर जुर्माना

पुणे बैंच के सूचना आयुक्त विजय कुवलेकर ने पुणे महानगर परिवहन महामंडल लिमिटेड (पीएमपीएमएल) पर एससीएन जटर को सूचना न देने पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है। आवेदक ने 3 मई 2007 को आरटीआई के अन्तर्गत पीएमपीएमएल से मई 2006 के एक वर्क ऑर्डर के बिल के संबंध में सूचनाएं और सम्बंधित फोटोकॉपी मांगी थी।
सूचना आयुक्त ने 25 फरवरी तक आवेदक को सूचनाएं उपलब्ध कराने और दोषी अधिकारियों के खिलाफ नियमों के तहत कार्रवाई करने के आदेश पीएमपीएमएल के कार्यपालक निदेशक को दिए हैं। आयुक्त ने अपने फैसले में कहा है कि फरवरी और मार्च महीने के वेतन से अधिकारी से जुर्माने की राशि वसूल ली जाए। साथ ही कहा कि सम्बंधित अधिकारी की गोपनीय वार्षिक रिपोर्ट (एसीआर) और सर्विस बुक में भी इसका उल्लेख किया जाए।

पीआईओ को जुर्माने के बाद विभाग का कारण बताओ नोटिस

बीएमसी के प्लानिंग और डेवलपमेंट इंजीनियर ने निगम के लोक सूचना अधिकारी को सूचना न देने पर कारण बताओ नोटिस जारी कर कहा है कि क्यों न उनके आगामी सालों के इंक्रीमेंट रोक लिए जाएं। निगम के पीआईओ ने एस के नांगिया को बोरिवली की लक्ष्मी छाया बिल्डिंग के ढहने की जांच रिपोर्ट नहीं दी थी। इंजीनियर का यह आदेश राज्य सूचना आयुक्त सुरेश जोशी द्वारा पीआईओ को 25 हजार का जुर्माना लगाने के बाद जारी किया गया है।
एस के नांगिया ने व्यापक जनहित में निगम से जांच रिपोर्ट मांगी थी। गौरतलब है कि लक्ष्मी छाया बिल्डिंग के गिरने से जान माल का काफी नुकसान हुआ था और इसके गिरने से 30 लोगों की मौत हो गई थी। आवेदन में मांगी गई सूचना देने के स्थान पर आवेदन को कभी शहरी विकास विभाग तो कभी वापस निगम भेजा जाता रहा। मामला आयोग में जाने पर अधिकारी पर जुर्माना लगाना जरूरी समझा गया। आरटीआई कार्यकर्ताओं ने आयोग के आदेश और इंजीनियर द्वारा भेजे गए कारण बताओ नोटिस का स्वागत किया है।

पुलिस महानिदेशक कार्यालय के पीआईओ सहित कइयों पर जुर्माना

बिहार के सूचना आयुक्त पी एन नारायणन कोताही बरतने वाले लोक सूचना अधिकारियों के खिलाफ सख्ती से पेश आ रहे हैं। हाल ही में उन्होंने पुलिस महानिदेशक कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी के अलावा अन्य कई सूचना अधिकारियों पर 25-25 हजार का जुर्माना लगाया है। पुलिस महानिदेशक कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने रिटायर आईएएस अधिकारी गंगाधर झा को सूचना देने में कोताही बरती थी। पी एन नारायणन ने सुनवाई के बाद जुर्माने के साथ ही 30 अप्रैल तक आवेदक को पूरी सूचना मुहैया कराने के आदेश दिए हैं और 5 मई को सुनवाई की अगली तिथि निर्धारित की है।
एक अन्य मामले में सूचना आयुक्त ने समस्तीपुर के शिक्षा अधिकारी पर भी सूचना कानून का उल्लंघन करने पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है। जुर्माने के साथ ही आयुक्त ने शिक्षा अधिकारी के खिलाफ को सूचना न देने पर विभागीय कार्रवाई के आदेश भी दिए हैं। अधिकारी ने आवेदनकर्ता सुनीता कुमारी को सूचनाएं नहीं दी थीं। इसी तरह एक और मामले में आयुक्त ने भोजपुर के डिप्टी कलेक्टर पर भी आवेदक विपुल कुमार को सूचना न देने पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है। राज्य के रोहतास जिले के बिक्रमजीत के एसडीओ और नालंदा के एक स्कूल के प्रिंसिपल पर भी आयोग ने 25-25 हजार का जुर्माना लगाया है। एसडीओ ने कुंती देवी को सूचना नहीं दी थी और स्कूल के प्रिंसिपल ने अपूर्व आनंद को सूचनाएं देने में कोताही बरती थी।

मिल गया इंश्योरेंस क्लेम

दिल्ली के मंगोलपुरी में रहने वाले दिनेश कुमार ने आरटीआई की एक अर्जी क्या डाली, दो साल से रुका इंश्योरेंस क्लेम का पैसा एक महीने में मिल गया। दरअसल, पेशे से वेल्डर दिनेश का दिनांक 3 दिसंबर 2006 को एक दुर्घटना में चेहरा और गर्दन जल गए थे। सर्वेयर और डॉक्टर ने भी दुर्घटना की पुष्टि कर ठीक हो जाने पर क्लेम लेने को कहा था। ठीक हो जाने पर दिनेश ने क्लेम के लिए जरूरी कागजों को तैयार कर लिया लेकिन इसी दौरान उन्हें गांव जाना पड़ गया। जिस कारण वे समय पर क्लेम से सम्बंधित कागज जमा नहीं कर पाए। न्यू इंडिया इंश्योरेंस बीमा कंपनी ने कुछ देरी होने पर कागज जमा करने और क्लेम देने से मना कर दिया। दिनेश ने कागज डाक से भेज दिए लेकिन फ़िर भी क्लेम का पैसा नहीं मिला।
अपना पन्ना के जरिए आरटीआई के बारे में जानने के बाद उन्होंने 6 अक्टूबर 2008 को जीवन भारती बिल्डिंग में कंपनी के लोक सूचना अधिकारी को आवेदन जमा किया जिसमें उन्होंने उन लोगों के नाम और पद पूछे जिन्हें इस मामले में कार्रवाई करनी थी। आवेदन जमा होने के बाद हडकंप मच गया। अधिकारियों ने आवेदक को अनेक बार फोन करके बड़ी नरमी से बात की और कहा कि हमसे कागज खो गए हैं, आपके पास जो भी कागज हों उन्हें जमा करा दें, उसी के आधर पर आपको क्लेम दे दिया जाएगा। साथ ही यह भी कहा कि यदि आप कागज नहीं देंगे तो हमारी नौकरी चली जाएगी। फ़िर क्या था, दिनेश ने कागज जमा करा दिए और उन्हें क्लेम के 7 हजार रुपये का चैक मिल गया।

कानून के डर से हुआ काम

असम के तिनसुखिया जिले के रहने वाले नारायण परियाल जब भी एसबीआई बैंक की न्यू तिनसुखिया शाखा में पैसा निकालने के बाद पास बुक में प्रविष्टी कराने जाते तो स्टॉफ की कमी का बहाना बनाकर बैंककर्मी काम से बचने की कोशिश करते थे। अनेक बार जब ऐसा हुआ तो उन्होंने आरटीआई हेल्पलाइन पर फोन करके कानून की जानकारी ली। हेल्पलाइन पर हो रही बात को ब्रांच मैनेजर सुन रहे थे। बात हो जाने बाद ब्रांच मैनेजर नारायण के पास आए और बोले- आपको आरटीआई फाइल करने की जरूरत नहीं है आपका काम हो जाएगा। इसके बाद उन्होंने नारायण की पास बुक में प्रविष्टि करवा दी। नारायण सूचना के अधिकार की ताकत से हैरान हैं और अब वे भ्रष्टाचार के अन्य मामलों में आरटीआई के इस्तेमाल का मन बना रहे हैं।

रंग लाया रत्ना आल का संघर्ष

राजकोट जिले के रंगपुर गांव में रहने वाले नेत्रहीन रत्ना आल का संघर्ष आखिरकार रंग लाया है। सूचना के अधिकार के जरिए ग्राम पंचायत की पोल खोलने वाले रत्ना आल के आवेदनों ने ग्राम पंचायत पर इतना दबाव बना दिया है पंचायत को गांव को हाईवे से जोड़ने वाली सड़क को बनवाना पड़ा और उसके आसपास की झाड़ियों को भी साफ करना पड़ा। गौरतलब है कि रत्ना ने सूचना के अधिकार के जरिए पंचायत के विकास कार्यों के दावों झूठा साबित किया था। पंचायत ने गांव की सड़क की मरम्मत, वृक्षारोपड़, सड़क किनारे लगी झाड़ियों को साफ करने का दावा किया था। हालांकि रत्ना के लिए यह सब आसान नहीं रहा। ग्राम पंचायत ने सवाल पूछने पर रत्ना को बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पंचायत ने रत्ना से कहा कि तुम अंधे हो सूचना लेकर क्या करोगे?
अब रत्ना आरटीआई के परिणामों से रत्ना काफी उत्साहित हैं और वह ग्रामीणों की खुशी को महसूस कर रहे हैं।

एचआईवी पीड़ितों को मिला पेंशन

पुरी जिले के गोप ब्लॉक के एचआईवी पीड़ितों ने आरटीआई के जरिए अपना पेंशन पाने में सफलता पाई है। ब्लॉक के सभी एचआईवी पीड़ितों को जनवरी से मार्च 2008 तक का पेंशन दे दिया गया है। आरटीआई डालने से पहले यदि कोई पेंशन के लिए ब्लॉक ऑफिस आता था तो अधिकारी अनेक बहाने बनाकर उनसे बचने का प्रयास करते थे। अधिकारियों के इसी रवैये से तंग आकर एक आरटीआई कार्यकर्ता ने 18 नवंबर को आरटीआई आवेदन के जरिए उनसे जवाब तलब किया था। जवाब में अधिकारी ने बताया कि 15 दिसंबर तक ब्लॉक के सभी एचआईवी पीड़ितों को पेंशन उनके घर जाकर दे दिया जाएगा और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि भविष्य में भी उन्हें शीघ्र मिले। इसके बाद ब्लॉक के सभी एचआईवी पीड़ितों को मई तक का पेंशन मिल गया।

मिली पेंशन की बकाया राशि

अहमदाबाद के मणिनगर इलाके में रहने वाली निरंजनाबेन ने 37 सालों तक अहमदाबाद के निगम स्कूल में बतौर सहायक शिक्षिका के रूप में सेवाएं दीं लेकिन रिटायरमेंट के बाद उनकी पेंशन निर्धारित करते वक्त अनेक प्रकार की अनिमितता बरती गईं। सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर गड़बड़ियां जाननी चाही तो 5 लाख से अधिक राशि उन्हें मिल गई।
दरअसल, निरंजनाबेन ने 24 जुलाई 2006 को निगम के प्राथमिक शिक्षा समिति के लोक सूचना अधिकारी से इस मामले में जवाब तलब किया था। सूचना यह कहकर देने से मना कर दी गई कि निरंजनाबेन की सर्विस बुक को स्थानीय निधि कार्यालय भेज दिया गया है, सूचना वहां से उपलब्ध होने पर दी जाएगी। सूचना न मिलने पर प्रथम अपील और फ़िर मामला सूचना आयोग गया जहां आयोग ने सात दिनों के भीतर सूचना देने का आदेश पारित किया। लेकिन निगम ने आयोग के आदेश को भी नहीं माना। तब आयोग को धारा 20 के तहत कारण बताओ नोटिस जारी करना पड़ा। आयोग के नोटिस के बाद निगम हरकत में आया और निरंजनाबेन की ग्रेच्युटी, ऐरियर्स, अर्न लीव आदि के करीब 5 लाख रुपए जारी कर दिए।