सोमवार, 30 जून 2008

एसएससी को मजबूत करे केन्द्र- केन्द्रीय सूचना आयोग

अजीब विडंबना है कि केन्द्र सरकार के कर्मचारियों का चयन करने वाला कर्मचारी चयन आयोग स्वयं कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है। यह बात किसी और ने नहीं बल्कि खुद एसएससी ने एक आरटीआई अर्जी के जवाब में स्वीकार की है। मामला जब केन्द्रीय सूचना आयोग के पास पहुंचा तो उसने केन्द्र सरकार को सिफारिश की कि वह कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे कर्मचारी चयन आयोग को मजबूत करे। ताकि सूचना के अधिकार को ठीक से क्रियािन्वत किया जा सके। आयोग ने इस कमी को दूर करने के लिए अपनी सिफारिशें डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग को भेज दी हैं।
सूचना आयोग ने यह सिफारिशें आरटीआई की एक अपील की सुनवाई के बाद दीं। अहमदाबाद निवासी दौलत जमनादास नाजरा ने अपनी एक आरटीआई अर्जी से कर्मचारी चयन आयोग से पूछा कि वह तीन दशकों में दिए गए वर्गीकृत विज्ञापनों की संख्या बताए। एसएससी ने यह विज्ञापन अपर डिवीजन क्लर्क और अन्य नियुक्तियों के संदर्भ में दिए थे। आयोग ने जमनादास नाजरा की अर्जी में पूछी गई सूचनाएं उपलब्ध नहीं कराईं और इसके पीछे तर्क दिया कि संसाधनों और कर्मचारियों की कमी के चलते वह सूचना देने में असमर्थ है। एसएससी के इस तर्क से असंतुष्ट नाजरा ने अन्तत: केन्द्रीय सूचना आयोग में अपील की। प्रमुख सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला में उनके मामले की सुनवाई के बाद सरकार को सुझाव दिया है कि वह एसएससी को मजबूत करने की दिशा में कदम उठाए।

आरटीआई ने दिलाया बलात्कार पीड़िता को न्याय

कई जगह न्याय की गुहार लगाने के बाद गुजरात में जब एक बलात्कार पीड़िता को न्याय नहीं मिला तो उसने सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करते हुए प्रश्न किया कि उसे कब न्याय मिलेगा ? इस 15 साल की लड़की का बलात्कार पिछले साल फरवरी में उस वक्त हुआ जब वह दक्षिण गुजरात के उमरपाडा ताल्लुक में कक्षा 8 में पढ़ रही थी। बलात्कार के बाद लड़की गर्भवती हो गई और उसने एक लड़के को जन्म दिया जिसकी 15 दिन के बाद मृत्यु हो गई। लड़की ने न्याय के लिए पुलिस का दरवाजा खटखटाया, लेकिन पुलिस के यहां से उसे निराशा ही हाथ लगी। हर जगह से निराश और हताश हो चुकी इस लड़की ने अन्तत: आरटीआई का इस्तेमाल किया और 23 जनवरी 2008 में मंगरोल में आरटीआई दायर की।
आरटीआई अर्जी में पीड़िता ने मंगरोल के सब इंस्पेक्टर और उमरपाडा चौकी के सहायक सब इंस्पेक्टर से पिछले साल 10 अक्टूबर में की गई शिकायत की प्रगति रिपोर्ट मांगी। साथ ही उसने उन सभी अधिकारियों की जानकारी मांगी जिनके पास उसका मामला लंबित रहा। पुलिस से जवाब न मिलने पर पीड़िता ने गुजरात सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया। 16 मई को गुजरात सूचना आयोग ने निर्णय दिया कि पीड़िता को दस दिनों के भीतर नि:शुल्क सूचनाएं उपलब्ध कराई जाएं। साथ की आयोग प्रश्न किया कि सूचना न देने पर क्यों न दोषी व्यक्ति पर जुर्माना लगाया जाए। आयोग के निर्णय के बाद 29 मई को पिछले साल 10 अक्टूबर को की गई शिकायत को आधार बनाकर पुलिस ने पीड़िता की शिकायत दर्ज की ।
सुनवाई के दौरान पीड़िता ने अपनी आवाज उठाते हुए मंगरोल के इंस्पेक्टर से प्रश्न किया कि वह अधिकारी कहां है जिसने बंदूक दिखाकर उसे घर आकर धमकी दी थी। लड़की ने स्थानीय पुलिस पर आरोप लगाया कि उसका केस दबाने के लिए उसने बलात्कारी से 50 हजार रूपये की घूस ले रखी है। पुलिस ने जान बूझकर उसका केस दबाने की कोशिश की है और पुलिस की एफआईआर में भी उसके बलात्कार की गलत तारीख दर्ज है। सूचना आयोग में मामले की सुनवाई के बाद गृह विभाग के अधिकारियों ने आरोपियों को तुरंत गिरफ्तार करने के आदेश दे दिए हैं।


निदेशक की नियुक्ति में अनियमितता का खुलासा

सूचना के कानून माध्यम से नियुक्तियों में हो रहीं धांधलियों के एक के बाद एक खुलासे हो रहे हैं। इस कानून का इस्तेमाल करते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पुणे की एक सरकारी परिवहन संस्था के निदेशक की नियुक्ति में हुई अनियमितताओं का खुलासा किया है। दरअसल बाबा साहेब गोलांडे को पुणे महानगर परिवहन महामंडल लिमिटेड पीएमपीएमएल के प्रबंधन बोर्ड का निदेशक बनाया गया है। माना जा रहा है उन्होंने यह पद अपनी राजनैतिक पहुंच के चलते हासिल की।
पी एम पी एम एल पर आरोप है कि उसने निदेशक की नियुक्ति कर अपने ही चयन के मापदंडों का उल्लंघन किया है। इन अनियमितताओं का खुलासा आरटीआई कानून के तहत दायर एक अर्जी से हुआ है। यह याचिका सामाजिक कार्यकर्ता विवेक वेलांकर, सुजीत पटवर्धन, जुगल रथी, संदीप खडदेकर, विजय कंभर और प्रशांत इमामदार द्वारा दायर की गई थी। अर्जी के जवाब में कहा गया कि निदेशक पद के लिए बाबा साहेब गोलांडे का नाम निगम आयुक्त प्रवीन सिंह परदेशी और दिलीप बंध ने प्रस्तावित किया था। गौरतलब है कि निदेशक के पद के लिए पी एम पी एम एल ने एक विज्ञापन दिया था। विज्ञापन के 11 आवेदन प्राप्त हुए जिनमें 8 आवेदनों को उसी समय निरस्त कर दिया। मात्र तीन आवेदनों को ही निदेशक पद योग्य माना गया। और इन तीनों उम्मीदवारों में भी राजनैतिक पहुंच वाले को नियुक्त किया गया। अन्य उम्मीदवारों का न तो साक्षात्कार किया गया और न ही उनके आवेदन पर विचार किया गया। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री और शहरी विकास सचिव से इस मामले में दखल देने की मांग की है। साथ ही नियुक्त किए गए निदेशक को भी बर्खास्त करने को कहा है।


मुंबई में शुरू होगा आरटीआई पाठ्यक्रम

भारत के बार काउंसिल से मान्यता प्राप्त मुंबई के के सी लॉ कॉलेज में शीघ्र ही सूचना के अधिकार के दो पाठ्यक्रम शुरू होने वाले हैं। यह पाठ्यक्रम शुरू होने के साथ ही कॉलेज देश में इस प्रकार का पहला लॉ संस्थान बन जाएगा। इसी साल जुलाई सेशन से शुरू होने वाला यह पाठ्यक्रम फाउंडेशन और एडवांस स्तर पर शुरू किया जाएगा।
फाउंडेशन स्तर पर शुरू किए गए कोर्स में कानून के इतिहास, इसके प्रावधानों और आरटीआई मामलों के अध्ययन की पढ़ाई की जाएगी जबकि एडवांस स्तर पर सूचना प्राप्त करने की उन विधियों और तरीकों को बताया जाएगा जिसमें सरकार के मना करने के बावजूद सूचना हासिल की जा सकें। सूचना न देने की सरकारी विभागों की बहानेबाजी से निपटने के तरीके एडवांस कोर्स में बताए जाएंगे।
कोर्स की कक्षाएं पांच सेशनों में चलेंगी और हर सेशन तीन घंटे का होगा। फाउंडेशन और एडवांस कोर्स का शुल्क 2000 रूपये निर्धारित किया गया है। आरटीआई कार्यकर्ता शैलेश गांधी और सूचना आयुक्त वीवी कुवलेकर छात्रों को इस कानून के विषय में जानकारी देंगे।


सड़क निर्माण में हुई धांधली

सड़क निर्माण में हो रही धांधली का जीता जागता उदाहरण रायपुर के दरियाबंद क्षेत्र में देखने को मिला। इस क्षेत्र के कोसनी, फुलकर्रा, बावनडिग्गी और गजरा गांव में आपदा राहत के अन्तर्गत ग्राम पंचायत को सड़कें बनवानी थी, लेकिन यहां न तो सड़कें बनीं और जो सड़कें थीं, उन्हें भी बदतर हालात में पाया गया। आरटीआई के तहत जब सड़कों के बारे में सूचनाएं मांगी गईं तो यह तथ्य सामने आए।
जांच में पता चला कि सड़कें अपने मापदंड के अनुसार नहीं बनी हैं। सड़कों की चौड़ाई निर्धारित सीमा से कम है और उनमें लाल मिट्टी भी कम डाली गई है। इस मामले में जब सरपंच से पूछा गया कि तो उन्होंने कमीशन देने की बात कबूल की। साथ ही मस्टर रोल में भी फर्जी इंट्री पाई गई है। जो लोग काम में अक्षम और गांव में नहीं है उनकी इंट्री भी मस्टर रोल में दिखाई गई है। बहुत से मजदूरों ने काम न करने की बात स्वीकार है जबकि कागजों में उन्हें काम में दिखाया गया है।
दरियाबंद के आशीष शर्मा ने इस मामले में पंचायतों से विवरण निकलवाने के लिए आरटीआई दायर की। इस आरटीआई का असर यह हुआ कि इन प्रस्तावित सड़कों का निर्माण कार्य शुरू हो गया। साथ ही अधिकारियों ने इसमें की गई धांधली के जांच के आदेश भी दे दिए हैं।

शुक्रवार, 27 जून 2008

सुरक्षा से जुड़ी सूचना देने से किया मना

पंचकुला के एक निवासी द्वारा दायर आरटीआई अर्जी को वापस लेने के लिए दबाव डाला जा रहा है। आवेदक शक्ति पॉल शर्मा ने अपनी अर्जी में वीआईपी की सुरक्षा के लिए तैनात किए गए पंजाब पुलिस के सिपाहियों के बारे में विवरण मांगा था। आरटीआई अर्जी के जरिए उन्होंने सूचना मांगी कि किन कारणों से इन वीआईपी लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा रही है, इनकी सुरक्षा पर कितना खर्चा आ रहा है और यह खर्चा कौन वहन कर रहा है। इसके अलावा उन्होंने प्रश्न किया कि किस के आदेश से इन वीआईपी को सुरक्षा दी जा रही है।
अधिकारियों ने श्री पॉल की अर्जी का जवाब न देते हुए कहा कि सरकारी अधिसूचना के मुताबिक सुरक्षा विंग आरटीआई के दायरे से मुक्त है। अधिकारियों के इस जवाब से असंतुष्ट शर्मा के वकील सपन धीर ने पंजाब सूचना आयोग के समक्ष दूसरी अपील दायर कर दी है।
गौरतलब है कि संविधान की धारा 21 में राज्य के सभी नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना और कानून व्यवस्था बनाए रखना राज्य का उत्तरदायित्व और कर्तव्य बताया गया है। साथ ही कहा गया है कि जिन लोगों को जान से मारने की धमकी मिली हो, उसे राज्य सरकार की तरफ से सुरक्षा प्रदान की जाएगी, लेकिन इसके पीछे वाजिब वजह होनी चाहिए। संविधान में सुरक्षा प्रदान करने के लिए स्टेटस सिंबल का जिक्र नहीं है, लेकिन सुरक्षा के लिए जान से मारने का धमकी का वास्तविक होना जरूरी है। यदि किसी के मांगने पर सुरक्षा तुरंत प्रदान कर दी जाती है तो सुरक्षा मांगने के कारणों की जांच करना अधिकारियों का काम है।
श्री पॉल का कहना है कि उनकी अर्जी का उद्देश्य यह जानना है कि जनता के धन को राज्य सरकार द्वारा इस प्रकार की सुरक्षा में क्यों व्यर्थ किया जा रहा है।


प्राईवेट स्कूल देते हैं राजनीतिक दलों का चंदा

बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले अभिभावकों द्वारा दी जाने वाली फीस का एक हिस्सा राजनीतिक दलों के खाते में जा रहा है। सूचना के अधिकार के जरिए ऐसा ही एक खुलासा हुआ है। जिससे पता चला है कि निजी स्कूल राजनीतिक दलों को बड़ी मात्रा में चंदा देते है। यह खुलासा दिल्ली के एक सामाजिक कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल द्वारा चुनाव आयोग से सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना के जवाब से हुआ है। जिसमें निजी स्कूलों द्वारा कांग्रेस और बीजेपी दल को चंदा देने की बात कही गई है। चंदा की राशि पचहत्तर लाख से दस हजार के बीच है। साथ ही कुछ स्कूलों द्वारा दिए गई चेको मे कई मंत्रियों और गणमान्य के नाम केयर ऑफ के रुप में पाए गए है। दिल्ली के शिक्षा मंत्री अरविन्दर सिंह लवली के अनुसार चंदा पार्टी को डोनेशन के रुप में नहीं बल्कि रिलीफ फंडो में दिया गया है। साथ ही लवली ने कहा कि रिलीफ फंड और डोनेशन फंड में फर्क है। रिलीफ फंडो में स्कूल व अन्य सरकारी संस्था अपनी स्वेच्छा से राशि जमा करते है। इसके अलावा भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष हर्षवर्द्धन ने कहा कि चंदा कहीं से मिले, स्कूल या व्यक्तिगत तौर पर लेकिन सार्वजनिक हित सर्वोपरि होना चाहिए। साथ ही कहा चंदे के बदले स्कूल या कंपनी के हित में निर्णय लेना गलत है।


अधिकारियों ने यात्राओं में उड़ाए लाखों रूपये

केन्द्रशासित प्रदेश के कई उच्च अधिकारियों ने अपनी सरकारी विदेश यात्राओं के दौरान करीब 50 लाख खर्च किए है। जिसमें से कुछ अधिकारियों के करीब 40 हजार रुपये से अधिक प्रतिदिन के हिसाब से खर्च किए हैं। यह जानकारी प्रदेश के एक नागरिक के द्वारा सूचना के अधिकार के तहत सरकारी अधिकारियों की सरकारी विदेश यात्रा व रहने आदि के खर्च की मांग से उजागर हुई है। जवाब में गृह मंत्रालय ने केन्द्रशासित प्रदेश के सलाहकार को आदेश दिया कि आवेदक को मांगी गई सूचना निश्चित समय सीमा में उपलब्ध करायें। जिस पर कारवाई के तहत विभाग ने जवाब दिया है। जिसके अनुसार पूर्व केन्द्रशासित प्रदेश सलाहकार कृष्णा मोहन ने चार यात्राओं में करीब 19 लाख, उसके कनिष्ठ विवेक अन्त्रे ने करीब 16 लाख, पूर्व वित्त सचिव एस के संधू ने चार विदेश भ्रमण में साढे़ नौ लाख, पर्यटन सचिव ने 4 लाख और सूचना और प्रौद्योगिकी निदेशक ने तीन यू एस दौरे में करीब एक लाख रुपये खर्च किए हैं। साथ ही जवाब में पाया गया है कि कृष्ण मोहन ने 55,000 रु प्रतिदिन, एस के संधू और जे एस बीर ने 40000 रु प्रतिदिन इसके अलावा विवेक अन्त्रे ने करीब 33000 रु प्रतिदिन के हिसाब से सरकारी धन का खर्च किया है। साथ ही इसमें कुछ अधिकारियों ने हवाई यात्रा में बिजनेस क्लास की टिकट ली थी।

मांगी सूचना मिली जेल

आजादी के साठ वर्ष बाद भी नौकरशाही शासकवादी मानसिकता से उभर नहीं पाई है। नौकरशाह सरकारी नौकर जैसा कम और शासक जैसा व्यवहार ज्यादा करते है। कुछ ऐसा ही दिखता है बिहार में, जहॉ इन नौकरशाहों से आम जनता सवाल पूछे यह इनसे बरदाश्त नहीं हो पा रहा है। यही कारण है कि राज्य में इस कानून के तहत सूचना मांगनें वालों को झूठे और संगीन आरोपों में फंसाकर जैल में बंद करने की अनेक घटनाएं सामने आई हैं।
बिहार के शिव प्रकाश राय पर बक्सर के पूर्व जिलाधिकारी ने राय पर 25 हजार रूपये प्रतिमाह रंगदारी टैक्स मांगने का आरोप लगाया। झूठे आरोप में उन्हें जेल में बंद कर दिया गया और 29 दिनों के बाद रिहा किया गया। राय का दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत इंदिरा आवास योजना का लाभ पाने वाले लोगों का ब्यौरा मांगा था।
एक अन्य मामले में नालंदा जिले के पुरषोत्तम प्रसाद को भूमि सुधारों की जानकारी मांगने पर मिट्टी का तेल चुराने के झूठे आरोप में फंसा दिया गया। सेना से रिटायर हो चुके चन्द्रदीप सिंह की कहानी इनसे भी बुरी है। उन्हें मानेर में एक महिला से बलात्कार की कोशिश के मामले में फंसाया गया क्योंकि चन्द्रदीप ने पुलिस से अपने पुत्र और पुत्री की हत्या की जांच की जानकारी मांगी थी। एक निर्माणाधीन ओवरब्रिज की जानकारी मांगने पर जयप्रकाश को सरकारी सेवकों को काम न करने देने और निर्माण कार्य में बाधा पहुंचाने का आरोप लगा।
नौकरशाहों का यह रवैया सिद्ध करता है कि वे सूचना के कानून के माध्यम से पूछे गए सवालों का जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। सदियों से चली आ रही शासकवादी मानसिकता से वे आज भी उबर नहीं पाए हैं।

ड्रेस कोड बंधन से मुक्त होगें वकील

वकीलों को कैदियों से मिलने के लिए किसी ड्रेस कोड की परंपरा का पालन करना जरूरी नहीं है। कैदियों से मिलने के लिए बार काउंसिल द्वारा जारी किया गया पहचान पत्र ही पर्याप्त होगा। यह बात मुंबई के एक वकील ने मुंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले को आधार बनाकर कही। वकील तेगबहादुर ठाकुर ने इससे पहले केन्द्रीय मुंबई कारागार को चिट्ठी में कहा कि जेल अधिकारी वकील और कैदी के रिश्तेदारों में फर्क के लिए काला कोट पहनने को बाध्य नहीं कर सकते। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने उच्च न्यायालय के उस आदेश का हवाला दिया जिसमें जेलों को इस तरह के नियम अपने मेनुअल हटाने को कहा गया था। कोर्ट ने यह निर्णय 1992 में एक याचिका की सुनवाई के बाद दिया था। ठाकुर ने आरटीआई अर्जी के माध्यम से पूछा था कि किस नियम के तहत वकीलों को कैदियों से मिलने के लिए काला कोट पहनने को कहा जाता है। अर्जी के जवाब में कहा गया कि कैदियों के रिश्तेदारों और वकीलों में फर्क हेतु इस तरह के नियम का महाराष्ट्र जेल मेनुअल में प्रावधान है। इसके बाद ठाकुर ने जेल अधिकारियों को महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के निर्णय से अवगत कराया। मुंबई उच्च न्यायालय ने 1992 में एक निर्णय में कहा था कि वकील जब किसी कैदी से जेल में आधिकारिक रुप से मिलने के लिए उसे काला कोट पहनना आवश्यक नहीं होगा। ऐसे में बार काउंसिल ऑफ इंडिया का परिचय पत्र ही काफी होगा।

सूचना आयुक्त की फटकार से हरकत में आया विभाग

सूचना आयुक्त ओ पी केजरीवाल ने नीरज कुमार बनाम उत्तर रेलवे के मामले की सुनवाई के दौरान जन सूचना अधिकारी के अनुपस्थित होने पर सहायक जन सूचना अधिकारी को ऐसी फटकार लगाई कि उसका असर 5 दिन में ही हो गया। इस मामले में अगली सुनवाई की तारीख मिले इससे पहले ही विभाग ने नीरज कुमार का बकाया भुगतान कर दिया गया।
दरअसल पांडव नगर निवासी नीरज कुमार ने इंडियन रेलवे केटरिंग एंड टूरिज्म कारपोरेशन से ऑनलाइन टिकट बुक किया था, लेकिन ऐन वक्त उनके जाने का कार्यक्रम बदल गया। नीरज कुमार ने अपना भुगतान प्राप्त करने के लिए टिकट जमा रसीद प्राप्त की और किराए की वापसी के लिए आवेदन पत्र भरकर नियत समय में उत्तर रेलवे में जमा कर दिया, लेकिन उनके आवेदन पर कोई कारवाई नहीं हुई।
इसके बाद नीरज ने सूचना के अधिकार को इस्तेमाल कर उत्तर रेलवे से इस बारे में जवाब मांगा, लेकिन तय समय सीमा के भीतर विभाग की ओर से नीरज को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। अन्तत: मामला सूचना आयोग के पास पहुंचा। मामला की सुनवाई में उत्तर रेलवे का जन सूचना अधिकारी नहीं आया बल्कि उसकी जगह सहायक जन सूचना अधिकारी को भेजा गया। गौरतलब है कि सहायक जन सूचना अधिकारी की जगह जन सूचना अधिकारी की सुनवाई में उपस्थिति अनिवार्य है। पी आई ओ अनुपस्थित देख कमीश्नर ने सहायक जन सूचना अधिकारी को डांट लगाई जिसके परिणामस्वरूप नीरज का बकाया पैसा 5 दिनों में ही उनके बैंक अकाउंट में आ गया।

आरटीआई ने किया भविष्य निधि का रास्ता साफ

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के खुशीराम के लिए आरटीआई कानून वरदान साबित हुआ है। इस कानून के माध्यम से उनके दो साल से लटके पडे़ भविष्य निधि लेखा प्राप्त करने का रास्ता साफ हो गया है। चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी खुशीराम रायपुर कलेक्ट्रेट से 2006 में सेवानिवृत्त हुए थे। कार्यकाल के बाद जब भविष्य निधि लेने की बारी आई तो उन्हें अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। विभाग का कहना था कि उनके पीएफ अकांउट का विवरण उसके पास नहीं है। विभाग ने इसकी वजह अलग-अलग जगह उनके स्थानांतरण को बताया। कई बार उन्हें अपना काम करवाने के लिए घूस देने को भी कहा गया।
विभाग के अनेक चक्कर लगाने के बाद जब खुशीराम का काम नहीं हुआ तो उन्होंने कलेक्ट्रेट कार्यालय में आरटीआई दायर कर विभाग से इस बारे में स्पष्टीकरण मांगा। अर्जी के जवाब में खुशीराम को पता चला कि रिटायरमेंट से पहले जिन दो विभागों में उनकी पोिस्टंग हुई थी, जहां से पीएफ लेखा विवरण प्राप्त नहीं हुआ है।
दरअसल भू अभिलेख कार्यालय और बलौदा बाजार तहसील कार्यालय में स्थानांतरण के दौरान कार्यालय ने उनके पीएफ लेखा की पर्ची कलेक्ट्रेट कार्यालय नहीं पहुंचाई थी जिस कारण उन्हें पीएफ लेने में दिक्कत का सामना करना पड़ रहा था। यह जानकारी मिलने के बाद खुशीराम ने इन दोनों विभागों से संपर्क किया और उनका पीएफ विवरण कलेक्ट्रेट कार्यालय भेजने को कहा। इन कार्यालयों से उनका पीएफ विवरण कलेक्ट्रेट कार्यालय भेज दिया गया और खुशीराम की दिक्कतें हल हो गईं।

मंगलवार, 24 जून 2008

मिड डे मील का एक तिहाई अनाज कहां गया ?

केन्द्र की मिड डे मील योजना के अनाज का एक हिस्सा अनेक कारणों के चलते नष्ट हो जाता है, लेकिन दिल्ली में स्थिति बहुत ही खराब है। राजधानी के सरकारी स्कूलों के बच्चों को आने वाला मिड डे मील योजना का एक तिहाई अनाज नष्ट हो रहा है। जिस कारण स्कूली बच्चों को निर्धारित भोजन और कैलोरी से कम मात्रा मिल रही है। यह बर्बाद हुआ अनाज कहां गया, इस बारे में न तो सरकार को कुछ पता है और न ही दिल्ली नगर निगम को।
राज्य सरकार द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्रालय को प्रदान किए गए आंकडों पर नजर डालें तो पता चलता है कि साल 2007-08 के दौरान भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से दिल्ली की मिड डे मील योजना के लिए 11080 टन अनाज उठाया गया। इस अनाज का 35 फीसद हिस्सा यानि 3878 टन अनाज नष्ट हो गया। परिणामस्वरूप दिल्ली के प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले १०.४३ लाख बच्चों को मात्र 65 ग्राम पक्का भोजन ही दिया गया। इसके अलावा भोजन से निर्धारित 300 कैलोरी मात्रा से 50 कैलोरी बच्चों को कम मिली। यह तथ्य एक आरटीआई अर्जी के जवाब से सामने आए हैं।
दिल्ली में होने वाली मिड डे मील के अन्न की यह बर्बादी देश के किसी भी राज्य से कई गुना अधिक है। भारतीय खाद्य निगम के नियमों के मुताबिक अधिकतम 2 प्रतिशत अन्न परिवहन, भंडारण आदि के चलते नष्ट हो सकता है, जो दिल्ली में नष्ट हुए अन्न से 17 गुना कम है। खाद्य निगम ने दिल्ली में अन्न की इस बर्बादी को बहुत अधिक बताया है।
इन आंकडों ने दिल्ली की मिड डे मील मोनिटरिंग सिस्टम पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं। दिल्ली के मोनिटरिंग सिस्टम को अन्य राज्यों से काफी कमजोर माना जा रहा है। यहां महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश की तरह किसी प्रकार की समिति गठित नहीं की जाती जो मिड डे मील योजना पर निगरानी रख सके। साथ ही यह आशंका भी जताई जा रही है कि योजना के अन्न का यह हिस्सा खुदरा बाजार में पहुंचा है।


रांची विश्वविद्यालय पर 4 लाख क्षतिपूर्ति जुर्माना


सूचना के अधिकार के जरिए जानकारी ने देने पर जन सूचना अधिकारियों और संस्थानों पर गाज गिरनी जारी है। हाल ही में यह गाज गिरी रांची विश्वविद्यालय और इसके पूर्व पीआईओ पर। रांची विश्वविद्यालय पर पदोन्नति के लिए दोहरे मापदंप अपनाने पर 4 लाख रूपये का क्षतिपूर्ति जुर्माना लगाया है। साथ ही सूचना न देने पर विश्वविद्यालय के पूर्व जन सूचना अधिकारी पर 40 हजार रूपये का जुर्माना भी ठोंका गया। जुर्माने की यह राशि पूर्व पीआईओ सुधांधू कुमार वर्मा के वेतन से काट ली जाएगी। आयोग ने विश्वविद्यालय को सूचना देने के नौ अवसर दिए थे, लेकिन इसके बाद भी जब आवेदकों को सूचना नहीं दी गई तो सूचना आयुक्त गंगोत्री कुजूर ने यह कठोर निर्णय दिया।
यह निर्णय विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों की आरटीआई अर्जी के जवाब में आया है। प्रोफेसर अभिताभ होरे और पीएन पांडे ने विश्वविद्यालय प्रशासन से उनकी पदोन्नति में हुए भेदभाव का कारण पूछा था। इन्होंने विश्वविद्यालय से पदोन्नति के लिए वरिष्ठता को तरजीह न देने की वजह जाननी चाही थी।
प्रोफेसर होरे और पांडे ने 2005 में पोस्टग्रेजुएट जूलॉजी विभाग में प्रमुख के पद पर पदोन्नत किए गए के एन दूबे की नियुक्ति को चुनौती दी थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि यह नियुक्ति गलत तरीकों से की गई है और इसमें उनकी वरिष्ठता का ख्याल नहीं रखा गया।
आरटीआई दायर करने से पहले श्री पांडे ने विवि के चांसलर से इसकी शिकायत की थी। इसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दूबे के 1973 में हुए चयन में भी गडबडी का आरोप लगाया। न्यायालय ने यह मामला वापस चांसलर को रेफर कर दिया। विश्वविद्यालय से रवैये से निराश हो श्री होरे और पांडे ने अन्तत: आरटीआई के माध्यम से इस बारे में जानकारी मांगी।
प्रारंभिक स्तर पर जब कोई जानकारी नहीं मिली तो मामला सूचना आयोग के पास पहुंचा। आयोग ने मामले में कठोर रूख अपनाने हुए विश्वविद्यालय को दो-दो लाख रूपये क्षतिपूर्ति के रूप में दोनों आवेदकों को देने का आदेश दिया। विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने आयोग के इस निर्णय का स्वागत किया है।

सोमवार, 23 जून 2008

बिहार राज्य आयोग ने दो सूचना अधिकारी पर जुर्माना ठोका


पिछडे़ राज्य बिहार में भी सूचना का अधिकार का कानून की काफी सक्रियता दिख रही है। बिहार राज्य सूचना आयोग ने दो जन सूचना अधिकारी को जुर्माना लगाया है। इसमें पहला जुर्माना इस कानून के तहत मांगी गई सूचना का जवाब नहीं देने के एवज में लयागा गया है। यह जुर्माना मोतीहारी जिला कार्यालय के जन सूचना अधिकारी को श्री नगेन्द्र जैसवाल द्वारा मांगी गई सूचना नहीं देने के एवज मे लगाया गया है। जुर्माना की राशि 25000 रु है। दूसरे जुर्माना पटना मुनिसिपल कॉरपोरेशन के मुख्य अभियंता पर लगाया गया है। जिन्होनें एक आवेदक द्वारा मांगे गए सूचना का जवाब कानून की निश्चित समय सीमा में नहीं दिया था। अभियंता के जुर्माने की राशि 12500रु है। साथ ही आयोग ने दो अधिकारी को आदेश दिया है कि वह आवेदक को अब के समय सीमा मे सूचना उपलब्ध करा दें। साथ ही कहा कि जुर्माने के संबंध में कोई राय नीश्चित समय सीमा के अंदर आयोग को सूचित कर दें।

मंत्री के स्नातक होने का दावा झूठा साबित

सूचना के अधिकार ने उडीसा के एक मंत्री का झूठ सार्वजनिक कर दिया है। राज्य के परिवहन और वाणिज्य मंत्री जय नारायण मिश्रा के स्नातक होने का दावा गलत साबित हुआ है। 2004 के असेम्बली चुनावों के समय दायर हलफनामें में उन्होंने अपने आपको स्नातक बताया था। नोमिनेशन पेपर में उन्होंने दावा किया था कि 1984 में संभलपुर विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक परीक्षा पास की है। लेकिन जब इसकी जांच की गई तो पता चला कि उनका यह दावा झूठा है।

संभलपुर विकास मंच द्वारा दायर एक आरटीआई अर्जी के जवाब से यह खुलासा हुआ है। इस अर्जी में संभलपुर विकास मंच ने मंत्री के स्नातक होने के दावे को चुनौती दी गई थी। संभलपुर के सब कलेक्टर और निर्वाचन अधिकारी कैलाश साहू ने जब इस मामले की जांच की तो यह तथ्य सामने आए। उन्होंने अपनी जांच रिपोर्ट जिला कलेक्टर पीके पटनायक के सुपुर्द कर दी है। अधिकारियों की गई यह जांच संभलपुर विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई जानकारी पर आधारित है।

मंत्री ने कोर्ट में दायर किए गए अपने हलफनामें में दावा किया था कि उन्होंने संभलपुर विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले नाक कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास की है। विश्वविद्यालय से जब इस बाबत जानकारी मांगी गई तो मंत्री के दावे को सही साबित करने वाले दस्तावेज नहीं पाए गए। विवि के अधिकारियों ने पाया कि कोई जय नारायण मिश्रा नामक व्यक्ति नाक कॉलेज की उस साल की स्नातक परीक्षा में नहीं बैठा था। नाक कॉलेज में मंत्री के इंटरमीडिएट के रिकॉर्ड तो मिल गए हैं, लेकिन उनके स्नातक होने का कोई साक्ष्य नहीं मिला।

शनिवार, 21 जून 2008

बच्चों की बहुआयामी योजना पर संकट के बादल

सरकार कानून और योजनाएं तो बहुत-सी बना देती है, लेकिन जब उनके क्रियान्वयन की बारी आती है तो वह अक्सर असफल सिद्ध होती है। इसी कारण अनेक कल्याणकारी योजनाओं या तो अधर में अटक जाती हैं या अपना उद्देश्य पूरा किए बिना ही समाप्त हो जाती हैं। ऐसी ही एक योजना है इंटीग्रेटिड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम जो खत्म होने की कगार पर है। सरकारी उपेक्षा के कारण बच्चों की इस बहुआयामी योजना पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं।

महिला और बाल विकास मंत्रालय ने इंटीग्रेटिड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम के क्रियान्वयन के लिए 90 करोड रूपये की मंजूरी दी थी। बच्चों के अधिकारों और पुनर्वास के लिए बनाई गई इस योजना के क्रियांवन के लिए हर राज्य में एक चाइल्ड प्रोटेक्शन यूनिट के गठन का प्रावधान है। हर यूनिट एक एजेन्सी के समान कार्य करती है जिसमें पुलिस, राज्य, न्यायालय और गैर सरकारी संगठनों के सदस्य शामिल होते हैं, लेकिन अजीब विडंबना है कि अब किसी राज्य ने इस यूनिट का गठन नहीं किया है।

यह तथ्य सामने आए हैं महिला और बाल विकास मंत्रालय में दायर एक आरटीआई की अर्जी के जवाब से। एक एनजीओ के राज मंगल प्रसाद ने यह अर्जी दायर कर मंत्रालय से पूछा था कि कितने राज्य में चाइल्ड प्रोटेक्शन यूनिट कार्य कर रही हैं। जवाब में मंत्रालय ने कहा है कि वह इस प्रकार की सूचनाओं के रिकार्ड्स नहीं रखता।


उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग की बाबूगिरी



सरकारी काम-काज में पारदर्शिता और जवाबदेयता तय करने के लिए सूचना का अधिकार कानून लाया गया है, लेकिन जब कानून के रखवाले ही लापरवाह हो जाएं तो कानून का कितना असर रह जाता है ? कुछ ऐसा ही हाल है उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग का, जहां एक वित वर्ष में सूचना के अधिकार के लगभग 10000 सीकायत और अपील लंबित पड़ी हैं।
यह आंकडे वषZ 2006 से 2007 के हैं। इस दौरान आयोग को करीब 9946 अपील और आवेदन मिले हैं। यह जानकारी एक रिटायर्ड कोमोडोर लोकेश के बत्रा द्वारा सूचना के अधिकार की धारा 25 के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग से मांगी गई सूचना के जवाब में यह विवरण में आया है।
गौरतलब है कि इस अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत सभी सूचना आयोगों को वर्ष भर के आवेदन और उस पर हुई कार्यवाईयों के विवरण संबंधित विभाग को देने होते हैं। साथ ही धारा 4 के अन्तर्गत वर्ष भर का विवरण आयोग के वेवसाइट पर होनी चाहिए। श्री बत्रा ने लगातार दो वर्ष का विवरण मांगा था लेकिन पिछले वर्ष का विवरण देने से इन्कार कर दिया गया । साथ ही आयोग ने कहा कि पिछले वर्ष का आंकड़ा अब तक तैयार नहीं किया जा सका है। अधूरी जानकारी प्राप्त होने पर श्री बत्रा ने इस कानून के तहत एक और आवेदन दाखिल किया जिसमें माह वार आवेदनों के विवरण की जानकारी मांगी। साथ ही श्री बत्रा ने कहा कि जब एक वर्ष में इतने आवेदन और अपील ठंडे बस्ते में हो तो जब से यह कानून लागू हुआ है कितने आवेदन कार्यवाई होने के इन्तजार में होंगे इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है ।
केन्द्रीय सूचना आयोग और उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग की वेवसाइट की तुलना करने पर पता चलता है कि उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग इस कानून की धारा 4 के अन्तर्गत अपनी कारZवाईयों का विवरण अपनी वेवसाइट में उपलब्ध कराने में असमर्थ रहा है।


आई आई टी प्रवेश परीक्षा पर सवालिया निशान



भारत का प्रतीष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रवेश परीक्षा प्रणाली पारदर्शिता पर उंगलियॉ उठने लगी है। सूचना के अधिकार कानून के तहत एक खुलासे के अनुसार करीब 1000 परीक्षार्थी संस्थान के कट ऑफ माक्र्स फॉमूला के अनुसार संभवत: चयनित हो सकते थे। लेकिन संस्थान ने इस छात्रों को काउन्सेलिंग के लिए भी नहीं बुलाया। यह परीक्षा 2006 की थी।

परीक्षा के करीब 20 महीने बाद संस्थान ने सामान्य वर्ग के छात्रो में प्राप्तांको का इस कानून के तहत दिया गया। इस परीक्षा में गणित, भौतिकी और रसायन शास्त्र विषयों के प्रश्न होते है। और तीनों विषयों के कट ऑफ मार्क के अंक प्राप्ति के बाद, तीनो विषयों का कुल योग का कट ऑफ मार्क निर्धारित होता है। संस्थान ने वर्ष 2006 के लिए 154 अंक कुल कट ऑफ मार्क रखा था। प्राप्त आंकडे़ के विश्लेषण के बाद 994 छात्र निर्धारित कर्ट ऑफ मार्कस के अनुसार 2006 के परीक्षा में आहर्ता प्राप्त कि थी। लेकिन उन्हें बुलाया नही गया। आंकडे के अनुसार इसमें से एक छात्र 500 के रेंक में भी आ सकते थे। इसके अलावे आठ छात्र का रेंक 500 से 1000 के बीच होता। आई आई टी के पूर्व छात्र और रेमन मेग्सेसे पुरस्कार विजेता श्री अरविंद केरजीवाल के अनुसार प्राप्त जानकारी चौंकाने वाली है। साथ ही ऐसे घटना के कारण आई आई टी के परीक्षा संस्था जे ई ई अपनी साख खो रही है।

ललित मेहता की हत्या कटघरे में व्यवस्था

हमारे देश में आजादी के बाद लोकतंत्र तो स्थापित हो गया लेकिन यह जमीनी स्तर पर लागू होने से अभी भी कोसों दूर है। तभी तो यहां अपना अधिकार मांगने पर लोगों की हत्या कर दी जाती है। देश की नौकरशाही और सत्ता का चरित्र अब भी वही है जो गुलामी के समय था। यही वजह है कि झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता ललित मेहता की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी अधिनियम का सोशल ऑडिट करने का प्रयास किया था। वह इस योजना के तहत किए गए खर्च को आधिकारिक और वास्तविक धरातल पर जांचना चाहते थे। लेकिन सोशल ऑडिट से एक दिन पहले ही उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इंजीनियर से कार्यकर्ता बने ललित मेहता की किसी से जातीय दुश्मनी नहीं थी। वह तो पलामू जिले में भोजन के अधिकार अभियान के प्रमुख सदस्य थे।
पुलिस ने उनके मृत शरीर का जल्दबाजी में पोस्टमार्टम कराया और घटनास्थल से 25 किमी दूर ले जाकर दफना दिया। ललित मेहता की हत्या के 12 दिनों बाद सोशल ऑडिट हुआ और पाया गया कि जिले में योजना के तहत खर्च किए गए 73 करोड़ रूपये का एक बड़ा हिस्सा ठेकेदारों, अधिकारियों और विकास माफिया के हिस्से में गया है। सोशल ऑडिट से पलामू के लोगों ने जाना कि किस प्रकार उनके हिस्से के धन का हिस्सा गलत तरीकों से भ्रष्ट लोगों के पास पहुंच रहा है। रांची के थियोलाजिकल कॉलेज ग्राउंड में हजारों की तादाद में लोग इस हत्या के विरोध में एकत्रित हुए। इन लोगों ने ललित मेहता की हत्या की सीबीआई जांच की और दोषियों के खिलाफ कारवाई की मांग की।

ललित मेहता के अलावा देश के अनेक हिस्सों में इस प्रकार की घटनाएं हो रही हैं। अनेक स्थानों पर सूचना मांगने पर कार्यकर्ताओं को धमकियां मिल रही हैं। राजस्थान के झालावाड़ और बेन्सवाडा जिलों में पिछले 6 महीनों के दौरान सोशल ऑडिट करने वाली टीमों पर कई नियोजित हमले हुए हैं। कर्नाटक में भूमि घोटाले को उजागर करने कर सामाजिक कार्यकर्ता लियो सलदान्हा और उनकी पत्नी डॉक्टर लक्ष्मी नीलकांतन को कर्नाटक पुलिस और फोरेस्ट डिपार्टमेंट ने चंदन की लकड़ी की तस्करी और चोरी के मामले में उन पर निशाना साधा। इन्होंने विवादास्पद बंगलौर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कोरिडोर प्रोजेक्ट में भूमि घोटाले का पर्दाफाश करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

इसी प्रकार झारखंड के ही गिरीडीह में कमलेश्वर यादव नामक कार्यकर्ता की इन्हीं कारणों के चलते हत्या कर दी गई। उडीसा के कोरापुट जिले के नायब सरपंच और उडीसा आदिवासी मंच के सदस्य नारायण हरेका को भ्रष्टाचार उजागर करने पर मौत के घाट उतार दिया गया। हत्या से पहले उन्होंने ब्लॉक कार्यालय से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की जानकारी मांगी थी। ये सभी मामले दिखाते हैं कि लोकतांत्रित तरीकों से अपना अधिकार मांगना कितना खतरनाक है।

दरअसल हमारी व्यवस्था में एक बड़ा तबका ऐसा है जो शक्तिशाली है और सूचना देने से घबराता है क्योंकि इससे उसका नुकसान हो सकता है। ये तबका सूचना के प्रवाह को हर तरह से रोकने का प्रयास करता है। और इसके लिए उसे जो भी हथकंडे अपनाने पडें वह अपनाने से नहीं चूकता। यही वजह है कि लोगों की हत्याएं कराईं और उन्हें धमकाया जा रहा है। ऐसे लोगों से सख्ती से निपटने की जरूरत है ताकि असल में जनतंत्र स्थापित हो सके। लोगों को कल्याणकारी योजनाओं और कानूनों से लाभ हो सके व जवाबदेही तय हो सके। ऐसे लोगों से निपटने की जिम्मेदारी सरकार और नौकरशाह की है लेकिन जब यहां भी एक बड़ा वर्ग ऐसा हो तो भ्रष्टाचार से लड़ने वाले इन लोगों के पास क्या विकल्प बचता है ?


राप्ट्रपति भवन का सालाना बिजली बिल 4 करोड़ रुपये



सूचना का अधिकार अब ऐसी सूचनाओं पर सेंध लगा रहा है जहॉ तक किसी भी कानून की पहुंच नहीं थी। जिसे अब तक कभी सुरक्षा तो कभी निजता का नाम पर रोका जाता था वह इस अधिकार के माध्यम से आम जनों में पहुंच रहा है।

राष्ट्रपति भवन का सालाना बिजली बिल करीब ४ करोड़ रुपये है। पिछले चार साल का सिर्फ राप्ट्रपति भवन का बिजली बिल १६ करोड़ रुपये है और प्रधानमंत्री आवास और उसके कार्यालय का बिजली बिल पिछले तीन सालों में ३७ लाख रुपये आया है।
दिल्ली के एक व्यवसायी चेतन कोठारी के द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना के जवाब में यह जानकारी दी गई है। राप्ट्रपति भवन ने पिछले पांच सालों में लगभग तीन करोड़ बिजली यूनिट खर्च किया है और प्रधानमंत्री कार्यालय ने करीब सात लाख यूनिट बिजली का खर्च पिछले तीन सालों में की है। साथ ही जवाब में बताया है कि सिर्फ प्रधानमंत्री आवास के लिए कोई जेनेरेटर सुविधा नहीं है, जबकि जेनेरेटर सुविधा मुख्यत: सुरक्षा व्यवस्था, हर्टीक्लचर पंप और प्रधानमंत्री कार्यालय के आपात कालीन सेवा के लिए है। हालांकि राप्ट्रपति भवन के लिए दो जेनेरेटर 310 के वी ऐ का लगाया गया है। जबकि एक आंकड़े के अनुसार भारत की प्रति व्यक्ति बिजली का खर्च करीब ३९३ के दब्लुए एच प्रति वर्ष है। और भारत के 66 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र बिजली के पहुँच के बाहर है और दुनिया के कुल बिजली के बिना रहने वाले जनसंख्या में अकेले 35 प्रतिशत भारत में रहते है। आरजीकर्ता कोठारी ने गॉधी जी तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने बिजली लाने के लिए बहुत प्रयास किए थे। साथ ही कहा कि हमारे देश में बिजली की बहुत किल्लत है।
अपना पन्ना की ओर से

सरकारी अधिकारियों की वार्षिक संपत्ति प्राप्तियों का ब्यौरा अब आम जनों के हाथ


केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने एक एतिहासिक निर्णय में कहा है कि सभी सरकारी अधिकारी को उसके वार्षिक सम्पत्ति प्राप्तियों का ब्यौरा आम जनों को दिया जा सकता है। आयोग ने यह निर्णय श्री डाण् कौउस्थुब उपाध्याय द्वारा सूचना के अधिकार के तहत 1976 बेच के एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी श्री शिव बसंथ के पिछले तीन वर्ष के अचल सम्पत्ति के लेखा-जोखा की मांगे गए जानकारी के जवाब में दिया है।

श्री उपाध्याय में अपने याचिका में तीन प्रश्न किए थे। जिसमें पहला था कि अधिकारी बसंथ ने अपने या अपने किसी पारिवारिक सदस्य के नाम पर अचल सम्पत्ति के खरीदारी के लेन-देन की पूर्व सूचना संबंधित विभाग को दी है ?दूसरे प्रश्न में पूछा गया था कि अधिकारी बसंथ ने 18-ए, प्रथम मंजिल, रोयल केस्ट्ल, सेक्टर 56, सुशांत लोक, हरियाणा में जो प्रोपटी खरीदी है, क्या इसकी सूचना संबंधित विभाग को दी गई है? यदि हॉं तो उसके खरीदारी की तिथि, वित्तिय स्त्रोत आदि की जानकारी दी जाए। अंतिम सवाल में पूछा गया था कि उसे अधिकारी बसंथ के संस्था ``आयुष´´ के सविच के रुप में पिछले तीन वर्ष की अचल सम्पत्ति प्राप्तियों की नकल दी जाए। इसके जवाब में पहले दो प्रश्नों का जानकारी सूचना अधिकारी ने समय पर दे दिया। लेकिन तीसरे प्रश्न का जवाब देने से इन्कार कर दिया। साथ ही दलील दी कि सूचना के अधिकार के धारा 8 के तहत ऐसी सूचना नहीं दी जा सकती है। ऐसी जानकारी आम जन को देने से निजता के हनन से संबंधित है।

इसके बाद में श्री उपाध्याय ने तीसरे प्रश्न के जवाब के लिए प्रथम अपील दायर की। इसके जवाब में अपीलीय अधिकारी में जवाब दिया कि ऎसी सूचना ऑल इंडिया सर्विस कंडक्ट रुल, 1968 के अनुसार सभी केन्द्र व राज्य सरकार के अधिकारियों के अचल सम्पत्तियों का आंकडे विभाग द्वारा रखी जाती है। और कहा कि ऐसे सूचना अधिकारियों के निजी होते है। जिसे आम जन को नहीं दी जा सकती। ऐसे सूचना केवल सीबीआई जैसी संस्थाओं को दी जा सकती है। इसके बाद श्री उपाध्याय ने केन्द्रीय सूचना आयोग में आवेदन दिया। साथ ही दलील दी कि सूचना के अधिकार धारा 8 के अन्र्तगत चल या अचल संपत्ति की सूचना देने से इन्कार नहीं किया जा सकता। साथ ही कहा कि इस कानून के खंड 4 के अनुसार सभी सरकारी अधिकारियों को उसके आधिकारिक वेवसाइट पर स्वयं दर्ज करने चाहिए।


श्री उपाध्याय ने उच्चतम न्यायालय के इससे मिलते जुलते दो केसों यूनीयन ऑफ इंडियन बनाम एसोसियसन फोर डेमोके्रटिक रिफोर्म एण्ड एनोदर के अपील संख्या 7178 वर्ष 2001 को और पीपुल यूनियन फोर सिविल लिबरर्टीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का संदर्भ दिया साथ ही दलील दी कि चुनाव में उम्मीदवार को खडे़ होने के लिए उसके सम्पित्त का ब्यौरा देना होता है जबकि वे कुछ समय के लिए सरकार में आते है तो जीवन भर सरकार में रहने वाले अधिकारियों को इस दायरें में क्यों नहीं आना चाहिए?

केन्द्रीय सूचना आयोग ने इसके खिलाफ जवाब दिया कि जब किसी व्यक्ति का निजता का अधिकार और सूचना के अधिकार की जानकारी प्रतियोगी हो जाए और मुद्दा जन हित का हो तो निजता का अधिकार को द्वितीय प्राथमिकता में गिना जाएगा । साथ ही आयोग ने जन सूचना अधिकारी से आदेश दिया कि याचिका कर्ता को उपयुक्त समय पर सूचना उपलब्ध करा दें साथ ही बसंथ को आदेश दिया कि वह निर्णय में संबंध में अपनी राय निश्चित समय पर लिखित या मौखिक रुप से आयोग को सूचित कर दें।


किसानों की मंजूरी के बिना हुआ उनका बीमा

हरियाणा के कुरूक्षेत्र जिले में एक को-आपरेटिव बैंक अधिकारियों की मनमानी का मामला सूचना के अधिकार जरिए उजागर हुआ है। कुरूक्षेत्र सेंट्रल को-आपरेटिव बैंक के इन अधिकारियों ने बीमा कंपनियों के साथ मिलकर गलत तरीकों का इस्तेमाल करते हुए 53352 किसानों का बीमा कर दिया और प्रीमियम राशि उनके खातों से काट ली। जबकि किसानों को इसका पता भी नहीं चला। अधिकारियों द्वारा किसानों की बीमा पोलिसी का यह गडबडझाला चार साल तक चलता रहा। इन चार सालों में किसानों के खातों से कुल ३१.१९ लाख रूपए प्रीमियम के रूप में वसूले गए। किसानों के प्रीमियम की यह राशि लोन के जरिए हासिल की गई। इन अधिकारियों ने साल 2003 में मरकंडा को-आपरेटिव सोसाइटी, शाहबाद सोसाइटी के 1754 किसानों का और कैथल को-आपरेटिव सोसाइटी के 738 किसानों का बीमा किया। इन किसानों के खातों से कुल १.३९ लाख की प्रीमियम राशिः काट ली गई। किसानों को लगा कि यह काम किसी सरकारी योजना के तहत किया जा रहा है, इस कारण उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। किसानों की आपत्ति न होने पर इन अधिकारियों का उत्साह और बढ़ गया और उन्होंने अगले साल भी अपने गलत कृत्यों को जारी रखा।
साल 2004 में इन अधिकारियों ने विभिन्न को-आपरेटिव सोसाइटी के 25715 किसानों का बीमा कर दिया और १५.0५ लाख की प्रीमियम राशिः उनके खाते से काट ली। इसी प्रकार 20०५ में 16 को-आपरेटिव सोसाइटी के 17594 किसानों का बीमा कर दिया गया और १०.२४ लाख की प्रीमियम राशिः काट ली। साल 2006 में अजरावर, थास्की, मिरंजी, रोहती, झाखवाला, इस्माइलाबाद, आमिन और ज्योतिसर को-आपरेटिव सोसाइटी के 7551 किसानों का बिना बताए बीमा कर दिया गया। इन किसानों की कुल प्रीमियम राशिः ४.५० लाख थी जो उनके खातों से काट ली गई।
ये हैरान करने वाले तथ्य हाल ही में किसान और सामाजिक कार्यकर्ता गुलाब सिंह द्वारा सूचना के अधिकार के तहत दायर अर्जी के जवाब में सामने आए हैं। उन्होंने सूचना के अधिकार के माध्यम से कुरूक्षेत्र सेन्ट्रल कोऑपरेटिव बैंक के मेनेजिंग डायरेक्टर से इस मामले में सूचनाएं मांगी थीं।


पाकिस्तानी जेलों में बंद भारतीय युद्धबंदियों की संख्या नहीं जानती सरकार

सरकार के विदेश और रक्षा मंत्रालय ने पाकिस्तानी जेलों में बंद भारतीय युद्धबंदियों की संख्या अलग-अलग बताई है। रक्षा मंत्रालय ने इनकी संख्या 54 जबकि विदेश मंत्रालय ने इनकी संख्या 74 आंकी है। दूसरी तरफ पाकिस्तान हमेशा कहता रहा है कि उसकी जेलों में भारतीय युद्धबंदी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहत दायर एक एक अर्जी के जवाब में यह तथ्य सामने आए हैं। आरटीआई कार्यकर्ता हरीकुमार ने यह अर्जी दायर कर रक्षा और विदेश मंत्रालय के अलावा सेना के तीनों अंगों इस बारे में जानकारी मांगी थी।

अर्जी के जवाब में मिलिट्री इंटेलिजेन्स के डायरेक्टर ने कहा है कि उनके पास इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान 2 अधिकारियों सहित 19 सैनिकों के लापता होने की बात कही, लेकिन पाकिस्तानी जेलों में इनके कैद होने की पुिष्ट से इंकार किया।
वायुसेना मुख्यालय ने इस बारे में किसी भी प्रकार की जानकारी होने से इंकार किया। जबकि नौसेना ने कहा है कि उनका कोई भी सैनिक पाकिस्तानी जेलों में नहीं है।

गौरतलब है कि भारत और पाकिस्तान की सांवैधानिक समिति की बैठक में यह निर्णय लिया गया था कि दोनों देश अपनी-अपनी जेलों में बंद युद्धबंदियों के साथ सभी कैदियों की सूची एक-दूसरे को सौंपेंगे। साथ ही उनका आदान-प्रदान भी किया जाएगा। समिति ने यह अनुमान लगाया था कि भारतीय जेलों में 450 पाकिस्तानी कैदी हैं जबकि पाकिस्तानी जेलों में युद्धबंदियों सहित 500 भारतीय कैदी हैं। इन कैदियों के छूटने में हो रही देरी वजह इनकी संख्या जानने के लिए ही आरटीआई अर्जी दायर की गई थी।

सरकारी कर्मचारी आरटीआई के जरिए एसीआर लेने को स्वतंत्र


हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा है कि सरकारी कर्मचारी सूचना के अधिकार के जरिए अपनी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट अर्थात एसीआर लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह निर्णय पंजाब सरकार की एक याचिका की सुनवाई पर दिया गया। इस याचिका में पंजाब सूचना आयोग के एक निर्णय को चुनौती दी गई थी।
पंजाब सरकार ने सूचना आयोग के 5 नवंबर 2007 में दिए गए निर्णय को चुनौती देने के लिए अदालत के समक्ष यह याचिका दायर की थी। राज्य सूचना आयोग ने अपने इस फैसले में पीडब्ल्यूडी को एक कर्मचारी की एसीआर दिखाने का निर्देश दिया था। आयोग ने अपने फैसले में विभाग को निर्देश दिया कि वह 1 अप्रैल 2000 से 31 मार्च 2006 तक की एसीआर की प्रतिलिपि 15 दिनों के भीतर आवेदक को उपलब्ध कराए।
विभाग के अधिकारियों ने आवेदक द्वारा मांगी गई सूचनाओं को गोपनीय माना और कहा कि आरटीआई कानून की धारा 8 के तहत इस प्रकार की सूचनाएं नहीं दी जा सकती। विभाग ने आयोग के फैसले को चुनौती देने के लिए भारतीय संविधान की धारा 226 के अन्तर्गत न्यायालय में याचिका दायर की। लेकिन न्यायधीश एमएम कुमार और सबीना ने आयोग द्वारा दिए गए निर्णय पर सहमति जताई जिसमें कहा गया था कि किसी कर्मचारी को सूचना के अधिकार के माध्यम से एसीआर लेने से नहीं रोका जा सकता।

शुक्रवार, 20 जून 2008

आयोग की रक्षा मंत्रालय को फटकार

केन्द्रीय सूचना आयोग ने रक्षा मंत्रालय को एक आरटीआई अर्जी के जवाब में हो रही देरी के लिए स्पष्टीकरण देने को कहा है। इस अर्जी में एक पूर्व अधिकारी ने अपने बकाया भत्तों के मिलने में हो रही देरी के लिए मंत्रालय से जवाब मांगा था। मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने सूचना देने के उत्तरदायी व्यक्ति को इस बाबत जानकारी देने को कहा है।

आयोग ने यह निर्देश सेवानिवृत्त लेिफ्टनेंट कर्नल नरेन्द्र बहल की अपील के जवाब में दिया है। श्री बहल सेना से जुलाई 2004 में रिटायर हुए थे। रिटायरमेंट के बाद उनके बकाया भत्तों का भुगतान नहीं किया गया। इसी की वजह जानने के लिए उन्होंने आर्मी मुख्यालय से आरटीआई दायर कर जानकारी मांगी थी।

आवेदन के 41 दिनों बाद मंत्रालय से जो जवाब मिला वह संतोषजनक नहीं थी। मामला अन्तत: सूचना आयोग के पहुंचा और आयोग ने मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह सूचना देने वाले व्यक्तियों की पहचान करे। सूचना में देरी की वजह जाने और इसकी रिपोर्ट आयोग के समक्ष पेश करे।