शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

इससे मीडिया का खास हित साधता है

प्रभाष जोशी

सूचना के अधिकार आंदोलन की शुरूआत हुई थी हम तभी से जानते थे कि इससे मीडिया का खास हित साधना है। इसलिए हमने कोशिश की कि अखबारों और उनके संस्थानों को इसमें शामिल किया जाए। सबसे पहले तो राजस्थान के अखबारों को इसमें शामिल किया गया क्योंकि उसी ज़मीन पर यह आंदोलन चल रहा था। राजस्थान पत्रिका इसमें खुशी- खुशी शामिल हुआ। इसके बाद भास्कर भी शामिल हुआ। खास तौर पर रिपोर्टर और स्ट्रिंगर की इसमें विशेष रुचि थी क्योंकि उन्हें मालूम था कि इससे उनका काम आसान होगा।

हालांकि अपने देश में अखबार वालों की मदद करने की परंपरा चली आई है, और यह परंपरा समाज में ही नहीं सरकार में भी चलती है। पत्रकारों के लिए जितनी आसानी से चीजों को खोदकर निकालना संभव होता है उतना किसी और के लिए नहीं होता। यह सही है कि आधिकारिक तौर पर कोई मदद नहीं करता लेकिन व्यक्ति के नाते कोई भी मदद कर देता है। राजनीतिक हलकों में आसानी से जानकारी उपलब्ध होती ही है, सरकार में भी आप किसी को पकड़कर काम करें तो धीरे-धीरे सारी जानकारी निकलकर आ सकती है। मैं अपने भाषणों के दौरान कहता था कि अपने देश में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जहां किसी अखबार या किसी पत्रकार के विरुद्ध गोपनीयता के कानून का इस्तेमाल किया गया हो। अखबार वालों को जो कुछ भी करना था इतने वर्षों में में उन्होंने किया है, इतनी खोजी पत्राकारिता अपने यहां होकती रही है, लेकिन किसी सरकार ने किसी अखबार या पत्रकार पर ये मुकदमा नहीं चलाया कि आपने स्टेट सीक्रेट कानून को तोड़ा है, इसलिए आपके खिलाफ कारवाई होगी। सरकार की जानकारी निकालकर आपने सरकार का अधिकार भंग किया है इसका मुकदमा अभी तक किसी पर नहीं चला है।

मैंने, अरुणा राय, अजीत भट्टाचार्य, निखिल चक्रवर्ती ने अखबार वालों से कहा कि इस अभियान को आपको उठाना चाहिए क्योंकि इसे तो आपका आंदोलन होना चाहिए लेकिन अभी इसे सामाजिक कार्यकर्ता चला रहे हैं। प्रेस इंस्टिट्यूट के चेयरमैन तो अजीत भट्टाचार्य थे ही, प्रेस कौंसिल के लिए हमने जस्टिस सावंत को लगाया। वे उसके चेयरमैन थे। एक बार ये दोनों इसमें आ गए तो एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का भी इसमें आना आसान हो गया। ये तीनों संस्थान इस कानून के बनवाने के पक्ष में आ गए तो आप मान लीजिए कि दिल्ली का जो मीडिया एस्टेब्लिशमेंट है और सरकार से जो डील करने वाले लोग हैं, उन सबको लग गया कि यह कानून तो बनना ही चाहिए। इस तरह पहले तो पूरे राजस्थान में और फ़िर यह आंदोलन दिल्ली आया। इसके लिए कहना ठीक होगा कि एक तरफ तो यह आंदोलन जनता के स्तर पर लगभग निरक्षर लोगों ने चलाया, ऐसे लोगों ने जो लिखना-पढ़ना जानते नहीं थे, जो लोग धरने पर बैठते थे वे बेहद मामूली लोग थे। सारी दुनिया में सूचना का अधिकार पढ़े- लिखे लोगों की मेहनत से बना लेकिन अपने देश में इस कानून के बनने में पढ़े-लिखे लोगों का योगदान इतना नहीं रहा जितना कि साधारण किस्म के और निरक्षर लोगों का रहा है। लेकिन फ़िर भी यह भास-आभास, समझ देश के अखबार वालों को थी कि ये कानून बना तो हमारा काम आसान हो जाएगा। हालांकि अपने देश में अखबार वालों को काम करने के लिए कानूनों की ज्यादा ज़रूरत नहीं है। मैंने तो यह पाया है कि अखबार को काम करने के लिए कानूनों की ज़रूरत ही नहीं है। अगर आप जाएं और कहें कि हम फलां- फलां अखबार या चैनल के लिए खबर करना चाहते हैं तो लोग खुद उसे सूचना देने को तैयार रहते हैं। जो नहीं देते उनका उसे दबाने या छिपाने में निजी स्वार्थ होता है लेकिन उस एक आदमी के खिलाफ सूचना देने के लिए सौ लोग आपको उसी विभाग में मिल जाएंगे। अखबार वालों का काम तो अपने यहां आसान रहा है लेकिन सूचना का कानून बनने के बाद से एक तरह से औपचारिक रूप से पुख्ता हो गया है। इससे अखबार वालों की स्थिति पहले की अपेक्षा सुविधाजनक हुई है। बल्कि मैं ये मानता हूं कि कानून के बाद भी सूचना लेने में सामाजिक कार्यकर्ताओं को उतनी आसानी नहीं से सूचना नहीं मिलती जितनी आसानी से अखबार वालों को मिल जाती है।

साथ ही दो बातें और हैं - एक तो पहले जो लोग अखबार को सूचना देते थे वे पीठ पीछे देते थे और डरते थे लेकिन अब सामने से देते हैं और दूसरा अखबार वालों को भी उनकी बनाई स्टोरी के स्थान पर, एक प्लांट की जाने वाली स्टोरी के स्थान पर, अच्छी, वास्तविक स्टोरी मिलने की संभावना बढ़ती है।

मैं ये मानता हूं कि अखबारों में काम करने वाले लोगों का, पत्रकारों का सबसे बड़ा हित इसमें है कि हम अपने देश के साधरण लोगों को सूचना प्राप्त करने के अधिकार के प्रति जागरूक ही नहीं, उनको सक्रिय रूप से सूचना प्राप्त करने के लिए प्रेरित करें। उसमें दो फायदे हैं। एक तो नागरिक को ये खुद महसूस होगा कि उसको जो जानकारी मिल रही है उससे उसके कामकाज और जीवन का स्तर बेहतर होता है। दूसरा, ऐसा करने में हम एक ऐसे समाज का निर्माण करते हैं जिसमें जानकारी विस्तृत रूप से फैली हो। जो समाज अच्छी तरह से जानकार और सूचित हो, उस समाज में लोकतंत्र ही नहीं पत्रकारिता भी बेहतर हो सकती है। क्योंकि तब गप बाजियों और एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले तत्वों को अखबारों में मौका मिलने के बजाय अच्छी व प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उससे हमारा समाज और लोकतंत्र पहले से बेहतर होता है। इसलिए इसकी लगातार कोशिश होनी चाहिए कि सूचना के अधिकार को लोगों को स्तर पर सक्रिय रूप से फलीभूत करने के लिए हम मीडिया को उतना ही अच्छा इस्तेमाल करें जितना कि अखबार निकालने और चैनल चलाने में होना चाहिए ताकि इस देश के नागरिक न सिर्फ सूचना प्राप्त करने के तौर तरीकों में कुशल हों, वो उस जानकारी को बेहतर इस्तेमाल कर सकें। ये अपनी पत्रकारिता के विश्वसनीयता के स्तर को पहले की अपेक्षा ज्यादा बढाएगा। इसलिए ये समाज के हित में है कि सूचना के अधिकार को फलीभूत करने के लिए मीडिया वालों और सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाले अभियानों और कार्यकर्ताओं के बीच ज्यादा अच्छा सहयोग चलता रहे।

पिछली तीन साल की बात करूं तो मैं कुल मिलाकर ये देखता हूं कि सूचना के अधिकार को जितना समर्थन और महत्व कानून बनने से पहले अखबारों की तरफ से मिल रहा था, उतना अब नहीं मिल रहा। उसका एक कारण तो ये है कि अखबारों में आजकल सामाजिक सरोकारों की तरफ काम करने के बजाय मनोरंजन उद्योग में काम करना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। इसलिए जिन चीजों से मनोरंजन होता है और चैनलों की कमाई हो सकती है उसको ज्यादा महत्व दिया जाता है। सामाजिक सरोकार की चीजों को कम महत्व मिल रहा है।

एक और बात यह कि अखबार वालों को तो इस कानून का इस्तेमाल खूब करना चाहिए। अगर कोई यह सोचे कि इसमें समय लगता है तो यह गलत है। पत्रकारों को सूचना देने में तो वे जल्दी करेंगे क्योंकि देरी होने पर इसकी भी स्टोरी हो सकती है। अखबार वालों को तो खासकर इसे प्रोत्साहित करना चाहिए।

आज अगर मैं अखबार का संपादक होता तो सूचना के अधिकार पर एक अलग बीट बनाकर रिपोर्टर लगा देता। मैं समझता हूं कि अखबार का उद्देश्य है कि हम अपने पढ़ने वालों को ज्यादा से ज्यादा जानकार और अच्छी राय रखने वाला बना सकें। और सूचना का अधिकार ऐसा करने में मददगार है। और मैं अपने अखबार का उद्देश्य पूरा करने के लिए इसे एक समानान्तर अधिकार के रूप में प्रोत्साहित करता।

(प्रभाष जोशी मूर्धन्य पत्रकार हैं और सामाजिक सरोकारों में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं)

पत्रकारिता और सूचना का अधिकार : एक अवलोकन

मनीष सिसोदिया

सूचना के अधिकार कानून के लिए देश में एक लंबा संघर्ष चला है। इस अभियान में देश के कई सम्मानित एवं वरिष्ठ पत्रकारों ने भी एक सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका निभाई है। उन्होंने तन-मन-धन से इस अभियान में सहयोग दिया। इसमें एक तरफ प्रभाष जोशी, अजीत भट्टाचार्य, भरत डोगरा, हरिवंश जी जैसे स्थापित नाम रहे जो हर घटना, हर परिस्थिति में इस संघर्ष के साथ बने रहे। तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में युवा पत्रकार इस अभियान से जुड़ते रहे। ये वे लोग थे जो समाज के विकास और उत्थान में कुछ भूमिका निभाने के इरादे से पत्रकारिता में आए थे। इसमें से बहुत से लोगों ने सूचना के अधिकार पर काम करने के लिए दलीय राजनीति और अपराध की पत्रकारिता जिसे मुख्यधारा की पत्रकारिता भी कहा जाता है, छोड़ दी और स्वतंत्र रूप से काम करते हुए या किसी संगठन के साथ जुड़कर अपनी भूमिका निभाने लगे।

2001 में दिल्ली में सूचना का अधिकार लागू होने के साथ ही मैं भी इस अभियान से जुड़ता चला गया। कुछ वर्षों तक जी न्यूज में पत्रकारिता करते हुए ही दिल्ली में अभियान से जुड़ा रहा। इसी क्रम में अपना पन्ना का प्रकाशन भी शुरू किया और इसमें दिल्ली में सूचना के अधिकार के ऐसे प्रयोगों को जो एक पत्रकार की दृष्टि से आम आदमी के लिए बेहद उपयोगी थे, चुन-चुन कर इसमें प्रकाशित करना शुरू किया। धीरे-धीरे इसमें महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से भी समाचार आने लगे। आगे चलकर मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) और नेशनल कैंपेन फॉर राईट टू इन्फॉरमेशन (एनसीपीआरआई) आदि से भी संपर्क बना। 2003 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में सूचना के अधिकार का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया तो अपना पन्ना का एक विशेषांक निकाला गया। इसमें देश भर में सूचना के अधिकार के इस्तेमाल के प्रेरणादायी उदाहरण प्रकाशित किए गए।

इस दौरान दिल्ली में सूचना का अधिकार कानून था लेकिन शायद ही कोई पत्रकार हो जिसने सूचना के अधिकार कानून की मदद से सूचना निकलवाकर कोई स्टोरी की हो। हां आम लोगों द्वारा इस कानून के इस्तेमाल और उससे निकली सूचनाओं के विश्लेषण पर खूब खबरें प्रकाशित हुईं। विशेषकर इंडियन एक्सप्रेस ने परिवर्तन संस्था के साथ मिलकर कई कॉलोनियों में सूचना के अधिकार शिविर आयोजित किए। इंडियन एक्सप्रेस जैसे समाचार पत्र का सूचना के अधिकार को लेकर अभियान चलाना, रोजाना उसकी खबरें प्रमुखता से छापना और पूरे पेज के विज्ञापन देना। यह एक बड़ी घटना थी जिसने सूचना के अधिकार को सम्मान और लोकप्रियता दिलवाई। लेकिन पत्रकारों में यह कानून चला ही नहीं। उस दौरान मैंने प्रिंट मीडिया के बहुत से पत्रकारों से बात की थी। लेकिन सबका मानना था कि इस कानून के तहत सूचना लेने की प्रक्रिया जितनी लंबी है, उसमें से खबर निकालने की संभावना उतनी ही क्षीण है। यही हाल इलेक्ट्रोनिक मीडिया का भी था। वहां तो सबसे बड़ी समस्या थी कि सूचना के अधिकार की बदौलत खबर बनते कुछ कागज निकल भी आए तो वीजुअल्स कहां से आएंगे। उस वक्त एक ही शॉट या ग्राफिक्स को बार-बार दिखाने की परंपरा तब के टेलीविजन संपादकों की स्वीकृति में नहीं आई थी। बहरहाल, इसके बाद 2005 में देश भर में सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ। उस समय कई समाचार पत्रों के पत्रकारों ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने की प्रक्रिया शुरू की। इसमें से अधिकतर पत्रकार ऐसे थे जो मंत्रालयों की बीट देखते थे। लागू होने के 3-4 महीने के बाद अख़बारों में इस कानून के तहत निकलवाई गई सूचना को खबर के रूप में दिया जाने लगा। इसमें हिंदुस्तान टाईम्स, टाईम्स ऑफ इंडिया, एशियन एज, इंडियन एक्सप्रेस प्रमुख थे। हिन्दी के अखबारों में अमर उजाला में इसका प्रयोग उल्लेखनीय रहा जहां पत्रकारों ने सूचना के अधिकार से जानकारी निकलवाकर उसे पहली हेडलाइन तक बनाया। उधर गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में भी कई पत्रकारों ने सूचना के अधिकार के तहत सूचनाएं निकलवाकर प्रमुखता से प्रकाशित कीं।

वर्ष 2006 में सूचना का अधिकार कानून और पत्रकारिता का रिश्ता और भी प्रगाढ़ हुआ जब देश के आठ मीडिया संस्थान सूचना के अधिकार प्रचार-प्रसार के अभियान में एक साथ शामिल हुए। इसमें एक तरफ एनडीटीवी जैसे चैनल थे, हिन्दुस्तान टाईम्स, हिन्दुस्तान, जैसे राष्ट्रीय अखबार थे तो दूसरी तरफ राज्यों में शीर्ष मुकाम पर स्थित प्रभात खबर, दौरित्री, देशोन्नति जैसे अखबार भी थे। 15 दिन के इस अभियान में सूचना के अधिकार का खूब डंका बजा। यह अभियान एक सफल अभियान था जिसकी बदौलत देश भर में सूचना के अधिकार की लोकप्रियता बढ़ी। 700 संगठनों की मदद से चलाए गए इस अभियान के दौरान करीब 25 हजार लोगों ने सूचना के अधिकार का प्रयोग किया। इसका फायदा यह हुआ कि लोग सूचना के अधिकार कानून की उपयोगिता को अपने खुद के रोजमर्रा के जीवन से जोड़कर देखने लगे। इस अभियान की सफलता ने भी मीडिया में सूचना के अधिकार को एक सम्मान दिलाया। अखबारों और टेलीविजन में सूचना के अधिकार से जुड़ी खबरों को प्रमुखता मिली वहीं खुद दोनों माध्यमों के पत्रकारों ने इसका प्रयोग करना शुरू किया। यहां तक कि इसके तहत जानकारी निकलवाकर चैनलों ने आधे-आधे घंटे के बहुत से कार्यक्रम भी किए हैं।

कहा जा सकता है कि आज सूचना का अधिकार और पत्रकारिता ने एक दूसरे को पूरक के रूप में अंगीकार कर लिया है। इस तरह यह अधिकार और इसके लिए बना कानून पत्रकारिता के कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग दे रहा है वहीं पत्रकारिता ने इस कानून के बनने, स्थापित होने और इसे बचाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

सूचना के अधिकार ने खोले नये द्वार

विष्णु राजगढ़िया

सूचना का अधिकार मीडिया के लिए संभावनाओं के नये अवसर लाया है। एक पत्रकार के बतौर मैंने इस कानून के आने के बाद जिस आजादी और अधिकार का एहसास किया है, वह काफी सुखद अनुभूति है। इस कानून ने यह संभव कर दिया है कि पत्रकार किसी भी मामले से जुड़े दस्तावेजों की पूरी फाइलों का अध्ययन करके तथ्यपरक रिपोर्टिंग कर सके। देश के कई प्रमुख प्रकाशन संस्थानों ने सूचना का अधिकार का उपयोग करके एक्सक्लूसिव खबरें निकालने के अनूठे प्रयोग किये हैं।
मेरे पास ऐसे दर्जनों अनुभव हैं जिनमें सूचना के अधिकार ने काफी मदद पहुंचायी है। सबसे दिलचस्प अनुभव झारखंड विधानसभा से जुड़े हैं। लोकतंत्र के इस मंदिर के संबंध में कई विवादास्पद किस्से चर्चा में थे। लेकिन सूचना कानून आने से पहले मीडिया के लिए उन पर खबर लिखना संभव नहीं हो पाता था। दस्तावेजों के बगैर लिखने से संसदीय विशेषाधिकार का खतरा था। हमने ऐसे कई मामलों पर सूचना के आवेदन डाले। इससे काफी खबरें निकलीं जिन्हें प्रमुखता से प्रभात खबर ने प्रकाशित किया। जैसे-
1. झारखंड विधानसभा परिसर में तीस वातानुकूलित कमरों का गेस्टहाऊस है। इसके किराये की पूरी राशि ट्रेजरी में जमा होनी चाहिए थी। लेकिन ट्रेजरी में मामूली रकम जमा की जाती। प्रति कमरा शुल्क भी 100 रुपये के बदले अवैध रूप से 300 रुपये लिये जाते। सूचना अधिकार के तहत मिले दस्तावेजों से सारी पोल खुल गयी। 09।12।2005 को प्रभात खबर में बड़ी खबर छपी।

2. झारखंड विधानसभा में नियुक्तियों में भारी अनियमितता हुई। हजारों बेरोजगार सड़कों पर उतर आये। अक्टूबर 2005 में 75 अनुसेवकों की बहाली में भी अनियमितता हुई। इन पहलुओं पर सूचनाधिकार के जरिये महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल हुए।

3. झारखंड विधानसभा में पदोन्नतियों में भी भारी अनियमितता हुई। सूचनाधिकार के जरिये महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल हुए।

4. झारखंड विधानसभा परिसर में अक्टूबर 2005 में विभिन्न निर्माण-कार्यों को लेकर अचानक हंगामा हुआ। घटिया सामिग्रयों के इस्तेमाल, मनमाने एवं अनावश्यक कार्यों, बारह करोड़ के काम में 45 फीसदी कमीशन जैसे गंभीर आरोप लगे। सूचनाधिकार से जुड़ी प्रभात खबर की टीम ने इन पहलुओं की पड़ताल के लिए 22 नवंबर 2005 को भवन निर्माण विभाग में आवेदन देकर जानकारियां हासिल कीं।

5. विधानसभा के हर सत्र में विभिन्न विभागों द्वारा गैरकानूनी तरीके से खरीदे उपहारों तथा विधायकों, पत्रकारों, अधिकारिओं के बीच उनके वितरण किया जाता। इन उपहारों की राशि कहां से आती है, कोई नहीं जानता। इनकी खरीद एवं इसके वितरण में जनप्रतिनिधि , अधिकारियों , सप्लायरों एवं बिचौलियों के नापाक गटबंधन की साफ झलक दिखती है। इस संबंध में मांगी गयी सूचना ने सभी विभागों में हड़कंप मचा दी।

6. झारखंड सरकार के विधि विभाग में भी हमें बड़ी सफलता मिली। झारखंड हिंदू धर्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष राजेंद्रनाथ शाहदेव ने एक अवैधानिक फैसले के जरिये लगभग दो अरब की परिसंपत्ति को मनोरमा ट्रस्ट के बदले किसी की निजी संपत्ति में बदल दिया था। मामला कैबिनेट में पहुंचने पर विधि विभाग से जांच करायी गयी। रिपोर्ट दबा दी गयी। मैंने 29 दिसंबर 2005 को सूचना के अधिकार आवेदन द्वारा विधि विभाग से यह रिपोर्ट मांगी। इससे मनोरमा ट्रस्ट मामले में हुई घोर अनियमितता सामने आयी।

7. ऐसी ही एक बड़ी सफलता राज्य के ग्रामीण विकास विभाग में मिली। मैंने ग्रामीण विकास विभाग से राज्य के विभिन्न प्रखंडों में नरेगा के क्रियान्वयन सम्बन्धी आंकड़े मांगे। लेकिन जो ग्रामीण विकास विभाग नरेगा कानून को मजाक समझ रहा था, वह भला सूचना कानून को कितनी तवज्जो देता। अंतत: मामला सूचना आयोग पहुंचा। आयोग ने राज्य के ग्रामीण विकास आयुक्त तथा 20 जिलों के उपायुक्तों को एक ही दिन सूचना आयोग में तलब कर लिया। इसने पूरे राज्य की नौकरशाही में हड़कंप मचा दी। सभी जिलों के अधिकारियों ने रातोंरात सारे आंकड़े जुटाकर हमें उपलब्ध कराये।

८ एक उदाहरण धनबाद के अल-एकरा बीएड कॉलेज का देखा जा सकता है. वर्ष 2006-07 में इसमें नामांकन की मेधासूची को सार्वजनिक नहीं किया गया। यहां तक कि मीडिया को भी मेधासूची उपलब्ध नहीं करायी गयी। इसी बीच एक नागरिक ने जिला शिक्षा अधिकारी के पास सूचना का आवेदन देकर पूरी मेधासूची हासिल कर ली। पता चला कि कई उम्मीदवारों को मेधासूची में नाम होने के बावजूद गुमराह करके नामांकन से वंचित कर दिया गया था। मीडिया के लिए ऐसी सूचनाएं एक्सक्लूसिव खबर बनीं। दिलचस्प बात यह कि अगले सत्र में कॉलेज प्रबंधन ने मीडिया को मेधासूची खुद ही उपलब्ध करा दी।

9. मुंबई के तीन-चार लोगों ने 1998-99 में आइडीबीआई से बीस करोड़ से भी ज्यादा ऋण लिया। रांची के तुपुदाना औद्योगिक क्षेत्र में तीन कारखाने लगाने के नाम पर। दो कारखाने तो खुले ही नहीं, तीसरा नाममात्र का खोलकर बंद कर दिया गया। अब तीनों कारखाने बंद पड़े हैं। विभिन्न स्रोतों से मिले तथ्यों के आधार पर प्रभात खबर में एक से छह दिसंबर तक छह किश्तों में खबर छपी। इस प्रकरण में आइडीबीआई बैंक से महत्वपूर्ण सूचनाएं मिल सकती थीं। लेकिन बैंक ने कहा कि किसी के व्यक्तिगत खाते की जानकारी नहीं दी जा सकती। हालांकि बैंक ने अपने जवाब में माना कि तीनों कारखानों में भारी गबन हुआ है, लेकिन सूचना देने से मना किया। मामला केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा तो गबन सम्बन्धी सूचना हासिल हुई।

10. अवैध देशी शराब के कारण कई वर्षों तक झारखंड को उत्पाद-कर एवं बिक्री-कर में अरबों का नुकसान हुआ। लेकिन अधिकारीगण आश्चर्यजनक रूप से खामोश रहे। विधानसभा में माले विधायक विनोद सिंह ने मामला उठाया तो सदन को गुमराह करने वाला जवाब दिया गया। मीडिया ने जब कभी ऐसी खबरें छापीं तो तथ्य को झुठलाया गया। वित्त मंत्री रघुवर दास ने सूचना मांगी तो फाइल दबी रह गयी। लेकिन प्रभात खबर इंस्टीट्यूट के छात्र दयानंद राय ने सूचना का आवेदन डालकर पूरा कच्चा चिट्ठा निकाल लिया। पता चला कि वर्ष 2001-02 में मिला सोलह करोड़ का राजस्व वर्ष 2005 में दस गुना नीचे आ गया, मात्र डेढ़ करोड़। प्रभात खबर में यह पेज वन की एक्सक्लूसिव खबर बनी।

11. किसी स्वयंसेवी संस्था के निबंधन के लिए उसके आवेदन सम्बन्धी दस्तावेजों में उसका स्थायी पता बताना जरूरी है। झारखंड में 160 ऐसी संस्थाओं को निबंधन दे दिया गया जिनके आवेदन में स्थायी पता नहीं था। प्रभात खबर इंस्टीट्यूट की छात्रा सरिता ने 03।01।2006 को सूचना के अधिकार द्वारा इसका भंडाफोड़ किया।

12. चुनावों के दौरान सरकारी प्रयोग हेतु निजी वाहनों को जब्त किया जाता है। ऐसे वाहनों को रखने के लिए मैदान में बांस वगैरह से घेराबंदी की जाती है। लेकिन क्या घेराबंदी का यह काम इतना महंगा होगा कि झारखंड जैसे राज्य को दो-तीन करोड़ रुपये खर्च करने पड़ जायें? यह रहस्य सामने आया शक्ति पांडे के सूचनाधिकार आवेदन से। उन्होंने फरवरी 2005 में हुए लोकसभा चुनाव तथा अप्रैल 2005 में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान जब्त वाहनों हेतु रांची के मोराबादी मैदान की घेराबंदी के खर्च का ब्यौरा मांगा था। पता चला कि लोकसभा चुनाव के दौरान घेराबंदी का खर्च लगभग एक लाख हुआ। विधानसभा चुनाव में यह लगभग तीन लाख हो गया। यानी महज एक साल में तीन गुना। ऐसे तथ्य प्रभात खबर के लिए एक ´एक्सक्लूसिव न्यूज´ का आधार बने।

सच तो यह है कि अब तक कि पत्रकारिता में अधिकार पूर्वक दस्तावेजों के अध्ययन की गुंजाइश नहीं होने के कारण मीडिया कर्मी काफी सहमे और उपकृत रहा करते थे। उन्हें समाचार पाने के लिए नेताओं और अधिकारियों से मधुर संबंध बनाने होते थे। इसके लिए वह जाने या अनजाने में इस या उस पक्ष का उपकृत बनता था। मधुर रिश्तों के आधार पर खबरें निकालना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन इसकी सीमा यह है कि कई बार संवाददाता को खबर देनेवाले ऐसे स्रोतों के हाथ की कठपुतली बनने को विवश होना पड़ता है। ऐसे में कई बार उसकी रिपोर्टिंग महज किसी के जनसंपर्क का उपकरण बनकर रह जाती है। जब तक संवाददाता ऐसे अधिकारियों के अनुकूल खबर लिखता है, तब तक उसे खबरें मिलेंगी। लेकिन ज्योंहि वह किसी कटु सच्चाई को सामने लाने की ओर बढ़ेगा, ऐसे अधिकारी उससे मुंह मोड़ लेंगे।
लेकिन सूचना का अधिकार इस सीमा को तोड़ता है। अब हमारे लिए यह संभव है कि वह सामान्य किस्म की खबरें सामान्य तरीकों और मधुर रिश्तों के आधार पर निकालें और विशेष खोजी खबरों तथा कड़वी सच्चाइयों को सामने लाने के लिए सूचना के अधिकार का उपयोग करें। ताकि कोई रिश्तों की दुहाई देकर दबाव न डाल सके।

( विष्णु राजगढ़िया प्रभात खबर के धनबाद संस्करण के संपादक रह चुके हैं और सूचना के अधिकार आंदोलन से जुड़े हैं)

पत्रकारों के लिए परिस्थितियां बदली हैं

विनीता देशमुख

क्या एक पत्रकार को वास्तव सूचना के अधिकार की जरूरत है? पत्रकार होने के नाते उसे सूचना तो मिल ही जाती हैं। क्या वह स्टोरी के लिए 30 दिन की प्रतीक्षा कर सकता है? उसे तो हर वक्त गर्मागर्म खबरें देनी होती है। इन दोनों प्रश्नों का उत्तर हां है। मैं इन दोनों को एक-एक करके स्पष्ट करना चाहूंगी।

सूचना का अधिकार लागू होने के बाद पत्रकार के लिए परिस्थितियां बेहतर हुई हैं। अब उसे स्रोत पर निर्भर होने की जरूरत नहीं है। वह सभी सफेद और काले तथ्यों का प्राप्त कर अधिक विश्सनीय और खोजी स्टोरी कर सकता है। सच को जनता के बीच लाने के लिए वह अपने अधिकारी स्रोत को आसानी से किनारे कर गर्व के साथ कह सकते हैं कि वह अब उनके बिना भी सूचना हासिल कर सकते हैं।

जहां तक सूचनाओं के लिए तीस दिनों की प्रतीक्षा का सवाल है तो कहा जा सकता है इसकी भी हमेशा जरूरत नहीं है। कानून की धरा 4 तहत से सरकारी कार्यालय में फाइलों का नियमित निरीक्षण कर सकता है। इससे बिना प्रतीक्षा अच्छी स्टोरी मिल सकती हैं। तीस दिन की प्रतीक्षा के बाद हमारे पास तथ्य और दस्तावेज एकत्रित हो जाते हैं जिनसे काफी अच्छी स्टोरी की जा सकती है। मैंने इन दोनों मामलों में सूचना के अधिकार का अच्छी तरह से इस्तेमाल किया है जिनका जिक्र में करना चाहूंगी।

• साल 2000 में महाराष्ट्र सूचना का अधिकार कानून प्रभावी था। उस समय करदाताओं के पैसों पर पुणे नगर निगम के कारपोरेटर द्वारा किया गया स्टडी टूर सुर्खियों में रहा। इस स्टडी टूर का उद्देश्य पुणे की बेहतरी के लिए एक परियोजना को लागू करना था। जब समाचार पत्रों ने इस विषय पर लिखा तो मैंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया। मैंने जो सूचना हासिल की उससे साफ हो गया कि कारपोरेटर स्टडी टूर के नाम पर छुटि्टयां मना रहे हैं जिसकी कोई जवाबदेयता नहीं थी। सभी को एक अपने टूर की एक आधिकारिक रिपोर्ट लिखनी थी और सुझाव देने थे। प्राप्त दस्तावेजों से पता चला कि दौरे में स्कूल के बच्चों की तरह प्रस्ताव लिखा गया और सुझाव भी बेहद हास्यास्पद थे। कुछ कारपोरेटरों ने तो पुणे-मुंबई एक्सप्रेस वे में लगे फूलों की तारीफ लिखी। उनके सुझाव थे कि पुणे के ढलानों पर दक्षिण की तरह चाय बागान और दो प्रमुख झीलों के चारों तरफ नारियल के पेड़ लगाए जाएं। इन तथ्यों से न केवल एक अखबार के लिए अच्छी रिपोर्ट बनी बल्कि निगम आयुक्त को भी ऐसे टूर के लिए सख्त निर्देश जारी करने पडे़। इस प्रकार पत्रकारों और नागरिकों द्वारा सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से प्राधिकरण पर दबाव बनाया जा सका है।

• मैंने सूचना के अधिकार का सबसे सफल और खोजी प्रयोग डाओ केमिकल्स इंटरनेशनल लिमिटेड पर किया, जो पुणे के निकट तथाकथित रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर स्थापित कर रहा था। डाओ केमिकल्य ने फरवरी माह में देश के प्रमुख दैनिक और स्थानीय अखबारों में विज्ञापन छपवाया कि यह सिर्फ एक रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर है जिसमें किसी केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। इस मामले की तह तक जाने के लिए मैंने महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव संजय खंडारे से संपर्क किया और डाओ के प्लांट लगाने से सम्बंधित दिए गए दस्तावेजों की जानकारी मांगी। खंडारे ने कहा कि मेरे पास इसका उत्तर नहीं है यदि आप चाहें तो इसे सूचना के अधिकार से हासिल कर सकती हैं। संभवत: यदि मांगी गई सूचनाएं साधारण तरीके से उपलब्ध करा दी जाती तो खंडारे पर राजनैतिक आकाओं की गाज गिर सकती थी इसलिए कानून के जरिए सूचनाएं उपलब्ध कराने पर उनका बचाव हो जाता है क्योंकि ऐसे निर्णय अक्सर उच्च स्तर पर लिए जाते हैं। मैंने कानून की धारा 4 को महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम में अपनाया। दस्तावेजों से पता चला कि महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने डाओ केमिकल को रिसर्च और डेवलपमेंट की अनुमति नहीं बल्कि उत्पादन की
मंजूरी दी है। डाओ द्वारा दिए गए आवेदन के अनुसार वह पर्यावरण संरक्षण कानून की अनुसूची 1 के तहत 20 हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल कर रहा है, जिसके लिए पर्यावरण विभाग की अनुमति लेना अनिवार्य है। पता चला कि महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने डाओ के लिए अनुमति लेना अनिवार्य नहीं किया। महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम से जानकारी मिली कि डाओ को अतिरिक्त छूट दी गई। निगम को मुख्य कार्यकारी अधिकारी की फाइल नोटिंग में पाया गया कि पुणे कार्यालय को इसे महत्वपूर्ण परियोजना मानते हुए 48 घंटे के भीतर चाकन में सौ एकड़ जमीन की मंजूरी दिलाने की बात कही। प्रदूषण बोर्ड के दस्तावेजों से जानकारी भी मिली कि महाराष्ट्र की नदी नियमन नीति की भी अवहेलना हुई। नियम है कि नदी की दो किमी की सीमा के भीतर केमिकल फेक्ट्री नहीं लगाई जा सकती। जबकि डाओ केमिकल बमुश्किल इंद्रयानी नदी से 1.2 किमी दूर है। भूमि के दस्तावेजों से यह भी पता चला कि डाओ ने बिना अनुमति लिए 14800 पेड़ काटे हैं। लोगों को अब डाओ केमिकल के संदेहास्पद इरादों को सबूत मिल गया था। लोगों के विरोध को इससे बल मिला और समूचा कामगार समुदाय (सबसे बडे़ वोट बैंक ) ने राज्यस्तरीय विरोध शुरू कर दिया। इस विरोध का ही परिणाम था कि उस वक्त लंदन में मौजूद मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को एसओएस काल और डाओ के काम की समीक्षा करने का आश्वासन देना पड़ा। इसी दौरान मेरे साप्ताहिक टेबलॉयड इंटेलिजेंट पुणे के खुलासे के फलस्वरूप समिति को महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को डाओ केमिकल को दी गई अनुमति को दुरुस्त करने को कहा। नई अनुमति में कहा गया कि डाओ को केवल रिसर्च एंड डेवलपमेंट की मंजूरी मिलेगी उत्पादन की नहीं और उसमें भी पर्यावरण के सख्त नियम लागू होंगे। हालांकि समिति ने बड़ी चालाकी से एक पंक्ति में कह दिया कि डाओ निर्माण कार्य पुन: शुरू कर सकता है। ग्रामीणों ने निर्माण शुरू नहीं होने दिया जिसमें हिंसक घटनाएं भी हुईं। अब दोबारा समिति का गठन किया गया है और उसकी रिपोर्ट का इंतजार है। इसी दौरान इंटेलिजेंट पुणे ने इस मुद्दे को अपने विभिन्न अंकों के 85 पृष्ठों पर प्रकाशित किया और सरकार का लगातार दबाव बनाया।

• एक अन्य मामले में इसी साल सितंबर में राज्य सरकार ने 1.03 करोड़ वर्ग फीट जमीन पुणे के पड़ोस (बानेर-बालेवाडी) में आरक्षित कर दी। यह जमीन स्थानीय क्षेत्रा में बगीचों, अस्पतालों, अग्निशमन आदि जन सुविधाओं हेतु थी। मैंने सूचना के अधिकार और कार्यकर्ताओं की मदद से संपूर्ण अधिसूचना और नक्शा टाउन प्लानिंग डिपार्टमेंट से प्राप्त किया। हमने पाया कि शहर का भविष्य खतरे में है। नियमानुसार राज्य सरकार ने आपत्तियों एवं सुझावों के लिए 60 दिनों का समय दिया है जिसकी अंतिम तारीख 1 दिसंबर है। मैंने हरित पुणे अभियान के तहत विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं के साथ खिलाफ एक जनआंदोलन चलाया और अब तक कुल 30 हजार आपत्तियां प्राप्त कीं। सूचना के अधिकार की बदौलत हमे सरकार के खतरनाक इरादों की जानकारी मिली और अब उसके विरुद्ध व्यापक जनआंदोलन चल रहा है।

मेरे पास ऐसे ढेरों उदाहरण हैं लेकिन मैंने कुछ व्यापक असर वाले अनुभवों को ही साझा किया है। पत्रकार सूचना के अधिकार की धरा 4 का इस्तेमाल कर सच को जन सामान्य के बीच ले जा सकते हैं और सरकार पर पारदर्शी और नागरिकोन्मुखी बनने क दबाव डाल सकते हैं।

(लेखिका साप्ताहिक टैबलॉयड इंटेलिजेंट पुणे की संपादिका हैं)

जन आंदोलन में बदलता कानून

मनोज कुमार सिंह

मैं गोरखपुर में सूचना अधिकार आन्दोलन से शुरू से ही जुड़ा। 26 अप्रैल 2006 से 28 अप्रैल तक चौरीचौरा से मगहर तक सूचना अधिकार को लेकर हुई 60 किलोमीटर की पदयात्रा में भी मैं शामिल हुआ। इसके बाद गोरखपुर में एक जुलाई 2006 से 17 जुलाई तक आयोजित हुए घूस को घूंसा अभियान में मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा। इस दौरान हमने दर्जनों आवेदन पत्र तैयार कराए। बतौर पत्रकार मैने स्वयं सूचना अधिकार कानून का इस्तेमाल जन आन्दोलनों और सार्वजनिक हित से जुड़े मामले में जानकारी प्राप्त करने के लिए किया।

इस अधिकार का सर्वप्रथम इस्तेमाल मैंने कुशीनगर जिले में मैत्रय परियोजना के सम्बन्ध में जानकारी मांगने में किया। यह परियोजना कुशीनगर में स्थापित की जा रही है जिसके तहत भगवान बुद्ध की 500 फीट उंची प्रतिमा स्थापित करने के अलावा कुछ अन्य निर्माण कार्यों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार किसानों का 660 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर रही है। इसके खिलाफ किसान आन्दोलन कर रहे हैं। इस दौरान प्रशासन की ओर से अफवाह फैलायी गयी कि अधिकतर किसानों ने मुआवजा ले लिया है और मुट्ठी भर किसान ही निहित स्वार्थों में आन्दोलन कर रहे हैं। इस समय तक किसी को भी जानकारी नहीं थी कि कितने किसानों की जमीन इस परियोजना में ली जा रही है और कितने किसानों ने मुआवजा लिया है। मैने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत यही जानकारी मांगी। जो जानकारी मिली वह चौंकाने वाली थी। प्रशासन द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार इस परियोजना के लिए 2977 किसानों की 660 एकड़ जमीन ली जा रही है और अभी तक सिर्फ 633 किसानों ने जमीन का मुआवजा लिया है। इस सूचना को मैने अपने समाचार पत्र हिन्दुस्तान में प्रकाशित भी किया। इससे स्थिति साफ हो गयी कि मुआवजे के नाम पर किसानों को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है। इस जानकारी के सार्वजनिक होने के बाद किसानों ने अपने आन्दोलन को और मजबूती से आगे बढ़ाया। अभी हम लोग इस परियोजना के सम्बन्ध में कुछ और कागजात निकालने का प्रयास कर रहे हैं ताकि परियोजना के नाम पर पर्दे के पीछे किए गए सांठगांठ का पर्दाफाश कर सकें।
  • किसानों को ठगने के लिए सरकार ने फैलाई अफवाह
  • बच्चे मरते रहे लेकिन सोती रही सरकार
इसी प्रकार पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से मौतों के बारे में मैंने सूचना अधिकार कानून के तहत जानकारी मांगी। हालांकि यह जानकारी मैने अपने नाम के बजाय इस मुद्दे पर कार्य कर रहे चिकित्सक डॉ आरएन सिंह के नाम से मांगी। इस सूचना को मांगने के पीछे पृष्ठभूमि यह थी कि इंसेफेलाइटिस से पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत होती है। अनुमान के मुताबिक पिछले 30 वर्ष में केवल सरकारी अस्पतालों में इस बीमारी से 10 हजार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। वर्ष 2005 में इंसेफेलाइटिस से बच्चों की मौत जब अन्तराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी तब सरकार ने 1-15 वर्ष के बच्चों का इंसेफेलाइटिस से बचाव का टीका लगाया। यह टीका चीन से आयात किया गया था। टीका लगाने के साथ ही इस पर विवाद शुरू हो गया कि इस टीके का एक डोज लगना चाहिए कि दो या तीन। इस बारे में सरकार ने अपनी ओर से कभी कुछ नहीं कहा और विशेषज्ञ इस बारे में कई तरह की बात रखते रहे। इसी को ध्यान में रखकर केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से सूचना अधिकार के तहत सवाल पूछा गया कि टीके का कितने डोज लगने चाहिए तथा इंसेफेलाइटिस से अब तक कितने बच्चों की मौत हुई है और सरकार इस रोग से बचाव के लिए क्या-क्या उपाय कर रही है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसके जवाब में जो जानकारी दी उससे कई नए तथ्य सामने आए। सबसे बड़ी जानकारी तो यह थी कि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2001 से जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंडोम से मौतों का रिकार्ड रखना शुरू किया जबकि इसका पहला केस 1978 में ही पाया गया था और उस समय से उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में हजारों लोगों विशेषकर बच्चों की मौत हो चुकी थी। कोई भी समझ सकता है कि सरकार इस रोग से लड़ने के प्रति कितनी संवेदनशील है। सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक 2001 से सितम्बर 2008 तक इस बीमारी से देश के 16 राज्यों में 5312 लोगों की मौत हो चुकी है जिसमें से 3410 उत्तर प्रदेश के थे। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने जवाब में यह भी साफ किया कि जापानी इंसेफेलाइटिस से बचाव के लिए लगाये जा रहे टीके का एक ही डोज पर्याप्त है क्योंकि इससे 90 फीसदी से ज्यादा प्रतिरक्षण प्राप्त होता है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा दिए गए जवाब पर मैने खबर बनायी और पहली बार इस मामले में कई नए तथ्य लोगों को पता चले।

इस तरह कई मामलों में मैने आरटीआई का उपयोग किया। आरटीआई के उपयोग के कारण मेरे पास बतौर पत्रकार सदैव एक-दो एक्सक्लूसिव खबरें रहती हैं। मेरे ऑफिस में प्रतिदिन एक-दो लोग आरटीआई के आवेदन तैयार करवाने आते हैं या फोन पर इसके बारे में जानकारी मांगते हैं। जब उन्हें अपने सवाल का जवाब मिल जाता है तो वे मुझे जानकारी देने आते हैं। मैं अक्सर उन जानकारियों को खबर के रूप में प्रकाशित करता हूं ताकि लोग इसके बारे में और जागरूक हों और आरटीआई का अधिक से अधिक इस्तेमाल करें।

हम और हमारे साथी सूचना के अधिकार पर अक्सर कोई न कोई कार्यक्रम रखते हैं। हमने कुशीनगर और सिद्धार्थ नगर जिले में पत्रकार साथियों के साथ वर्कशॉप आयोजित किए और उन्हें आरटीआई के प्रयोग के बारे में बताया। आज इन जनपदों में कई पत्रकार आरटीआई का उपयोग कर रहे हैं।

सूचना अधिकार अधिनियम की तीसरी वर्षगांठ पर इस बार हम कोई कार्यक्रम तो नहीं कर सके लेकिन मैने कई पत्रकार साथियों के साथ बैठकर सार्वजनिक हित के एक दर्जन से अधिक मामलों पर आरटीआई के तहत जानकारी प्राप्त करने के लिए आवेदन तैयार किया और उसे सम्बंधित विभागों को भेजा।

(लेखक गोरखपुर में दैनिक हिन्दुस्तान समाचार पत्र से जुडे़ हैं एवं विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं)

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

एक जिम्मेदार और जवाबदेह पत्रकारिता के लिए

पाणिनी आनंद

सूचना का अधिकार कानून के जरिए किसी जानकारी को हासिल करने पर पहली बात तो यह होती है कि कागजों में लिखी, कही-अनकही सार्वजनिक हो जाती है। इस तरह वो सामने आ जाता है जिसे बताने से या हो अधिकारी बच रहे होते हैं, छिपा रहे होते हैं।

सूचना का अधिकार कानून ने लोकतंत्र के जिस स्तंभ को सबसे मजबूत किया है, वो है चौथा स्तंभ यानि पत्रकारिता का क्षेत्र। हालांकि यह अपने में एक अलग सवाल है कि जिस पत्रकारिता के संदर्भ में हम सूचना का अधिकार की बात कर रहे हैं और जिस पत्रकारिता ने इस कानून को एक मजबूत और स्थापित स्थिति में ला पहुंचाया है, उसी के संचालक संस्थानों की जवाबदेही का दायरा सूचना कानून की पहुंच से बाहर है। और जिस तरह से समाचार माध्यमों की संख्या बढ़ी है, उसमें उद्योगजगत के लोगों का निवेश बढ़ा है और इनके आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों पर कभी-कभी सवाल भी उठे हैं, उसके बाद यह भी लग रहा है कि आने वाले दिनों में मीडिया संस्थानों में सूचना का अधिकार एक अहम बहस बन सकता है।

सूचना का अधिकार अभियान के साथ जुड़े रहने और साथ ही एक पत्रकार के तौर पर अपनी जीविका जुटाते हुए मैंने संचार माध्यमों और सूचना का अधिकार कानून से जुड़े मुद्दों के कई पहलुओं को देखा है। मसलन, कितनी जगह, किन स्थितियों में और किस तरह ही कहानियां सूचना का अधिकार कानून से जुडे़ होते हुए छपकर या टीवी पर आती रही हैं। कभी इनके प्रकाशन को लेकर समाचार माध्यमों से जद्दोजहद करता रहा हूं तो कभी इस कानून की मदद से अनउदघाटित तथ्यों को सामने लाता रहा हूं। यह इस कानून की सुंदरता ही है कि जब फाइलों में दबी जानकारी हमारे हाथ में होती है तो कई रोचक तथ्य सामने आते हैं। भारत में सूचना का अधिकार कानून से जुड़ी कहानियों के प्रकाशन या उनपर रिपोर्टिंग को मुख्यधारा के मीडिया में अपनी जगह बनाने में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी है। अभी भी कई समाचार पत्रों के दफ्तर ऐसे हैं जहां सूचना का अधिकार कानून से जुडे़ मुद्दों पर कहानियां बहुत मुश्किल ही देखने को मिलती हैं।

विडंबना ही है कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में इस कानून को लेकर कम ही काम हुआ है। इस मामले में अंग्रेजी के माध्यम ज्यादा मुखर रहे हैं। सूचना का अधिकार पर काम कर रहे लोगों या संगठनों ने भी शायद अंग्रेजी के जनमाध्यमों को ज्यादा महत्व दिया है। ऐसा शायद इसलिए भी हुआ है कि क्योंकि नीतिगत स्तर पर और व्यवस्था में बदलाव लाने की कोशिशों के लिए अंग्रेजी माध्यम में अपनी बात को कहना शायद ज्यादा प्रभावशाली है। पर इससे एक नुकसान यह हुआ है कि हिंदी और अन्य भाषाओं के पत्रकारों से सूचना का अधिकार पर काम कर रहे लोगों को ताल्लुक कम ही रहा है। दूसरा नुकसान यह हुआ है कि अन्य भाषाओं या हिंदी के पत्रकार इसी दुराव के चलते सूचना कानून को इतनी मजबूती से नहीं समझ पाते जितना कि अंग्रेजी माध्यमों के पत्रकार। मेरी इस बात से कई लोगों को आपत्ति हो सकती है और कहा जा सकता है कि कुछ सरकारी कार्यक्रमों और हिंदी सहित अन्य भाषाओं के समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों ने इस दिशा में खासा काम किया है पर इन भाषाओं को जानने वाली आबादी के औसत के हिसाब से देखने पर अंग्रेजी के माध्यम ज्यादा सक्रिय दिखाई देंगे।

पत्रकारों की ओर से सूचना सूचना का अधिकार कानून के तहत जानकारी मांगने के प्रयास कम ही देखने को मिले हैं। अधिकतर मीडिया कर्मी खुद हफ्तों का समय एक ही सूचना निकलवाने की प्रक्रिया में नहीं लगाना चाहते, वे चाहते हैं कि कोई सूचना निकलवा कर उन तक पहुंचाए और वे उसे इस्तेमाल करें। इसमें कोई बुराई नहीं है पर ज्यादा बेहतर है कि ये पत्रकार खुद भी कानून की इस्तेमाल करें, सूचनाएं मांगे और अपने आवेदनों पर मिल रही जानकारी व जवाबों से लोगों को अवगत कराए। इसकी जरूरत इसलिए है क्योंकि एक तो देश का नागरिक होने के नाते पत्रकार बिरादरी का भी हक और जिम्मेदारी है कि इस कानून का इस्तेमाल करें। दूसरा यह कि रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे कई सवालों से पत्रकार रूबरू होते भी हैं, जो आम आदमी को परेशान करते हैं, जिससे कोई भी व्यक्ति प्रभावित होता है या जिन्हें जानने की जरूरत महसूस होती है। अब अगर पत्रकार इस बात को समझकर खुद भी सूचनाएं निकलवाने का काम करते हैं या किसी सूचना मांगने की प्रक्रिया का हिस्सा बनते हैं तो उनको जानकारी तो मिलेगी ही, सूचना मिलने या न मिलने की सूरत में एक आवेदक क्या कुछ झेलता है, यह भी समझ में आएगा।
पिछले दिनों एक बात देखने को मिली। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने एक मामले में सूचना देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि जनमाध्यमों में प्रकाशन के मकसद से सूचना मांगना गलत है। केवल निजी इस्तेमाल के लिए ही सूचना मांगी जानी चाहिए। अभी सुनने में आया है कि ऐसा कोई प्रावधन भी है जो वो अपने यहां जोड़ रहे हैं। तो क्या ऐसे अधिकारियों को सूचना का अधिकार कानून अबतक समझाया नहीं गया है या सरकारी गोपनीयता कानून के ज्वर से अभी ये मुक्त नहीं हुए हैं। क्या इन अधिकारियों को सूचना कोई तस्करी की चीज लगती है जिसका सार्वजनिक किया जाना सही न हो।

सूचना का अधिकार कानून के मुद्दे पर कुछ जनसंगठनों की ओर से सक्रियता से काम किया गया है। पर यह काम ऐसा है जिसपर अभी बहुत ध्यान नहीं दिया जा सका है, और वह है पत्रकारों, जनमाध्यमों से जुडे़ लोगों को सूचना को अधिकार कानून की पेचीदगियों से परिचित कराना। अगर प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए मीडिया संस्थानों को राजी करके इस काम को व्यापक पैमाने पर किया जाए तो पत्रकार सूचना कानून के प्रयोग के दौरान सरकारी महकमों द्वारा खड़ी की जाने वाली बेवजह की अड़चनों से बचेंगे। हालांकि कुछ संगठनों की ओर से ऐसी पहल देखने को मिली तो है पर इसे लेकर मीडिया संस्थान बहुत गंभीर हुए हैं और पत्रकारों की एक खेप सूचना का कानून के प्रयोग के लिए तैयार की जा सकी है, ऐसा कहना जल्दबाजी होगा।

कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर खोजी पत्राकारिता के जरिए काम होता रहा है। सूत्रों, जान पहचान के जरिए जानकारी ली जाती रही है, खबरें सामने आती रही हैं। ऐसी खबरों को लोगों ने हाथोंहाथ लिया है। बहुत कुछ लिखा-कहा गया है इस तरीके से लेकिन एक पहलू एक पहलू यह भी है कि कुछ मामलों में पत्रकारों को यह महंगा भी पड़ा है। मैं सीधे उदाहरण न देकर इतना ही कहना चाहूंगा कि सूत्रों और जान पहचान से गलत या अधूरी जानकारी सामने आने पर खबरों की सत्यता पर भी सवाल उठे हैं। इस दिशा में एक जिम्मेदार और जवाबदेह पत्रकारिता के लिए सूचना का अधिकार एक बहुत उम्दा हथियार है। सूचना कानून के जरिए जानकारी हासिल करना और फ़िर उसके आधार पर रिपोर्टिंग करना, विचार व्यक्त करना पत्रकार और उसकी खबर को और जवाबदेह और जिम्मेदार बनाएगा।

एक पहलू और है जिसको कहे बिना बात पूरी नहीं की जा सकती है। कुछ संगठनों ने सूचना कानून का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया है। उनके द्वारा अर्जित सूचना का समाज और पत्रकारिता, दोनों को ही लाभ मिला है। कई अहम बातें अखबारों, टेलीविजन के जरिए लोगों के सामने आई हैं। पर एक बात जो चिंताजनक हो सकती है वो है संगठनों या लोगों में सूचना के जरिए प्रसिद्धि या प्रचार पाने की निजी होड़। ऐसा करने से सूचना तो लोगों के बीच आती रहेंगी पर ऐसा करने वाले सूचना को सामने लाने तक ही ज्यादा केंद्रित रहेंगे, सूचना के इस्तेमाल पर ध्यान कम दिया जाएगा जो कि उचित नहीं है। संगठनों में ऐसी स्थिति पैदा होने की सूरत में सूचनाओं के जरिए अपने काम और नाम को मीडिया की मदद से प्रसारित कराने में ज्यादा वक्त खर्च होगा, सूचनाओं को लेकर लोगों के बीच काम करने पर कम।

ऐसे में अच्छा यह होगा कि कुछ संगठन या कुछ लोग ऐसे भी सामने आएं जो शुद्ध रूप से सूचना का अधिकार कानून और इसके इस्तेमाल से मिलने वाली जानकारी के प्रचार प्रसार पर काम करें। लोगों के बीच मुद्दों पर काम कर रहे संगठनों को ऐसे संगठनों की जानकारियों से मदद मिल सकती है। सूचना के प्रचार-प्रसार पर काम कर रहे एक पत्रकार और पत्रिका का ज़िक्र मैं यहां जरूर करना चाहूंगा। वरिष्ठ पत्रकार भरत डोगरा का लेखन और भीलवाड़ा राजस्थान के भंवर मेघवंशी का डायमंड इंडिया नाम की पत्रिका के जरिए प्रयास खासा अनुकरणीय है।

(लेखक दिल्ली में बीबीसी संवाददाता हैं)

सूचना का अधिकार- पूर्ण स्वराज की तरफ़ एक कदम

अनिल दुबे

14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि, संसद भवन नई दिल्ली। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू देश को संबोधित कर रहे थे- हमने भाग्य की देवी से एक वादा किया था।
3 जुलाई 2006 की सुबह मैं राजस्थान के एक पिछडे़ जिले करौली पहुंचा था। मैं निकला था राजस्थान के गांवों में चल रहे नरेगा की दशा और दिशा दिखाने। विकास पत्राकारिता में यह मेरा दूसरा कदम था। मैं इससे पहले बुंदेलखंड के इलाके में नरेगा के कामों की रिपोर्टिंग कर चुका था। तमाम दावों के बावजूद वहां महोबा, बांदा और हमीरपुर जैसे इलाकों में स्थिति सुधरती हुई नहीं दिख रही थी। झुर्रिओं से भरे चेहरे हमारी तरफ एकटक खामोशी से बस यूं ही देखते रह जाते। हम बात करना चाहते लेकिन उनके होठों से शब्द नहीं निकलते। महोबा ब्लॉक में हालात बदतर थे। नरेगा के तहत तालाब खोदने का काम शुरू किया गया था। (यह जून का पहला सप्ताह था) गर्मी के दिनों में वहां से भारी पलायन शुरू हो जाता था, लेकिन इस साल कुछ लोग गांव में रुक गए थे। प्रधान और बीडीओ ने गांव में काम दिलाने का वायदा किया था। जब हम तालाब की जगह पहुंचे तो देखा कि कैसे छोटे-छोटे बच्चे जिनकी उम्र बमुश्किल 10-11 साल होगी, फावड़ा चला रहे हैं। मिट्टी ढोकर ले जा रहे हैं और फेंक रहे हैं। जब मैंने उनके पूछा कि कितना पैसा मिलता है तो उन्होंने बताया कि 30 रूपये। एक तो बाल मजदूरी और उस पर इतनी धूप में बड़ों की तरह ही पसीना बहाने के बावजूद आधा मेहनताना। हमने और भी लोगों से बात की। जॉब कार्ड, मस्टर रोल और भुगतान में बडे़ पैमाने पर अनियमितता बरती गई थी। उस समय सूचना का अधिकार लागू हो चुका था। मैंने लोगों से सूचना के अधिकार के तहत आवेदन कर अपने हक की लड़ाई लड़ने की सलाह दी। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ जब लोगों ने मुझसे पूछा ये आरटीआई क्या है?

एक महीने बाद मैं राजस्थान के करौली में था। करौली प्रखंड में नरेगा के तहत खुद रहे तालाब पर लोगों से मिलने पहुंचा था। स्थिति बेहतर दिखी। काम करने वालों में अधिकतम महिलाएं थीं। वहां सबको पैसे भी ठीक से मिल रहे थे, लेकिन यह एक आदर्श स्थिति थी। मैं करौली में किसी को जानता नहीं था। और किसी से मिलने का समय भी नहीं मिल पा रहा था। इसलिए बीडीओ को साथ ले लिया और उन्होंने जिले की सबसे अच्छी साइट चुनी थी हमारी रिपोर्टिंग के लिए। मैं थोड़ा निराश हुआ लेकिन मैं गलती कर चुका था। हम वापस जिला मुख्यालय पहुंचे। मुझे नरेगा को लेकर डीएम से बात करनी थी। वहां पहुंचते ही सारा मामला खुल गया। करौली के पड़ोसी जिले ब्लॉक से करीब 40 लोग इकट्ठा हुए थे। वे लोग डीएम साहब से फरियाद करने आए थे। मानो अपने राजा से फरियाद कर रहे हों। हुजूर हमे बचा लो। हमारा प्रधान, असिसटेंट इजीनियर और बीडीओ मिले हुए हैं। हमारे सभी जॉब कार्ड प्रधान ने अपने पास जमा करा लिए हैं और एई कहता है कि यदि तुमको पूरी मजदूरी चाहिए तो प्रति व्यक्ति 20 रुपये जमा करो। नहीं तो पूरी खंती का पैसा नहीं मिलेगा। डीएम साहब ने भी उसी अंदाज में अपना एक हाथ उठाकर लोगों को शांत किया और लोगों को मामले की जांच का आश्वासन देकर उनको चलता किया। मैंने लोगों को रुकने का इशारा किया और डीएम साहब के केबिन की तरफ बढ़ा। वहां बैठे शख्स ने डीएम से मुलाकात कराई। वहीं वे बीडीओ थे जिस पर आरोप लगे थे। मैंने उनसे पूछा कि माजरा क्या है? उन्होंने कहा- सब कामचोर हैं। खंती पूरा नहीं कराते और पूरी मजदूरी भी चाहिए। मजदूरी काट ली थी इसीलिए भागे-भागे आए।
डीएम ने ठहाका लगाते हुए तीन चाय का ऑर्डर अपने अर्दली को पास कर दिया।

मैं जब बाहर आया तो देखा कि लोग एक स्टॉल को घेरकर खडे़ हैं। मैंने नजदीक जाकर देखा तो स्टॉल घूस को घूंसा कैंपेन का हिस्सा था। वहां बैठे सामाजिक कार्यकर्ता लोगों को सूचना के कानून के तहत आवेदन लिखा रहे थे। लोगों को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि एक आवेदन चीजें बदलेगी। एक आदमी बोल रहा था- आपसे जो 20 रूपया एई मांग रहा था उसी में से 10 रूपया खर्च करें। आरटीआई के तहत आवेदन करो सवाल पूछो अपने मेहनताने के बारे में, मस्टर रोल के बारे में। सवाल पूछो। इतना सब कुछ किया कुछ नहीं हुआ आजतक। यह भी कर लो। 20 लोगों के आवेदन बने और जमा होने चल पडे़। डीएम साहब के ना नुकुर के बाद आवेदन जमा हो गए। उन्होंने सब कुछ ठीक कराने का भरोसा दिलाया। पिछली बार जिलाधिकारी ने देख लेने का आश्वासन दिया था, लेकिन चेहरे पर माखौल उड़ाने का भाव था। इस बार वह सब कुछ ठीक कराने का भरोसा दे रहे थे लेकिन चेहरे पर परेशानी और चिंता के भाव थे। ग्रामीणों की आंखों में उम्मीद की किरण थी। ये कमाल आरटीआई का था।

हम जैसे-जैसे राजस्थान के दूसरों जिलों में आगे बढ़े उम्मीद की किरणें सच्चाई में तब्दील होती नजर आई। आत्मविश्वास बढ़ता नजर आया। बंसवाडा, झालावाड, डूंगरपुर, उदयपुर, सिरोही......
लोगों को सरकारी अधिकारियों की आंखों में आंखें डालकर बातें करना कुछ और ही इशारा कर रहा था। दिल्ली लौटते-लौटते मैं सोच चुका था यदि मौका मिलेगा तो अब से उन आंखों की कहानी लोगों को सुनाउंगा। जो आंखे डर से सहमी हुई नहीं दिखतीं आत्मविश्वास से लबरेज दिखती हैं। मैं उन लोगों की कहानी सुनाऊंगा जो हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहते बल्कि अपनी तकदीर खुद लिखने के लिए ऐसा हथियार उठाते हैं जिसकी हर चोट हमारी इस शासन व्यवस्था में लोकतंत्र की एक और कील मजबूती से ठोक देती है। और वह हथियार होता है- सूचना का अधिकार कानून।

जब मैं लौटा तो पता चला कि सूचना का अधिकार कानून पर कोई कार्यक्रम शुरू कराने की बात चल रही है। मैंने राजस्थान के अपने अनुभव बांटे। उस प्रोग्राम की टीम में शामिल होने का प्रस्ताव मुझे मिला। मैंने तुंरत हां कर दी। फ़िर क्या था, शुरू हुआ जानने के हक का सफर। (जो आज 110 एपिसोड पार कर चुका है)
हमने देश के कोने-कोने से सफलता की कहानियां उठाईं और इस प्रोग्राम में दिखाईं। लोगों को रिस्पोंस जबरदस्त था। उनके कॉल आने शुरू हुए जिसका सिलसिला आज तक जारी है। हर सप्ताह करीब 17-18 राज्यों से फोन कॉल आते हैं। तय करना मुश्किल होता है कि कौन-कौन से राज्य को एक एपिसोड में शामिल करें।
देश भर में घूम-घूम कर आरटीआई की स्टोरी कवर करने के दौरान जितने भी लोगों से मिला उन सबके चेहरे मुझे आज तक याद हैं। चाहे वे सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड के गांव में राशन को तरस रहे रामअवतार की कहानी हो या नागापटि्टनम में सुनामी में अपने पूरे परिवार को खो चुकी मेघला की कहानी। सबकी कहानी एक-सी है बस चेहरे बदल जाते हैं। कहानी फिल्मों सी ही हैं लेकिन इसमें हीरो आरटीआई है जो सबको सरकारी अधिकारियों, ग्राम प्रधानों से परेशान जनता को उनका हक दिलाता है।

हमने रिपोर्टिंग करते हुए देखा कि जो लोग कल तक डीएम और बीडीओ के दफतर तक नहीं पहुंच पाते थे वो आज उन्हीं से सवाल पूछ रहे हैं। अपने राशन कार्ड के बारे में, अपने बीपीएल कार्ड के बारे में, इंदिरा आवास के तहत मिलने वाले अपने घर के बारे में, पीने के साफ पानी के बारे में, अपने जंगलों के बारे में, विस्थापन के बाद पुनर्वास के बारे में। लोगों को यह महसूस होने लगा है कि यह सरकार हमारे पैसों पर चलती है। इस कानून की पहुंच का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां सरकारी मशीनरी नहीं पहुंच पा रही है वहां भी यह कानून पहुंच चुका है और लोगों को उनका हक दिला रहा है। छत्तीसगढ़, झारखंड और उडीसा में कुछ ऐसे इलाकों में सूचना का अधिकार कानून स्वराज का पाठ पढ़ा रहा है जो पूरी तरह से नक्सली प्रभावित हैं। संभलपुर के राधखोल ब्लॉक में जंगल के अंदर नदी पार कर (उस नदी पर पुल नहीं है) और तीन किमी अंदर चलकर हम एक गांव में पहुंचे थे। मेरे साथ थे सामाजिक कार्यकर्ता कल्याण आनंद। एक गांव में उडिया में लिखा था-हमारा पैसा हमारा हिसाब। आनंद कह रहे थे- हमें आजाद हुए साठ साल से ज्यादा हो गए लेकिन अभी पूरी आजादी नहीं मिली है। सही मायने में लोकतंत्र नहीं आया है। जब तक निर्णय लेने की पूरी प्रक्रिया में गांव के लोगों की हिस्सेदारी नहीं होगी, लोकतंत्र की बात करना बेमानी है। हमने जानना चाहा आखिर क्या रास्ता हो सकता है तो आनंद ने कहा आरटीआई।

मेरे कानों में प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के वो शब्द कोनों में गूंज उठे जब उन्होंने 1929 में लाहौर में रावी नदी के तट पर खडे़ होकर शपथ ली थी-जब तक हमें पूर्ण स्वराज नहीं मिल जाता... क्या हुआ? मिला पूर्ण स्वराज? आनंद की बात कानों में गूंजती है... लोकतंत्र की बात करना बेमानी है अभी.... आरटीआई एक रास्ता हो सकता है वहां तक पहुंचने के लिए.....

(लेखक डीडी न्यूज में एंकर एवं संवाददाता हैं)

भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का अचूक हथियार है आरटीआई

सत्य प्रकाश

मैं सूचना के अधिकार के बारे में पिछले तीन सालों से लगातार एक पत्रकार के रूप में लगभग 20 से ज्यादा खबर एवं प्रेस कांन्पफ्रेंस में शामिल हुआ। मैं लगातार ये देखता आया कि अभी इस कानून का बडे़ शहरों में प्रयोग ज्यादा हो रहा है। और अगर हम इस कानून का प्रयोग अपने क्षेत्र जो एक ऐसा गांव है, में करें तो भ्रष्टाचार पर काफ़ी हद तक लगाम लगाई जा सकती है। एक ऐसा गांव जहां आज भी आजादी के 60 बरस बाद लोगों को ये नहीं पता कि हमारा अधिकार क्या है? जहां एक डी दर्जे के सरकारी कर्मचारी को देखकर लोगों को लगता है कि वो एक बहुत ज्ञानी व्यक्ति है। अगर अस्पताल है तो डॉक्टर गायब, स्कूल है तो बच्चे जरूर हैं पर मास्टर पढ़ाने के बजाय अपने काम में व्यस्त, अगर ब्लॉक है तो कर्मचारी अपना काम कम समय ज्यादा ले रहा है। हद तो तब हो गई जब लोगों ने सरकारी जमीन को कौड़ी के भाव में बेचना शुरू कर दिया। सरकारी आवास के नाम पर निजी घर बनना शुरू हो गया। वोटर कार्ड के लिए लोगों से पैसा वसूला जाने लगा।

अगस्त 2008 में मैंने सूचना के अधिकार के तहत खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) से जानना चाहा कि ग्राम चलकुशा, थाना बरकट्ठा हजारीबाग में बन रहे समुदाय भवन का निर्माण किनकी स्वीकृति से हो रहा है तथा किस मीटिंग में ये फैसला लिया गया था कि यहां पंचायत भवन बनना चाहिए। गांव के कितने लोग उस मीटिंग में शामिल हुए। पर जो जवाब मिला, बड़ा चौंकाने वाला था। मीटिंग ऐसी हुई जिसमें गांव के एक-एक परिवार के 5 सदस्यों ने दस्तखत किया। कितना खर्च लगेगा इसका कोई जवाब नहीं। रांची से वास्तुकार को बुलाया गया, पर जो मटैरियल इस्तेमाल हो रहा है, वो दिए गए जवाब से बिल्कुल विपरीत। फिलहाल आरटीआई डालने के बाद काम तक रुक गया है। मैं तो ये सोच रहा था कि सरकारी विभाग अब इस काम को पूरी लगन से करेगा। उस पर से पूछने पर जवाब ये मिलता है कि ये सब विकास में बाधा का काम है। अगर विकास में आरटीआई बाधा है तो फ़िर आरटीआई जैसे कानून को ये सोचकर फाइल में बंद कर देना चाहिए।

दूसरा आरटीआई आवेदन मैंने अक्टूबर, 2008 में हजारीबाग जिला शिक्षा विभाग में डालकर जिले में शिक्षा के ऊपर कितना फंड, किस-किस स्कूल, नाम पता तथा कल्चरल, खेल पर किए गए खर्च का जवाब मांगा। मैं गलती से 10 रूपये का आवेदन शुल्क जमा कराना भूल गया था। जवाब में शिक्षा विभाग, हजारीबाग से पहले फीस जमा कराने को कहा गया। फीस मैंने 11 नवंबर 2008 को जमा कर दी। आवेदन में मांगी गई सूचना के लिए मैं इंतजार कर रहा हूं।

(लेखक दैनिक जागरण से जुडे़ हैं)

एक स्वर में उठती आवाज़

सिद्धार्थ पाण्डेय

खोजी पत्रकार और बहुत बार विवादास्पद विषयों को कवर करने के कारण मुझे मनुष्य की प्रकृति के काले पक्ष को देखने का मौका मिला। कुछ रिपोर्टों में मेरा सीधा टकराव व्यवस्था, लोगों के स्वार्थ और कुबेरपतियों से हुआ जो सच को खरीद सकते थे या अपने राह के रोडे़ को आसानी से किनारे कर सकते थे। बहुत लोगों ने मुझसे कहा कि जब लहरों के साथ बहना आसान है तो तुम धारा के विपरीत जाने का प्रयास क्यों करते हो। मेरे हिसाब से इसका जवाब हो सकता है कि बहुत बार मीडिया अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे करोड़ों लोगों की आखिरी आशा होती है। बहुत से जिन्हें हल्के में ले लेते हैं, उनके लिए मीडिया आशा की अंतिम किरण है। बडे़ शहरों की जगमगाहट से कुछ दूरी पर एक अलग तरह का भारत बसता है जहां जीवन की सामान्य गति से जीने वाला एक मासूम और एक बर्बर और असभ्य विश्व मिश्रित रूप से रहता है। देश की राजधानी में बीआरटी बस कॉरिडोर चुनावों के समय प्रमुख मुद्दा हो सकता है। लेकिन ग्रामीण भारत में विषय अधिक मूल हैं। वहां स्थानीय स्कूल में शिक्षक की नियुक्ति, पीने का पानी या स्वास्थ्य की मूलभूल सुविधाओं की लड़ाई शामिल जैसे विषय अहम है।

बहरहाल विभाजन और विभिन्नताएं बहुत वास्तविक हैं और हमेशा से समाज में रही हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में यात्रा के दौरान मैंने निरा अंध्कार, दरिद्रता और लोगों के लालच को प्रत्यक्ष देखा। यह भी पाया कि देश में लोगों के बीच एक अलग तरह की जागृति भी आ रही है जो पहले इतने संगठित रूप में एक सामान्य उद्देश्य के लिए कभी देखने को नहीं मिली। आज गरीब-अमीर, सभी धर्म , जाति, सम्प्रदाय के लोग एक स्वर में बदलाव की मांग कर रहे हैं और अपने शासकों से जवाब चाह रहे हैं। आज देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा युवाओं का है। अधीर माने जाने वाले इस वर्ग ने लोगों की आवाज को आगे बढ़ाया है और अपने राजनेताओं से जवाब मांगा है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में नागरिकों के अधिकार के लिए शायद इस तरह की जागृति सूचना के अधिकार कानून के लिए दिखाई दी, जिसे तीन साल पहले बनाया गया था। सामान्य नागरिकों के दो दशकों के संघर्ष के बाद यह कानून बना। इस संघर्ष में अधिकतर वो लोग शामिल थे जिनके शरीर में एक कमीज से थोड़ा ज्यादा कपड़ा था। बहुतों ने सैकड़ों मील की यात्रा की, रैलियां कीं और इस कानून के लिए अभियान चलाए। यह उन्हीं लोगों का प्रतिबिंब है जो अब बेहतर जीवन के लिए परिवर्तन की मांग कर रहा है। शायद यह एक नए भारत का अहम मोड़ है, जिसमें लोग परिवर्तन और जवाबदेही के लिए शासन के उत्तरदायी लोगों से सफलता पूर्वक कानून का इस्तेमाल कर जवाब मांगे।

आज इस कानून की विडंबना यह है कि जिन पर लाल फीताशाही के एजेन्ट और सूचना देने में आनाकानी के आरोप लगते रहे हैं, वही इस कानून का सबसे अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। शायद इनमें से बहुत लोगों ने कानून के लागू न होने के लिए षडयंत्र भी रचे। कानून बनने के एक साल बाद ही इसे कमजोर करने के लिए सरकार की तरफ से संशोधन का प्रस्ताव आया। इसके विरोध में कार्यकर्ताओं और देश भर के नागरिकों ने हाथ से हाथ मिलाकर इस मौलिक अधिकार के संशोधन का विरोध किया। शहरों में कॉलेज के विद्यार्थी, बॉलीवुड स्टार, रॉक बैंड और पूरे देश में लोग कंधे से कन्धा मिलाकर इसके विरोध में खडे़ दिखे। अंतत: सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा और कानून की मूल आत्मा और ताकत बरकरार रही।

उस समय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा के सांसद रॉबर्ट खारसींग की बैठक मुझे याद है। वे जंतर मंतर में कानून का विरोध कर रहे लोगों का साथ देने त्रिणमूल कांग्रेस के सांसद दिनेश त्रिवेदी के साथ आए थे। सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक होने के बावजूद उन्होंनें कहा- मैं उस कानून का विरोध कैसे कर सकता हूं, जिसने लोगों को राशन कार्ड, जीवन और मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने में मदद की है। मेरी चेतना उस कानून का विरोध कैसे कर सकती है जिसने समाज के आखिरी पायदान पर खडे़ लोगों को उनके मूल मानवीय अधिकारों का प्राप्त करने की आस बंधाई है। एक ऐसा कानून जिसने कुछ चीजें ऐसी की हैं जिन्हें सांसद के रूप में मैं नहीं कर सकता था।

आज कानून बनने के तीन साल बाद जिन लोगों ने इसका इस्तेमाल करके खुद को लाल फीताशाही से मुक्त करने का प्रयास किया है, उनकी संख्या में काफी इजाफा हुआ है। इन्होंने नए भारत लोगों के साथ मिलकर सतर्कता से परिवर्तन लाने वाले इस कानून को कमजोर करने के प्रयास का विरोध किया है। सूचना के अधिकार ने उम्मीदों के दरवाजे खोले हैं और नागरिक अब सतर्कता के साथ सरकार पर नजर रखे हैं।

(लेखक एनडीटीवी से जुडे़ हैं)

न्यूज चैनल में आरटीआई रिपोर्टर!

शशि शेखर

हो सकता है कि इस लेख का शीर्षक पढ़कर आप थोडे़ आश्चर्य में पड़ गए हों कि आखिर ये आरटीआई रिपोर्टर क्या बला है? लेकिन सच कहता हूं, मैं शायद भारतीय मीडिया का पहला ऐसा रिपोर्टर था जिसे आरटीआई कवर करने और साथ ही इसका इस्तेमाल कर खबर निकालने के लिए रखा गया। कहा जा सकता है कि पहली बार आरटीआई को एक बड़ी बीट के रूप में मानते हुए एक रिपोर्टर को पूर्णकालिक जिम्मेदारी दी गई।
अक्टूबर 2007 की बात है। इंडिया न्यूज के नाम से एक चैनल की लांचिग की तैयारी चल रही थी। तब मैं अपना पन्ना मैगजीन में सहायक संपादक की हैसियत से काम कर रहा था। आरटीआई की पृष्ठभूमि से वाकिफ था। सो चैनल में नियुक्ति प्रक्रिया देख रहे अजीत द्विवेदी जी ने आरटीआई पर काम करने के लिए मेरा चयन कर लिया। और जब मैनें उनसे पूछा कि मेरा पदनाम क्या होगा तो उन्होंने बताया- आरटीआई रिपोर्टर। तब मैं भी यह सुनकर चौंका था। बहरहाल इलेक्ट्रोनिक मीडिया में पहली नौकरी मिल रही थी, सो ज्यादा सवाल जवाब करना ठीक नहीं समझा। मैने काम करना शुरू किया और पहले ही दिन अजीत द्विवेदी ने मेरे हाथों में 3-4 मोटी फाइलें पकड़ा दीं। देखा, इसमें करीब 20-25 आरटीआई आवेदन और उनके जवाब में मिली सूचना की फाइल थी। सारे आवेदन खुद द्विवेजी जी के नाम से थे और 2-3 माह पुराने भी। मतलब साफ था कि द्विवेजी जी ने इस चैनल मे आरटीआई को महत्वपूर्ण दर्जा देने की तैयारी बहुत पहले से ही कर रखी थी। और शायद इसी का नतीजा था कि मुझे उन्होंने आरटीआई पर काम करने को चुना भी।
बहरहाल, मैनें भी अपने बीट पर जोर-शोर से काम करना शुरू कर दिया। अलग-अलग मुद्दों पर रोज 2-3 आरटीआई आवेदन तैयार करता, उसे पोस्ट करता। इसमें मेरे पूर्व संस्था के सहयोगियों का भी खूब सहयोग मिला। चूंकि चैनल लांच होने में 2-3 महीने का समय था, सो इस बीच जमकर आरटीआई आवेदन बनाया गया। 1-2 महीने में इसका नतीजा भी सामने आने लगा। चैनल शुरू होने से पहले ही हमारे पास काफी संख्या में एक्सक्लूसिव स्टोरीज इकट्ठी हो गई थीं। चैनल ऑन एयर होने के पहले ही सप्ताह में हमने उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती पर एक जोरदार स्टोरी की। मामला सरकारी पैसे पर दिल्ली के एक फाईव स्टार होटल में पार्टी का था। हालांकि इस बात का थोड़ा दुख भी होता है कि इतनी अच्छी स्टोरी तब चला दी गई जब हमारे चैनल की रीच बहुत ही कम थी। फ़िर इसके बाद अफसल पर भी एक बेहतरीन स्टोरी हुई। कह सकते हैं कि यह स्टोरी आरटीआई की सहायता से ही ब्रेक हुई। मामला अफजल की क्षमा याचिका से सम्बंधित था, जो दो सालों से दिल्ली सरकार के पास पेंडिंग है। बाद में यह खबर कई अखबार में प्रमुखता से छपी। लेकिन उस वक्त भी चैनल की रीच बहुत कम होने की वजह से यह खबर लोगों के ध्यान में नहीं आ पाई।
खैर ये तो आरटीआई से एक्सक्लूसिव स्टोरीज मिलने की बात है। लेकिन आरटीआई पर काम करना किसी चुनौती से भी कम नहीं। एक तो ये टाईम टेंकिग प्रोसेस है, फ़िर कई बार सरकारी अधिकारियों और बाबुओं की लालफीताशाही इसे और भी जटिल बना देती है। इसके लिए दो उदाहरण देना चाहूंगा।
गोवा पुलिस पिछले 6 महीने से मेरे पास एक पत्र लगातार भेज रही है, जिसमें मुझसे लगातार कहा जाता है कि एक पेज की सूचना लेने के लिए मैं पणजी स्थित उनके कार्यालय में पहुचूं या फ़िर दो रूपये का डिमांड ड्राफ्ट बना कर भेजूं। खास बात यह है कि ये पत्र दिल्ली स्थित एक पुलिस स्टेशन के सिपाहियों के माध्यम से मेरे पास तक पहुंचता है। जो एक तरह से मुझपर दबाव डालते हैं कि मैं सूचना क्यों नहीं लेता। एक बार छुट्टी के दिन भी मुझे पुलिस स्टेशन जाकर वह पत्र रिसीव करना पड़ा था। अब आप ही बताएं कि जब गोवा पुलिस इस तरह के पत्राचार पर सैकड़ों रूपये खर्च कर सकती है तो क्या वो एक पेज की सूचना सीधे सीधे मेरे पास नहीं भेज सकती। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार और दिल्ली मेट्रो रेल ने सूचना देने के एवज में मुझसे क्रमश: 36 हजार और 1200 रूपये की मांग की। कई विभागों ने तो सूचना देने के बजाय मुझसे यहां तक पूछा कि आपका ये सूचना क्यों चाहिए और आपके पास अमुक डाक्यूमेंट कहां से आए।

बहरहाल, जैसे हरेक कानून की अपनी पेचिदगियां होती हैं, आरटीआई कानून को भी पेचीदा बनाने की भरपूर सरकारी कोशिश की जाती रही है। लेकिन न्यूज चैनल और आरटीआई के बीच के संबंध को इस साल में मैंने जितना समझ पाया है, उससे यह साबित हो जाता है कि न्यूज चैनल आरटीआई से खबर तो लेना चाहता है लेकिन आरटीआई कानून की खबर लेना उसके एजेंडे में शामिल नही है। कई बार मेरे पास ऐसी खबरें आईं जिसमें सरेआम इस कानून की धज्जियाँ उडाई गई थी। लेकिन चैनल इसे हर बार एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग के कसौटी पर कसता था। जाहिर है, इस कसौटी पर वैसी खबरें टिकती नहीं थीं। कई बार दुखी मन से वैसी खबरों या पीड़ित पक्ष को समझा बुझाकर वापस भेजना पड़ता था। मेरी इतनी हैसियत तो थी नहीं कि मैं अपने बॉस को समझाउ कि हथियार के कारगर उपयोग के लिए हथियार के देखभाल की भी जरूरत होती है।

(लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं)

एक्सक्लूसिव न्यूज मिलती है सूचना के अधिकार से

विभव कुमार

मई 2008 में एनडीटीवी के एनसीआर चैनल पर सूचना के अधिकार पर आधारित एक साप्ताहिक प्रोग्राम शुरु किया गया, जिसमें उन कहानियों को दिखाया जाता है और उस पर चर्चा की जाती है जहां सूचना के अधिकार के इस्तेमाल करने से परिस्थितियां बदल गई हों। प्रोग्राम का नाम है `फाइट फॉर योर राईट्स`। किसी निजी टीवी चैनल द्वारा सूचना के अधिकार के प्रचार प्रसार के लिए एक घंटे का साप्ताहिक प्रोग्राम दिखाया जाना अपने आप में एक ऐतिहासिक कदम है। लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि इस प्रोग्राम के एंकर हैं अरविंद केजरिवाल। मुझे ये जिम्मेदारी दी गई कि प्रोग्राम के लिए आवश्यक कंटेंट इकट्ठी करने के लिए दिल्ली के विभिन्न विभागों में सूचना के अधिकार का आवेदन करूं।

हमने दिल्ली की अलग अलग कॉलोनियों के पिछले तीन सालों में दिल्ली नगर निगम द्वारा कराये गये विकास कार्यों का विवरण सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त किया। इन सूचनाओं को हम सम्बंधित कॉलोनी के निवासियों, सम्बंधित अधिकारियों तथा जन जन प्रतिनिधियों के बीच इसे रखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में मैने देखा कि प्रोग्राम के प्रसारण के बाद दिल्ली के अन्य भागों से भी लोग हमसे संपर्क करने लगे। वो भी अपनी कॉलोनी के विकास कार्यों से सम्बंधित सूचनाएं निकालना चाहते है। इससे हमारा उत्साह और भी बढा। पहले एपीसोड के बाद हमें बताया गया कि एनसीआर चैनलों पर प्रसारित होने वाले प्रोग्रामों की होड में फाइट फॉर योर राईट्स पहले नंबर पर पहुंच गया है।

शुरुआती एक दो एपिसोड में तो एमसीडी के अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों को बुलाने में कोई खास परेशानी नहीं हुई, लेकिन तीसरा एपिसोड जिसकी रिकॉर्डिंग पूर्वी दिल्ली के सुंदर नगरी में की गई वहां के इंजीनियर ने आखिरी समय में आने से मना कर दिया। सबसे ज्यादा परेशानी तो राजेंद्र नगर में हुई। रिकॉर्डिंग की सारी तैयारी हो जाने के बाद वहां के इंजीनियर, निगम पार्षद और विधायक सभी ने आने से मना कर दिया क्योंकि वहां के कामों में सबसे ज्यादा गडबडियां पकडी गई थीं। साथ ही विधायक ने अपने लोगों को भेज कर रिकॉर्डिंग के बीच में ही हंगामा खडा कर दिया। बडी मशक्कत के बाद किसी तरह रिकॉर्डिंग पूरी की गई।
इसी तरह दिल्ली से गायब हो रहे बच्चों की खतरनाक तरीके से बढ़ती संख्या और इस मामले में दिल्ली पुलिस की नाकामयाबी को लेकर जो प्रोग्राम किया गया उसमें दिल्ली सरकार तथा केंद्र सरकार की ओर से कोई नहीं आया। किसी तरह आखिरी समय में दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता राजन भगत फोन पर बातचीत करने को तैयार हुए।
मेरे समझ में नहीं आ रहा कि जो नेता मीडिया का अटेंशन पाने के लिए अजीबो गरीब हरकतें करते रहते हैं वही सूचना के अधिकार का नाम सुनते ही बहाने बाजी क्यों शुरु कर देते हैं? भलस्वा जहांगीरपुरी से कांग्रेस के विधायक, जिनको इस बार टिकट नहीं मिल पाया है, ने यहां तक कह दिया कि आप और किसी प्रोग्राम में बुला लीजिए लेकिन इस बार माफ कर दीजिए। बाद में दिल्ली नगर निगम के कुछ अधिकारियों ने बताया कि सूचना के अधिकार से निकली गडबड़ियों के संबंध में अरविंद जिस तरह से सवाल पूछते है उसका कोई जवाब तो होता नहीं। अधिकारी और नेता इन सवालों से बचने के लिए कार्यक्रम में आने से ही मना कर देते हैं। लेकिन इन सब के बावजूद डॉ। हर्ष वर्धन एक ऐसे नेता हैं जिन्हे हमने जब भी बुलाया वो आये और ना सिर्फ सरकार की बल्कि अपनी पार्टी की नीतियों पर भी बेबाक टिप्पणियां कीं।

प्रोग्राम को मिल रही लोकप्रियता को देखते हुए हमने कुछ एपिसोड दिल्ली के विधान सभा चुनावों को ध्यान में रख कर बनाए। इसके लिए कुछ विधायकों द्वारा उनके विकास निधि से बनी सड़कों में प्रयोग की गई सामग्री के नमूने सूचना के अधिकार के तहत उठाये और उनकी जांच श्री राम लेबोरेटरी में कराई। चौकाने वाला तथ्य यह है कि उठाये गये 12 नमूनों में एक भी पास नहीं हो सका। इन नमूनों को उठाने के लिए मैने दिल्ली नगर निगम में सूचना के अधिकार का आवेदन किया। मेरे आवेदन करने के दूसरे ही दिन दिल्ली नगर निगम के एक जूनियर इंजीनियर का फोन आया कि आपको जो भी सूचना चाहिए ऐसे ही ले जाइये सूचना के अधिकार का आवेदन करने की क्या आवश्यकता है। मैने सोचा चलो यहां तो नमूने आसानी से मिल जायेंगे। लेकिन जब हमलोग उनके ऑफिस में पहुंचे तो उनका रंग ही बदला हुआ था, पहले तो उन्होंने इधर उधर की ढेर सारी समस्याएं बताई कि वो कितनी विषम परिस्थितियों में काम करतें हैं। फ़िर हमे ऑफर दिया कि जो सूचनाएं चाहिए ले जाइए लेकिन नमूना मत उठाइये। काफी बहस के बाद मैने ये प्रस्ताव रखा कि आप हमें वो सड़क बता दें जो आपके हिसाब से सबसे बढ़िया बनी है हम उसी सड़क का नमूना उठा लेंगें। इस पर उनका जवाब सुनकर मैं दंग रह गया। उनके अनुसार पूरी दिल्ली में किसी भी सड़क का नमूना पास नहीं हो सकता। किसी तरह उन्हें समझा बुझा कर हमने नमूना तो उठा लिया, लेकिन इसके लिए उन्होंने हमसे यह आश्वासन लिया कि नमूने फेल होने पर हम आगे कोई कारवाई नहीं करेंगे और हमसे ये वादा किया अब आगे वो कभी भी इस तरह की गलती नहीं करेंगे। इस तरह की कई और भी घटनाएं होती रहीं। एक बार तो हमारे एक साथी के घर एक राशन दुकानदार 50000 रुपये कैश लेकर पहुंच गया कि इसे रख लीजिए लेकिन सूचना के अधिकार के तहत कोई सूचना मत मांगिए। उसका ऑफर था कि ये तो शुरुआत है, यदि वो उनकी बात मान ले तो आगे भी उनकी सेवा करते रहेंगे।

इस तरह अब तक फाइट फॉर योर राईट्स के 27 एपिसोड प्रसारित किये जा चुके हैं। प्रत्येक एपीसोड अपने आप में एक्सक्लूसिव रहा है। इस नये प्रयोग से यह तो सिद्ध हो गया है कि अगर सूचना के अधिकार का प्रयोग करके कोई न्यूज निकाली जाती है तो वो एक्सक्लूसिव तो होती ही है साथ ही टीआरपी भी बढाती है।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है और एनडीटीवी से जुड़े हैं)

स्वतंत्र भारत का सबसे अनोखा कानून

चेतन चौहान

अक्टूबर 2005 में लागू होने के बाद सूचना के अधिकार कानून ने एक लंबा सफर तय किया है। नौकरशाहों के तमाम अडंगों के बावजूद सरकारी कार्यालयों में अब बेधड़क आरटीआई आवेदन जमा हो रहे हैं। इस कानून ने शासन की कार्यप्रणाली में बदलाव तो लाया ही है, साथ ही नौकरशाहों को भी अब एहसास हो गया है कि जनता उनकी कार्यप्रणाली पर उंगली उठा सकती है। पत्रकारीय बैठकों के दौरान कई नौकरशाहों ने मुझसे कहा कि आरटीआई के चलते वे अब फाइलों में लिखने से पहले दस बार सोचते हैं क्योंकि ये फाइलें अब जनता देख सकती है।
यह काफी दुखद है कि लगभग सभी नौकरशाहों के बीच आरटीआई को लेकर एक आम सहमति है कि यह कानून बेकार है और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश कई सारे नेता भी इससे सहमत दिख रहे हैं। लेकिन आरटीआई कार्यकर्ताओं और मीडिया को धन्यवाद, जो ऐसे नापाक इरादों को सपफल नहीं होने दे रहे हैं।
मैं अपने उन सभी पत्रकार साथियों को प्रशंसा करता हूं जो सरकारी विभागों से महत्वपूर्ण सूचनाएं एकत्र करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि हमेशा की तरह नौकरशाही रवैए के चलते मेरे लिए सूचना पाना कोई आसान काम नहीं रहा है। फ़िर भी, मीडिया में होने का फायदा मुझे मिला है जो आम नागरिकों को नहीं मिलता।
तीन साल पहले जब आरटीआई कानून लागू हुआ, मैंने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में दो आवेदन जमा किए। सिर्फ आवेदन जमा करने में मुझे एक दिन का समय लगा। कुछ इसी तरह का अनुभव मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ भी रहा। लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। मेरे विचार से आरटीआई आवेदन जमा करने का सबसे अच्छा तरीका है डाकघर का इस्तेमाल करना। इसमें 10 रूपये का आईपीओ लगाकर आवेदन को सीधे विभाग के पते पर पोस्ट कर दें। अब तक दो दर्जन से ज्यादा आवेदन मैने इसी तरह जमा किए हैं लेकिन इस प्रक्रिया की भी अपनी सीमा है। पहले तो आपको यह पता ही नहीं होता कि अमुक विभाग में आपका आवेदन पहुंचा भी है या नहीं क्योंकि अमूमन सरकारी विभाग इसका कोई जवाब नहीं देते। कुछ सरकारी विभाग मसलन, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार भवन ने आवेदन पहुंचने की जानकारी मुझे दी लेकिन योजना आयोग और सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय की तरह अन्य कई विभागों ने कभी भी इस तरह की जानकारी मुझे नहीं दी।
मेरे हिसाब से सरकारी विभागों में एक ऐसा तंत्र बनाया जाना चाहिए जिससे ईमेल के जरिए आरटीआई आवेदन जमा किए जा सकें और सूचना भी आवेदक को ईमेल के जरिए पहुंचाई जा सके। हालांकि यह अभी दूर की कौड़ी ही लगता है।
आरटीआई को लेकर जो मेरा अनुभव है उससे यही पता चलता है कि स्वतंत्र भारत में बने सभी कानूनों में यह कानून सबसे अनोखा है जिसने आम आदमी को सवाल पूछने की अद्भुत ताकत दी है। यहां तक की पत्रकारों को भी आरटीआई के तौर पर एक ऐसा हथियार मिला है जिसकी बदौलत नौकरशाहों के क्रियाकलापों पर सवाल उठाया जा सके।
एक बार मैंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय में मिड डे मील के बारे में सूचना मांगने के लिए एक आवेदन जमा किया। शुरू में अधिकारियों ने मुझे टालना चाहा लेकिन यह बताने पर कि समय पर सूचना नहीं देने के कारण उन्हें दंडित भी होना पड़ सकता है, समय पर जानकारी उपलब्ध करा दी गई। हालांकि यह सूचना इतनी ज्यादा थी कि मानो मुझ पर एक बोझ डाल दिया गया हो। अधिकारियों ने मुझसे सैकड़ों पृष्ठों की सूचना देने के बदले 10 हजार रूपये जमा कराने को कहा। जब मैंने सारी सूचनाएं सीडी, फ्लोपी, या डिस्क में मांगी तो उन्होंने फ़िर से आवेदन करने को कहा। मैंने ऐसा किया भी। फ़िर अगले 4 दिनों के बाद उन्होंने मुझसे 50 रूपये जमा करने को कहा। मेरे यह पूछने पर कि महज 50 रूपये जमा करने के लिए 4 दिन का समय क्यों लिया गया तो लोक सूचना अधिकारी ने जवाब दिया कि इसके लिए सचिव की अनुमति लेनी होती है। लेकिन सवाल ये उठता है कि जब कानून में इलेक्ट्रोनिक तरीके से सूचना उपलब्ध कराने की बात स्पष्ट है तो इसके लिए सचिव से अनुमति लेने की बात कहां तक जायज है। जबकि लोक सूचना अधिकारी मुझे सूचना उपलब्ध कराने के लिए ऑथराइज था।
यहां ये बताना भी महत्वपूर्ण है कि सूचना अधिकारी सूचना देने के लिए ऑथराइज तो है ही स्वतंत्र भी है। मतलब इसके लिए लोक सूचना अधिकारी को अपने वरिष्ठ अधिकारियों से अनुमति लेने की जरूरत नहीं। बावजूद इसके लगभग सभी सरकारी विभागों के लोक सूचना अधिकारी सूचना उपलब्ध कराने से पहले अपने वरिष्ठ अधिकारियों की अनुमति लेना कभी नहीं भूलते।
अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि लोक सूचना अधिकारियों को पूरी स्वायत्तता मिलनी चाहिए। साथ ही उनका एक अलग कैडर भी बनाया जाना चाहिए ताकि सूचना मुहैया कराने में कोई देरी न हो। इसके अलावा उन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण की भी जरूरत है।
दो मंत्रालयों के मेरे अनुभवों से यह साबित होता है कि जो सूचना अधिकारी जितनी जल्दी सूचना मुहैया कराता है उतनी ही जल्दी उसे पद से हटा भी दिया जाता है। परिणामस्वरूप नए सूचना अधिकारी को पुराने आरटीआई आवेदन के बारे में कोई जानकारी भी नहीं होती। नतीजा एक बार फ़िर बेवजह की देरी और अन्य परेशानियां। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को ऐसे आदेश जारी करने चाहिए जिससे सूचना अधिकारी का कार्यकाल तय किया जा सके।
मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है आरटीआई का इस्तेमाल। हम जितना ज्यादा कानून का इस्तेमाल करेंगे, उतना ही ज्यादा सरकार को जवाबदेह बना सकेंगे। लेकिन मैं यह भी कहना चाहूंगा कि आरटीआई कार्यकर्ता लोगों की व्यक्तिगत समस्याओं के लिए आरटीआई इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित न करें। यह कानून जन मुद्दों को सामने लाने के लिए बनाया गया है और इसका इस्तेमाल भी इसी के लिए होना चाहिए।

(लेखक हिन्दुस्तान टाइम्स से जुडे़ हैं)

आम लोगों का ब्रम्हाश्त्र है सूचना का अधिकार

रामजोशी

सूचना के अधिकार को मैनें निजी तौर पर अपने लिए इस्तेमाल नहीं किया है या यूं कह सकते हैं कि दुनियादारी के संघर्ष से अभी मेरा पाला नहीं पड़ा है। मगर इस कानून के बारे में मैनें बताया बहुत लोगों को है। कई जगह तो मैनें अपने साथियों के लिए इसका इस्तेमाल किया है। मजेदार बात यह है कि उसका असर भी तुरतपफुरत देखने को मिला।
मेरे एक मित्र सुजीत वाजपेयी को गाजियाबाद विकास प्राधिकरण में उन्हें अपने एक मकान की रजिस्ट्री करानी थी। पत्रकार होने के नाते हमें यह घमंड का था कि हमारा काम यूं ही हो जाएगा। लेकिन जब जीडीए के बाबुओं ने हमें नाच नचाया तो पत्रकारिता का सारा भूत ही उतर गया। काम भी न होय और उस पर ईमानदारी का चस्पा। सचिव से लेकर पुलिस इंस्पेक्टर तक ही सिफारिश लगवा डाली, मगर बाबू की बाबूगिरी के आगे सारे पानी भरते नजर आए। काफी भागदौड़ के बाद रजिस्ट्री हो गई। हमने चैन की सांस ली।
रजिस्ट्री के बाद पता चला कि हमने मकान की कुल कीमत से 32 हजार रूपये अधिक जमा करा दिए हैं। यह भी बाबू की ही करामात थी, क्योंकि कुल रकम का उस हिसाब बाबू ने खुद कई बार लगाया था। बाबू हमसे यहां भी पैसे ऐंठना चाहता था। अब बात आई ज्यादा जमा हो गई रकम को वापस लेने की। इस पर भी बाबू ने कई चक्कर कटवाए।
आखिर मैनें थक हारकर सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन तैयार किया और उक्त रकम के बारे में पूरी जानकारी मांग डाली। आरटीआई डालने के तीन दिन बाद बाबू का फोन आता है- भाई साहब आपने यह क्या किया। मैं तो खुद ही आपका चैक बनवाने के लिए भागदौड़ कर रहा था। आखिर में ठीक 15 दिन के बाद वाजपेयी जी को उनका चैक मिल गया। इसी तरह मैनें अपने एक मित्र को उनके पिता के लिए इलाज के दौरान एक अस्पताल द्वारा की गई लापरवाही के बारे में लापरवाही डलवाई। वह भी अपने संघर्ष में काफी हद तक कामयाब हो चुके हैं।

(लेखक दिल्ली प्रेस में उपसंपादक है)

जन सूचना अधिकार : एक अचूक हथियार

प्रदीप श्रीवास्तव

एक पत्रकार होने के नाते प्रतिदिन भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचारियों को करीब से देखने और जानने का मौका मिनता है। कार्यों को किस तरह टाल कर रिश्वत ली जाती है इसका एक उदाहरण देना चाहूंगा। गोरखपुर महानगर के एक व्यक्ति ने अपना मकान बनाने के लिए एक नक्शा पास कराने के लिए गोरखपुर विकास प्राधिकरण में आवेदन किया। नियम है कि यदि कोई आपत्ति नहीं है तो एक माह के भीतर नक्शा पास हो जाना चाहिए। यदि कोई आपत्ति है तो उसकी लिखित सूचना आवेदक को देना चाहिए लेकिन रिश्वत न मिलने के कारक एक साल तक न तो नक्शा पास किया गया और न ही इस बारे में आवेदक को कोई सूचना दी गयी। आवेदक ने अमर उजाला को अपनी पीड़ा से अवगत कराया।
मैने इस मामले की खोजबीन शुरू की तो मालूम पड़ा कि जिस क्षेत्र में नक्शा पास होना है उस क्षेत्र में उसकी आराजी नम्बर और उसी प्लाट के आस-पास के प्लाटों पर मकान बनाने के लिए आध दर्जन नक्शा पास कर दिया गया है। छह नक्शे पास हो गए तो सातवें पर आपत्ति क्या है, मैने जीडीए अधिकारियों से पूछा। काई अधिकारी ऑन द रिकार्ड कुछ बोलने को तैयार नहीं हुआ तो मैने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत नक्शा न पास होने का कारण पूछा। जीडीए ने उत्तर दिया कि उक्त भूमि का ले आउट स्वीकृत नहीं है इसलिए वहां नक्शा पास नहीं हो सकता है। इसके बाद मैने पूछा कि यदि ले आउट नहीं स्वीकृत है तो छह नक्शे पास कैसे हो गए। मैने अलग से पत्र तैयार किया और पूछा कि पास हुए छह नक्शों पर किन अधिकारियों के हस्ताक्षर हैं, किन नियमों के तहत उन्हें पास किया गया है और सातवें नक्शे को पास करने में उन नियमों का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है। मामला फंसता देख जन सूचना अधिकारी ने तय समय सीमा में कोई उत्तर नहीं दिया। मैने अपील की तो सुनवाई के बाद मुझे उत्तर देने को कहा गया लेकिन उत्तर देने के पहले नक्शे को पास कर दिया गया। बाद में मुझे उत्तर दिया गया। मेरी इस कवायद का फायदा यह हुआ कि उस क्षेत्र में जितने भी लोगों का नक्शा इस तरह से फंसा हुआ था वह सभी पास कर दिया गया और किसी से रिश्वत की मांग नहीं की गयी।
सूचना मांगने से पहले हमें शब्दों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि अधिकतर विभाग सूचना देने में आनाकानी करते हैं और शब्दों को अपने हिसाब से अर्थ लगाकार सूचनाएं नहीं देते हैं। कोशिश करें कि सूचना मांगने का पत्र लिखने से पहले किसी जानकार से समझ लें और सूचना न मिलने की दशा में अपील जरूर करें। यदि आप सूचना लेने की जिद कर लेंगे तो वह सूचना हर हाल में आपको उपलब्ध करायी जाएगी और आपका वाजिब काम किसी भी दशा में नहीं रूकेगा।

(लेखक अमर उजाला, गोरखपुर में वरिष्ठ उप संपादक हैं)

खबरों का अहम स्रोत है आरटीआई

सोनल कैलोग

सूचना के अधिकार का बनना देश और मीडिया के लिए अब तक का सबसे उत्कृष्ट कार्य रहा है। यह शासन में पारदर्शिता और जवाबदेयता लाया है। मीडिया और जन सामन्य को इसने सरकार से उनके कार्यों और उन पर किए गए खर्चों के बारे में सवाल पूछने का हक दिया है। सरकार से कुछ भी पूछने का हक दिया है।
मैनें शुरूआत से सूचना के अधिकार को कवर किया है इसलिए मैंने इसे शुरूआती अवस्था से वर्तमान अवस्था तक जब यह तीन वर्ष पूरे कर चुका है, ठीक से देखा है। इसका विस्तार अभी भी जारी है और जनता के बीच इसकी जागरूकता को श्रेय तमाम गैर सरकारी संगठनों और कार्यकर्ताओं को जाता है, जिनकी भूमिका इस कानून को बनाने में भी अहम रही थी।
सूचना के अधिकार को इस्तेमाल करने के मेरे व्यक्तिगत अनुभव काफी अच्छे रहे हैं। कानून के तहत मैंने जितनी भी सूचना मांगी है, उनके केवल एक को छोड़कर सभी का जवाब मिला है। मैंने सबसे पहले योजना आयोग से इसके उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के बारे में प्रश्न पूछे। मैंने पूछा था कि उन्होंने कितनी विदेश यात्राएं की हैं, उनका भुगतान किसने किया, यदि सरकार ने यात्राओं को भुगतान किया है तो इन यात्राओं पर कितना खर्च हुआ। मैंने उन अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के नामों की जानकारी भी मांगी थी जिसमें अहलुवालिया सदस्य हैं।
एक माह के भीतर मुझे साफ और विस्तृत जवाब मिल गया। प्राप्त जानकारी के आधार पर मैंने अपने अखबार के पहले पेज के लिए स्टोरी लिखी। मैं यह भी बताना चाहूंगी कि योजना आयोग के लोक सूचना अधिकारी ने मुझे अहलुवालिया से मिलने को भी कहा। वह जानना चाहते थे कि मुझे यह सूचनाएं क्यों चाहिए। लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं एक पत्रकार हूं तो वे बिल्कुल दोस्ताना हो गए। मुझे यह पता नहीं चला यदि में पत्रकार न होती तो मुझसे क्या जानना चाहते?
एक अन्य बार मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना मांगी। कानून के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय में आवेदन दाखिल करने की प्रक्रिया काफी अच्छी है। यहां भी मुझे 30 दिन की तय समय सीमा के भीतर जवाब विस्तारपूर्वक मिल गया।
पत्रकार होने के नाते मेरी समस्या प्रतीक्षा की अवधि है। खासकर उस वक्त जब लोक सूचना अधिकारी से जवाब नहीं मिलता। उस वक्त फोलो अप की समस्त प्रक्रिया जिसमें प्रथम अपील और द्वितीय अपील शामिल है, एक पत्रकार के लिए काफी थकाऊ होता है क्योंकि उसे हर वक्त नई कहानियां चाहिए होती हैं।
अधिकतर स्थानों से जहां मैंने सूचना के लिए आवेदन दिया, वहां से सूचना प्राप्त हुईं हैं। समस्त सरकारी विभागों में सूचना के अधिकार के आवेदन प्राप्त करने के लिए मूल आधरभूत संरचना अपनी जगह है, लेकिन एक मामले में मुझे मांगी गई सूचना का एक हिस्सा देने से मना कर दिया गया। मैंने आगे अपील इसलिए नहीं की क्योंकि इससे स्टोरी करने में काफी देर हो जाती, इसलिए जितनी सूचनाएं मिलीं थीं उनसे की मैंने स्टोरी लिख दी।
मैंने दो आवेदन सिविल एविएशन के डायरेक्टरेट जनरल के यहां जमा किए। जहां प्रवेश द्वार पर आवेदन स्वीकार किए गए लेकिन फीस जमा करने के मामले में उनसे थोड़ी बहस हुई। दोनों आवेदनों के जवाब से मैंने अपने अखबार एशियन एज के लिए दो स्टोरी लिखीं जो अखबार के पहले पेज पर छपीं।
मैनें सूचना के अधिकार की जितनी स्टोरी की हैं उनमें अधिकांश गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों से प्राप्त सूचनाओं पर आधरित हैं। मैंने पाया है कि जिन लोगों ने सूचना के अधिकार को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है और सरकारी अधिकारी को अपने कर्तव्यों जैसे पासपोर्ट, राशन कार्ड बनाने, नरेगा एवं अन्य सरकारी योजनाओं के पालन के लिए विवश किया है। जवाबदेयता और पारदर्शिता के इसी उद्देश्य के लिए इस कानून को लाया भी गया।

(लेखिका एशियन एज में वरिष्ठ संवाददाता हैं)

सूचना के अधिकार का मेरा पहला प्रयोग

विमल चंद्र पाण्डेय


सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की सफलता की बहुत सारी कहानियां सुनने के बाद भी इसकी ताकत को मैंने खुद आजमा कर नहीं देखा था। हालांकि मैं जितने करीब से इसे देखने का सौभाग्य पा रहा था उससे ये तो साफ था कि यह कानून देश में अब तक बने कानूनों से अलग और ताकतवर है। 2006 की शुरूआत में जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का द्वितीय वर्ष का छात्र था, छुटि्टयों में अपने घर बनारस जाना हुआ। यूं ही एक खयाल आया कि इस कानून का उपयोग यहां किया जाये। इस खूबसूरत शहर में ढेर सारी अनियमिततायें हैं जो इसकी पवित्रता और खूबसूरती में ग्रहण की तरह हैं। मेरे घर से थोड़ी दूरी पर चंदुआ सट्टी नाम की सब्जी मण्डी पड़ती है जहां हर समय गंदगी और गलाजतों का बोलबाला रहता है।
जब मैं घर पहुंचा तो यह गंदगी और बढ़ी हुयी दिखायी दी क्योंकि जहां यह मण्डी लगती है वहां की सड़क बुरी तरह से क्षतिग्रस्त थी। लोगों ने बताया कि इसके लिये उन्होंने अपने स्तर से बहुत कोशिशें की हैं। क्षेत्रीय नेताओं को लेकर नगर निगम तक गये हैं और हर बार ये आश्वासन लेकर लौटे हैं कि सड़क जल्दी ही बना दी जायेगी। सड़क में काम लगा भी दिया गया मगर एक दिन काम हो और दो दिन तक कोई काम न हो। जो सड़क बन भी रही थी उसे देख कर लग रहा था कि इसके बनते ही यह टूटेगी। उस क्षेत्र के लोग और मण्डी में आने वाले लोग सभी अपनी सहूलियत के हिसाब से बचा बचा कर कदम रखते हैं पर इस समस्या का समाधन कैसे हो सकता है, इसकी कोई सूरत नहीं समझ आती। सड़क न बने में थी न निर्माणाधीन में।
मैंने अपने एक दोस्त के साथ सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत एक आवेदन तैयार किया जिसमें मैंने कुछ सवाल पूछे। जैसे सड़क बनाने में किस मटेरियल का प्रयोग हुआ है, कौन कौन से अधिकारी इस परियोजना को देख रहे हैं इत्यादि। आवेदन के तीस दिन के भीतर जवाब आना होता है और मैं अपनी छुटि्टयां दस दिन में खत्म होने पर वापस चला आया। इस घटना के करीब बीस दिन बाद मेरे मोबाइल पर एक फोन आया कि आप आकर मटेरियल की जांच कर लें। मैं उस समय दिल्ली में था। मैंने अपने दोस्त को कहा कि वह जाकर मटेरियल की जांच कर ले। दोस्त ने अगले दिन मुझे बताया कि उसने अपनी क्षमता के हिसाब से जांच तो कर ली पर दरअसल उसकी जरूरत थी नहीं क्योंकि जो सड़क बनने के बावजूद टूटी हुयी थी, उस पर दुबारा काम लगा कर उसे एकदम दुरूस्त बना दिया गया है। सड़क में प्रयोग होने वाले मटेरियल की क्वालिटी अच्छी कर दी गई थी। मुझे तो इस सफलता की कुछ उम्मीद थी लेकिन मेरा दोस्त इससे बिल्कुल आश्चर्य में था। इसकी कतई उम्मीद नहीं थी कि मात्र एक आवेदन से ऐसा चमत्कार भी हो सकता है। उसके बाद उसने सूचना का अधिकार पर बहुत सारी किताबें और ब्रोशर्स पढ़े। इस समय वह इसकी गतिविधियों से बिल्कुल एलर्ट रहता है और दूसरों को इसके इस्तेमाल के बारे में बताता रहता है।

(लेखक यूएनआई से जुडे़ हैं)

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

सफल अभ्यर्थियों को मिले अंक सार्वजनिक दस्तावेज, आरटीआई से बताएं जाय अंक

अर्जुन कुमार बसाक
सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित परीक्षाओं में सफल अभ्यर्थियों को मिले अंक सार्वजनिक दस्तावेज है। लिहाजा अभ्यर्थियों द्वारा सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत सूचना मांगने पर उनके अंकों का खुलासा करना चाहिए।
जस्टिस जीएस सिस्तानी की पीठ ने यह टिप्पणी संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर की है।पीठ ने कहा कि एक बार जब परीक्षा हो जाती है और अभ्यर्थी को सफल घोषित कर दिया जाता है, तो उसके बाद यह सार्वजनिक दस्तावेज बन जाता है जिसका सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत खुलासा किया जा सकता है। ऐसे मामलों में अंकों को गोपनीय रखने का क्या मतलब है? सीआईसी ने आयोग को सिविल सेवा परीक्षा में सफल उम्मीदवार के अंक तीसरे पक्ष को बताने का निर्देश दिया था।
यूपीएससी की पैरवी कर रहे वकील से पीठ ने आयोग से निर्देश लेने की बात कहते हुए मामले को स्थगित कर दिया। सीआईसी ने अपने आदेश में सितंबर में आयोग से एक आरटीआई आवेदन पर सफल अभ्यर्थियों के अंकों का उस आवेदक को जानकारी देने को कहा था जो सिविल सेवा परीक्षा में सफल नहीं हो सका था और वह उन लोगों के अंक जानना चाहता था, जो परीक्षा में कामयाब हुए थे। किंतु आयोग ने यह कहते हुए अंकों का खुलासा करने से इनकार कर दिया था कि इसकी जानकारी तीसरे पक्ष को नहीं जा सकती। सीआईसी हालांकि इस दावे से संतुष्ट नहीं हुआ और आरटीआई आवेदक को अंक बताने का निर्देश दिया था। ज्ञात हो कि इससे पूर्व हाईकोर्ट ने संघ लोक सेवा आयोग को सिविल सेवा परीक्षा के प्रारंभिक टेस्ट (पीटी) में भी प्रतिभागियों को मिले कट ऑफ अंकों का खुलासा करने का आदेश दिया था। अब तक प्रतिभागियों को पीटी में मिले अंकों की जानकारी नहीं मिल पाती थी। चीफ जस्टिस की पीठ ने यह आदेश दिया था। पीठ ने आयोग की दलील खारिज कर दी थी कि अगर अंकों से संबंधित जानकारी परीक्षार्थियों को दे दी गई तो कोचिंग संस्थान इसका दुरुपयोग करेंगे। इससे छात्रों के अवसर बाधित होंगे। इस पर पीठ ने कहा था कि इससे छात्रों का कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि उन्हें अपनी क्षमता का पता चल सकेगा।