दिल्ली उच्च न्यायालय की फुल बैंच ने भी संघ लोक सेवा आयोग यानि यूपीएससी के इरादों पर पानी फेर दिया है। फुल बैंच ने हाईकोर्ट की सिंगल बैंच उससे पहले सूचना आयोग के बहुचर्चित फैसले को सही ठहराते हुए आदेश दिया है कि उसे 2006 की सिविल सर्विस परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और उम्मीदवारों के कुल अंक सूचना के अधिकार के तहत मांगने पर उपलब्ध कराने होंगे।
यह कोई छोटा मामला नहीं है। यह देश को चलाने के लिए नौकरशाही के चुने जाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। देश के लोगों को यह पता होना चाहिए कि नौकरशाही का चयन कैसे होता है? कैसे छांटे जाते हैं इतने खास पदों के लिए योग्य लोग? कितने अंक लाने वाले आगे जाते हैं और कितने अंक पाने वाले रह जाते हैं? क्या कहीं धांधली तो नहीं होती? योग्य उम्मीदवारों को पीछे खिसका कर कहीं रसूख वाले लोग तो नहीं आगे आ जाते? सूचना का अधिकार लागू होने के बाद भले ही यह जानना आपका हक हो लेकिन यूपीएससी यह बताने को तैयार नहीं है। बल्कि यह सब छिपाने के लिए यूपीएससी के अधिकारी लाखों करोड़ों खर्च कर रहे हैं। मुकदमें लड़ रहे हैं। मंशा सिर्फ़ इतनी-सी है कि हमसे यह सब न पूछा जाए। वर्ष 2006 में आईएएस का सपना संजोए करीब 2500 उम्मीदवारों ने सूचना के अधिकार के तहत प्रारंभिक परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और अंक बताने की मांग की थी। जिसे यूपीएससी ने सूचना कानून की धारा8 के निजता के अन्तर्गत मानते हुए बताने से इंकार कर दिया था। बाद में सूचना आयोग में संघ लोक सेवा आयोग ने दलील दी कि परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और प्रारंभिक परीक्षा के अंक बताने से अभ्यार्थियों की बोद्धिक संपदा का हनन होगा और परीक्षा की प्रतियोगिता पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे होनहार अभ्यार्थी पिछड़ सकते हैं और कोचिंग संस्थान इसका नाजायज पफायदा उठा सकते हैं। जबकि सूचना आयोग ने इन दलीलों को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि किसी परीक्षार्थी के लिए कट ऑफ़ मार्क्स बहुत ही संवेदनशील होते हैं। यह किसी अभ्यार्थी के कैरियर और भविष्य से जुड़ा मामला है। इस तरह आयोग ने आदेश दिया कि अभ्यार्थियों के कट ऑफ़ मार्क्स और प्रारंभिक परीक्षा के साथ साक्षात्कार के कट ऑफ़ मार्क्स के अंक भी बताए।
केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश के ख़िलाफ़ लोक सेवा आयोग ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका की थी। न्यायालय ने भी सूचना आयोग के पफैसले को सही ठहराया। इसके बाद भी संघ लोक सेवा आयोग अपनी हट धर्मिता दिखाते हुए इस आदेश के ख़िलाफ़ अप्रैल 2007 में पुनर्विचार की याचिका दी थी। इसके बाद न्यायालय की डबल बैंच जिस्टस ए वी साहा और जिस्टस एस मुरलीधर ने लोक सेवा आयोग की दलील को खारिज कर दिया और अपने पूर्व जैसे निर्णय ही दिए है। साथ ही अदालत ने कहा है कि प्रारंभिक परीक्षा के अंक सार्वजनिक करने से प्रतियोगिता में सकारात्मक असर पड़ेगा। इससे तीसरे पक्ष पर भी कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पडे़गा बल्कि इससे परीक्षा प्रणाली में पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलेगी।
हैरानी की बात है कि देश के लिए आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, आईएफएस जैसे ओहदे के लिए योग्य उम्मीदवार चुनने की जिम्मेदारी जिस संस्था के पास हो और वह संसद द्वारा पारित एक कानून (सूचना का अधिकार) को मानने के लिए तैयार नहीं है, सूचना आयोग की बात मानने के लिए तैयार नहीं है। यहां तक की हाईकोर्ट की बात मानने को तैयार नहीं है। तक यह शक और पुख्ता हो जाता है कि सच्चाई जरूर कुछ काली है। यूपीएससी की सच्चाई क्या है, यह तो तभी पता चलेगी जब वह सूचना देगी। लेकिन छत्तीसगढ़ में सूचना के अधिकार राज्य लोक सेवा आयोग की जो सच्चाई सामने आई वह हिलाने वाली थी।
यह कोई छोटा मामला नहीं है। यह देश को चलाने के लिए नौकरशाही के चुने जाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। देश के लोगों को यह पता होना चाहिए कि नौकरशाही का चयन कैसे होता है? कैसे छांटे जाते हैं इतने खास पदों के लिए योग्य लोग? कितने अंक लाने वाले आगे जाते हैं और कितने अंक पाने वाले रह जाते हैं? क्या कहीं धांधली तो नहीं होती? योग्य उम्मीदवारों को पीछे खिसका कर कहीं रसूख वाले लोग तो नहीं आगे आ जाते? सूचना का अधिकार लागू होने के बाद भले ही यह जानना आपका हक हो लेकिन यूपीएससी यह बताने को तैयार नहीं है। बल्कि यह सब छिपाने के लिए यूपीएससी के अधिकारी लाखों करोड़ों खर्च कर रहे हैं। मुकदमें लड़ रहे हैं। मंशा सिर्फ़ इतनी-सी है कि हमसे यह सब न पूछा जाए। वर्ष 2006 में आईएएस का सपना संजोए करीब 2500 उम्मीदवारों ने सूचना के अधिकार के तहत प्रारंभिक परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और अंक बताने की मांग की थी। जिसे यूपीएससी ने सूचना कानून की धारा8 के निजता के अन्तर्गत मानते हुए बताने से इंकार कर दिया था। बाद में सूचना आयोग में संघ लोक सेवा आयोग ने दलील दी कि परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और प्रारंभिक परीक्षा के अंक बताने से अभ्यार्थियों की बोद्धिक संपदा का हनन होगा और परीक्षा की प्रतियोगिता पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे होनहार अभ्यार्थी पिछड़ सकते हैं और कोचिंग संस्थान इसका नाजायज पफायदा उठा सकते हैं। जबकि सूचना आयोग ने इन दलीलों को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि किसी परीक्षार्थी के लिए कट ऑफ़ मार्क्स बहुत ही संवेदनशील होते हैं। यह किसी अभ्यार्थी के कैरियर और भविष्य से जुड़ा मामला है। इस तरह आयोग ने आदेश दिया कि अभ्यार्थियों के कट ऑफ़ मार्क्स और प्रारंभिक परीक्षा के साथ साक्षात्कार के कट ऑफ़ मार्क्स के अंक भी बताए।
केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश के ख़िलाफ़ लोक सेवा आयोग ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका की थी। न्यायालय ने भी सूचना आयोग के पफैसले को सही ठहराया। इसके बाद भी संघ लोक सेवा आयोग अपनी हट धर्मिता दिखाते हुए इस आदेश के ख़िलाफ़ अप्रैल 2007 में पुनर्विचार की याचिका दी थी। इसके बाद न्यायालय की डबल बैंच जिस्टस ए वी साहा और जिस्टस एस मुरलीधर ने लोक सेवा आयोग की दलील को खारिज कर दिया और अपने पूर्व जैसे निर्णय ही दिए है। साथ ही अदालत ने कहा है कि प्रारंभिक परीक्षा के अंक सार्वजनिक करने से प्रतियोगिता में सकारात्मक असर पड़ेगा। इससे तीसरे पक्ष पर भी कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पडे़गा बल्कि इससे परीक्षा प्रणाली में पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलेगी।
हैरानी की बात है कि देश के लिए आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, आईएफएस जैसे ओहदे के लिए योग्य उम्मीदवार चुनने की जिम्मेदारी जिस संस्था के पास हो और वह संसद द्वारा पारित एक कानून (सूचना का अधिकार) को मानने के लिए तैयार नहीं है, सूचना आयोग की बात मानने के लिए तैयार नहीं है। यहां तक की हाईकोर्ट की बात मानने को तैयार नहीं है। तक यह शक और पुख्ता हो जाता है कि सच्चाई जरूर कुछ काली है। यूपीएससी की सच्चाई क्या है, यह तो तभी पता चलेगी जब वह सूचना देगी। लेकिन छत्तीसगढ़ में सूचना के अधिकार राज्य लोक सेवा आयोग की जो सच्चाई सामने आई वह हिलाने वाली थी।
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