सूचना का अधिकार कानून प्रशासन के कामकाज में पारदर्शिता लाने के मकसद से ही लाया गया है। लेकिन यह नौकरशाही की हठ धर्मिता की हद है कि प्रशासन का मुखिया यानि राज्य का मुख्य सचिव अपने कार्यालय को इस कानून के दायरे से ऊपर मानता है। देश के उन 16 राज्यों में जहां के मुख्य सचिव खुद को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से अलग मानकर बैठे हैं, उत्तर प्रदेश भी शामिल है।
एक मामले में मुख्य सचिव कार्यालय ने आयोग में अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए खुलेआम कहा मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश प्रशासन के सचिवालय का नियंत्रण अधिकारी है लेकिन वह लोक प्राधिकारी की परिभाषा में नहीं आता। यह भी कहा गया कि मुख्य सचिव कार्यालय में न तो कोई लोक सूचना अधिकारी किया जाना अपेक्षित है और न ही वेबसाइट बनाना अपेक्षित है।
इसके जवाब में उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र शर्मा ने अपने आदेश में सवाल उठाया है क्या मुख्य सचिव को यह बताने की आवश्यकता है कि देश के प्रधानमंत्री की भी वेबसाइट है, प्रदेश के मुख्यमंत्री की अपनी अलग वेबसाइट है, केन्द्र सरकार के केबिनेट सचिव की भी अपनी वेबसाइट है, ऐसे में राज्य सचिवालय के प्रमुख द्वारा अपनी वेबसाइट अथवा किसी अन्य माध्यम से के तहत सूचनाएं न उपलब्ध कराना भी कानून की अवमानना है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून की धारा 4(बी) के अन्तर्गत प्रत्येक लोक प्राधिकारी को अपने कार्यालय के अधिकारिओं के नाम, पता, सूचना पाने की प्रक्रिया व जनहित की सूचनाएं स्वत: प्रकाशित करनी चाहिए, जिसका एक माध्यम वेबसाइट भी हो सकता है।
सूचना आयोग का यह कड़ा रूख और मुख्य सचिव कार्यालय का यह तर्क पारस नाथ वर्मा द्वारा मांगी गई सूचना के मामले में सामने आया है। वर्मा ने बहराइच में सहायक अध्यापकों की नियुक्ति के संबंध में सूचना चाही थी। मुख्य सचिव कार्यालय ने सामान्य पत्र की भांति उसे शिक्षा विभाग में भेज दिया लेकिन इसकी सूचना धरा 6(३) के अन्तर्गत आवेदक को नहीं दी। शिक्षा विभाग ने भी पारसनाथ को कोई सूचना नहीं दी। इस बीच आवेदक ने यह मानते हुए कि मुख्य सचिव कार्यालय ने सूचना नहीं दी है, आयोग में शिकायत कर दी। लेकिन मुख्य सचिव कार्यालय ने आयोग के नोटिसों को जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा। कुछ सुनवाईयों के बाद जब आयोग ने खुद मुख्य सचिव से स्पष्टीकरण मांगा तो उनके कार्यालय की तरपफ से उपरोक्त तर्क पेश किए गए।
आयोग ने मुख्य सचिव कार्यालय के तर्कों को खारिज करते हुए आदेश दिया कि मुख्य सचिव का कार्यालय सूचना के अधिकार धरा 2(एच) में दी गई परिभाषा अन्तर्गत लोक प्राधिकारी की श्रेणी में आता है। साथ ही कहा कि आदेश प्राप्ति के 15 दिनों के अंदर जन सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी के नाम, पते और टेलीफोन सार्वजनिक करे और इस संबंध में अपनी वेबसाइट निर्माण का फैसला भी जल्द करें। इस मामले में एक महीने का समय देते हुए आयोग ने अगली सुनवाई 25 सितंबर रखी है।
एक मामले में मुख्य सचिव कार्यालय ने आयोग में अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए खुलेआम कहा मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश प्रशासन के सचिवालय का नियंत्रण अधिकारी है लेकिन वह लोक प्राधिकारी की परिभाषा में नहीं आता। यह भी कहा गया कि मुख्य सचिव कार्यालय में न तो कोई लोक सूचना अधिकारी किया जाना अपेक्षित है और न ही वेबसाइट बनाना अपेक्षित है।
इसके जवाब में उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र शर्मा ने अपने आदेश में सवाल उठाया है क्या मुख्य सचिव को यह बताने की आवश्यकता है कि देश के प्रधानमंत्री की भी वेबसाइट है, प्रदेश के मुख्यमंत्री की अपनी अलग वेबसाइट है, केन्द्र सरकार के केबिनेट सचिव की भी अपनी वेबसाइट है, ऐसे में राज्य सचिवालय के प्रमुख द्वारा अपनी वेबसाइट अथवा किसी अन्य माध्यम से के तहत सूचनाएं न उपलब्ध कराना भी कानून की अवमानना है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून की धारा 4(बी) के अन्तर्गत प्रत्येक लोक प्राधिकारी को अपने कार्यालय के अधिकारिओं के नाम, पता, सूचना पाने की प्रक्रिया व जनहित की सूचनाएं स्वत: प्रकाशित करनी चाहिए, जिसका एक माध्यम वेबसाइट भी हो सकता है।
सूचना आयोग का यह कड़ा रूख और मुख्य सचिव कार्यालय का यह तर्क पारस नाथ वर्मा द्वारा मांगी गई सूचना के मामले में सामने आया है। वर्मा ने बहराइच में सहायक अध्यापकों की नियुक्ति के संबंध में सूचना चाही थी। मुख्य सचिव कार्यालय ने सामान्य पत्र की भांति उसे शिक्षा विभाग में भेज दिया लेकिन इसकी सूचना धरा 6(३) के अन्तर्गत आवेदक को नहीं दी। शिक्षा विभाग ने भी पारसनाथ को कोई सूचना नहीं दी। इस बीच आवेदक ने यह मानते हुए कि मुख्य सचिव कार्यालय ने सूचना नहीं दी है, आयोग में शिकायत कर दी। लेकिन मुख्य सचिव कार्यालय ने आयोग के नोटिसों को जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा। कुछ सुनवाईयों के बाद जब आयोग ने खुद मुख्य सचिव से स्पष्टीकरण मांगा तो उनके कार्यालय की तरपफ से उपरोक्त तर्क पेश किए गए।
आयोग ने मुख्य सचिव कार्यालय के तर्कों को खारिज करते हुए आदेश दिया कि मुख्य सचिव का कार्यालय सूचना के अधिकार धरा 2(एच) में दी गई परिभाषा अन्तर्गत लोक प्राधिकारी की श्रेणी में आता है। साथ ही कहा कि आदेश प्राप्ति के 15 दिनों के अंदर जन सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी के नाम, पते और टेलीफोन सार्वजनिक करे और इस संबंध में अपनी वेबसाइट निर्माण का फैसला भी जल्द करें। इस मामले में एक महीने का समय देते हुए आयोग ने अगली सुनवाई 25 सितंबर रखी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें