
सूचना आयुक्त बुजुर्गों के फैसले शीघ्र निस्तारित करने के बजाय उन्हें भी लंबी तारीखें दे रहे हैं। दिल्ली की 70 वर्षीय आशा भटनागर के मामले की पहली सुनवाई 2 सितंबर 2007 को हुई थी। तब से सुनवाइयों को सिलसिला जारी है। आशा भटनागर इन सुनवाइयों से इतनी त्रस्त हो चुकी हैं कि उन्हें आयोग से सूचना मिलने की उम्मीद ही नहीं है और न ही वे अब सुनवाई में दिल्ली से लखनऊ जाना चाहती हैं। इसी तरह कानपुर निवासी संजीव दयाल ने 13 दिसंबर 2006 को स्थानीय अदालत की अपराध शाखा से जो सूचनाएं मांगी थी, वो आयोग में 26 सुनवाइयो के बाद भी नहीं मिली हैं।
बांदा के सुरेश कुमार गुप्ता की सूचना आयुक्त सुनील चौधरी के दरबार में 12 पेशियां हो चुकी हैं लेकिन वह सूचनाओं से अब भी महरूम हैं। बिजली विभाग ने उनके पास दो कनेक्शन के बिल और 30 हजार की आरसी भेज दी थी। इसी संबंध में उन्होंने सूचना मांगी थी। बांदा के ही चन्द्रपाल को बीडीओ से मांगी गई सूचनाएं 8 सुनवाई के बाद भी नहीं मिली हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं।
मामलों को इस तरह लटकाए रखने को जानकार इसे सूचना आयुक्तों की एक साजिश के रूप में देख रहे हैं। लोगों को कहना है सूचना आयुक्त ऐसा करके लोगों को उत्साह और सूचना के कानून से लोगों का भरोसा तोड़ना चाहते हैं। सूचना का अधिकार जागरूकता मंच के संजय गुप्ता कहते हैं कि सूचना आयुक्त के कारण यूपी में सूचना का अधिकार कानून पूरी तरह से कोलेप्स होता जा रहा है। सूचना आयुक्त अधिकारियों से मिले हैं, वे वादियों को डरा-धमका रहे हैं।
1 टिप्पणी:
tarikho kei alav kuchh nahi milta aapne sahi kaha .
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