शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

कानून का माखौल उड़ाता आयोग

सुशील राघव
मैं जनपद गाजियाबाद के कड़कड़ माडल गांव का निवासी हूं। जब मुझे सूचना के अधिकार के बारे में मालूम पड़ा तो मैंने सबसे पहले अपनी जमीन से सम्बंधित प्रश्नों का एक आवेदन तैयार किया। उस आवेदन को लेकर मैं 20 फरवरी 2007 को उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड(यूपीएसआईडीसी) के क्षेत्रीय कार्यालय पहुंच गया। सबसे पहले मैंने वहां के जन सूचना अधिकारी के बारे में पूछताछ की। पता चलने पर मैंने उनसे आवेदन जमा करने का आग्रह किया। उन्होंने मेरा आवेदन देखने के बाद बहाने बनाना शुरू कर दिया। मैंने थोड़ा सख्त रुख अपनाते हुए आवेदन स्वीकार करने के लिए जोर दिया तो अधिकारी ने कहा कि आपका आवेदन तभी जमा किया जाएगा, जब आवेदन पर आप क्षेत्रीय कार्यालय के अधिकारी के हस्ताक्षर करा लाएंगे। इसके बाद मैं तुरंत क्षेत्रीय अधिकारी सुरेश कुमार के पास पहुंच गया। उन्होंने मेरे आवेदन पर हस्ताक्षर कर मुझे आवेदन जमा करने के लिए जन सूचना अधिकारी के पास भेज दिया। जब मैं उनकी सीट पर पहुंचा तो जन सूचना अधिकारी वहां से रफूचक्कर हो चुके थे। मैंने वहां बैठे अन्य कर्मचारियों से जब उनकी बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि अभी आते ही होंगे। मैं करीब एक घंटे तक उनका इंतजार करता रहा मगर वे नहीं आए और मैं घर लौट आया। अगले दिन मैं सुबह की जन सूचना अधिकारी के पास पहुंच गया। जब मैंने आवेदन उनके हाथ में थमा कर दस रुपये फीस जमा करने के लिए दिए तो उन्होंने मुझे चैक जमा कराने को कहा। इस पर मैंने उनसे कहा कि कानूनन कैश जमा किया जा सकता है। इस पर वे फ़िर बहाना बनाकर चले गए और मैं बिना आवेदन जमा किए वापस लौट आया। इसलिए मैंने कुछ दिन बाद राज्य सूचना आयोग में शिकायत कर दी। 7 जून 2007 को आयोग में मेरी पहली सुनवाई लगी। सूचना आयुक्त मेजर संजय यादव ने यहां पांच सुनवाइयों तक भी जन सूचना अधिकारी पेश नहीं हुए। श्री यादव ने न तो पेनल्टी लगाई और न ही ऑर्डर किया। इसके बाद मेरा मामला वीरेन्द्र सक्सेना के कोर्ट में चला गया। वीरेन्द्र सक्सेना ने धरा 20(१) का नोटिस किया तो यूपीएसआईडीसी का जन सूचना अधिकारी उपस्थित हुआ। आयुक्त ने न तो अधिकारी पर पेनल्टी लगाई और न ही मुझे सूचनाएं दिलाईं। मुझे जो सूचनाएं दी गईं वे अपूर्ण और गलत थीं। इसलिए अगली तारीख पर आयुक्त से सही सूचनाएं दिलाने के लिए कहा तो वे मुझ पर दवाब डालने लगे। इस पर मैंने उनके मुंह पर ही कह दिया कि आप यूपीएसआईडीसी का पक्ष ले रहे हैं। इस बात पर मेरी उनसे कहा सुनी हो गई। मैंने एक प्रार्थना पत्र मुख्य सूचना आयुक्त को लिखकर अपना केस पुन: मेजर संजय यादव के कोर्ट में लगाए जाने की मांग की मगर ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब एक दिन मैं अगली सुनवाई पर पहुंचा तो मेरा केस सुनील अवस्थी के कोर्ट में पहुंच गया। जब सुनील अवस्थी से मैंने कहा कि जो सूचनाएं मुझे दी जा रही हैं वे गलत हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं ठीक हैं। इस पर मैनें उन्हें समझाया कि सूचनाएं कैसे गलत हैं। जब वे नहीं माने तो मैंने सुनवाई करने से ही मना कर दिया। इस पर उन्होंने मेरे केस को ज्ञानेन्द्र शर्मा के यहां स्थानांतरित कर दिया। उन्होंने पांच सुनवाइयां करते हुए दंडात्मक कार्रवाई करने के नोटिस किए। सबसे पहले सुनवाई में उन्होंने मुझ से एक नया आवेदन जमा कराने को कहा। अगली सुनवाई पर उन्होंने मुझसे कहा कि आप इतनी पुरानी सूचनाएं क्यों मांग रहे हैं? मैंने उन्हें कारण बता दिया तो उन्होंने सात दिनों में सूचना देने का नोटिस जारी किया जिसमें यूपीएसआईडीसी ने धरा 5(३) का उपयोग नहीं किया और सभी 28 बिन्दुओं की सूचनाओं को अपने से सम्बंधित होने से इंकार कर दिया। फ़िर उन्होंने यूपीएसआईडीसी का पक्ष लेते हुए कहा कि ये सारी सूचनाएं न मांगे बल्कि कुछ बिन्दुओं पर ही सूचनाएं मांगे। फ़िर मैंने एक और आवेदन जमा किया। मगर उस आवेदन के जवाब में यह कहकर सूचना देने से इंकार कर दिया गया कि सूचनाएं 35 साल पुरानी हैं और उपलब्ध नहीं हैं। जब 21 जनवरी 2009 को सुनवाई हुई तो ज्ञानेन्द्र शर्मा ने कहा कि जो लिखकर दिया है, वही सही है। इस पर मेरे सब्र का बांध् टूट गया और मैंने उनके मुंह पर बोल दिया कि आप यूपीएसआईडीसी से मिल चुके हैं और इसी कारण इनका पक्ष ले रहे हैं। मेरे यह कहने पर उन्होंने जबरन मेरे केस का निस्तारित करने की धमकी दी। मैंने कहा कि आप ऑर्डर करें और इसमें लिखें कि आपने लालचवश मुझे सूचना दिलाने से इंकार कर दिया है। इस पर उन्होंने जबरन ऑर्डर पास कर दिया। उनके आदेशानुसार मुझे पार्कों की ट्रेसिंग और वर्ष 2009 का नक्शा प्रदान किया जाना था। मगर 26 जनवरी 2009 को मुझे जो नक्शा मिला उस पर तारीख नहीं लिखी थी। साथ ही पार्कों की ट्रेसिंग भी नहीं दी गई। अब मैंने अपने केस को खोलने के लिए शिकायत कर दी है। देखना है कि वे मुझे वर्ष 2009 की तारीख अंकित किया हुआ नक्शा और पार्कों की ट्रेसिंग दिलातें या नहीं।

क्या थी सूचनाएं
सन् 1969 में यूपीएसआईडीसी ने साहिबाबाद, गाजियाबाद के कड़कड़ मॉडल, साहिबाबाद, झंडापुर, महाराजपुर, प्रहलादगढ़ी और भौवापुर की 1445.17 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। मुआवजा मात्र 10.3 पैसे गज का दिया गया। पुनर्वास के तहत न तो किसानों को कोई सुविधा दी गई और न ही उन्हें अधिग्रहित जमीन पर बसाए गए औद्योगिक क्षेत्र-4 में नौकरियां मिलीं। इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र में 145 एकड़ जमीन के पार्क और 15.07 एकड़ जमीन अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई थी।
वर्तमान में मौजूद छह पार्कों में से केवल एक पर ही पार्क है। बाकी की जमीन कहां गई, किसके कब्जे में है, यूपीएसआईडीसी ने किसे बेच दी कुछ पता नहीं है। अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई 15.07 एकड़ जमीन में केवल 24 हजार वर्ग मीटर में 33 केवीए का एक बिजलीघर और दो हजार गज में एक थाना बना हुआ है और करीब एक हजार गज का प्लॉट डाक खाने के लिए छोड़ा गया है। बाकी की जमीन कहां गई कुछ पता नहीं है। यही नहीं 1445.17 एकड़ जमीन मे से 33 एकड़ जमीन वन क्षेत्र और पांच बीघा जमीन जोहड़ की भी अधिग्रहित की गई। मैंने समस्त पार्कों की ट्रेसिंग, सन् 1969 का मास्टर प्लान और 2009 का नक्शा सहित 28 बिन्दुओं पर जानकारी मांगी थी।

मुख्य सूचना आयुक्त की आंखों पर पट्टी
यूपीएसआईडीसी के अफसरों में मुझे लिखित में दिया है कि अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई जमीन 30.12 एकड़ है जबकि नक्शे में यह जमीन मात्र 15.07 एकड़ दर्शायी गई है। जब मैने ज्ञानेन्द्र शर्मा से यह कहा कि जब मुझे 30 एकड़ से ज्यादा जमीन लिखित में दी गई है और जो नक्शा दिखाया जा रहा है उसमें 15.07 एकड़ जमीन है तो फ़िर कौन सी सूचना सही है? इस पर उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर दी और अगले सवाल पर बहस करने लगे। इसके अलावा ज्ञानेन्द्र शर्मा एक सवाल के जवाब में यूपीएसआईडीसी ने अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई जमीन को बेचे जाने का जवाब दिया। बावजूद इसके वह जमीन नक्शे में अभी भी खाली दिखाई गई है। इस तरह वे मुझे जो नक्शा दिला रहे थे, उस पर मैनें कहा कि जब इन्होंने मुझे यह लिखकर दिया है कि अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई जमीन बेच दी गई है तो फ़िर यह सूचना गलत है या सही। इस पर पहले तो वह चुप्पी साध गए मगर अगले ही पल बोले कोर्ट से पूछो। मास्टर प्लान की बाबत वह कहने लगे कि तुम क्यों मांग रहे हो? जबकि मैं यह पहले ही स्पष्ट बता चुका था कि मैं क्यों मांग रहा हूं। गौरतलब है कि सूचना अधिकार कानून में यह जरूरी नहीं है कि सूचना मांगने का कारण बताया जाए। मेरे सवालों और साफ-साफ उनके यूपीएसआईडीसी से मिले होने की टिप्पणी के बाद वे बोले कि मुझ पर आरोप लगा रहे हो, मैं आपकी सुनवाई नहीं करूंगा।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

emandari se to koi kam karta nahi hai fir emandar sai koi soochna kaisa dega. kyonki soochan dane sai sahbo ko fasna hai.