सोमवार, 17 नवंबर 2008

सूचना चाहिए तो चुकाओ कीमत!

मनीष सिसोदिया
सूचना लेनी है तो सूचना उपलब्ध कराने के काम में जो लोग लगेंगे उनका वेतन सूचना मांगने वाले को ही देना होगा। और जैसा कि सरकारी नौकरों की काम करने चाल है एक छोटी सी भी सूचना उपलब्ध कराने में वे कम से कम एक महीना लगाएंगे ही। हम यह भी जानते हैं कि सरकारी दफ्तर का बाबू भी बिना चपरासी कुछ नहीं कर सकता। अत: सूचना लेनी है तो अफसर, बाबू और चपरासी तीनों की एक महीने की तन्ख्वाह देने के लिए तैयार रहिए।
देश भर में आज ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जहां सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने वालों को इस तरह परेशान किया जा रहा है। इसी क्रम में सबसे ताज़ा मिसाल पेश की है मेरठ विश्वविद्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने। उन्होंने मेरठ के ही निवासी संदीप पहल को दस बिन्दुओं पर मांगी गई सूचना देने के लिए लंबा चौड़ा बिल थमा दिया है। इस बिल में फोटोकॉपी के पैसे तथा एक बाबू व एक चपरासी का एक महीने का वेतन भी शामिल है।
घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है कि संदीप पहल ने 1 अक्टूबर 2008 को सूचना के अधिकार के तहत मेरठ विश्वविद्यालय से बीएड पाठयक्रमों में सीटों की संख्या, इस संबध में जारी शासनादेशों की प्रति तथा आरक्षण का लाभ पा रहे छात्रों के बारे में सामान्य जानकारी मांगी थी। लोक सूचना अधिकारी पीएस पिपलानी ने यह पत्र शिक्षा विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर आई आर एस सिंधू को भेज दिया। प्रोफेसर सिंधू ने लोक सूचना अधिकारी को लिखा कि यह सूचना जुटाने में एक महीने का समय लग सकता है अत: इसमें एक क्लर्क और एक चपरासी का एक महीने के वेतन की व्यवस्था कराई जाए। उन्होंने यह भी बताया कि क्लर्क का एक महीने का वेतन 4500 रुपए तथा चपरासी का एक महीने का वेतन 3500 रुपए आएगा। यह जमा कराने पर ही सूचना उपलब्ध कराई जा सकती है। लोक सूचना अधिकारी प्रोफेसर सिंधू का पत्र तथा एक अन्य पत्र में फोटोकॉपी शुल्क की मांग करते हुए एक पत्र लिखा। उन्हें बताया गया कि उन्होंने जो सूचना मांगी है वह 5607 छात्रों से सम्बंधित है और कुल 5647 पृष्ठों में निहित है अत: आप प्रति पृष्ठ दो रुपए के हिसाब से कुल 11294 रुपए भी जमा करवाएं। लेकिन पहल ने जब इस पर आपत्ति उठाई और मामला मीडिया में उठा तो लोक सूचना अधिकारी एस सी पिपलानी ने कहा कि उन्होंने आवेदक से वेतन नहीं मांगा है सिर्फ़ फोटोकॉपी शुल्क मांगा गया है। जबकि प्रोफेसर सिंधू का पत्र उन्हें दिया ही यह कहते हुए गया था कि इन दोनों पत्रों में उल्लेखित राशि जमा करा दी जाए।
संदीप पहल को इस पूरे मामले में कई और भी आपत्तियां हैं -
पहले तो यही कि मेरठ विश्वविद्यालय के पास से मिली सूचना के मुताबिक उसके सिर्फ़ 55 कॉलेजों में बीएड का पाठयक्रम है। ऐसे में उनके पास 5607 छात्र कहां से आ गए जिनके बारे में सूचना देने के लिए मुझसे 5647 पृष्ठों का शुल्क मांगा जा रहा है।
दूसरी बात यह भी है कि अगर लोक सूचना अधिकारी ने यह गणना कर ली है कि मेरे द्वारा मांगी गई सूचना कितने पृष्ठों की है तो भला उसकी फोटोकॉपी के लिए एक महीना कैसे लग सकता है।

दिल्ली पुलिस ने मांगे 13949 रूपये
दिल्ली पुलिस से चोरी हुए मोबाइलों के बारे में सूचना मांगने पर सामाजिक कार्यकर्ता सुबोध् जैन से पुलिस उपायुक्त (पश्चिम) रोबिन हिबु ने पत्र के माध्यम से 13949 रूपये जमा कराने को कहा। सुबोध ने दिल्ली पुलिस से 10 जिलों से चोरी हुए मोबाइल, प्राप्त हुए मोबाइल आदि के बारे में जानकारी चाही थी। इसके लिए उन्होंने पुलिस मुख्यालय में आवेदन दाखिल किया जिसे सभी जिलों के डीसीपी के यहां प्रेषित कर दिया गया। आवेदन का जवाब केवल हिबु की तरफ़ से प्राप्त हुआ जिसमें मांगी गई सूचनाओं के लिए उक्त राशि जमा कराने को कहा गया। उनका कहना था कि सूचनाओं को एकत्रित करने के लिए एक सब इंस्पेक्टर को दो दिन तक लगाया जाएगा जिसकी लागत 1546 आंकी गई है। साथ ही यह भी बताया कि दो हेड कांस्टेबलों को तीन दिन इसमें लगाया जाएगा और 13 कांस्टेबल इस काम में दो दिन के लिए लगाए जाएंगे। हेड कांस्टेबलों के लिए 1353 और कांस्टेबल के लिए 11050 रूपये जमा कराने को कहा गया। सुबोध का कहना है कि यदि इतनी राशि सभी जिलों में जमा मांगी जाएगी तो उन्हें सूचनाएं करीब १.५ लाख की पडे़गी।

पुलिस ने मांगा मेहनताना
एक अन्य मामले में दिल्ली पुलिस के दो थानों ने आरटीआई आवेदन के तहत सूचना देने के लिए एक गैर सरकारी संस्था से 12274 रूपये मांग की। आवेदन में दिल्ली के सभी जिलों से लापता और अपहृत हुए बच्चों की जानकारी मांगी गई थी। अन्य जिलों से मांगी गई सूचनाएं मिल गईं लेकिन पश्चिम दिल्ली और दक्षिण पश्चिम दिल्ली के डीसीपी कार्यालय से मांगी गई सूचना देने के लिए उक्त राशि की मांग की गई। जवाब में कहा गया है कि मांगी गई सूचना उपलब्ध कराने के लिए एक सब इंस्पेक्टर, एक हेड कांस्टेबल और 13 कांस्टेबलों की जरूरत होगी, जिनके मेहनताने के रूप में राशि मांगी गई है। मामला फिलहाल केन्द्रीय सूचना आयोग में लंबित है।

78 लाख की सूचना
भोजपुर जिले के गुप्तेशवर सिंह से भोजपुर आपूर्ति अधिकारी ने आवेदन में मांगी गई सूचनाओं को उपलब्ध कराने के लिए 78 लाख 21 हजार 252 रूपये जमा करने को कहा। वह भी सूचना उपलब्ध कराने की 30 दिन की समय सीमा निकल जाने के बाद। गुप्तेश्वर सिंह ने 2000 से 2008 के बीच जिले के कुछ क्षेत्रों में जन वितरण प्रणाली के तहत वितरित किए गए अनाज और मिट्टी के तेल की जानकारी मांगी थी। आवेदन में डीलर के भुगतान रसीद की छायाप्रति भी मांगी गई थी। आवेदन के जवाब में सूचना अधिकारी ने कहा-आपके द्वारा मांगी गई सूचनाएं विवरण के साथ तैयार हैं, लेकिन इसके लिए आपको पहले छायाप्रति शुल्क के रूप में 7821252 रूपये जमा करने होंगे। यदि यह शुल्क 25 जुलाई तक जमा नहीं किया जाता तो माना जाएगा कि आपको सूचनाएं नहीं चाहिए। हालांकि बाद में सूचना आयोग में अपील करने के बाद मुफ्त में सूचना उपलब्ध कराने के आदेश दिए गए।

गुजरात के वक्फ बोर्ड ने मांगे 4.7 लाख रूपये
अहमदाबाद के हुसैन अरब द्वारा दायर आरटीआई आवेदन का जवाब देने के लिए राज्य के वक्फ बोर्ड ने 474690 रूपये की मांग की। हुसैन अरब ने 6 फरवरी 2007 को आवेदन दाखिल कर बोर्ड पर लगे प्रशासनिक अनियमितताओं के आरोपों का ब्यौरा और गुजरात चैरिटी कमिश्नर द्वारा 2001 में पारित योजना को लागू न करने का कारण जानना चाहा था। आवेदन में उन्होंने मुस्लिम ट्रस्ट के अधीन अहमदाबाद, सूरत और भरूच में संपत्तियों की जानकारी भी मांगी थी। सूचना के स्थान पर उन्हें वक्फ बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी एम ए शेख ने सूचना हासिल करने के लिए उक्त राशि जमा करने को कहा। बोर्ड के इस रवैये के खिलाफ उन्होंने राज्य सूचना आयोग में अपील कर रखी है और अंतिम सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं। इसके साथ ही एक अन्य आवेदन दाखिल कर हुसैन अरब ने बोर्ड के दस्तावेजों के निरीक्षण की मांग की, जिसे बोर्ड ने खारिज कर दिया।

झज्जर अस्पताल में फोटोकॉपी शुल्क 4 लाख 92 हजार
हरियाणा के झज्जर अस्पताल के लोक सूचना अधिकारी ने आवेदक नरेश जून द्वारा दायर आरटीआई आवेदन का 5 महीने बाद जवाब दिया जिसमें कहा गया कि आवेदक सूचनाएं हासिल करने के लिए 4 लाख, 92 हजार 100 रूपये अतिरिक्त शुल्क के रूप में जमा करा दे। नरेश जून ने आवेदन में मेडिकल लीगल सर्टिपिफकेट (एमएलसी) की सूचनाएं मांगी थी, जिसमें भारी मात्रा में घोटाले का अंदेशा था। आयोग के हस्तक्षेप के बाद जानकारी मिली जिससे स्पष्ट हो गया कि एमएलसी शुल्क के रूप में जो राशि वसूली जाती है, उसमें करोड़ों का घोटाला हुआ है। शुल्क के रूप में वसूली गई राशि की कैश बुक में प्रविष्टि नहीं होती थी। अर्थात सम्पूर्ण राशि डॉक्टरों द्वारा हडपी गई थी। नरेश जून को इन सूचनाओं को हासिल करने के लिए जेल तक जाना पड़ा और उनके खिलाफ झूठा मामला तक दर्ज किया गया । एक अन्य मामले में सूचना प्राप्त करने के लिए उनसे इसी अस्पताल से 500 रूपये फोटोकॉपी शुल्क के रूप में मांगे गए। आवेदन में उन्होंने झज्जर जिले के डॉक्टरों के संबंध में सूचना मांगी थी। यह राशि मात्र दो अस्पतालों के डॉक्टरों की सूचना देने के लिए मांगी गई थी।

सुल्तानपुर जिला कार्यक्रम कार्यालय ने मांगे 70 लाख
सूचना के अधिकार के तहत सुल्तानपुर के आइमा गांव में रहने वाले रमाकांत पांडे को सूचना तो नहीं मिली उल्टे 70 लाख रूपये जमा करने का पत्र जरूर मिल गया। रमाकांत ने जिला कार्यक्रम अधिकारी एम जेड खान के पूरे कार्यकाल के आवागमन (भ्रमण पंजिका), जनपद में संचालित आंगनवाड़ी केन्द्रों की सूची, केन्द्र से छात्रों को शासन द्वारा निर्धरित मानक, छात्रों की भौतिक सत्यापन की रिपोर्ट के साथ-साथ कई और जानकारियां मांगी थीं। निर्धरित 30 दिन बीत जाने के बाद प्रथम अपील दाखिल की गई। जवाब में अपर निदेशक दया शंकर श्रीवास्तव ने लिखा कि जिला कार्यक्रम अधिकारी ने अवगत कराया था कि सूचना के लिए निर्धारित शुल्क जमा करा दिया जाए। इसके बाद 70 लाख रूपये जमा करने की जानकारी देने वाले पत्र को देखकर रमाकांत हक्के-बक्के रह गए। जिला कार्यक्रम अधिकारी के कार्यालय के पत्र के अनुसार मांगी गई सूचनाओं को ब्यौरा देते हुए लिखा गया कि लाभार्थियों की संख्या 519034 और अन्य नाम पते विवरण आदि देने में अनुमानित व्यय 77 लाख 85 हजार 510 रूपये लगाते हुए उनसे 78 लाख 14 हजार 245 रूपये जमा कराने को कहा गया। पत्र में यह भी कहा गया कि धनराशी का अग्रिम 90 प्रतिशत (70 लाख 32 हजार 820 रूपये) पत्र प्राप्ति के एक सप्ताह के भीतर जमा करने पर सूचनाओं के तैयार करने सम्बन्धी कारवाई शुरू की जा सके।

औरंगाबाद में सूचना देने के लिए मांगे 50 हजार
औरंगाबाद के सदर अनुमंडल, राजस्व के लोक सूचना अधिकारी से राशन और तेल आपूर्ति के संबंध में जानकारी मांगने पर नवल किशोर प्रसाद से 49974 रूपये की मांग की गई। वह भी आरटीआई आवेदन दाखिल करने के 30 दिन बाद। अप्रैल 2008 में जनहित में दायर इस आवेदन में नवल ने माहवार वितरित किए गए तेल और राशन आदि का ब्यौरा मांगा था। नवल को मांगी सूचना तो नहीं मिली, लेकिन करीब 50 हजार की भारी भरकम राशि जमा करने की सूचना देने वाला पत्र जरूर मिल गया, जिस पर 14 मई 2008 की तिथि अंकित थी। सूचना हेतु मांगी गई राशि की वजह 24984 पेजों की सूचना बताई गई। गौर करने की बात है कि आवेदनकर्ता ने सिर्फ़ सूचना मांगी थी दस्तावेजों की छायाप्रति नहीं। प्रथम अपील में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। मामला फिलहाल राज्य सूचना आयोग में विचाराधीन है, जिसकी सुनवाई चल रही है।

उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री राहत कोष की सूचना 36 हजार में
दिल्ली के शशि शेखर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राहत कोष के बारे में जानकारी मांगने पर 36 हजार रूपये मांगे गए। उन्होंने आवेदन में मुख्यमंत्री राहत कोष में कितना फंड आया और कितना खर्च हुआ आदि के विषय में जानकारी मांगी थी। एक अन्य मामले में 10 मंत्रालयों से चाय, लंच, कॉफी, डिनर आदि पर किए गए खर्चों का ब्यौरा मांगने पर दिल्ली मेट्रो द्वारा शशि शेखर 1200 रूपये की मांग की गई। मंत्रालय में भेजे गए आवेदन को दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के पास सेक्शन 6(३) के तहत प्रेषित किया गया था, जिसमें मांगी गई सूचनाओं को उपलब्ध कराने के लिए मेट्रो ने इन रूपयों की मांग की।

गुजरात के योजना विभाग ने मांगे 94 हजार
गुजरात के हरिनेश पांड्या ने गांधीनगर में विधायकों और सांसदों को आबंटित की गई भूमि का ब्यौरा जानने के लिए आरटीआई आवेदन दिया। आवेदन में उन्होंने पूछा था कि कितनेविधायकों और सांसदों ने आंबटित भूमि बेच दी है, किन स्थितियों इन्हें भूमि आबंटित की गई और किन किसानों से यह भूमि ली गई है। उनके इस आवेदन को भूमि एवं खनन और योजना विभाग में प्रेषित कर दिया गया। योजना विभाग के लोक सूचना अधिकारी ने अपने जवाब में हरिनेश को मांगी गई सूचना प्राप्त करने के लिए 94 हजार 762 रूपये जमा करने को कहा। ये राशि 5009 जंबो पेपर की फोटोकॉपी और 42372 पेजों की सूचना देने के लिए मांगी गई थी। गौर करने की बात है कि उक्त राशि की मांग एक महीने और 25 दिनों के बाद मांगी गई। हरिनेश ने अधिकारी के खिलाफ सूचना आयोग में शिकायत कर दी है, जिसकी सुनवाई नवंबर में होनी है।

बरगढ़ में सिंचाई परियोजना की जानकारी 30 हजार की
उडीसा के बरगढ़ जिले के तुकुरला गांव के सहदेव मेहर ने एक लघु सिंचाई परियोजना के बारे में जिला मुख्यालय से जानकारी मांगी तो करीब सात महीने बाद मिले खत में कहा गया- सूचना चाहिए तो 30 हजार रूपये जमा करा दें। सहदेव ने आवेदन में परियोजना में खर्च की गई राशि, इसके अन्तर्गत डूबी जमीन आदि के बारे में जानना चाहा था। बाद में मामला सूचना आयोग गया जिसने आदेश दिया कि सात दिनों में सूचना आवेदक को दी जाए। इसके बाद भी जो सूचना मांगी गई थी, उन्हें उपलब्ध नहीं कराया गया। आयोग ने अगली सुनवाई की तारीख 19 फरवरी 2009 की रखी है।

दिल्ली जल बोर्ड ने मांगे 17 हजार
दिल्ली जल बोर्ड ने दक्षिण दिल्ली के आलीगांव में रहने वाले आरटीआई आवेदनकर्ता रघुराज सिंह से सूचना देने के एवज में 17 हजार 430 रूपये की मांग की है। साथ ही कहा है कि 15 दिनों के भीतर उक्त राशि जमा करा दी जाए अन्यथा सूचना नहीं दी जाएगी। बोर्ड ने आरटीआई आवेदन में मांगी गई सूचना के 5810 पेजों की फोटोकोपी शुल्क के रूप में 11620 रूपये और सूचना इकट्ठी और तैयार करने में लगी मेहनत के लिए 5810 रूपये मांगे हैं।
रघुराज सिंह ने आरटीआई आवेदन के जरिए बदरपुर विधानसभा के बारे में दिल्ली जल बोर्ड से 1 अप्रैल 2004 से जुलाई 2008 तक जारी टेंडरों की सूची और उनका मूल्य जानना चाहा था। टेंडरों में कितनों को कम्पलीशन प्रमाण पत्र दिया गया, यह जानकारी भी मांगी गई थी। रघुराज का कहना है कि दिल्ली जल बोर्ड ने सोनिया विहार प्लांट से सप्लाई होने वाली पानी की लाइन उनके इलाके में नहीं डाली है, इस कारण बदरपुर की कई कॉलोनियों में पानी नहीं आ रहा है। उनका कहना है कि बोर्ड बडे़ पैमाने पर हुए घोटाले पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि जानकारी देने के लिए इतनी बड़ी रकम मांगी गई है। बहरहाल, रघुराज ने बोर्ड के खिलाफ अपील दाखिल कर दी है।

एएमयू ने मांगे 3100 रूपये
दाखिला प्रक्रिया की सूचना देने से बचने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) ने आवेदनकर्ता प्रोफेसर तारिक इस्लाम से 3100 रूपये की मांग कर डाली। तारिक ने अपने आवेदन में विश्वविद्यालय के लोक सूचना अधिकारी से विश्वविद्यालय की दाखिला प्रक्रिया के संबंध में सूचना मांगी थी। एक अन्य आवेदन में तारिक ने विश्वविद्यालय से अग्निशमन उपकरण के बारे में सूचना मांगी। जिसके जवाब में लोक सूचना अधिकारी ने मांगी गई सूचनाएं देने के लिए 1800 रूपये छायाप्रति शुल्क के रूप में जमा कराने को कहा।

रेलवे ने सूचना देने के लिए मांगा पारिश्रमिक
दक्षिण रेलवे ने एक आरटीआई आवेदन का जवाब देते हुए सूचना देने वाले कर्मचारी के वेतन और भत्तों की मांग की। रेलवे ने आवेदक टी सदगोपन से सूचना हासिल करने के लिए 379 रूपये पारिश्रमिक और दो रूपये प्रति कॉपी से हिसाब से देने को कहा। पट्टाभिराम निवासी टी सदगोपन ने 29 मई 2008 में दक्षिण रेलवे के जन सूचना अधिकारी से सबुरबन ट्रेनों की नई समयसारिणी, प्लेटफार्म के निर्माण के लिए आबंटित किए गए 125 करोड़ रूपये का ब्यौरा मांगा था। यह राशि व्यासरपड़ी से पट्टाभिराम के बीच फास्ट लाइन रेलवे प्लेटफार्म बनाने के लिए 2001-02 में आबंटित की गई थी। आवेदक ने अपनी अर्जी में कुल 19 प्रश्न किए थे। 12 जून का रेलवे ने आवेदन का जवाब दिया और यह राशि चेन्नई डिवीजन के सीनियर डिवीजनल कैशियर के यहां जमा कराने को बात कही।

बहराईच की कुछ बानगियां
उत्तर प्रदेश के बहराईच जिले में सूचना के बदले अनाप- शनाप पैसे मांगने के अनेक उदाहरण सामने आए हैं। इन मामलों में आवेदन दाखिल करने के 30 दिन बाद पैसे जमा कराने की बात कही गई। कुछ मामलों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है-
1- माफ़ी अहिरोरा गांव के राजकुमार ने शारदा सहायक परियोजना इंटर कॉलेज के लोक सूचना अधिकारी से कॉलेज फीस के संबंध में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी। एक महीने के बाद प्राप्त हुए जवाब में कहा गया कि पहले 2000 रूपये जमा कराओ, उसके बाद सूचना मिलेगी।
2- बहराईच के बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा अब्दुल से सूचना प्राप्त करने के लिए 5000 रूपये मांगे गए। अब्दुल ने टाईपिस्टों की नियुक्ति में की गई धांधली के संबंध में जानकारी हेतु आवेदन दाखिल किया था। अब्दुल के अनुसार योग्य अभ्यर्थियों को दरकिनार कर अयोग्यों का चयन किया गया था।
3- जिले की देहात संस्था से जुडे़ जंग हिन्दुस्तानी से ग्राम पंचायत ने सूचना देने के लिए 1500 रूपये की मांग की। जंग हिन्दुस्तानी ने तहलवा और बरखडिया ग्राम पंचायत के लैंड रेकॉर्ड्स की जानकारी मांगी थी। यह राशि बिना सूचना तैयार किए मांगी गई।
उपरोक्त तीनों मामलों में सूचना देने की तय समयावधि यानि 30 दिनों बाद पैसों की मांग की गई जो कानूनी रूप से गलत है।


क्या कहता है कानून ?
(धारा 7(३) की व्याख्या)
सूचना के अधिकार कानून की धारा 7 में सूचना मांगने के लिए फीस की व्यवस्था बताई गई है। लेकिन
धारा 7 की उप धारा 1 में लिखा गया है कि यह फीस सरकार द्वारा निर्धारित की जाएगी। इस व्यवस्था के तहत सरकारों को यह अधिकार दिया गया है कि वे अपने विभिन्न विभागों में सूचना के अधिकार के तहत दी जाने वाली शुल्क आदि तय करेंगी। केन्द्र और राज्य सरकारों ने इस अधिकार के तहत अपने अपने यहां फीस नियमावली बनाई है और इसमें स्पष्ट किया गया है कि आवेदन करने से लेकर फोटोकॉपी आदि के लिए कितनी कितनी फीस ली जाएगी।
इसके आगे धारा 7 की उप धारा 3 में लोक सूचना अधिकारी की ज़िम्मेदारी बताई गई है कि वह सरकार द्वारा तय की गई फीस के आधार पर गणना करते हुए आवेदक को बताएगा कि उसे सूचना लेने के लिए कितनी फीस देनी होगी। उप धारा 3 में लिखा गया है कि यह फीस वही होगी जो उप धारा 1 में सरकार द्वारा तय की गई होगी।
देश के सभी राज्यों में अथवा केन्द्र में सरकारों ने फीस नियामवाली बनाई हैं और इसमें आवेदन के लिए कहीं 10 की शुल्क रखी गई है तो कहीं 50 रुपए। इसी तरह दस्तावेजों की फोटोकॉपी लेने के लिए भी 2 रुपए से 5 रुपए तक की फीस अलग-अलग राज्यों में मिलती है। दस्तावेज़ों के निरीक्षण, काम के निरीक्षण, सीडी, फ्लोपी पर सूचना लेने के लिए फीस भी इन नियमावालियों में बताई गई है।
धारा 7 की उप धारा 3 कहती है कि लोक सूचना अधिकारी यह गणना करेगा कि आवेदक ने जो सूचना मांगी है वह कितने पृष्ठों में है, या कितनी सीडी, फ्लोपी आदि में है आदि आदि। और सरकार द्वारा बनाई नियमावली में बताई गई दर से यह गणना करेगा कि आवेदक को सूचना लेने के लिए कुल कितना राशि जमा करानी होगी।
इसके लिए किसी लोक सूचना अधिकारी को यह अधिकार कतई नहीं दिया गया है कि वह मनमाने तरीके से फीस की गणना करे और आवेदक को मोटी रकम जमा कराने के लिए दवाब में डाले। ऐसे में जो भी लोक सूचना अधिकारी मनमाने तरीके से अपनी सरकार द्वारा तय फीस से कोई अलग फीस आवेदक से मांगते हैं तो वह गैरकानूनी है।
साथ ही कानून का यह प्रावधान भी ध्यान में रखना होगा कि अगर लोक सूचना अधिकारी मांगी गई सूचना तय समय समय के अंदर (30 दिन या जो भी अन्य समय सीमा हो) उपलब्ध नहीं कराता है तो आवेदक से सूचना देने के लिए कोई शुल्क नहीं मांग सकता। इसके आवेदक को जब भी सूचना दी जाएगी वह बिना कोई शुल्क लिए दी जाएगी।

क्यूं न हम भी टैक्स देना बन्द कर दें ?
लोक सूचना अधिकारी या कोई भी अन्य सरकारी कर्मचारी आम आदमी के टैक्स से वेतन लेने वाला व्यक्ति है। उसे यह वेतन दिया ही इसलिए जाता है कि वह आम आदमी के लिए बनाए गए विभिन्न कानूनों का पालन करते हुए कार्य करे। ऐसे में किसी एक कानून के पालन के लिए उसका वेतन किसी व्यक्ति विशेष से मांगना व्यवस्था की आत्मा के ही खिलाफ है। इस प्रकार तो कोई भी सरकारी डॉक्टर मरीज़ों का मुफ्त इलाज नहीं करेगा। वह भी कहेगा कि आपके इलाज में जो खर्चा आएगा उसमें मेरे तथा अस्पताल के अन्य कर्मचारियों का वेतन आपको देना होगा। या फ़िर कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति 100 नंबर पर फोन कर पुलिस बुलाना चाहे तो उसे बताया जाए कि पुलिस वैन में आने वाले पांच कर्मचारियों का और ड्राईवर का उतने समय का वेतन तथा वैन में लगने वाले पेट्रोल का भुगतान आपको करना होगा।
अगर सूचना के अधिकार कानून का पालन करने के लिए सम्बंधित अधिकारियों और कर्मचारियों का वेतन मांगा जा सकता है तो भला यह क्यों नहीं हो सकता।
और अगर ऐसा ही करना है तो फ़िर आम आदमी भी टैक्स क्यों दे? वह भी कह सकता है कि जिस जिस कानून के तहत मैं आपकी सेवाएं लूंगा उसकी फीस मैं आपको यथा समय देता रहूंगा। फ़िर भला क्यों लोग इन सरकारी कर्मचारियों के परिवारों को पालने का बोझ उठाएंगे, क्यों इन्हें जनता के खर्चे पर इतनी सुविधाएँ दी जाएंगी? क्यों इन्हें मरते दम तक पेंशन दी जाएंगी? इस तरह यह सरकार न रहकर लाला की एक दुकान हो जाएगी। यहां जो माल लेगा वही कीमत चुकाएगा। हर कर्मचारी सरकारी कर्मचारी न रहकर लाला की दुकान का एक नौकर रह जाएगा।
आज की व्यवस्था में एक भिखारी भी इनके लिए टैक्स देता है। भला वह टैक्स क्यों देगा? और भिखारी ही क्यों देश का कोई भी आदमी इन्कम टैक्स, सेल्स टैक्स से लेकर दुनिया भर के टैक्स भरता है, वह भला क्यों भरेगा? आज एक औसत आदमी जितनी वस्तुओं का उपभोग करता है उसमें वस्तु की वास्तविक कीमत और उसके उत्पादन में लगे श्रम की वास्तविक कीमत पर ही अगर वस्तु मिलने लगे तो वह बहुत थोड़े रुपए कमाकर भी शान से जी सकता है। लेकिन आज उन्हीं वस्तुओं और सेवाओं के साथ जीने के लिए आम आदमी लाखों रुपए कमाता ही इसलिए है क्योंकि वह टैक्स देता है, कमीशन देता है।
अब सरकार के वे लोक सूचना अधिकारी जिनके कारनामों का उल्लेख इस रिपोर्ट में किया गया है खुद को लाला की दुकान के नौकर से ऊपर समझने को तैयार नहीं हैं तो यह सवाल खड़ा लाज़मी है कि एक आम आदमी उनके और उनके परिवार का बोझ उठाने के लिए इतना टैक्स क्यों दे? अगर सरकार में बैठे लोग उसके लिए बनाए कानूनों का पालन करने के लिए उससे अलग से वेतन मांगेंगे तो फ़िर वह टैक्स दे ही क्यों?

रविवार, 16 नवंबर 2008

मुख्य मंत्री की कुवैत यात्रा, खर्च महज १०हजार

अर्जुन कुमार बसाक

हाल ही में मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने अपनी संम्पत्ति करीब एक करोड़ बताई है। इसे देखकर लगता है कि वह में मध्यम वर्ग श्रेणी की हैं। उसके संम्पत्ति में दो-तिहाई से ज्यादा का सिर्फ अपने घर की कीमत बताई है, घर को छोड़ दें तो उनके पास महज 30-35 लाख् की संम्पत्ति है।

यह अच्छी बात है हमारे जन नेत्री भी लगभग हमारी ही तरह है। लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, हाल में सूचना के अधिकार के तहत मिले मुख्य मंत्री जी के विदेश यात्राओं के विवरण से अंदाजा लगाया जा सकता है। यह सूचना के अधिकार आवेदन सामाजिक कार्यकर्ता ने दाखिल किया था। आवेदन के जवाब में बताया गया है कि एक जनवरी 2007 से अब तक सीएम शीला ने कुल् चार विदेश यात्रा की है इसमें सबसे पहले अप्रैल 2007 में एशियन ओलोंपिक काउंसिल के मीटिंग में शामिल होने के लिए कुवैत गईं थीं। जिसका कुल खर्च महज 10 हजार एक सौ बानवे रूपये बताया गया है। मुख्य मंत्री की यात्रा है तो साथ में कुछ और लोग भी जाते है। इससे लगता है कि हमारी मुख्य मंत्री फिजूल खर्चा से बचती हैं, लेकिन इसके बावजूद मुख्य मंत्री की विदेश यात्रा में कुल खर्च महज दस हजार के करीब। बताए गए खर्च में प्रशन चिन्ह खरा करता है। पिछले साल मई में सिटिज क्लाईमेट चेंज्ा के मिटिंग में शिरकत के लिए न्यूयार्क गईं थीं। जिसका कुल खर्च करीब 6 लाख् 13 हजार बताया गया है। सितंबर 2007 में बेरारूस के येरावन और मिंस्क शहरों के यात्रा का कुल खर्च महज 1 लाख् 68 हजार के करीब बताया है। इसके अलावा इस साल मार्च में चीन के बिजिंग और तियानजीन के यात्रा का खर्च 1 लाख् 83 हजार सात सौ पैतालीस रूपये बताया गया है। मामला जैसा भी विवरण को देखे तो यही लगता है हमारी माननीय मुख्य मंत्री जी बिल्कुल ही फिजूलखर्ची नहीं है। चुनाव के बाद ऐसे मुख्य मंत्री रहीं या आई या आया तो प्रश्न चिन्ह वाले फिजूलखर्ची से बचने वाले और नेताओं की और भी जानकारी मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

14 वर्षीय विनीत की बेमिसाल पहल

भागीरथ श्रीवास
जहां देश में सूचना कानून के बारे में जानने वाले लोगों की संख्या एकदम सीमित है, वहीं दूसरी तरफ़ विनीत पटेल जैसे बच्चे भी हैं जिन्होंने सूचना के अधिकार को इस्तेमाल कर अधिकारियों के कान खडे़ कर दिए हैं। गुजरात के मेहसाना के विसनगर में रहने वाला विनीत सहजानंद सेकेन्डरी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता है। अपने पिता से सूचना के अधिकार के बारे में जानने और चाचा की मदद के बाद विनीत से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपने क्षेत्र में पीने के पानी और सड़कों के संबंध में आरटीआई आवेदन दाखिल किया।
आवेदन में पूछा कि क्षेत्र में पानी की आपूर्ति इतनी अनियमित क्यों है? साथ ही पानी की लैब रिपोर्ट मांग ली। विनीत ने अधिकारियों से अपने क्षेत्र की सड़कों के संबंध में भी जानकारी मांगी। पूछा कि क्षेत्र में सड़क क्यों नहीं है और अब तक रोड़ के लिए किन्होंने टेंडर दाखिल किए हैं। उनकी हाउसिंग सोसाइटी की सफाई करने वाले सफाईकर्मियों इतनी अधिक छुटि्टयां कौन देता है, यह पूछकर भी विनीत ने अधिकारियों को कटघरे में खड़ा कर दिया।
यह सारे सवाल नागरिक सुविधाओं की बदहाल स्थिति को देखते हुए नगरपालिका के अधिकारियों से किए। स्वयं विनीत को भी इन समस्याओं से आय दिन दो चार होना पड़ता था। सड़कों की खराब स्थिति के कारण स्कूल वैन उनके घर तक नहीं पहुंच पाती थी। इसके लिए उन्हें करीब 500 मीटर पैदल चलकर जाना पड़ता था। मॉनसून के दौरान गलियां कीचड़ से भर जाती थीं जिससे गलियों में चलना बड़ा मुश्किल हो जाता था। आईएएस अधिकारी बनने का सपना देखने वाले विनीत का कहना है कि वह अपनी सोसाइटी को पक्का रोड और साफ़ पानी की व्यवस्था करने में अपना सर्वोत्तम देंगे।

विनीत के इन्हीं प्रयासों को देखते हुए मुंबई की पब्लिक कन्सर्न फोर गवरनेंस ट्रस्ट ने उन्हें 5 नवंबर को नवलीन अवार्ड से सम्मानित किया। नवलीन अवार्ड जाने माने भूमि अधिकार कार्यकर्ता नवलीन की याद में दिया जाता है जिनकी भू माफियों ने सितंबर 2006 में हत्या कर दी थी। यह अवार्ड व्यक्तिगत और संगठन दो श्रेणियों में दिया जाता है। विनीत को व्यक्तिगत और अहमदाबाद की महति अधिकार गुजरात पहल संस्था को संगठन श्रेणी के तहत यह अवार्ड हासिल हुआ। अवार्ड समारोह में विनीत को अपने पिता की अनुपस्थिति जरूर खली क्योंकि हाल ही में उनका निध्न हुआ है। उन्होंने कहा कि पिता ने आरटीआई आवेदन दाखिल करने में मदद की लेकिन अब वह मेरे साथ कभी नहीं होंगे।
बहरहाल, विनीत पटेल ने सूचना की अधिकार की मदद से जन समस्याओं को उठाने की अपने हम उम्रों के बीच एक अनोखी पहल कर दी है। देश को अभी अनेकों विनीतों की जरूरत है। अब देखना है समाज से कितने और विनीत निकलकर आते हैं।

प्रवासी भारतीयों के लिए टेढ़ी खीर है आरटीआई

पंकज दुबे
पहले तो विवाद इस बात पर था कि विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास, सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के दायरे में आते ही नहीं और जब यह विवाद थमा को अमेरिका में वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास प्रवासियों द्वारा इसके इस्तेमाल में अड़चने पैदा कर रहा है। दरअसल, वहां आरटीआई सम्बंधित वो आवेदन स्वीकार नहीं किए जा रहे हैं जिनमें ऐसी सूचनाएं मांगी जा रही हैं, जो उनके पास नहीं हैं।
हालांकि अपने रुख से दूतावास सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धरा 6(३) की साफ़ तौर प अवमानना कर रहा है जिसमें निर्दिष्ट है कि यदि किसी भी सरकारी विभाग के पास किसी सूचना की जानकारी के लिए आवेदन आए जिससे उस विभाग को सीधा संबंध नहीं है तो विभाग ऐसे आवेदन को 5 दिनों के भीतर ही सम्बंधित विभाग में स्थानांतरित कर दे।
वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास ने स्वीकारा है कि उनके पास अलग-अलग विषयों पर सूचना मांगने के लिए प्रवासी भारतीयों से आए 45 आवेदनों में से 31 को सिर्फ़ यही जवाब दिया गया है कि वे जो सूचनाएं चाहते हैं उनके लिए अपने आवेदन भारत स्थित विभाग को भेजें। प्रवासियों द्वारा दाखिल आवेदनों में विविध विषयों पर सूचनाएं मांगी गईं हैं। मसलन नर्मदा परियोजना, नंदीग्राम, दाओ केमिकल और भोपाल गैस त्रासदी इत्यादि।
दूतावास ने अपनी वेबसाइट पर यह लिखा है कि प्रवासी भारतीय सूचना का अधिकार अधिनियम, के तहत दूतावास को वे आवेदन ही भेजें जिनमें मांगी गई सूचनाओं का सीधा संबंध दूतावास से हो। जबकि अधिनियम की धरा 6(३) में ऐसी कोई शर्त निर्दिष्ट नहीं है।
जब दूतावास से एक प्रवासी भारतीय ने दूतावास की वेबसाइट में उपरोक्त निर्देश सम्बन्धी फाईल नोटिंग को सार्वजनिक करने की मांग की तो दूतावास को दो टूक जवाब था- वेबसाइट में जो भी सूचनाएं हैं वो लोक सूचना अधिकारी द्वारा भारत सरकार की अनुमति से जारी की गईं है।
अमेरिका में बसे एक अन्य प्रवासी भारतीय विशाल कुडचाडकर ने भारतीय दूतावास से जानकारी चाही कि दूतावास ने कुल कितने आवेदनों को यह कहकर लौटा दिया कि वे अपने आवेदन सम्बंधित विभागों को सीधे भारत भेजें। दूतावास ने जवाब दिया कि यह बताने से आवेदकों के निजता के अधिकार का हनन होगा। दूतावास के जवाब कुछ और हो न हो सूचना के अधिनियम को खुलकर माखौल उड़ रहा है। गौरतलब है कि नई दिल्ली स्थित केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) अपने सभी फैसलों को आवेदकों के पूरे नाम और पते के साथ अपनी वेबसाइट पर जारी करता है।
हालांकि प्रवासी भारतीय केन्द्रीय सूचना आयोग से भी खासे खफा हैं। उनकी नाराजगी की वजह यह है कि सीआईसी का उनके द्वारा भेजे गए आवेदनों और शिकायतों पर रवैया बढ़ा ढीला-ढाला है।
जब प्रवासी भारतीय आवेदकों ने अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास को सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 6(३) का हवाला दिया तो दूतावास ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि आवेदकों को अपने आवेदन सम्बंधित विभागों में भेजने के लिए अलग से आवेदन करना चाहिए था।

अस्पताल को करना पड़ा मुफ्त इलाज

सरकारी अस्पतालों में भी पैसे वालों की ही तूती बोलती है। यदि पैसे नहीं तो इलाज नहीं होता। कुछ ऐसा ही हो रहा है दिल्ली के गुरू तेग बहादुर अस्पताल में, जहां बुलंदशहर से अपनी मां का इलाज कराने आए मुद्दसिर अली से ऑपरेशन के सामान के लिए 30 हजार रूपये मांगे जाते हैं। पैसा न होने पर इलाज करने से मना कर दिया जाता है। मामला उच्च न्यायालय में जाने और न्यायालय के आदेश के बाद अस्पताल को ऑपरेशन करने को मजबूर होना पड़ता है।
दिल्ली आते वक्त मुद्दसिर ने सोचा भी नहीं था कि इस अस्पताल में मां (सैयदा) का ऑपरेशन कराना इतना आसान नहीं होगा। गरीब, विक्लांग एवं ढाई हजार रूपये महीना कमाने वाले मुद्दसिर से सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन के लिए इतनी बड़ी धनराशी मांगी जाएगी। उन्हें नहीं पता था कि लगभग ढाई महीने की जद्दोजहद के बाद ऑपरेशन होगा वह भी सूचना के अधिकार के इस्तेमाल और उच्च न्यायालय के आदेश के बाद। मुद्दसिर को तो सिर्फ़ इतना पता था कि सरकारी अस्पतालों में गरीबों को मुफ्त इलाज किया जाता है। और इसी खातिर वे अपनी बीमार मां को अगस्त में पूर्वी दिल्ली के गुरूतेग बहादुर अस्पताल लाए।
डॉक्टर ने उनकी मां की जांच करने के बाद हिप रिप्लेसमेंट को जरूरी बताया और उन्हें इलाज के लिए जरूरी सामान जुटाने को कहा। डॉक्टर ने मुद्दसिर को एक एजेंट भूपेन्द्र का नंबर भी दिया जो इनकी व्यवस्था कर सकता था। जब एजेंट से संपर्क किया गया तो उसने ऑपरेशन के सामान आदि के लिए करीब 30 हजार की मांग की। गरीब मुद्दसिर के पास इतने पैसे नहीं थे, इसलिए उसने अस्पताल से मुफ्त इलाज की गुजारिश की, लेकिन अस्पताल राजी नहीं हुआ। दो टूक जवाब देते हुए अस्पताल के डॉक्टर ने कहा- जब पैसे का जुगाड़ हो जाए तब आना। सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं की मदद से उन्होंने अस्पताल के लोक सूचना अधिकारी से इस संबंध में लाइफ एंड लिबर्टी के अन्तर्गत जवाब तलब किया। लेकिन अस्पताल ने आरटीआई आवेदन का 48 घंटे में जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा। बाद में जो जवाब मिला वह भी ठीक नहीं था।
आवेदन दाखिल करने के तीसरे दिन केन्द्रीय सूचना आयोग में शिकायत की गई लेकिन आयोग ने भी लाइफ एंड लिबर्टी के मामले की समय पर सुनवाई नहीं की। इसी बीच मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में चला गया। उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में अस्पताल को 2 अक्टूबर को मुद्दसिर की मां का मुफ्त में ऑपरेशन करने को कहा। अस्पताल ने यहां भी लापरवाही दिखाई और उच्च न्यायालय द्वारा दी गई तारीख में इलाज नहीं किया। इसके लिए कभी कर्मचारियों की हडताल का हवाला दिया तो कभी ऑपरेशन में जरूरी सामान की गैर मौजूदगी का। अन्तत: अस्पताल को 21 अक्टूबर को मुद्दसिर की मां का मुफ्त ऑपरेशन करना पड़ा। अब सैयदा पूरी तरह स्वस्थ हैं।

क्यों है पश्चिम बंगाल सूचना आयोग दूसरों से खास

जरा गौर फरमाईये
1- क्या देश में ऐसा कोई ऐसा राज्य सूचना आयोग है जिसने पश्चिम बंगाल सूचना आयोग की तरह पिछले तीन सालों में एक बार भी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है
2- क्या देश में कोई ऐसा राज्य सूचना आयोग है जिसने पश्चिम बंगाल सूचना आयोग की तरह 3 साल में मात्र 116 सुनवाईयां की हों
3- क्या देश में कोई ऐसा राज्य सूचना आयोग है जिसने पश्चिम बंगाल सूचना आयोग की तरह पिछले तीन सालों में केवल 6 लोक सूचनाधिकारियों को दंडित और मात्र 2 आवेदकों को मुआवजा दिलाया हो
4- क्या देश में ऐसा कोई राज्य सूचना आयोग है जो पश्चिम बंगाल सूचना आयोग की तरह बंद कमरे में सुनवाईयां करता हो

एक नजर यहां भी
1- पश्चिम बंगाल राज्य सूचना आयोग ने वित्त वर्ष 2007-2008 में 7154000 रूपये खर्च किए।
2- पश्चिम बंगाल राज्य सूचना आयोग ने वित्त वर्ष 2007-2008 में 67 सुनवाईयां की यानि एक माह में औसतन 6 सुनवाईयां।
3- प्रत्येक सुनवाई पर खर्च हुई औसत राशि- 106776 रूपये।
इन सबके बावजूद आयोग के ज्यादातर निर्णय या आदेश जन सामान्य और सूचना के अधिकार कानून की आत्मा के खिलाफ रहे हैं।

प्रस्तुति: मलय भट्टाचार्य

मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष मामला उच्चतम न्यायालय में

मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष सूचना के अधिकार के दायरे में है या नहीं, अब इसका निर्णय उच्चतम न्यायालय करेगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी द्वारा दायर याचिका के जवाब में मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की एक बैंच ने इस मामले में राज्य सूचना आयोग और उनके मुख्य सूचना आयुक्त के विचार मांगे हैं। हाल ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउ बैंच ने मुख्यमंत्री कार्यालय को आदेश दिया था कि वह मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से एक लाख से अधिक का लाभ पाने वाले लाभार्थियों का ब्यौरा आरटीआई आवेदक को उपलब्ध कराए। यह आवेदन अखिलेश प्रताप सिंह ने दाखिल किया था। उत्तर प्रदेश सूचना आयोग ने इस मामले में मुख्यमंत्री कार्यालय को निर्देश दिया था कि वह 28 अगस्त 2003 से 31 मार्च 2007 के मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से 1 लाख से अधिक का लाभ पाने वालों को ब्यौरा आवेदक को दे। लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय ने आयोग के आदेश को न मानते हुए इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने भी आयोग का निर्णय बरकरार रखा। अब उच्च न्यायालय के इस फैसले को अब उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई है।

अमर सिंह की बातचीत आरटीआई के दायरे में

केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने कहा है कि सरकारी अधिकारियों की टेप की गई बातचीत सूचना के अधिकार के दायरे में है। आयोग के तीसरे वार्षिक सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने बताया कि किसी व्यक्ति और लोक प्राधिकरण के बीच हुई बातचीत को यदि रिकार्ड किया जाता है तो वह पब्लिक डोमेन मे है। निजता के बारे में उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति अपनी गर्लफ्रेंड, पत्नी, बच्चों की शिक्षा के बारे में बात करता है तो वह निजी सूचना है। जब उनसे पूछा गया कि समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह के टेप क्या आरटीआई के दायरे में है तो उनका जवाब था- यदि यह रिकॉर्ड है तो इसे प्रदर्शित किया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा कोई मामला अब तक उनके समक्ष नहीं आया है। सम्मेलन में इस मामले को एडवोकेट प्रशांत भूषण ने उठाया था। प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में टेप सार्वजनिक करने में लगी पाबंदी को हटाने के लिए आवेदन भी दे रखा है।

पटना उच्च न्यायालय ने बीपीएससी को दिया अंक बताने का आदेश

पटना उच्च न्यायालय ने राज्य सूचना आयोग के फैसले को बरकरार रखते हुए बिहार लोक सेवा आयोग को 46 वीं संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा के अभ्यर्थियों के प्राप्तांकों की जानकारी देने को कहा है। इससे पहले राज्य सूचना आयोग ने यह आदेश दिया था, जिसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी की एकल बैंच ने बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) की इस याचिका को खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया। न्यायालय ने बीपीएससी की इस दलील को सिरे से खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि वह इस प्रकार की सूचना देने के लिए बाध्य नहीं है। सूचना और जानकारी को मौलिक अधिकार मानते हुए जिस्टस अजय कुमार त्रिपाठी ने कहा कि सूचना के अधिकार का मतलब पारदर्शिता लाना है। और इसी उद्देश्य के लिए सहभागी सरकारों मे यह कानून लागू किया गया ताकि भारतीय संविधान के तहत लोगों की जरूरतें पूरी हो सकें।

पदमा मैडम ने कहा- सरकार के पास इतनी सूचना देने का समय नहीं है

आपने ज्यादा सूचनाएं मांग ली हैं, आपको कोई काम नहीं है क्या? सरकार के पास इतनी सूचना देने का समय नहीं है। ये वाक्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम ने मेरठ के विजेन्द्र सिंह से उनकी अपीलों की सुनवाई के दौरान कहे। सूचना आयुक्त सूचना दिलाने में कितनी गंभीर हैं, इसका अंदाजा उनकी बातों से आसानी से लगाया जा सकता है।
केन्द्रीय सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम के फैसलों से असंतुष्ट आवेदनकर्ताओं की संख्या एक-दो में नहीं बल्कि कईयों में है। विजेन्द्र सिंह भी इनमें से एक हैं। पदमा ने 24 जून को उनकी 28 अपीलों की सुनवाई की थी और 26 जून को आर्डर पास किया जो पूरी तरह से आवेदक के खिलाफ था। आवेदनकर्ता का कहना है कि पदमा ने उनके आवेदनों को बिना पढ़े ही मात्र 5 सूचनाएं देने का फैसला सुना दिया, वह भी आवेदक को अब तक नहीं मिली हैं। आवेदनकर्ता ने अपने समस्त आवेदनों में करीब 250 सूचनाएं मांगी हैं जो गुजरात के बैंक ऑफ़ बडौदा से सम्बंधित हैं।
विजेन्द्र का कहना है कि बैंक ने उन्हें झूठे आरोपों में बर्खास्त कर दिया है। हाईकोर्ट में केस करने के लिए उन्हें आवेदनों में मांगी गई सूचनाओं की जरूरत है। उनका कहना है कि बैंक फंसने के डर से सूचना देने से बच रहा है और सूचना आयुक्त भी बैंक के लोक सूचना अधिकारी के साथ है।
पदमा के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए उन्होंने मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के पास याचिका भी भेजी, इसके लिए कई रिमांइडर भी भेजे लेकिन उनकी तरफ़ से भी कोई जवाब नहीं मिला। उक्त सूचनाएं प्राप्त करने के लिए वे लगभग 10 हजार रूपये भी खर्च कर चुके हैं। सूचना कानून किसी भी लोक प्राधिकरण से सूचना हासिल करने की गारंटी देता है लेकिन आवेदन दाखिल करने के 11 महीने बाद भी विजेन्द्र को सूचना नहीं मिली है। इसे सूचना कानून का मजाक नहीं तो और क्या कहा जाएगा?

सीआईसी में अब नहीं होगा पुनर्विचार याचिकाओं पर विचार

केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने रेगुलेशन, 2007 को संशोधित कर स्पष्ट कर दिया है कि वह पुनर्विचार याचिकाओं पर विचार नहीं करेगा। आयोग के निर्णयों पर उच्च न्यायालय न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में दाखिल याचिका के माध्यम से ही दोबारा विचार हो सकता है। आयोग की वेबसाइट पर साफ़ उल्लेख है- आयोग द्वारा दिया गया आदेश या फैसला अंतिम होगा।
इससे पहले आवेदनकर्ता मुख्य सूचना आयुक्त के यहां याचिका दाखिल कर फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध् कर सकता था। मुख्य सूचना आयुक्त द्वारा उचित समझने पर याचिका पर विचार करने के लिए विशेष अवकाश लिया जाता था। लेकिन अब सीआईसी ने अपने रेगुलेशन में संशोधन कर इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी है। जानकार आयोग के इस संशोधन को आवेदकों के हित में नहीं मान रहे हैं। यह भी माना जा रहा है कि बढ़ती पुनर्विचार याचिकाओं से छुटकारा पाने के लिए आयोग ने यह कदम उठाया है।

निगम के अधिकारी के वाहन का मासिक किराया 42 हजार

पंजाब एग्रो फाईनेंस कारपोरशन (पीएएफसी) के भूतपूर्व चेयरमेन जोगिन्दर सिंह मान के लिए किराए पर ली गई लेन्सर कार का मासिक किराया 42 हजार रूपये। इस कार का एक साल तक इस्तेमाल किया गया। पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन (पीएआईसी) के प्रबंध निदेशक हिम्मत सिंह के लिए किराए पर ली गई होन्डा सिटी कार का मासिक किराया 33 हजार 600 सौ रूपये। इस कार की 18 महीने तक सेवा ली गई। यह किराया होन्डा सिटी से पहले इस्तेमाल की गई एम्बेसडर कार से लगभग दोगुना है। सूचना के अधिकार के तहत हासिल की गई यह जानकारी बताती है कि किस प्रकार करदाताओं की गाढ़ी कमाई को अधिकारियों द्वारा फैंसी कारों के किराए पर खर्च किया जा रहा है।
इतना ही नहीं पंजाब सरकार अपने अधिकारियों की कारों की मरम्मत के लिए हर महीने 5000 रूपये भी देती है। राज्य का मंडी बोर्ड हर साल अपनी कारों की मरम्मत पर औसतन 25 हजार रूपये खर्च करता है। राज्य का वेयर हाउसिंग कॉरपोरेशन भी वाहनों पर खर्च करने वालों में किसी से कम नहीं है। अपने वाहनों पर यह सालाना 30 लाख रूपये खर्च करता है। साल 2003-04 में कॉरपोरेशन ने ३५.85 लाख का खर्चा किया यानि हर महीने 3 लाख रूपये।

मुख्य सचिव कार्यालय में नियुक्त हुए लोक सूचना अधिकारी

उत्तर प्रदेश मुख्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र शर्मा के आदेश के बाद आखिरकार राज्य के मुख्य सचिव कार्यालय को लोक सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति करनी ही पड़ी। आयोग के आदेश और फटकार के बाद उसे स्वयं को लोक प्राधिकरण मानने पर मजबूर होना पड़ा और कानून के तहत कार्यालय के निजी सचिव बंश बहादुर सिंह को लोक सूचना अधिकारी और स्टॉफ ऑफिसर आर डी पालीवाल को प्रथम अपीलीय अधिकारी के रूप में नियुक्त करना पड़ा। आयोग के आदेश से पहले कार्यालय अपने आप को सूचना कानून से बाहर मानता आया था और आरटीआई आवेदनों के जवाब देने से बचता आया था। पहले उसने दलील दी थी कि मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश प्रशासन के सचिवालय का नियंत्रण अधिकारी है लेकिन वह लोक प्राधिकरण की परिभाषा में नहीं आता। यह भी कहा गया कि मुख्य सचिव कार्यालय में न तो कोई लोक सूचना अधिकारी नियुक्त किया जाना अपेक्षित है और न ही वेबसाइट बनाना अपेक्षित है। सूचना आयुक्त ने उनकी कार्यालय की इस दलील की सिरे से नकार दिया था और उसे याद दिलाया था कि क्या मुख्य सचिव को यह बताने की आवश्यकता है कि देश के प्रधानमंत्री की भी अपनी वेबसाइट है, प्रदेश के मुख्यमंत्री की अपनी अलग वेबसाइट है, ऐसे में राज्य सचिवालय के प्रमुख द्वारा अपनी वेबसाइट अथवा किसी अन्य माध्यम के तहत सूचनाएं न उपलब्ध कराना भी कानून की अवमानना है। आयोग ने 25 सितंबर को अपने आदेश में कार्यालय को 15 दिनों के भीतर लोक सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति करने को कहा था।

आमना बेगम का बना राशन कार्ड

सुंदरनगरी की रहने वाली आमना बेगम ने सूचना के अधिकार की बदौलत राशन कार्ड बनवाने में सफलता पाई है। जो राशन कार्ड कई महीनों से नहीं बन रहा था, वह आरटीआई की एक अर्जी से बनकर घर आ गया। आमना बेगम ने 2007 में राशन कार्ड बनवाने के लिए आवेदन दिया था। नियमानुसार आवेदन दाखिल करने के 45 दिनों बाद राशन कार्ड मिल जाना चाहिए था, जो मई 2008 तक नहीं बना। राशन कार्ड न बनते देख आमना बेगम ने 31 मई 2008 को आरटीआई अर्जी दाखिल कर दी और खाद्य एवं आपूर्ति कार्यालय से आवेदन पर की गई दैनिक प्रगति रिपोर्ट की जानकारी मांग ली। एक महीने बाद विभाग का जो जवाब आया, वह गोलमोल था। जवाब में कहा गया कि दैनिक प्रगति रिपोर्ट नहीं दी जा सकती और राशन कार्ड अभी पाइपलाइन में हैं। जवाब से असंतुष्ट आमना ने प्रथम अपीलीय अधिकारी एस एस राठोर के समक्ष प्रथम अपील दायर की। अपील पर कारवाई करते हुए अपीलीय अधिकारी ने आदेश दिया कि 6 अक्टूबर को आमना को राशन कार्ड मिल जाना चाहिए। आमना बेगम 6 अक्टूबर को जब राशन कार्ड लेने दफ्तर गई तब भी कार्ड नहीं मिला। अपीलीय अधिकारी के आदेश के बावजूद भी कार्ड न बनने पर उन्हें चिट्ठी भेजी गई। चिठ्ठी भेजने के दो दिन बाद ही आमना के घर राशन कार्ड बनकर आ गया।

एमटीएनएल ने लगाया ब्रॉडबैंड कनेक्शन

दिल्ली में बदरपुर के निकट मोलर बंद एक्सटेंशन में रहने वाले प्रेम कुमार ने सूचना के अधिकार की अर्जी क्या डाली, एक महीने के भीतर उनसे घर एमटीएनएल ने ब्रॉडबैंड कनेक्शन लगा दिया। प्रेम कुमार ने 18 जुलाई को ब्रॉडबैंड कनेक्शन के लिए आवेदन दिया था। एमटीएनएल ने फोन कनेक्शन तो लगा दिया लेकिन ब्रॉडबैंड कनेक्शन लगाने में अनाकानी करने लगा। संपर्क करने पर एमटीएनएल ने कहा कि बोर्ड उपलब्ध नहीं हैं। कनेक्शन न लगने पर प्रेम ने 23 सितंबर को विभाग में आरटीआई की अर्जी दाखिल कर दी। अर्जी में उन्होंने अपने आवेदन पर की गई दैनिक प्रगति रिपोर्ट, आवेदन पर कारवाई करने वाले अधिकारियों के नाम और पद पूछे। साथ ही उन्होंने यह प्रश्न भी किया जब बोर्ड उपलब्ध नहीं थे तो क्यों कनेक्शन बुक किए गए। आवेदन में पूछे गए प्रश्नों के जवाब तो 30 दिन में नहीं मिले लेकिन 20 अक्टूबर को एनटीएनएल ने ब्रॉडबैंड का कनेक्शन जरूर लगा दिया।

आखिरकार पदमा ने लगाया जुर्माना

केन्द्रीय सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम ने आखिरकार अपने तीन साल के कार्यकाल में पहला जुर्माना लगा ही दिया। भारतीय खेल प्राधिकरण के लोक सूचना अधिकारी पर लगा 10 हजार का यह जुर्माना सूचना के अधिकार कानून के नोटिस की अनदेखी करने पर लगा है। प्राधिकरण के लोक सूचना अधिकारी सुरेश हरमिलापी ने आवेदनकर्ता लिखीराम द्वारा दायर अपील आरटीआई आवेदन का जवाब नहीं दिया था। लिखीराम ने आरटीआई आवेदन के अन्तर्गत प्राधिकरण से अनुसूचित जाति और जनजाति कोटे के तहत सहायक निदेशक के पद पर अपना चयन न होने के संबंध में जानकारी मांगी थी। सूचना ने मिलने पर मामला सूचना आयोग में अपील की गई। सूचना आयोग के नोटिस के बाद भी सूचना अधिकारी सुरेश हरमिलापी सुनवाई में उपस्थित नहीं हुए। अधिकारी के इस रवैए पर पदमा बालासुब्रमण्यम ने सख्ती दिखाते हुए कानून की धरा 20(१) के तहत उक्त दंड लगाया और इसे चार किश्तों में जमा करने का आदेश दिया।

घर पहुंचा पासपोर्ट

पासपोर्ट बनवाने के लिए आवेदन दिया, विभाग के अनेक चक्कर काटे, लगभग साल भर का समय बीत गया लेकिन फिर भी पासपोर्ट नहीं बना। लेकिन जैसे ही सूचना के अधिकार कानून के तहत अर्जी दाखिल की गई, पासपोर्ट एक महीने में बनकर घर आ गया। यह कहानी दिल्ली के प्रहलादपुर में रहने वाले प्रणब कुमार की है, जिन्होंने 17 अक्टूबर 2007 को पासपोर्ट बनवाने हेतु आवेदन दिया था, लेकिन उनके आवेदन पर विभाग ने कारवाई नहीं की। तीन रिमाइंडर भी विभाग को भेजे लेकिन सब बेअसर। अन्तत: 5 सितंबर 2008 में आरटीआई आवेदन दाखिल कर विभाग से इस संबंध में जवाब तलब किया। जवाब में 1 अक्टूबर को विभाग ने एक खत भेजा जिसमें कहा गया कि पासपोर्ट आवेदन से सम्बंधित उनकी फाईल खो गई थी, जिसे आरटीआई आवेदन मिलने के बाद ढूंढा गया। इस जवाब में तीन बाद ही 4 अक्टूबर को पासपोर्ट बनकर प्रणब के घर पहुंच गया।

अपना पन्ना टीम

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

सूचना चाहिए तो निकालो 70 लाख रुपये

सूचना के अधिकार अधिकार के तहत सूचना मांगने पर सूचना तो नहीं मिली उलटे 70 लाख रुपये जमा करने का पत्र जरूर मिल गया. पूरा वाकया यूँ है कि सुल्तानपुर के आइमा गाँव के रमाकांत पाण्डेय ने जिला कार्यक्रम अधिकारी कार्यालय के सूचना अधिकारी को आवेदन भेज कर कई तरह कि सूचनाएँ मांगीं. इन सूचनाओं में जिला कार्यक्रम अधिकारी एम् जेड़ खान के पूरे कार्यकाल के आवागमन (भ्रमण पंजिका), जनपद में संचालित आँगनवाडी केन्द्रों की सूची, केन्द्र से छात्रों को शासन द्वारा निर्धारित मानक, छात्रों के भौतिक सत्यापन की रिपोर्ट के साथ-साथ कई और जानकारियाँ भी शामिल थीं. इन सूचनाओं में विभाग द्वारा उपलब्ध कराये गए वाहनों की लोग बुक, आंगनवाडी केन्द्रों की केन्द्रवार वर्ष 2006 और वर्ष 2007 में वितरित पुष्टाहार का लाभ लेने वाले छात्रों, महिलाओं के नाम-पते, निरीक्षण-परीक्षण सम्बन्धी दिशा-निर्देशों वाली राजाज्ञाओं की फोटो प्रतियों की मांग की गई.
निर्धारित अवधि 30 दिन बीत जाने के बाद भी कोई जवाब न मिलने पर रमाकांत पाण्डेय ने प्रथम अपीलीय अधिकारी सहायक निदेशक (बाल विकास) को अपील भेजी. जवाब में अपर निदेशक दया शंकर श्रीवास्तव ने लिखा कि जिला कार्यक्रम अधिकारी ने अवगत कराया था कि सूचना के लिए निर्धारित शुल्क जमा कर दिया जाए. शुल्क जमा करने की स्थिति में आपको सूचना नहीं दी गई. इसके बाद रमाकांत उस पत्र को पाकर (अनुस्मारक के रूप में प्राप्त हुआ) हैरान रह गए जिसमें उनसे सूचना प्राप्ति के लिए सौ-दो सौ या हजार नहीं वरन 70 लाख रुपये से अधिक जमा करने को कहा गया था.
जिला कार्यक्रम अधिकारी के कार्यालय के पत्र के अनुसार मांगी गई सूचनाओ का ब्यौरा देते हुए लिखा गया कि लाभार्थियों की संख्या 519034 और अन्य नाम-पते विवरण आदि देने में अनुमानित व्यय 77 लाख 85 हजार 510 रुपये लगाते हुए उनसे 78 लाख 14 हजार 245 रुपये जमाकरने को कहा गया. पत्र में यह भी कहा गया कि धनराशि का अग्रिम 90 प्रतिशत (70 लाख 32 हजार 820 रुपये) पत्र प्राप्ति के एक सप्ताह के भीतर जमा करने पर सूचनाओं के तैयार करने सम्बन्धी कार्यवाही शुरू की जा सके.
हालाँकि पाण्डेय का कहना है कि इस तरह का कोई पत्र उनको नहीं मिला है पर कार्यालय की तरफ़ से दावा किया गया है कि पत्र संख्या - 2545/जि0 का0 अधि0/2006-07 दिनांक - 06.03.2007 रमाकांत को भेजा गया है. जिला कार्यक्रम अधिकारी ने लिखा है कि स्वयं के कार्यकाल जून 05 से जनवरी 07 तक के भ्रमण कार्यक्रम की सूचना लगभग 50 पेज के हिसाब से 19 माह की सूचना 950 पेज में आयेगी.
बहरहाल इस तरह के उत्त्तर से भौचक रमाकांत ने उक्त सारी सूचनाएँ गाँव के ही एक अन्त्योदक कार्ड धारक भगौती प्रसाद तिवारी के द्वारा मांगीं हैं. इस के जावाब में कार्यालय ने साधारण पत्र से जवाब दिया कि ये सूचनाएँ आप रमाकांत पाण्डेय के लिए मांग रहे हैं. ये कार्ड का दुरूपयोग है, क्यों न आपके ख़िलाफ़ कार्यवाही की जाए? इस मसले पर भगौती प्रसाद ने अपना आवेदन पुनः प्रथम अपीलीय अधिकारी को दे दिया है. अब आगे क्या होना है ये देखना बाकी रह गया है.