मंगलवार, 3 मार्च 2009

क्या जवाबदेही और पारदर्शिता से डरती है देश की सबसे बड़ी अदालत?

देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट सवालों के कटघरे में है। और ये सवाल खुद इस अदालत की विश्वसनीयता, आम जनता के साथ उसके रिश्ते में जवाबदेही और पारदर्शिता और उसके जजों के आचरण पर लगे धब्बों के संबंध में हैं। 26 फरवरी की सुबह सुप्रीम कोर्ट के सामने करीब 300 सामाजिक कार्यकर्ता हाथों में तख्ती, बैनर, हैंडबिल लिए ठीक सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर बैठे। न कोई नारेबाज़ी, न कोई हो हल्ला, न कोई रास्ता जाम, न कोई भाषणबाज़ी। ये लोग चुपचाप करीब छह घंटे तक सुप्रीम कोर्ट के गेट पर हाथों में बैनर लिए खड़े रहे। आने जाने वाले वकीलों तथा अन्य लोगों को अपनी मांगों का एक पर्चा थमाते गए। अलग-अलग संगठनों और आंदोलनों से जुड़े ये लोग मांग कर रहे थे कि सूचना का अधिकार कानून न्यायपालिका पर भी पूरी तरह लागू हो तथा सारे जज अपनी अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करें। क्योंकि अगर नेताओं और अफसरों के लिए अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करना लाज़िमी है तो भला जज इससे ऊपर कैसे रह सकते हैं? जजों को भी कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।
हैरानी की बात है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने किसी समय भारतीय संविधान की धारा 19 ए में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में किसी नागरिक की बोलने की आज़ादी तब तक कोई मायने नहीं रखती जब तक कि उसे जानने की आज़ादी न हो। अत: देश के हर आदमी को यह जानने का मूलभूत अधिकार है कि उसके द्वारा चुनी गई तथा उसके ही टैक्स के पैसे से काम कर रही सरकार क्या काम कर रही है। 1976 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले ने ही सूचना के अधिकार कानून की नींव रखी और इसके बाद 2005 में इसे सुनिश्चित करता हुआ एक प्रभावशाली अधिनियम देश में लागू हुआ। सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या में आम आदमी के जानने का जो हक़ निकल कर आया था यह कानून उसी हक़ को पाने की गारंटी देता है। लेकिन जब तक सरकार से जानने की बात थी तब तक तो ठीक लेकिन इस कानून में न्यायपालिका को भी शामिल करने से कुलबुलाहट मचने लगी।
जिस सप्रीम कोर्ट ने जानने के हक़ को मूलभूत अधिकार बताया था उसी के वर्तमान मुखिया आज खुद को आम आदमी के जानने के हक़ से ऊपर बता रहे हैं। यानि कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को चरितार्थ करने में लगे हैं। जब तक नेताओं की बात हो अफसरों की बात हो तो सब कुछ पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन जैसे अपने ऊपर उंगली उठती है तो अदालतें भी बंगलें झांकने लगती हैं। सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर आए लोगों का भी यही सवाल था कि आखिर अदालतें इस देश के लोगों के लिए ही तो हैं। देश के लोगों के पैसे से ही तो जजों के आलीशान गाड़ी बंगलों के खर्चे निकलते हैं। अदालत के तमाम खर्चे देश के लोग इसीलिए उठाते हैं कि कहीं अन्याय की स्थिति में उन्हें न्याय मिलेगा। लेकिन जनता के पैसे से जनता के लिए काम पाए कुछ लोग जनता से ऊपर कैसे हो सकते हैं?
इस धरने और पूरे विवाद की बुनियाद में है अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले और इस सबके बावजूद अदालतों का खुद को विशेष मानते हुए जनता के प्रति जवाबदेही और पारदर्शिता से बचने की कोशिश। घटना क्रम में सबसे अहम पड़ाव आया है दिल्ली के कपड़ा व्यापारी सुभाष चंद्र अग्रवाल के सूचना के अधिकार आवेदन से। सूचना के अधिकार के करीब 1000 से ज्यादा आवेदन डाल चुके अग्रवाल सूचना के अधिकार को एक वरदान मानते हैं। अग्रवाल ने मुख्य क्या न्यायाधीश के यहां दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज के भ्रष्टाचार की शिकायत की थी लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत इस बारे में जानकारी मांगी। इसी क्रम में अग्रवाल ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति का ब्यौरा मांगा। गौरतलब है कि 7 मई 1997 में पास एक प्रस्ताव के तहत जजों को अपनी तथा अपने परिवार की संपत्ति का ब्यौरा देश के मुख्य न्यायाधीश को देना होता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के लोक सूचना अधिकारी ने सूचना के अधिकार के तहत इस ब्यौरे को सार्वजनिक किए जाने से मना कर दिया। सुभाष अग्रवाल ने इसके बाद केंद्रीय सूचना आयोग का दरवाज़ा खटखटाया। सुनवाइयों के लंबे दौर के बाद केंद्रीय सूचना आयोग ने 6 जनवरी 2009 को फैसला सुनाया और सुप्रीम कोर्ट के लोक सूचना अधिकारी को सूचना उपलब्ध करवाने को कहा। केंद्रीय सूचना आयोग के इस फैसले को मीडिया में खूब तरजीह मिली लेकिन इसके तुरंत बाद देश के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि जजों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया जा सकता और केंद्रीय सूचना आयोग के पफैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दे दी गई। यह एक अनोखा मामला था जब बड़ी अदालत अपनी रक्षा की दुहाई देते हुए छोटी अदालत में जा पहुंची।
देश की सबसे बड़ी अदालत अपने जजों की संपत्ति को गोपनीय रखने के लिए अपने से छोटी अदालत की शरण में गई तो लोगों की निगाह उठनी स्वभाविक थी। लोगों में चर्चा चली कि आये दिन जजों पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लग रहे हैं उनमें दम है तभी तो यह सब छिपाने की कोशिश की जा रही है। अगर सब कुछ साफ़ साफ़ है तो यह जानकारी छिपाने के लिए इतनी हाय तौबा क्यों? खुद लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने यह मुद्दा उठाया कि जब सांसद अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करते हैं तो भला जजों को इससे अलग कैसे रखा जा सकता है?
लेकिन सूचना के अधिकार को लेकर न्यायपालिका के रवैये से लोगों की नाराज़गी सिर्फ़ इस एक मामले तक सीमित नहीं है। इस कानून के लागू होने के बाद से ही अदालतों ने जिस तरह खुद को इस कानून के दायरे से ऊपर दिखाने की कोशिश की है उसने भी लोगों और अदालतों के बीच विश्वास को कम किया है। सूचना के अधिकार कानून से खुद को ऊपर स्थापित करने की कोशिश में सुप्रीम कोर्ट के अधिकारियों की ओर से पहले यह कोशिश की जा चुकी है कि उनके मामले में दूसरी अपील केंद्रीय सूचना आयुक्त के यहां दाखिल करने की जगह सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के यहां दाखिल की जाए। प्रावधानों से ऊपर देश के कई उच्च न्यायालयों में आम आदमी की हैसियत का मज़ाक उड़ाते हुए सूचना मांगने की फीस 500 रुपए कर दी गई है। यही नहीं अपील के लिए भी 50 रुपए का शुल्क रखा गया है। इसी तरह फोटोकॉपी के लिए प्रति पृष्ठ 5 रुपए की फीस कर दी है। यानि कि किसी गरीब आदमी को सूचना चाहिए तो वह आवेदन डालने की हिम्मत ही न कर सके। केंद्र और अधिकतर राज्य सरकारों के मामलों में आवेदन डालने के लिए 10 रुपए की फीस है। अपील के लिए कोई शुल्क नहीं है। साथ ही फोतोकोपी के लिए 2 रुपए प्रति पृष्ठ की फीस है। दिल्ली हाई कोर्ट में तो सूचना के अधिकार के आवेदन सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे तक यानि मात्र दो घंटे ही स्वीकार किए जाते हैं।

मंत्री भी गोपनीय रखना चाहते हैं अपनी कमाई की जानकारी
सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर आने की कुलबुलाहट सिर्फ़ अदालतों में ही दिखती हो ऐसा नहीं है। हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी मंत्रियों और उनके परिवार के नाम संपत्ति के ब्यौरे को सार्वजनिक करने से मना कर दिया था। सुभाष अग्रवाल के ही सूचना अधिकार आवेदन के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि ये जानकारी सूचना अधिकार कानून की धारा 8(१)(ई) तथा (जे) के तहत उपलब्ध नहीं कराई जा सकती। इन दोनों धाराओं में कहा गया है कि ऐसी सूचना जो वैश्वासिक नातेदारी (फ्रयूडिशियरी रिलेशनशिप) के तहत प्रदान की गई हो अथवा किसी की निजी सूचना हो, वह सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध नहीं कराई जाएगी जब तक कि इसका दिया जाना जनहित में न हो।
हुआ यूं था कि सुभाष अग्रवाल ने केबिनेट सचिव से केंद्रीय मंत्रियों तथा उनके परिजनों की संपत्ति का पिछले दो साल का ब्यौरा मांगा था। केबिनेट सचिव कार्यालय ने यह आवेदन प्रधानमंत्री कार्यालय को प्रेषित कर दिया। 19 मई 2008 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने पहले तो यह तमाम सूचना केबिनेट सचिव कार्यालय को उपलब्ध करा दीं ताकि इन्हें सूचना के अधिकार के जवाब में आवेदक को उपलब्ध कराया जा सके। लेकिन न तो केबिनेट सचिव कार्यालय से और न ही प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें कोई सूचना मिली। समय बीतने पर अग्रवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग के पास अपील दाखिल कर दी। इसके बाद 17 दिसंबर 2008 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने अग्रवाल को एक पत्र लिख कर सूचित किया कि उनके द्वारा मांगी जा रही सूचना कानून की धरा 8(१)(ई) तथा (जे) के तहत गोपनीय मानी गई है अत: प्रदान नहीं की जा सकती। सवाल यहां भी वही है कि ये मंत्री और उनके रिश्तेदार आखिर कितना कमाते हैं और अगर इमानदारी से कमाते हैं तो जनसेवकों को जनता से छिपाने की आवश्यकता क्या है?
खुद सूचना आयुक्त भी नहीं होना चाहते पारदर्शी
दूसरों को आदेश देना और बात है, लेकिन खुद को पारदर्शी रखने के लिए जो नैतिक ताकत चाहिए वह केंद्रीय सूचना आयोग के पास भी नहीं दिखती। अदालतों के जजों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किए जाने का फैसला देने वाले सूचना आयुक्त भी जब खुद की बारी आती है तो कानून की आड़ में छिपने लगे हैं। उनका भी तर्क है कि कानूनन वे ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सूचना आयुक्त वज़ाहत हबीबुल्लाह ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि सभी केंद्रीय सूचना आयुक्तों ने अपनी अपनी संपत्ति का ब्यौरा आयोग को दे दिया है लेकिन उसे वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं किया जा रहा है।
गौरतलब है कि हाल ही में नियुक्त चार नए सूचना आयुक्तों में से एक शैलेष गांधी ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा केंद्रीय सूचना आयोग की वेबसाइट पर डाले जाने कई मांग की थी लेकिन उनका अनुरोध नहीं स्वीकार किया गया। इसके बाद शैलेष गांधी ने सूचना कार्यकर्ताओं के मध्य लोकप्रिय ईमेल ग्रुप हम जानेंगे पर अपनी करीब साढ़े पांच करोड़ रुपए की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक कर दिया था। लेकिन बाकी सूचना आयुक्त अभी यह साहस नहीं दिखा सके हैं। अगर सूचना आयुक्त यह पहल करते हैं तो देश के बाकी नौकरशाहों के लिए यह एक बड़ा संदेश होगा।

4 टिप्‍पणियां:

asdlifeisstrange ने कहा…

Sir,
I am a student of BPUT the technical university of orissa. I have supposedly failed in a paper. I just wanted to know can i seek to get the photocopy of my answer sheet. if yes then how, here i want to remind you that i might not be a very good student as per the records but as u know there are certain papers in which one knows that he or she has done well. This was one such kind of a paper. By the way is there a time limit one need to apply for the photocopies after publication of results.

asdlifeisstrange ने कहा…

Sir,
I am a student of BPUT the technical university of orissa. I have supposedly failed in a paper. I just wanted to know can i seek to get the photocopy of my answer sheet. if yes then how, here i want to remind you that i might not be a very good student as per the records but as u know there are certain papers in which one knows that he or she has done well. This was one such kind of a paper. By the way is there a time limit one need to apply for the photocopies after publication of results.

भागीरथ ने कहा…

dear friend
you need to file a rti application in your university and ask for answer sheet.
for more details you can call on our rti helpline. it is 09718100180
you can also call your local rti activist N.A. shah ansari on 09437036471

Suresh Gupta ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी देती है आपकी पोस्ट. धन्यवाद.