भागीरथ श्रीवास
कानून बनाकर उन्हें भूल जाना, सरकारी फितरत रही है। और कानून तो आखिर कानून है, उसकी नियति अंतत: सरकार की नीयत पर ही निर्भर रहती है। लेकिन सूचना का अधिकार एक ऐसा कानून है जो जन की मांग पर आया, और जन के चलते ही सरकारें चाहकर भी अपनी फितरत में कामयाब नहीं हो पा रही है। इसका श्रेय मीडिया, ग़ैर सरकारी संस्थाओं, अभियानों, आंदोलनों के साथ साथ उन लाखों लोगों को जाता है जिन्होंने पिछले तीन साल में इस कानून का इस्तेमाल किया है। तीन साल पहले अक्टूबर में जब यह कानून लागू हुआ था तो शायद सरकार में बैठे लोगों को आभास नहीं रहा होगा कि वे चाहकर भी इस कानून को फाइलों में दबाकर नहीं रख पाएंगे।
12 अक्टूबर 2005 को लागू होने के बाद से ही इस कानून को लेकर जनता और सरकार में तू डाल-डाल हम पात-पात का खेल चल रहा है। कानून लागू होने के बाद जब जनता ने इसे इस्तेमाल करना शुरू किया तो भ्रष्ट सत्ताधीशों और नौकरशाहों के होश उड़ने लगे। इसीलिए कुछ लोगों ने मिलकर योजना बनाई कि इस कानून के पंख पालने में ही काट दिए जाएं। इसीलिए महज़ नौ महीने में ही इस कानून की धारदार धराओं को कुंद बनाने के लिए एक बिल लाने की कोशिश की गई लेकिन जनांदोलनों और मीडिया के दवाब में सरकार के लिए यह संशोधन लाना मुश्किल हो गया।
इसी बीच यह रास्ता भी निकल कर आ गया था कि सूचना के अधिकार की जान सूचना आयोग नाम के तोते में है। किसी तरह उसकी गर्दन हाथ में रखी जाए। अत: सूचना आयुक्तों की कुर्सी राजनीतिक घरानों के प्रमाणित वफादारों को ही दी जाए। महज़ मर्यादा के लिए एकाध अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे लोगों को ही सूचना आयुक्त बनाया गया जिनकी सुबह सत्तासीन चेहरों की आरती के साथ शुरू होती थी। ये लोग पूरे वफादार निकले हैं। यही वजह है कि एक सशक्त कानून होते हुए भी तीन साल में सूचना के अधिकार की बदौलत एक भी ऐसा खुलासा संभव नहीं हुआ है जिससे कोई राजनीतिक हलचल मची हो। सूचना आयुक्तों ने अपने आकाओं के प्रति वफादारी निभाने के लिए हर उस मुद्दे की हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसमें ज़रा सी भी संभावना थी। कभी सूचना दिलाने से साफ़ मना करके तो कभी मामले को इतना लंबा खींचकर कि उठाने वाले का हौसला ही पस्त हो जाए। सूचना न देने वाले अधिकारियों को तो खुली छूट उसी दिन मिल गई थी जब देश के प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त वज़ाहत हबीबुल्ला ने एक अखबार के इंटरव्यू में कहा था कि वे अहिंसा वादी हैं और सूचना के अधिकार कानून के तहत दोषी अधिकारियों को दंडित करना उनकी नज़र में हिंसा थी।
इस सबके बाद भी सूचना का अधिकार कानून एक उम्मीद जगाता है तो महज़ इसलिए कि देश की जनता इससे जुड़ी है, समाज ने इसमें संभावनाएं देखी हैं। वह चाहे दिल्ली में नन्नू का राशनकार्ड मिलने की घटना हो या बिहार में रिक्शा चालक का बीडीओ को यह कहना कि, सूचना के अधिकार की अर्जी लगा दूंगा। बुंदेलखंड में 27 अनपढ़ महिलाओं द्वारा बच्चों की स्कूल ड्रेस और किताबों के नाम पर आए सवा दो करोड़ रुपए की चोरी रोकने की घटना हो या दिल्ली में टूटी सड़कों की मरम्मत कराने में मिली सपफलता। इस कानून ने खुद पर भरोसा रखने वाले लोगों के मन में एक उम्मीद जगाई है। भ्रष्टाचार के आगे बेबस जो लोग यह मानने लगे थे कि कहीं कुछ नहीं हो सकता उन्होंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर नई-नई मिसालें पेश की हैं।
हाल ही में प्रिया संस्था द्वारा देश के 10 राज्यों में सूचना प्राप्त करने में आ रही दिक्कतों को लेकर जो सर्वे किया गया, उसमें स्पष्ट है कि सूचना आयोगों ने ही कानून को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। आयुक्तों के नकारात्मक रवैये के कारण आम जनता को इस कानून से भरोसा उठने लगा है। उनके रवैये से लोक सूचना अधिकारिओं में सूचना न देने की प्रवृत्ति भी तेजी से बढ़ती जा रही है। अनेक राज्यों में जनता को कानून की पहुंच से दूर करने के लिए आवेदन शुल्क और सूचना लेने के लिए दिया जाने वाला शुल्क भी काफ़ी अधिक रखा गया है। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में फोटो कॉपी शुल्क 10 रूपये प्रतिपृष्ठ रखा गया तो उत्तर प्रदेश और दिल्ली हाई कोर्ट में कानून के तहत दिए जाने वाले आवेदन का शुल्क 500 रूपये है। नागरिकों को कानून के दूर करने के लिए आयोगों द्वारा ऐसी नियमावालियां बनाई जा रहीं हैं, जो न केवल कठिन हैं बल्कि आम जनता के समझ से भी परे हैं।
सूचना के अधिकार के सफल क्रियान्वयन की जिम्मेदारी है जिन आयोगों पर है वही पारदर्शी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु, उडीसा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सेल्फ डिस्क्लोजर ही पूरे एवं ठीक नहीं हैं। अधिकांश आयोगों ने तीन सालों में अपनी वार्षिक रिपोर्ट तक प्रकाशित नहीं की है।
कुछ राज्य सूचना आयोगों को छोड़ दिया जाए तो अिध्कांश ने अपने पास आने वाली अपीलों और शिकायतों को शुरूआती वर्षों में काफ़ी धीमी गति से निपटाया है। मध्य प्रदेश सूचना आयोग ने अपीलों को जहां अपीलों को 20 प्रतिशत की दर से निपटाया है, वहीं झारखंड ने 66, गुजरात ने 40, बिहार में 50, राजस्थान में 82, केरल में 68, उडीसा में 47 प्रतिशत की दर से अपीलें निपटाई गईं हैं। इतनी धीमी कार्यप्रणाली के कारण आयोग पर लंबित मामलों को बोझ बढ़ता जा रहा है। यदि कोई आवेदक सूचना आयोग में अपील करता है तो उसकी सुनवाई होने में करीब साल भर का वक्त लग रहा है। महाराष्ट्र, केन्द्र और कुछ राज्यों में यह अविध् डेढ़ से दो साल के बीच पहुंच गई है। ऐसे में लोगों को आयोगों से भरोसा उठना लाजिमी है। इसे सूचना आयोगों की कमजोरी ही कहा कि उनके आदेशों की अवज्ञा होने लगी है। विभिन्न राज्यों में आयोग के ऐसे पफैसलों की कमी नहीं हैं जिसमें आवेदक की बात को ठीक से नहीं सुना गया।
कानून के तहत सूचना न देना, गलत सूचना देना या भ्रामक सूचना देने वाले जन सूचना अधिकारी पर आर्थिक दंड का प्रावधन है, लेकिन शुरूआती तीन सालों में गिने-चुने मामलों में ही जुर्माना लगाने के आदेश दिए गए हैं। जुर्माना न लगने से अधिकारिओं में इस कानून का भय खत्म होता जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल का इस विषय में कहना है कि सूचना का अधिकार कानून, 2005 की सबसे बडी विशेषता है सूचना नहीं दिये जाने या देरी से सूचना देने पर प्रतिदिन के हिसाब से लगने वाला जुर्माना। यही वो प्रावधन है जो इस कानून को कारगर बनाता है, परंतु देखा यह जा रहा है कि सूचना आयुक्त जुर्माना लगाने से बच रहे हैं।
लोक सूचना अधिकारियों की मंशा तो शुरू से ही कानून विरोधी रही है। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि आम नागरिक उनसे सवाल पूछे। कानून के माध्यम सवाल पूछने पर झूठे मुकदमों में जेल भेजने की खबरें भी आम हो चली हैं। चाहे वह लखनउफ के सलीम बेग का किस्सा हो, जिन्हें पुलिस से सूचना मांगने पर 17 दिनों तक जेल में रहने पड़ा या बिहार के शिव प्रकाश राय का, जिन्हें डीएम से सवाल पूछने पर झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। झारखंड के पलामू जिले के सामाजिक कार्यकर्ता ललित मेहता को कौन भूल सकता है, उनका तो बेहरमी से कत्ल ही कर दिया गया था। ललित मेहता ने आरटीआई के जरिए सोशल ऑडिट करने का प्रयास किया, जिसमें व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार और धांधली हुई थी।
सूचना आयोगों का नाकामियों, सरकार की बेरूखी और अधिकारियों की कानून में दिलचस्पी ने होने के बाद भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि इसकी सफलताएं शून्य हैं। अनेक लोगों की जमीनी स्तर से जुड़ी समस्याएं सूचना कानून के बदौलत दूर हुई हैं। चाहे वह पुरी के बहराना और कुनंगा गांव में कानून के संगठित इस्तेमाल से पीने की पानी की व्यवस्था हो या बांदा जिले में नरेगा के तहत हो हरे काम लगे मजदूरों का भुगतान। दिल्ली के मोहित कुमार द्वारा अपने क्षेत्र की सड़क को दुरूस्त करवाना हो या उडीसा की कबनाकलता त्रिपाठी का 13 साल से लटका पेंशन मिलना। देश भर में सूचना के अधिकार के हजारों ऐसे सफल उदाहरण देखे जा सकते हैं। कानून ने भ्रष्टाचार और गैर जवाबदेहता पर थोड़ा बहुत अंकुश तो जरूर लगाया है, लेकिन यह ऊँट के मुंह में जीरे के समान ही है। इस दिशा में अभी बहुत आगे जाने की जरूरत है। पर, आगे जाने के रास्ते क्या होंगे यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि जिनसे उम्मीदें थीं वही कानून को लोगों से दूर करने पर अमादा हैं।
1 टिप्पणी:
भागीरथ जी ये तो सरकार का रोना है पर आम जनता कितनी जागरूक है ये भी तो देखिये.......पर परेशान न होइए आप सब की मेहनत एक न एक दिन रंग लाएगी.
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