सूचना के अधिकार के सफल क्रियान्वयन के लिए सूचना आयोगों का गठन किया गया था ताकि लोगों का सूचना पाने का मौलिक अधिकार कोई न छीन सके। कानून के तीन साल बाद अब लोगों का सूचना आयोगों से भरोसा उठता जा रहा है क्योंकि उन्हें आयोग में अपनी अपीलों और शिकायतों की सुनवाई के लिए सालों इंतजार करना पड़ रहा है। देश भर के सूचना आयोगों का कमोवेश यही हाल है लेकिन उड़ीसा में स्थिति कापफी चिंताजनक है। जहां सामान्य अपीलें और शिकायतें तो दूर जनहित के मामलों की सुनवाई भी आयोग में नहीं हो रही है। ऐसे मामले पिछले एक साल से भी अधिक समय से आयोग में लंबित पड़े हैं। इतने समय से लंबित होने से आप उड़ीसा राज्य सूचना आयोग की लचर कार्यप्रणाली का पता चलता है। हम नीचे कुछ ऐसे ही मामलों का जिक्र कर रहे हैं-
१- मटियापाड़ा गांव के मानव बहरा ने आयोग में शिकायत की थी। 18 जून 2007 से उनका जनहित का मामला प्रथम सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।
२- ताराकोरा के प्रफुल्ल सेनापति 11 अगस्त 2007 से प्रथम सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं।
३- सिमली गांव के राजकिशोर बहरा की आयोग में शिकायत करने के बाद 18 अगस्त 2007 से सुनवाई नहीं हुई है।
४- अनसारा गांव के नभाघन मुदुली 6 जुलाई 2006 से अंतिम फैसले की प्रतीक्षा में हैं।
उपरोक्त उदाहरणों की भांति राज्य में ऐसे अनेक जनहित से सम्बंधित मामले हैं जो काफ़ी लंबे समय से लटके पड़े हैं। जनहित के मामलों की सुनवाई शीघ्र करने का प्रावधन है, लेकिन इन उदाहरणों से वस्तुस्थिति का आकलन आसानी से किया जा सकता है। राज्य में जब जनहित के मामलों का यह हाल है तो साधारण अपीलों या शिकायतों का क्या होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है।
१- मटियापाड़ा गांव के मानव बहरा ने आयोग में शिकायत की थी। 18 जून 2007 से उनका जनहित का मामला प्रथम सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।
२- ताराकोरा के प्रफुल्ल सेनापति 11 अगस्त 2007 से प्रथम सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं।
३- सिमली गांव के राजकिशोर बहरा की आयोग में शिकायत करने के बाद 18 अगस्त 2007 से सुनवाई नहीं हुई है।
४- अनसारा गांव के नभाघन मुदुली 6 जुलाई 2006 से अंतिम फैसले की प्रतीक्षा में हैं।
उपरोक्त उदाहरणों की भांति राज्य में ऐसे अनेक जनहित से सम्बंधित मामले हैं जो काफ़ी लंबे समय से लटके पड़े हैं। जनहित के मामलों की सुनवाई शीघ्र करने का प्रावधन है, लेकिन इन उदाहरणों से वस्तुस्थिति का आकलन आसानी से किया जा सकता है। राज्य में जब जनहित के मामलों का यह हाल है तो साधारण अपीलों या शिकायतों का क्या होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है।
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