भारत देश आज भी अंग्रेजों के बनाए अधिकतर कानून के सहारे ही चल रहा है। साठ साल बाद भी बाबा आदम के जमाने में बने ऐसे कानूनों को हटाने या बदलने की जरूरत देश कर्णधारों को महसूस नहीं होती, जो उन्हें आम लोगों पर सत्ता और ताकत देते है, लेकिन 4 साल पुराने आरटीआई कानून से आखिर हमारे नेताओं को ऐसी क्या दुश्मनी है कि जिसे देखों वही इसमें संशोधन की बात कर रहा है।
और अब तो सिर्फ बात ही नहीं हो रही है। 2 जून 2009 को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर 14 महत्वपूर्ण विषयों को इस कानून के दायरे से बाहर निकालने का तुगलकी फरमान भी जारी कर दिया। यहां तक कि इस बारे में राज्यपाल के नाम से अधिसूचना जारी करने से पहले इस मामले पर राज्यपाल की सहमति लेना भी जरूरी नहीं समझा गया।यह अलग बात है कि अचानक मीडिया में मामला उछल गया और सरकार को 5 दिन बाद ही अपना फैसला बदलना पड़ा। हालांकि 5 मामले अभी भी ऐसे है जिन्हे सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करने पर मायावती सरकार अड़ी हुई है। ये मुद्दे हैं, राज्यपाल की नियुक्ति,मंत्रियों राज्यमंत्रियों एवं उप मत्रियों की नियुक्ति, मंत्रियों के लिए आचरण संहिता, राज्यपाल की ओर से राष्ट्रपति को भेजे जाने वाली मासिक अर्ध शासकीय पत्र की सामग्री, हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित पत्रावली इत्यादि, जिन पर सूचना नहीं दी जा सकती है।
यानि उत्तर प्रदेश सरकार ने कानून के नियमों में बदलाव कर अपने हर गुनाह और भ्रष्टाचार को छुपाने की व्यवस्था कर ली है। अब मंत्री या सांसद जो चाहे करे, जनता को उस पर सवाल उठाने का हक नहीं होगा।
आरटीआई कानून की जिस धारा 24 की आड़ लेकर राज्य सरकार ने जो बदलाव किए हैं उसमें सिर्फ सुरक्षा और जांच एजेंसी जैसे विषय ही शामिल है। और इसमें भी संशोधन के लिए विधानमंडल द्वारा प्रस्ताव पास होना जरूरी है। लेकिन ऐसा लगता है कि मायावती के लिए कानून को तोड़ना-मरोड़ना मानो बच्चों का खेल हो। सरकार क्या बताएगी कि जिस राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, उस विषय को आरटीआई कानून से बाहर करने का क्या मतलब है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मंत्रियों की आचरण संहिता को जनता से छुपाना, क्या लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन नहीं है।
कानून के जानकारों और विधिवेत्ताओं की राय में मायावती सरकार का यह कदम असंवैधानिक होने के साथ-साथ अलोकतांत्रिक भी है। असंवैधानिक इसलिए भी क्योंकि सरकार ने बड़े ढ़िठाई के साथ राज्यपाल के नाम से अधिसूचना जारी कर दी और ऐसा करने से पहले राज्यपाल की सहमति भी नहीं ली गई।
उधर, अधिसूचना जारी होते ही, सूचना के अधिकार से जुड़ी कई स्वंयसेवी संस्थाओं और कार्यकर्ताओं की तरफ से सरकार के इस कदम का विरोध भी शुरू हो गया। जनभावना को देखते हुए कुछ राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दें पर अपना विरोध दर्ज कराया और राज्यपाल से इस अधिसूचना को निरस्त करने की मांग की।
अंतत:, बढ़ते जनअसंतोश और चौतरफा विरोध के चलते सरकार ने अपने फैसले में थोड़ा परिवर्तन करते हुए, 9 विषयों को पुन: कानून के दायरे में रख दिया जिसमें महाधिवक्ता की नियुक्ति, मंत्रियों, सांसदों के खिलाफ शिकायक की जांच, पद्म पुरस्कारों से जुड़ी सूचना, उप्र कार्य नियमावली 1975 की अधिसूचनाएं, साइफर कार्य, अन्य राज्यों के कार्य नियमावली से संबंधी कार्य, भारत सरकार के एलोकेसन ऑफ रूल्स ऑफ बिज़नेस, सचिवालय अनुदेश संशोधन एवं व्याख्या, उप्र कार्य (बंटवारा) नियमावली 1975 की अधिसूचनाएं जैसे मुद्दे शामिल है।
हालांकि अभी भी 5 अति महत्वपूर्ण मुद्दों को आरटीआई की छतरी से बाहर ही रखा गया है। और ये वो मुद्दे हैं, जहां सरकारी भ्रस्ताचार और मनमानी करने की सबसे अधिक संभावना है। आखिरकार, सरकार के इस कदम को क्या माना जाए? जनतंत्र की मूल भावना की हत्या या फिर उत्तर प्रदेश सरकार की निरंकुशता।
(अपना पन्ना में प्रकाशित)
2 टिप्पणियां:
इसे पहले ही कुन्द किया जा चुका है.
खेलों में आरक्षण, फिर मूर्तियों की बरात ...और अब ये ...जाने ये मायाजाल कब टूटेगा.....?
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