शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

क्या संसद से ऊपर है आरटीआई ?

-विष्णु राजगढ़िया
लोकसभा के मौजूदा सत्र में दस अगस्त को दिलचस्प वाकया हुआ। खेल मन्त्री एमएस गिल कामनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों से जूझ रहे थे। इसी दौरान उन्होंने कह डाला कि सांसद चाहें तो सूचना कानून के सहारे ऐसे मामलों के दस्तावेज हासिल कर सकते हैं। इस जवाब ने मानो आग में घी का काम किया। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नाराज होकर पूछ डाला- ``क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?´´
लोकतन्त्र की सर्वोच्च संस्था में उपस्थित जनप्रतिनिधियों को किसी भी मामूली भारतीय की तरह सूचना मांगने की सलाह पर ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। लिहाजा कोई सांसद इस सलाह पर शायद ही अमल करे। लेकिन अनुभव बताते हैं कि सूचना कानून के सहारे कोई भी सामान्य नागरिक कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार से जुड़ी ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां आसानी से निकाल सकता है। ऐसी जानकारियां किसी सांसद या विधायक को संसद या विधानसभा में मिलना काफी मुश्किल और शायद असम्भव है।
आखिर मामला क्या है? सूचना कानून में साफ लिख दिया गया है कि जिस सूचना के लिए संसद या विधानसभा को इंकार नहीं किया जा सकता, उसके लिए किसी नागरिक को भी इंकार नहीं किया जायेगा। स्पष्ट है कि आज कोई भी नागरिक हर वैसी सूचना मांग सकता है जो किसी सांसद या विधायक को मिल सकती है। दूसरी ओर, अब तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं बना है कि संसद या विधानसभा में हर ऐसी सूचना मिल सकती है, जो सूचना कानून के जरिये आम नागरिक को प्राप्त है। इसके कारण आज आम नागरिक हमारे जनप्रतिनिधियों की अपेक्षा ज्यादा धरदार तरीके से शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने योग्य दस्तावेजी सबूत हासिल कर रहे हैं।
संसद और विधानसभाओं में सवाल पूछने और जवाब देने के तरीके को देखें तो सूचना कानून से इसका पर्क पता चलता है। आम तौर पर लिखित प्रश्नों में जनप्रतिनिधि को अपनी ओर से कोई विशिष्ट सूचना पेश करते हुए यह पूछना होता है कि यह सच है अथवा नहीं। इसके लिए जनप्रतिनिधि के पास ठोस प्रारंभिक सूचना होना जरूरी होता है। क्या यह सच है, अगर हां तो क्यों शैली में पूछे गये इन प्रश्नों में अगर आपके पास पहले से पर्याप्त सूचना नहीं तो जवाब भी ठन-ठन गोपाल होने की पूरी गुंजाइश रहती है।
इसी तरह, सदन में आये प्रश्नों के जवाबों की भी खास प्रकृति होती है। नौकरशाहों द्वारा तैयार जवाबों के आधर पर सदन में मन्त्री अपना पक्ष रखता है। इसमें सवाल उठाने वाले जनप्रतिनिधि को सारे सम्बंधित दस्तावेज नहीं दिये जाते बल्कि उस पर सरकार का पक्ष रखा जाता है। इसमें सवाल उठाने वाले को दस्तावेजों के अध्ययन के आधार पर जवाबतलब करने का समुचित अवसर प्राय: नहीं मिल पाता।
दूसरी ओर, सूचना कानून ने प्रश्नोत्तर की इन सीमाओं से आगे जाकर सम्बंधित मामले के सारे दस्तावेज हासिल करने की जबरदस्त ताकत दी है। इसमें कोई सवाल उठाने के लिए नागरिक के पास अपनी प्रारंभिक एवं ठोस सूचना की जरूरत नहीं। वह एक साधरण पंक्ति लिखकर कॉमनवेल्थ खेलों की पूरी फाइल मांग सकता है। इस तरह फाइल लेने का कोई सामान्य प्रावधान संसद या विधानसभा में नहीं है।
तब क्या यह कहना अतिश्योक्ति है कि सूचना कानून ने आज हर नागरिक को सांसद और विधायक से भी ज्यादा ताकत दी है?
संसद और विधानसभा के सत्रों को देखें तो यह बात और स्पष्ट हो सकेगी। जनता ने अपने जनप्रतिनिधि चुनकर भेजे। उन्हें नागरिकों की ओर से सवाल पूछने का दायित्व सौंपा गया। लेकिन साल में महज बीस से पचास दिन चलने वाले सदन की प्रक्रिया प्राय: विचारहीन शोरशराबे या औपचारिकताओं में डूबी रहती है। प्रश्नोत्तर काल का ज्यादातर समय हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। महालेखाकर की रपटों, बजटों, योजनाओं, कानूनी संशोधनों या विधायकों को कई बार पढ़ा तक नहीं जाता, बहस तो दूर की बात। जनप्रतिनिधियों के लिए सवाल पूछने की गुंजाइश अत्यन्त सीमित रह जाती है। कुछ सवाल पूछे भी गये तो जवाब नदारद। जवाब मिला भी तो कार्रवाई खुदा जाने।
कोई विधायक-सांसद सवाल पूछना चाहे तो कोई जरूरी नहीं कि वह स्वीकृत हो जाये। हुआ भी तो जरूरी नहीं कि सदन में उस पर चर्चा हो। हुई भी तो जरूरी नहीं कि जवाब मिले। एक बार मामला खत्म, तो पिफर अगले सत्रा का इन्तजार। एक दिन में कोई सांसद या विधायक कितने सवाल पूछ सकेगा, इसकी भी सीमा है। उन्हें यह कहकर टाला जा सकता है कि विभाग से सूचना की प्रतीक्षा की जा रही है। ऐसे हजारों उदाहरण पेश किये जा सकते हैं जिनमें सांसद, विधायक के सवालों का जवाब बरसों तक नहीं मिला।
इस तरह, सदन में पूर्ण विफल जनप्रतिनिधि अपने कीमती समय का बड़ा हिस्सा समितियों की बैठकों और टूर-दौरों में, उद्घाटन और अभिनन्दनों में, विवाह और शोक समारोहों की शोभा बनने में गंवा देता है। इससे भी कुछ समय निकला तो दलीय गुटबन्दी।
दूसरी ओर, सूचना कानून में एक माह की समय सीमा लागू है। नागरिकों के सवालों को स्थगित नहीं किया जा सकता। जवाब देना होता है। नहीं दिया तो सूचना आयोग दिला देगा। सूचना मांगने का कोई मौसम नहीं। यही कारण है कि आज कोई सवाल उठाने, जवाब मांगने के लिए नागरिक किसी जनप्रतिनिधि का मुंहताज नहीं। वह हर चीज का हिसाब खुद मांगने, जांच करने को स्वतन्त्र है। साठ साल में संसद और विधानसभा में जितने सवाल पूछे गये, उससे ज्यादा सूचना पांच साल में नागरिकों ने खुद ही हासिल कर ली है।
मजेदार बात यह है कि आज ऐसे सांसदों, विधयकों, पूर्व मन्त्रियों की बड़ी संख्या है जो सूचना कानून का शानदार उपयोग कर रहे हैं। पूर्व सांसद रमेन्द्र कुमार का स्पष्ट मानना है कि एक नागरिक के बतौर उन्हें यह कानून ज्यादा ताकत देता है। विधायक विनोद सिंह के अनुसार जो सूचना एक विधायक के बतौर उन्हें झारखण्ड विधानसभा में नहीं मिल सकी, वही सूचना उन्होंने एक नागरिक के तौर पर सूचना कानून के जरिए आसानी से हासिल कर ली। एक आइपीएस के खिलाफ तत्कालीन एडीजीपी वीडी राम की जांच रिपोर्ट का मामला काफी चर्चित है। माले के चर्चित विधायक महेन्द्र सिंह द्वारा लगाये गये गम्भीर आरोपों के बाद यह जांच गठित हुई थी। लेकिन स्पीकर के आदेश के बावजूद विधानसभा में यह रिपोर्ट पेश नहीं की गई। जिस विधानसभा के कारण वह जांच हुई, उसी विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। महेन्द्र सिंह ने इसे बार-बार सदन में उठाया। उनकी हत्या के बाद उनके पुत्रा विधायक विनोद सिंह ने भी सदन में रिपोर्ट पेश करने की मांग की। लेकिन विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। इसी बीच विनोद सिंह ने एक नागरिक के बतौर सूचना कानून के सहारे वही रिपोर्ट आसानी से हासिल कर ली।
एक और दिलचस्प उदाहरण। वर्ष 2006 में झारखड विधानसभा में तेजतर्रार विधायक बंधू तिर्की ने विकास योजना की अरबों की राशि बैंकों में जमा रखने पर सवाल पूछे। सदन में जवाब मिला कि सूचना एकत्र की जा रही है। छह महीने बाद फिर यही जवाब। विधायक को कोई सूचना नहीं मिली। यह देखकर इन पंक्तियों के लेखक ने आरटीआई आवेदन देकर सरकार से यही सूचना मांग डाली। देखते-ही-देखते हजारों पृष्ठों की सूचना मिल गई।
किसी भी विषय पर सवाल उठाने के लिए सम्बंधित अधिकारिक दस्तावेजों का अध्ययन आवश्यक है। सूचना कानून ने हर नागरिक को यह ताकत दी है। संसद और विधानसभा के प्रश्नोत्तर की प्रकृति भिन्न है। जनप्रतिनिधियों को अगर अधिकारिक दस्तावेजों का पूर्व अध्ययन करने का अवसर मिले तो उनके द्वारा उठाये गये सवाल ज्यादा धरदार हो सकते हैं। इसलिए समय आ गया है, जब सदन में सवालों और उन पर सरकार के जवाब को ज्यादा सार्थक और परिणामदायक बनाने के लिए सांसदों और विधायकों को सम्बंधित दस्तावेज कुछ दिनों पहले हासिल करने का अवसर मिले। अभी उन्हें सदन में या एक दिन पहले सिर्फ बेहद सीमित जवाब पकड़ा दिये जाते हैं। उन पर पूरक प्रश्नों के जरिये बहुत कुछ निकालना कई बार सम्भव नहीं हो पाता।
इसलिए आज सवाल यह नहीं है कि संसद से भी ऊपर आरटीआई है अथवा नहीं। सवाल सिर्फ इतना है कि इस कानून ने पारदर्शिता और जवाबदेही के जो नये आयाम खोले हैं, उनका सदुपयोग हमारे जनप्रतिनिधि किस प्रकार से करना चाहते हैं। अगर कोई जनप्रतिनिधि सदन के लिए अपने सवाल बनाने में आरटीआई का उपयोग करे तो आसानी से समझ लेगा कि ``क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?´´

4 टिप्‍पणियां:

honesty project democracy ने कहा…

सरकार क्या राष्ट्रपति से भी किसी भी आम नागरिक को सरकारी कम-काज,खर्चा इत्यादि की जानकारी मांगने का अधिकार है ,ये दुखद है की इस देश में कहने को तो लोकतंत्र है लेकिन आम जनता को जानकारी मिले इसके RTI जैसा कानून बनाना परा और उस कानून की स्थिति भी दर्दनाक है और सूचना झूठा तथा नहीं देने वालों के मामले में सिर्फ दो प्रतिशत को ही सजा मिल पाती है ..शर्मनाक है ये किसी भी सभ्य समाज और लोकतंत्र के लिए ...जनता के प्रति जिम्मेवारी और पारदर्शिता से जुरा सभी मामला संसद और राष्ट्रपति दोनों से ऊपर है और होना भी चाहिए ...!

mukesh singh ने कहा…

...जनता के प्रति जिम्मेवारी और पारदर्शिता से जुरा सभी मामला संसद और राष्ट्रपति दोनों से ऊपर है और होना भी चाहिए ...!

बेनामी ने कहा…

kisi sansad sadsaya se suchna kaise mang sakte hain ?

करन बहादुर ने कहा…

आर टी आई को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए धन्यवाद