मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

सूचना का अधिकार: अभी भी बची है उम्मीद (कानून बनने के पांच साल के सफर का `हासिल-जमा´)

  • प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विदश यात्राओं पर पिछले छह साल में देश की जनता का 141 करोड़ रुपया खर्च हुआ है। यह तो विदेशों में उनके ठहरने और गाड़ी आदि की व्यवस्था पर व्यय हुआ है इसमें उनकी हवाई उड़ानों पर हुआ खर्च शामिल नहीं है।
  • उनके मन्त्रिमण्डल के 78 में से 71 मंत्री, महज़ साढ़े तीन साल में 786 बार विदेश यात्राओं पर रहे। विदेश यात्राओं पर इन मन्त्रियों ने कुल मिलाकर 1 करोड़ 2 लाख किलोमीटर की हवाई यात्राएं कीं। इतनी दूरी चलने में धरती के 256 चक्कर लगाए जा सकते हैं।
  • जो कुर्सी बाज़ार में 1000 रुपए में नई खरीदी जा सकती है उसे 15 दिन के कॉमनवेल्थ खेल तमाशे के लिए 4000 रुपए देकर किराए पर लिया जा रहा है। इतना ही नहीं इस तमाशे पर खर्च करने के लिए जनता के टैक्स के वो 725 करोड़ रुपए भी लगा दिए गए जो अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण के लिए बजट में रखे गए थे।
  • कश्मीर में तैनात एक मेजर की मां जानती है कि उसके बेटे की आत्महत्या की कहानी झूंठी है और अब उसकी जानकारी के आगे मजबूर भारतीय सेना को मामले की पुन: जांच करानी पड़ रही है।
  • गाज़ियाबाद ज़िले के सरकारी स्कूलों में नौकरी कर रहे अध्यापक अपनी पहुंच और शायद पैसे के भी बल पर अपनी तैनाती ज़िला मुख्यालय में ही कराकर रखते हैं जिसके चलते दूर दराज़ के 200-400 बच्चों के स्कूलों को मुश्किल से एक अध्यापक नसीब होता है लेकिन शहर में 50-100 बच्चों के स्कूल में भी एक एक दर्जन अध्यापक हैं। यह जानकारी जनता में आती है तो पहुंच और पैसे की ताकत कमज़ोर पड़ जाती है।
ऊपर वर्णित और हज़ारों ऐसे ही अन्य खुलासे हमारे मुल्क के आम आदमी ने किए हैं। उस आम आदमी ने जो लोकतन्त्र के नाम पर पांच साल में एक बार अपना राजा चुनने के लिए तो स्वतन्त्र है लेकिन फिर अगले पांच साल उसी की गुलामी करने को मजबूर भी है। अपने नेताओं और अफसरों को पालता आया और उन्हीं के हाथों पग-पग पर शोषित होता आया आम आदमी आज उनसे अपने खून पसीने की कमाई से हुए खर्चे का हिसाब-किताब मांग रहा है। गुलामी के लंबे इतिहास के बाद हमारे देश में परिवर्तन की बेहद महत्वपूर्ण घटना घट रही है। और इस परिवर्तन का आधार बन रहा है 2005 में लागू सूचना का अधिकार कानून।
13 अक्टूबर 2010 को यह कानून पूरे देश में पांच साल पुराना हो जाएगा। किसानों, मजदूरों और लगभग हर क्षेत्र से जुड़े शुभचिन्तकों के करीब 15 साल के ज़मीनी संघर्ष के बाद बना यह कानून देश के लोगों के जीने का अन्दाज़ बदल रहा है। अनुमान है कि अभी तक इस कानून के अन्तर्गत सूचना मांगने के आवेदन 50 लाख  दाखिल हुए हैं। हर आवेदन से जुड़ा घटना क्रम सूचना के अधिकार के अधिकार के पांच साल का हासिल जमा है।
बिहार के झंझारपुर गांव (मधुबनी ज़िला) में रिक्शाचालक मज़लूम ने 2006 में ही जिस तरह इस कानून का इस्तेमाल किया उससे इसकी ताकत व उपयोगिता को लेकर एक नया भरोसा जगता है। इन्दिरा आवास योजना के तहत 25000 रुपए देने के लिए ब्लॉक डवलपमेंट अफसर (बीडीओ) के दफ्रतर में 5000 रुपए की रिश्वत मांगी जा रही थी। रिश्वत न खिला पाने से लाचार अनपढ़ और गरीब मज़लूम तीन साल से बीडीओ दफ्रतर के धक्के खा रहा था। मज़लूम की मदद गांव के ही सामाजिक कार्यकर्ता अशोक सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने का आवेदन बना कर की। सवाल पूछते ही एक सप्ताह में मज़लूम को 15 हज़ार का चैक मिल गया। एक महीने के बाद जब बाकी के 10000 रुपए लेने गए मज़लूम से रिश्वत मांगी गई तो अनपढ़ मज़लूम ने बीडीओ को कह दिया कि अगर मेरा पैसा नहीं दोगे तो फिर से ``सोचना की अर्जी´´ लगा दूंगा। सोचना और सूचना में फर्क न समझने वाले निरक्षर मज़लूम को एक ही अनुभव में समझ में आ गया कि यह यह कोई बड़ा परिवर्तन हो गया है। और यह समझ ही देश के लाखों मज़लूमों को सच्चे अर्थों में सशक्त बनाती है। सशक्तीकरण के बाकी तमाम प्रयास तो सिर्फ भाषा ही साबित हुए हैं।
उत्तर प्रदेश के बान्दा ज़िले में एक गांव की सत्ताईस अनपढ़ महिलाओं ने जब शिक्षा विभाग से पूछा कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत उनके बच्चों को किताबें और स्कूल ड्रेस, स्कूल खुलने के छह महीने के बाद भी क्यों नहीं दिए गए हैं तो पूरे ज़िले के तमाम सरकारी स्कूलों में ड्रेस और किताबें बांट दिए गए। बाद में सूचना दी गई कि हमने ज़िले में 1 करोड़ 14 लाख रुपए की ड्रेस और 1 करोड़ 9 लाख की किताबें बांट दी हैं। यह घटना हमें बताती है कि गांव की 27 अनपढ़ महिलाओं ने सूचना के अधिकार कानून के तहत सवाल करते हुए न सिर्फ अपने बच्चों को ड्रेस व किताबें दिलवा दीं बल्कि सवा दो करोड़ रुपए की चोरी भी रोक दी जो दिल्ली और लखनऊ में बैठे ईमानदार अधिकारी भी रोक नहीं सकते थे। 
शायद ऐसी ही संभावनाओं को देखते हुए, कानून बनवाने के संघर्ष के दौरान प्रभाष जोशी जी ने नारा दिया था- ``जानने का हक़-जीने का हक´´। यानि यह महज़ जानने का हक नहीं है जीने का हक़ है। और अच्छी बात ये है कि बीते पांच सालों में यह कानून देश के हज़ारों लोगों के लिए जीने का हक बनने में सफल हुआ है।
लेकिन पांच साल की यात्रा के बाद यह सवाल तो बनता ही है कि क्या इस कानून के आने से उस व्यवस्था की बुनियाद में कोई परिवर्तन हुआ है जिसके चलते लोगों को जीने मात्र के लिए भी सूचना के अधिकार जैसे कानूनों की ज़रूरत पड़ती है। इस कानून के लिए संघर्ष में अगुआ रहे और फिर केन्द्रीय सूचना आयुक्त बने शैलेष गाँधी मानते हैं कि इस तरह के बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। लेकिन थोड़ा गहराई से देखें तो व्यवस्था से लेकर नौकरशाही की मानसिकता तक में अभी कोई बदलाव आया नहीं है।
इस दिशा में एक बड़ी उपलब्धि सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की संपत्ति को सार्वजनिक किए जाने के मामले में उठा विवाद मानी जा सकती है। दिल्ली निवासी सुभाष अग्रवाल के सूचना अधिकार आवेदन से निकली चिंगारी की तपिश संसद से लेकर सत्ता के हर गलियारे में महसूस की गई और अन्त में माननीय न्यायधीशों को अपनी संपत्ति के खुलासे की स्वत: घोषणा पर सहमत होना पड़ा। इसके अलावा भी बहुत से उदाहरण हैं जहां सूचना मिलने से संघर्ष आसान हुए हैं। लेकिन आज तक किसी बड़े नेता या अधिकारी को आरटीआई के तहत निकली सूचना के चलते कोई सज़ा नहीं मिली। विगत पांच साल में मैंने इस कानून को बचाए रखने औ ठीक से लागू किए जाने के सिलसिले में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के शीर्ष नेताओं से मुलाकात की है। लगभग सभी का मानना रहा है कि सूचना का अधिकार कानून `बहुत अच्छी चीज़´ है लेकिन इसका `दुरुपयोग´ बहुत हो रहा है। लोग अनर्गल सूचना मांग रहे हैं।
सत्ता के गलियारों में ज़रा सी भी भूमिका रखने वाले नेता या किसी भी स्तर के सरकारी कर्मचारी से बात कर लीजिए सबके मुंह से सूचना के अधिकार के बारे में यही प्रतिकिया सुनने को मिलेगी.. ``यह कानून तो बहुत अच्छा है, बहुत ज़रूरी है, लेकिन इसका सदुपयोग नहीं हो रहा है...´´ `सदुपयोग´ और `दुरुपयोग´ की सबकी अपनी परिभाषा है। ज़ाहिर है यह परिभाषा कानून के आधार पर नहीं मानसिकता के आधार पर दी जाती है।
ऊपर वर्णित और इन जैसे हज़ारों उदाहरणों के बाद भी सूचना कानून के पांच साल के अनुभव को अगर एक वाक्य में बयान करें तो कहना गलत न होगा कि यह कानून ऊपर से नीचे तक पसरे भष्टाचार और  साम्राज्यवादी मानसिकता का शिकार हो रहा है। सूचना प्रदान करने वाला पक्ष एक तरफ तो इसी बात से आहत होता है कि भला इस मुल्क के आम आदमी की यह हिम्मत कि वह हमसे सवाल पूछे... दूसरे अपने तथा अपने आकाओं के भ्रष्टाचार को दबाए रखने का दवाब, सवाल पूछने वाले को परेशान करने यहां तक कि उसकी हत्या तक को मजबूर कर रहा है। वर्ष 2010 में ही अब तक नौ ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जहां लोगों की हत्या संवेदनशील जानकारी सूचना अधिकार कानून के तहत मांगने की हत्या कर दी गई।
अधिकारियों द्वारा डराने धमकाने, जेल में डाल देने या फिर ताकतवर लोगों द्वारा मार पिटाई के मामले तो लगभग हर ज़िले में मिल जाएंगे।
भ्रष्ट और अहंकारी अधिकारियों से तो उम्मीद नहीं थी कि वे इस कानून के आने के बाद लोगों को खुले हाथ से सूचनाएं बांटने लगेंगे लेकिन सबसे अधिक निराश किया है सूचना आयोगों ने। बीते पांच साल में सूचना कानून को सबसे ज्यादा नुकसान सूचना आयुक्त के रवैये से पहुंचा है। सूचना न मिलने पर केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग में किसी भी एक दिन आने नागरिकों से बात कर लीजिए, भ्रष्ट अधिकारियों का पक्ष लेने, आवेदको को हड़काने, सूचना न दिलवाने, ज़ुर्माना न लगाने की शिकायत करते ढेरों लोग मिल जाएंगे। इसकी एक वजह रही है सूचना आयोग की ताकतवर कुर्सी पर नियुक्ति की कोई स्पष्ट प्रक्रिया न होने के चलते नेताओं के करीबी लोगों का वहां पहुंच जाना। ज़ाहिर है राजनीतिक कृपा के रूप में कुर्सी पाने वाला व्यक्ति कानून का नहीं अपने `आका´ का ही ख्याल रखेगा।
समीक्षा करें तो तमाम बाधाओं के बाद भी सूचना के अधिकार को एक सफल कानून कहा जा सकता है। क्योंकि जिस तेज़ी से यह लोकप्रिय हुआ है वह अभूतपूर्व है। पांच साल में करीब 50 लाख लोगों द्वारा इस कानून का इस्तेमाल कोई छोटी बात नहीं है। वह भी तब जबकि इसमें बड़ी संख्या गांव में रह रहे लोगों की है। शायद यही वजह है कि पूरी तैयारी के साथ दो बार प्रयासों के बाद भी सरकार इस कानून को बदल कर कमज़ोर बनाने के मंसूबों में कामयाब नहीं हो पायी। लेकिन फिर भी दो स्पष्ट चुनौतियां है। पहली है सूचना आयोग की कुर्सी को राजनीतिक कृपा के साये से मुक्त करना। आयुक्त पद पर नियुक्ति के लिए स्पष्ट प्रक्रिया बनवाने के लिए शायद एक आन्दोलन की ज़रूरत है। और दूसरी चुनौती है सत्ता में बैठे लोगों का इस कानून के प्रति वैमनस्य भाव। इस कानून के प्रावधनों मे फेरबदल कर इसे कमज़ोर करने की योजना तो लंबित है ही नए कानूनों में गोपनीयता बनाए रखने के कड़े प्रवाधान भी लाए जा रहे हैं। जी.एम.फूड़ के संबन्ध् में प्रस्तावित कानून में ऐसे ही प्रावधान लाए जाने से विवाद इसका संकेत है। अगर नए कानूनों को सूचना अधिकार कानून 2005 से ऊपर कर दिया गया तो फिर यह कानून अपने आप ही दम तोड़ देगा।
अगर समय रहते इनका इलाज नहीं किया गया तो कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ साल बाद हम इस कानून के खत्म होने पर समीक्षात्मक लेख लिख रहे हों। वर्ना बहराईच के वनग्रामों में इस कानून का सहारा लेकर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही महिलाओं के मुताबिक ``इस कानून में दम तो है´´।

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