सुंदर नगरी का मोहन अब अर्वाचीन पब्लिक स्कूल में पढ़ता है और कांगो प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीतता है। दूसरी और दिलशाद पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले साजन और चैंपियन अपनी कक्षा में अव्वल आते हैं। ऐसे बच्चों की फेहरिस्त काफी लंबी है। पहले इन्हीं बच्चों को दाखिला देने से बचने के लिए पब्लिक स्कूलों का तर्क होता था कि ऐसे बच्चे स्कूल का माहौल खराब कर देंगे क्योंकि ये अपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं, गंदे माहौल में रहते हैं। लेकिन अब स्कूल प्रशासन भी इन बच्चों की लगन और काबिलियत देखकर चकित है। और यह कमाल हुआ है सूचना के अधिकार कानून की बदौलत। झुग्गी झोपड़ियों और पुनर्वास बस्तियों में रहने वाले हजारों बच्चों के सपने इस कानून ने न केवल पूरे किए हैं बल्कि उन्हें इससे एक नई ताकत भी मिली है।
इस चमत्कार को समझने के लिए थोड़ा पृष्ठभूमि में जाना होगा। दरअसल, डीडीए और भूमि और विकास कार्यालय ने दिल्ली के 361 स्कूलों को निशुल्क और सस्ती दर पर जमीन इस शर्त पर दी थी कि वे 25 प्रतिशत तक सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों को देंगे। इस शर्त की भनक किसी को नहीं लगी और न ही स्कूलों ने इसे अमल में लाने में कोई दिलचस्पी दिखाई। थोड़े बहुत लोगों को इसकी जानकारी तब मिली जब अधिवक्ता अशोक अग्रवाल ने इस संबंध में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की और हाईकोर्ट ने शिक्षा निदेशालय को इसे कढ़ाई से लागू कराने का आदेश दिया। हाईकोर्ट के आदेश के बाद शिक्षा निदेशालय को इस संबंध में दिशा निर्देंश तय करने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि बाद में हाईकोर्ट ने इस कोटे को पचीस प्रतिशत से घटाकर बीस प्रतिशत कर दिया लेकिन एक अच्छी आत यह रही कि सभी मान्यताप्राप्त स्कूलों को इसके दायरे में ला दिया। 2008 में हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में सभी स्कूलों को कम से कम 15 प्रतिशत दाखिले गरीब परिवार के बच्चों के लिए अनिवार्य कर दिया।
डीडीए द्वारा स्कूल को सस्ती जमीन दिए जाने की शर्तों और हाईकोर्ट के आदेश को जानने के बाद लोगों ने स्कूल में अपने बच्चों को दाखिला दिलाने की कोशिशें शुरू कीं लेकिन अधिकांश स्कूलों ने इस सबके बावजूद बच्चों को दाखिला नहीं दिया। इसके बाद लोगों ने बड़ी संख्या में उप शिक्षा निदेशक के पास इन स्कूलों की शिकायत की और कुछ ही दिनों बाद उप शिक्षा निदेशक द्वारा शिकायत पर की गई कार्रवाई की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मांगी। इन आवेदनों ने उप शिक्षा निदेशक पर इतना दबाव बना दिया कि उन्हें ऐसे बच्चों के दाखिले सुनिश्चित कराने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन इसके लिए बहुत बार लोगों को उप शिक्षा निदेशक के यहां आरटीआई आवेदन जमा कराने में भी कई तरह की दिक्कतों का सामना पड़ा और दर्जनों मामलों में अपील भी करनी पड़ी।
इन तमाम दिक्कतों के बावजूद बच्चों के दाखिले हुए हैं। हालांकि कई गैर सरकारी संस्थाओं ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। `आई एस एस टी ´ संस्था की अमिता जोशी बताती हैं कि मयूर, अहलकोन सहित अनेक पब्लिक स्कूलों ने पहले फ्रीशिप कोटे के तहत दाखिले के फार्म देने से ही मना कर दिया। आरटीआई आवेदनों का भी उप शिक्षा निदेशक के यहां से कोई जवाब नहीं मिला लेकिन अपील करते ही शिक्षा विभाग में खलबली मच गई। मयूर पब्लिक स्कूल ने शिक्षा निदेशालय कें आदेश के बाद दाखिले के लिए झुग्गियों में फार्म भिजवा दिए। इसके बाद 9 बच्चों का दाखिला हुआ।
और सफलता का यह सिलसिला आज भी जारी है। ग्रीन फील्ड, नूतन विद्या मंदिर, हंसराज, फ्लोर डेल, ग्रीनवे, सिद्धार्थ इंटरनेशनल, अर्वाचीन, मयूर, बालभवन, मदर टेरेसा, प्रीत, यूनिवर्सल, विवेकानंद, नेशनल विक्टर आदि पब्लिक स्कूलों में दाखिले हुए हैं और अब भी हो रहे हैं। इस संबंध में हाईकोर्ट में याचिका डालने वाले अधिवक्ता अशोक अग्रवाल का कहना है कि साल 2008 में पब्लिक स्कूलों में 10 हजार गरीब बच्चों के दाखिल हुए हैं। उनका कहना है कि इस कोटे के तहत हर साल 40 हजार बच्चों का पब्लिक स्कूल में दाखिला हो सकता है। लेकिन लोगों में जागरूकता की कमी के चलते ऐसी सीटें नहीं भर पा रही हैं।
सीमा पुरी के रहने वाले आरटीआई कार्यकर्ता रामआसरे बताते हैं कि यदि सूचना का अधिकार नहीं होता तो दिल्ली के हजारों गरीब बच्चों के दाखिले नहीं हो पाते। रामआसरे स्वयं एक पुनर्वास बस्ती में रहते हैं और उनके बच्चे हंसराज पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। पिछले साल उनके बच्चे यश ने अपनी कक्षा में चौथा स्थान हासिल किया था। उनका कहना है कि गरीब परिवारों के बच्चों किसी मायने में अमीरों के बच्चों से कमतर नहीं हैं। यदि मौका मिले तो झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बच्चे भी अच्छा कर सकते हैं और दिल्ली के अनेक बच्चों ने इसे साबित करके दिखाया भी है।
(अपना पन्ना के अप्रैल अंक में प्रकाशित)
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