किसी समय सूचना के अधिकार की आत्मा में बचाए रखने में केन्द्रीय सूचना आयुक्त ओपी केजरीवाल अहम भूमिका निभाई थी। फाइल नोटिंग के सम्बन्ध में जब उन्होंने प्रधानमंत्री को सख्त चिठ्ठी लिखी तो उनकी छवि बोल्ड और आवेदक के पक्ष में फैसला देने वाले सूचना आयुक्त के रूप में उभरी। हालाँकि जितनी सख्ती की उम्मीद उनसे की गई थी उतनी सख्ती नहीं दिखी। इस पद पर तीन साल तक काम करने के बाद वे फरवरी में रिटायर हुए हैं। इस पर उनसे हुई बातचीत के अंश:
आप सरकार के कई विभागों के प्रमुख रहे हैं। सूचना आयुक्त का पद अन्य अन्य पदों से किस प्रकार अलग रहा है?
मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूं कि मैं इस कानून के आरंभ से ही जुड़ा रहा। इस कानून का दायरा अन्य कानूनों और विभागों से बिलकुल अलग है। आप पूरे मानव इतिहास को देख लीजिए, आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि शासित वर्ग अपने शासक वर्ग से सवाल पूछ सके। इससे आप समझ सकते हैं कि यह कितना क्रांतिकारी कानून है जो शासित वर्ग को अधिकार देता है कि वह बड़े से बड़े अधिकारी से सवाल पूछ सके।
आपने कहा कि सूचना का अधिकार एक क्रांतिकारी कानून है, क्या आपके तीन साल के कार्यकाल के दौरान कोई ऐसा केस आया जिसे आप समझते हैं कि अगर वह सूचना नहीं होती तो ऐसा नहीं हो सकता था?
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां मैं कह सकता हूं कि यदि सूचना का अधिकार कानून नहीं होता तो बहुत मुश्किल होती। जैसे एक केस आया कि एमरजेंसी के दौरान सरकार ने किसी की जमीन ली और उसे एक प्रमाणपत्र दिया कि आपको मुआवजा दिया जाएगा। उसके बाद वह व्यक्ति प्रमाणपत्र लेकर भटकता रहा, कहीं सुनवाई नहीं हुई। बीच में उसे कह दिया गया कि आपकी फाइल खो गई है। सूचना का अधिकार कानून आ जाने के बाद उसने अपने केस के बारे में सूचनाएं मांगी। मामला मेरे पास आया। सुनवाई में सरकारी अधिकारी ने माना कि फाइल दोबारा बना ली गई है और इन्हें जमीन जल्दी ही दे दी जाएगी। एक उदाहरण और है। क्लास फोर का एक कर्मचारी रिटायर हुआ। उसकी ग्रेचुएटी का कुछ फंड 12 साल तक नहीं मिला। उसने इसके लिए जगह-जगह गुहार लगाई। पैरवी लगाकर फाइल मूव भी करवाई, लेकिन पैसा नहीं मिला। आरटीआई डालने पर जब आयोग में उसकी सुनवाई हुई तो अधिकारी चेक लेकर आयोग में आए। वह चेक 2035 रुपये का था। अब आप सोच सकते हैं कि 2035 रुपये के लिए सरकार ने कितने अधिकारियों, कितना समय और कितने नोट सीट बरबाद किए होंगे। भाई कानून है तो उसके हिसाब से मिल सकता है तो दो, नहीं तो मना कर दो। लेकिन ऐसा नहीं होता उसी चीज को बार-बार इधर से उधर टरकाया जाता है। पहली बार हमने देखा कि चमत्कार हो रहे हैं।
पिछले तीन सालों में देखा गया है कि आपने इस कानून के क्रियान्वयन को लेकर काफी बोल्ड बयान दिए हैं। खासकर फाइल नोटिंग से सम्बंधित आपके बयान के बाद ही एक सहमति बनी कि फाइल नोटिंग सूचना के अधिकार के तहत दिखाई जाएगी। इसके बारे में आप क्या कहेंगे?
मैनें अक्टूबर 2005 में ज्वाइन किया और नवंबर में एक दिन अखबार में देखा कि पीएमओ से एक गाइडलाइन चली है जिसमें फाइल नोटिंग को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर किया जा रहा था और उसी के तहत हमें काम करना होगा। हमने सोचा कि इतने कमजोर कानून के लिए क्या काम करना, पहले तो सोचा त्यागपत्र दे दूं। फ़िर सोचा एक बार प्रोटेस्ट तो करें, फ़िर हमनें प्रधानमंत्री को एक खुली चिट्ठी लिखी। हमें भी बिलकुल अंदाजा नहीं था कि इतना असर होगा। इसका क्रेडिट जाता है मीडिया और जनता को। इस मुद्दे को मीडिया और फ़िर जनता ने उठाया और वो वहीं पर रुक गया। हमने मसला उठाया था कि यदि कोई बदलाव होना है तो संसद से हो। कोई व्यक्ति कैसे कानून बदल सकता है? इसके आठ महीने बाद संसद के माध्यम से कोशिश की गई कि फाइल नोटिंग नहीं दिखलाई जाएगी। कैबिनेट ने इसे पास भी कर दिया। जिस दिन कैबिनेट ने इसे पास किया एक टीवी टीम मेरे आई तो मैंने कहा कि अगर ऐसा हो रहा है तो इस कानून से इसकी आत्मा निकाली जा रही है। इसके बाद तो जन साधारण का इतना दबाव पड़ा कि इसे संसद में नहीं रखा गया। यह कुछ बिरले केसों में है, जहां कैबिनेट ने कोई प्रपोजल पास किया हो और वह संसद में नहीं रखा गया।
फाइल नोटिंग का क्या महत्व है और यह किस तरह लोगों को प्रभावित करती है?
जो भी मुद्दा सरकार के पास आता है, उसकी एक फाइल बनती है, उसी से सारा काम होता है। हर फाइल में दो हिस्से होते हैं। एक हिस्से में अधिकारी अपनी टिप्पणी करते हैं और दूसरे हिस्से में उस मुद्दे से जुड़ी चिटि्ठयां होती हैं जो विभिन्न विभागों के बीच लिखी जाती हैं। जो असली विवाद है वो आपको समझ में आता है पहले वाले हिस्से से यानि फाइल नोटिंस से। अगर उसको दाब दिया जाए तो जैसे मैने पहले कहा कि उसके प्राण ही नहीं रहेंगे। फाइल नोटिंग से पता चलता है कि किसने क्या कहा और किसने कहां देर की। इससे भ्रष्टाचार का पता चलता है, किसने किसे कांट्रेक्ट देने के लिए कहा, कांट्रेक्ट किस आधार पर दिया गया, ये सब कुछ किसी भी मुद्दे की फाइल नोटिंग से ही पता चलता है।
इस कानून को जिन उम्मीदों के साथ लाया गया था, उन उम्मीदों पर अभी तक खरा नहीं उतरा है और पिछले तीन सालों में लोगों में निराशा बढ़ी है। आपको यह निराशा कितनी सही लगती है?
एक चीज तो है, जब कानून बना तो लोगों की आशाएं बहुत हो गईं। उस कसौटी पर अगर तोलें तो अभी बहुत कुछ करना बाकी है। लेकिन आप देखें कि कितने कम समय में इस कानून का जितना गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है, उतना किसी दूसरे कानून का नहीं पड़ा। अभी चार साल भी नहीं हुए। हजारों वर्षों की छुपाने की मानसिकता आप चार साल में नहीं बदल सकते। शासक वर्ग कहता है हमसे पूछने वाले आप कौन हैं? इस हजारों वर्ष की मानसिकता को बदलने में वक्त तो लगेगा ही। लेकिन इतना होते हुए भी जितना प्रभाव इस कानून का पड़ा है, उसे देखते हुए यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि जल्दी ही यह मानसिकता पूरी तरह से बदल जाएगी।
लेकिन इस कानून के पूरे स्पिरिट के साथ लागू होने में जो बाधाएं आ रही हैं, उसके बारे में आप क्या कहेंगे?
सबसे बड़ी बाधा है मानसिकता। सरकारी अधिकारी सूचना देना नहीं चाहते। अब मुझे ही ले लीजिए, मैं भी ब्यूरोक्रेसी से ही आया हूं। शुरू-शुरू में एक अड़चन या असमंजस थी, लेकिन धीरे-धीरे बात समझ में आई। हम लोग भी तो सीख रहे हैं और सुधार कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में कुछ लोग जल्दी ढल गए, कुछ देर और कुछ अभी तक नहीं ढले हैं। ये बाधा है।
आयोगों की कार्यप्रणाली से लोग बड़े नाराज हैं। इस नाराजगी के लिए आप अपने को कहां तक जिम्मेदार मानते हैं?
दुर्भाग्य की बात है कि कमीशन ने अपनी भूमिका पूरी तरह नहीं निभाई। इसे आप फाइल नोटिंग में देख सकते हैं। तीन साल हो गए लेकिन अभी तक कोई सिस्टम नहीं बना है। न तो हमारे पास अच्छा स्टॉफ है, न पूरा पैसा है, न जगह। इसके लिए आयोग और उसका प्रशासन दोषी है। आप देखिए, हमने कोई आदेश पास किया कि सूचना निश्चित तारीख तक दे दी जानी चाहिए, लेकिन सूचना नहीं दी गई तो आवेदक शिकायत करेगा कि आपके आदेश का पालन नहीं किया गया। अब वह चिट्ठी आयोग में तीन-चार महीने तक पड़ी रहती है, तो इसका असर तो कम होगा ही। इस तरह के हजारों केस आपको आयोग में मिलेंगे। अभी तक यह व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इस तरह की शिकायतों पर 24, 48 या 72 घंटे में कार्रवाई हो।
बहुत से लोग सूचना के अधिकार में वो ताकत देख रहे है जिससे देश के हालात को बदला जा सकता है, इससे आप कितना सहमत हैं?
बिलकुल बदला जा सकता है। कानून में प्रावधान है कि आयोग विभागों को निर्देश दे सकते हैं कि आप प्रशासन में किस प्रकार सुधार ला सकते हैं। हमने इसका प्रयोग किया भी है। जब विभागों का प्रशासन सुधरेगा तो देश में बदलाव अपने आप ही आएगा।
सूचना के अधिकार में जनसाधरण की क्या भूमिका देखते हैं?
मैं जहां भी जाता हूं, एक बात जरूर कहता हूं कि सूचना के अधिकार के सैनिकों की एक आर्मी तैयार करें। किसी एक विभाग में एक महत्वपूर्ण विषय पर साल में एक व्यक्ति आरटीआई डाले और उसका फालो अप करे, फ़िर देखिए क्या असर पड़ता है।
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