बुधवार, 3 नवंबर 2010

सूचना कानून के दायरे में नहीं 'राजीव गाँधी फाउण्डेशन'

राजीव गाँधी फाउण्डेशन, 
  • जिसकी अध्यक्ष सोनियां गाँधी हैं, वही सोनिया गाँधी जिन्हें देश में सूचना के अधिकार को लागू करने का श्रेय दिया जाता है,
  • जिसकी प्रबन्ध् समिति में योजना आयोग के उपाध्यक्ष, गृह मंत्री जैसे लोग हैं,
  • जिसका दफ्तर सरकार द्वारा एक अन्य संस्था को प्रदत्त खरबों रुपए की ज़मीन पर चल रहा है, और उस संस्था को दी जाने वाली तमाम सुविधाओं का फायदा उठा रहा है, 
  • जिसके अरबों रुपए के बजट में से 4 फीसदी जनता के दिए गए टैक्स से आता है, 
  • जिसके बनाने की घोषणा केन्द्रीय वित्त मंत्री ने अपने बजटीय भाषण में की थी,  
  • जिसके चलाने के लिए सरकार ने 100 करोड़ रुपए का एक कोष भी बनाया था,
  • जिसके भवन निर्माण का खर्च शहरी विकास मन्त्रालय ने उठाया,
  • जिसे कई अन्य प्रकार से भी कर, बिल आदि में छूट प्राप्त है,
और जिसका दावा है कि वह 
  • राजीव गाँधी के सपनों को पूरा करने का काम कर रही है,
  • बच्चों, महिलाओं और दूसरे वंचित तबकों के कल्याण के लिए सैकड़ों योजनाएं एवं कार्यक्रम चलाता है।
वह राजीव गाँधी फाउण्डेशन संस्था सूचना के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आती है। संस्था के अधिकारी तो सूचना के अधिकार के आवेदनों को खारिज करते ही रहे हैं अब केन्द्रीय सूचना आयोग के तीन आयुक्तों की पीठ ने भी एक आदेश में इस पर मोहर लगा दी है कि यह संस्था सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर है।
 
शानमुगा पात्रों ने सूचना के अधिकार कानून के तहत संस्था से उसकी परियोजनाओं के बारे में जानकारी मागी थी। सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी, एम.एल.शर्मा और सत्यानन्द मिश्रा की एक पूर्ण पीठ ने उनकी अपील को खारिज करते हुए कहा कि सूचना मांगे जाने के लिए किसी संस्था पर सरकार का परोक्ष या प्रत्यक्ष वित्तीय पोशण ज़रूरी है। आयोग ने कहा कि न तो सरकार का इस संस्था पर मालिकाना हक है और न ही यह सरकार से नियन्त्रित है। इसकी कमाई में महज़ चार फीसदी ही सरकार के पास से आता है अत: इसे वित्तीय सहायता पाने वाली संस्था में भी नहीं रखा जा सकता। पात्रों का तर्क था कि फाउण्डेशन को काफी मात्रा में सरकारी पैसा मिलता है अत: इसे सूचना के अधिकार के दायरे में आना चाहिए। लेकिन आयोग ने इन दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया। 
 
सवाल यह है कि क्या केन्द्रीय सूचना आयोग में बैठे आयुक्तों ने ``10 जनपथ´´ के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी (वफादारी) निभाई है। आखिर वहां बैठे कई लोगों की नियुक्ति ``10 जनपथ´´ यानि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मेहरबानी से ही हुई थी।

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी आई.ए.एस. अफसर ने लिया सूचना कानून का सहारा

देश के कोने कोने से अधिकारियों की एक ही गुहार है कि सूचना अधिकार कानून तो बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन इसने हमारा काम करना मुश्किल कर दिया है। लगभग हर अफसर से आप सूचना अधिकार के इस्तेमाल को लेकर ये शब्द सुन सकते हैं... ``लोग निजी शिकायतों को सूचना अधिकार जैसे बड़े कानून के ज़रिए हल करने के चक्कर में आवेदनों का अंबार लगाए जा रहे हैं... यह कानून तो सरकार के काम में पारदर्शिता लाने जैसे व्यापक कामों में इस्तेमाल होना चाहिए... आदि आदि...´´

लेकिन जब बात अपने उपर आती है तो वे भी सूचना के अधिकार का उपयोग करने से नहीं चूकते। ताज़ा घटनाक्रम में झारखण्ड की एक आई.ए.एस अधिकारी ने इस कानून का इस्तेमाल किया है। उसने अपने खिलाफ लगे आरोपों के जवाब में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन दाखिल किया, और अब वो लोक सूचना अधिकारी से मिले जवाब को अपने पाक साफ होने के सबूत के रूप में पेश कर रही हैं।

वर्तमान में पलामू की उपायुक्त पूजा सिंघल पुरवार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की खबरें अचानक मीडिया की सुर्खियां बनने लगीं। उन पर आरोप लगाए जा रहे थे कि पलामू से पहले खूंटी ज़िले की उपायुक्त रहते हुए उन्होंने नियम कायदों को ताक पर रखकर जूनियर इंजीनियरों को एडवांस भुगतान कराया। इन खबरों का जवाब देने के लिए पूजा सिंघल ने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन खूंटी ज़िले के उपायुक्त कार्यालय में डाला। उन्होंने जानकारी मांगी कि ``क्या उनके पद पर रहते उनकी तरफ से इंजीनियरों को एडवांस पेमेंट कराया गया?´´ लोक सूचना अधिकारी ने उनके सवालों के जवाब में ``नहीं´´ लिखकर दे दिया।
इस ``नहीं´´ को अब उन्होंने अपनी ढाल बनाकर, अपने खिलाफ लगे आरोपों की पुख्ता काट बनाकर मीडिया के सामने रखना शुरू किया है।

किसी आई.ए.एस. अधिकारी द्वारा सूचना के अधिकार का इस तरह इस्तेमाल करना अच्छी बात है। इस उदाहरण के ज़रिए सूचना कानून की उपयोगिता देश के कोने कोने में लोक सूचना अधिकारियों को भी समझाई जानी चाहिए। लेकिन यहां कुछ तथ्यों और उनसे उठने वाले सवालों पर भी गौर करना होगा:
  • पूजा सिंघल ने 8 अक्टूबर 2010 को अपना आवेदन दाखिल किया।
  • उन्हें मात्र 4 दिन में यानि 12 अक्टूबर 2010 को ही अपने सवालों के जवाब मिल गए। (आम आदमी को तो कानून में 30 दिन की समय सीमा बीतने के बाद ही सूचना मिलती है, वो भी आधी-अधूरी)
  • उन्होंने अपने आवेदन में जानकारी लेने के लिए चन्द सवाल लिखे और लोक सूचना अधिकारी ने उसका जवाब हां/ना में दे दिया...(जबकि आम आदमी के आवेदनों को हमेशा यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि सूचना कानून सवाल जवाब  पूछने की इजाज़त नहीं देता)