आजादी की लड़ाई में अनेक स्वतंत्रता सैनानियों के नाम तो इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गए लेकिन बहुत से नाम गुमनामियों में खो गए। सम्मान देने और उनकी याद ताजा बनाए रखने के लिए किसी के नाम पर विश्वविद्यालय-कॉलेज, एयरपोर्ट के नाम रखे गए या किताबों में दर्ज हो गए तो किसी की याद में एक छोटी सी सड़क का नाम रखने में भी मशक्कत करनी पड़ी। और वह भी राजनीतिक दावपेंचों में उलझकर रह गई। लाला फतेह चंद बुत्तन ऐसे ही स्वतंत्रता सैनानी हैं।
परिवार की अनेक कोशिशों के बाद उनके नाम पर दिल्ली के पहाड़गंज इलाके की मुल्तानी धंदा आराकशां रोड से देशराज भाटिया रोड़ को जोड़ने वाली गली नंबर 13 तक को 2003 में दिल्ली नगर निगम ने लाला फतेह चंद बुत्तन मार्ग नाम रखा। लेकिन बाद में निगम में राजनीतिक बदलाव आया तो इस रोड़ का नाम गैर कानूनी तरीकों से बदल दिया गया। वर्तमान स्थिति यह है कि रोड़ के एक छोर पर तो लाला फतेह चंद बुत्तन मार्ग का बोर्ड लगा है जबकि दूसरे छोर और अन्य दो जगह गोविन्द राम वर्मा मार्ग लिखा हुआ है।
लाला फतेह चंद के पुत्र आर एन बुत्तन कहते हैं कि उनके पिता कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता सैनानी थे, इसलिए भारतीय जनता पार्टी के एक पार्षद ने गलत तरीके से सड़क का नाम बदलवा दिया। वे सवाल उठाते हैं कि दिल्ली नगर निगम ने एक ही रोड़ के दो नामों की आंख बंदकर क्लीयरेंन्स कैसे दे दी? जबकि नियम यह है कि आजादी के बाद यदि किसी सड़क का नाम स्वतंत्रता सैनानी के नाम पर रखा गया है तो उसे बदला नहीं जा सकता।
आरटीआई के जरिए अनेक आश्वासनों और सड़क के नामकरण के प्रस्ताव के बावजूद काम न होने के सम्बंधित सवालों के निगम के पास कोई जवाब नहीं हैं। तीन आवेदनों में निगम ने एक का भी पूरा और सही जवाब नहीं दिया है। निगम के जवाब तलब करने के लिए आर एन बुत्तन ने अब केन्द्रीय सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया है और सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।
कौन हैं लाला फतेह चंद बुत्तन
फतेह चंद बुत्तन का जन्म 5 दिसंबर 1895 को पाकिस्तान के मुल्तान शहर के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। 1941 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद लाला लाजपत राय के संपर्क में आए और आजादी की लड़ाई में कूद पडे़। 1919 में महात्मा गाँधी के आवाहन पर मार्शल कानून के दिनों में रोलेक्ट एक्ट के विरोध में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। मुल्तान में वे म्युनिसिपल कमेटी के 16 बार सदस्य भी चुने गए।
आजादी के आंदोलनों में वह विभिन्न जेलों में 26 महीने अन्य बड़े-बडे़ नेताओं के साथ बंद रहे। उन्हें एक बार नजरबंद भी किया गया। कुर्की, जुर्माना आदि की कार्रवाई भी कई बार उनके विरुद्ध हुई। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का मुल्तान में नेतत्व करने पर इन्हें बंदी बनाया गया।
बंटवारे के बाद भारत आ गए और स्वतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली की प्रथम म्युनिसिपल कमेटी का इन्हें सदस्य चुना गया। फ़िर 1951 के आम चुनाव में मुल्तानी धंडा पहाड़गंज क्षेत्र की जनता ने अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए म्युनिसिपल कमेटी का सदस्य चुना। 21 दिसंबर 1956 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
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