शनिवार, 13 सितंबर 2008

एक अच्छे सूचना आयुक्त का इंतज़ार

अरविन्द केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया

सूचना अधिकार कार्यकर्ता शैलेष गाँधी का केन्द्रीय सूचना आयुक्त बनना एक उल्लेखनीय घटना है। इसका एक पहलू तो यही है कि सूचना आयोग में पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति को शामिल किया जा रहा है जिसे न सिर्फ़ इस कानून की अच्छी समझ है बल्कि इस कानून को लाने से लेकर इसके लागू किए जाने के संघर्ष में भी शामिल रहा है। आईआईटी मुंबई से केमीकल इंजीनियर बने शैलेष गाँधी ने सफलता पूर्वक चल रही अपनी फैक्ट्री कुछ साल पहले इसलिए बेच दी थी क्योंकि वे पूरी तरह सूचना के अधिकार के काम में जुट जाना चाहते थे। सैकड़ों ऐसे मामले हैं जहां शैलेष गाँधी ने आम आदमी के रुप में इस कानून का इस्तेमाल करते हुए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की है।

सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद पिछले तीन साल में केन्द्र और राज्यों के सूचना आयुक्तों पर लगातार कानून सम्मत फैसले न लेने, आम आदमी की सूचना की जरुरत के उलट फैसले देने और भ्रष्ट तंत्र को संरक्षित करने के आरोप लगे है। खुद शैलेष गाँधी केन्द्रीय और अन्य राज्यों के सूचना आयोगों के रवैए के खिलाफ लड़ते आए हैं। ऐसे में उनका केंद्रीय सूचना आयुक्त बनना आम आदमी में उम्मीद जगाता है। वह अब देखना चाहेगा कि विभिन्न मुद्दों पर सरकारों से सूचना मांगता आया व्यक्ति इस पद पर बैठकर क्या मानक स्थापित करता है? अभी यह तय नहीं है कि शैलेष गाँधी कौन-कौन से विभागों के मामले देखेंगे लेकिन लोगों को यह इंतजार तो रहेगा ही कि क्या वे अपने अधीन विभागों की सुनवाई कानून की भावना के अनुरुप 30 दिन में कर पाते हैं? क्या वे जीवन मरण से सम्बंधित सूचना कानून की भावना के अनुरुप 48 घंटे में दिलवाएंगे? क्या हर दोषी अधिकारी पर जुर्माना लगेगा? क्या आयोग के आदेश के बाद भी सूचना छिपाने वाले अधिकारियों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए जाएंगे। कानून हर आयुक्त को इन सबका अधिकार देता है लेकिन इस कानून का इस्तेमाल करने वाले लाखों लोगों की शिकायत रही है कि सूचना आयुक्त अपने अधिकारों का इस्तेमाल तो दूर, भ्रष्ट अधिकारियों का खुलेआम पक्ष लेते है। शैलेष गाँधी अगर कानून में दिए अधिकारों का इस्तेमाल सूचना दिलवाने के लिए करते हैं तो शायद इसी से तय होगा कि एक अच्छा सूचना आयुक्त होना लोगों के लिए क्या मायने रखता है।

लेकिन नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के घटनाक्रम का एक दु:खद पहलू यह है कि शैलेष गाँधी को सूचना आयुक्त बनाने का फैसला सरकार को संयोगवश असहज बन गई कुछ परिस्थितियों के चलते करना पड़ा है। सरकार ने तो गुपचुप तरीके से चार नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की तैयारी कर ली थी। उसकी सूची में पहले की तरह ही सत्तापक्ष के नजदीकी नौकरशाह और कृपा पात्रों के नाम थे। मीडिया में खबर आते ही अन्ना हजारे, मेधा पाटेकर, संदीप पांडे और प्रोफेसर अमित भादुड़ी आदि की तरफ से प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और सोनिया गाँधी को एक चिट्ठी भेजी गई। चिट्ठी में सरकार द्वारा चुने गए चारों लोगों की योग्यता, सूचना अधिकार की उनकी समझ और पारदर्शिता के प्रति उनके नजरिए को चुनौती देते हुए समाज की ओर से चार जाने- माने लोगों के नाम प्रस्तावित किए गए। यह भी लिखा गया कि ये चारों लोग सूचना आयुक्त बनाए जाने पर सरकारी वेतन के रुप में केवल एक रुपया लेंगे तथा बंगला और गाड़ी के बिना ही इस पद के लिए अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं। इनमें से एक नाम तो शैलेष गाँधी का ही था इसके अलावा आईआईएम से जुडे़ रहे और वर्तमान में राजनीतिक दलों की जवाबदेही के लिए अभियान चला रहे प्रोफेसर जगदीप चोकर और त्रिलोचन शास्त्री तथा पद्मश्री डॉक्टर सुदर्शन के नाम इस सूची में थे। ये चारों ही नाम ऐसे नागरिकों के हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन सरकार कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही की समाजसेवा के लिए समर्पित कर दिया है।

दूसरी तरपफ सरकार ने जिन नामों को अंतिम रुप दिया था उनमें मौजूदा कार्मिक सचिव सत्यानंद मिश्रा तथा गुजरात के पूर्व पुलिस अधिकारी बी श्रीकुमार के नाम भी थे। श्रीकुमार वही पुलिस अधिकारी हैं जिन्होंने गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका का खुलासा किया था। इसी पर मामला अटक गया। केन्द्रीय सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए सरकार के लिए आडवाणी की मंजूरी जरुरी थी क्योंकि कानून के मुताबिक इसका फैसला प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष तथा एक केन्द्रीय मंत्री की तीन सदस्यीय समिति को करना होता है। बी श्रीकुमार के नाम पर आडवाणी को ऐतराज होना ही था। उन्होंने चयन समिति की बैठक में भाग लेने से इंकार भी किया लेकिन यह कहते हुए कि सामाजिक कार्यकर्ताओं की आपत्ति जायज है। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि सरकार नामों पर फैसला ले चुकी है और अब उन्हें बैठक में बुलाने की औपचारिकता पूरी कर रही है।

आडवाणी की चिट्ठी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज की मीडिया में उठना सरकार के गले में हड्डी बन गया। ऐसे में उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रस्तावित नामों में से एक शैलेष गाँधी को अपनी सूची में शामिल कर लिया और जाहिर है आडवाणी की आपत्ति पर बी श्रीकुमार का नाम हटा दिया गया।

दरअसल सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद से सूचना आयोग में एक कुर्सी पाना रिटायर्ड नौकरशाहों के लिए तो विशेषकर एक सपना बन गया है। सुविधाओं और सेवाशर्तों के मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग में मुखिया का पद मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बराबर, सूचना आयुक्तों का पद निर्वाचन आयुक्तों के बराबर रखा गया है। इसी तरह राज्य सूचना आयोगों में मुखिया का पद निर्वाचन आयुक्त के बराबर और आयुक्तों का पद राज्य के मुख्य सचिव के बराबर रखा गया है। यानि लालबत्ती की गाड़ी, पेट्रोल, यात्रा मद, मोबाइल, टेलीफोन पर असीमित खर्च। इसके साथ ही उन्हें सिविल कोर्ट की शक्तियां भी प्राप्त है। सरकार नाम की व्यवस्था में आए हर पतन के बावजूद आज भी मुख्य सचिव बनने के लिए एक अधिकारी को खूब पापड़ बेलने पड़ते है। उसकी वरिष्ठता, कामकाज, पुराना इतिहास, निष्ठा, बहुत कुछ मायने रखता है। लेकिन येन-केन प्रकारेण सूचना आयुक्त बनने से न्यूनतम इस पद के बराबर तो हैसियत तुरंत हो ही जाती है। ऐसे में यह कुर्सी सबको पसंद आ रही है।

सूचना का अधिकार कानून कहता है कि सूचना आयुक्त के पद पर जन सेवा में लगे ऐसे लोगों को नियुक्त किया जा सकता है जो कानून की समझ रखते हों और विज्ञान, समाजिक क्षेत्र, मेनेजमेंट, पत्रकारिता, जनसंचार या प्रशासन का ज्ञान एवं अनुभव हो (धरा 12(५)। इसके आधार पर अभी तक केन्द्र और राज्यों में सूचना आयुक्त के पद पर अधिकांश सत्ता पक्ष के नजदीक रहे नौकरशाहों को ही जगह मिली है। कई मामलों में तो राज्यों के मुख्य सचिव अथवा मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव पर बैठे आईआईएस अधिकारियों ने वक्त से पहले नौकरी छोड़ मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी पर कब्जा किया है।

हरियाणा, उत्तरांचल, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि ऐसे राज्य हैं जहाँ कानून लागू होने के वक्त मुख्य सचिव की कुर्सी पर बैठे अधिकारियों ने ही मुख्य सूचना आयुक्त बनना पसंद किया और उनके चलते राज्यों में सूचना अयोग के गठन में भी देरी की गई। केन्द्र में भी तत्कालीन कार्मिक सचिव ए एन तिवारी ने अपने ही कार्यालय से अपने नाम की फाईल मुख्य सूचना आयुक्त बनाए जाने के लिए चलवाई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से विरोध के बाद उन्हें सिर्फ सूचना आयुक्त के पद से संतोष करना पड़ा। इसी क्रम में मौजूदा कार्मिक सचिव का सूचना आयुक्त बनना ऐसी परंपरा कायम करना है जिसके तहत कार्मिक सचिव रिटायरमेंट के बाद सीधे सूचना आयुक्त बनेगा। सत्यानंद मिश्रा के नाम पर सामाजिक प्रतिरोध इसलिए भी था क्योंकि उन्होंने कार्मिक सचिव पद पर रहते हुए अपने ही विभाग में सूचना के अधिकार कानून का मजाक उड़ाया था।

भूतपूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर जे एन दीक्षित की पत्नी अन्नपूर्णा दीक्षित, जो न तो कहीं सामाजिक जीवन मे सक्रिय रहीं हैं और न ही उन्हें कानून, सूचना अधिकार आदि के काम का कोई अनुभव है। उनका नाम सूचना आयुक्त पद के उम्मीदवारों में कैसे आया? क्या सरकर कभी यह बताने की जहमत उठाएगी? इसी प्रकार सीबीआई निदेशक न बनाए जाने से खफा एम एल शर्मा को भी अचानक सूचना आयुक्त बनाए जाने से यह सवाल भी उठता है कि क्या सूचना आयोग सत्ता पक्ष से `निजी संबंध´ की योग्यता से प्रतिभा संपन्न लोगों की भोगवादी संस्था बन गई है। कैसे सूचना आयुक्तों को मनोनयन, चयन करने वाली समितिया उन्हें ही विद्वान, अनुभवी और लब्ध प्रतिष्ठित मान लेती हैं जो उनके करीबी और चहेते होते है या फ़िर जिन्हें सत्ता पक्ष संतुष्ट करना चाहता है।

सूचना के अधिकार कानून का मकसद सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाना, उसे जवाबदेह बनाना और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है। क्या संबंधों के आधार पर चुने गए लोग इस दिशा में काम करेंगे। जब सूचना आयुक्तों की चयन प्रकिया ही पारदर्शी और कानून सम्मत नहीं होगी, ईमानदार, प्रख्यात और विद्वान लोगों आयोगों में नहीं आऐंगे तो यह कानून किस काम का रह जाएगा और अंतत: क्या इस तरह के कामो से लोगों का भरोसा लोकतंत्र और कानून से उठ नहीं जाएगा।


सरकार के चार बनाम जनता के चार
जैसे ही सरकार ने चार नए सूचना आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की और उसकी खबर मीडिया में आई, सूचना के अधिकार पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने गुपचुप तरीके से की जा रही नियुक्ति की प्रक्रिया और सरकार के उम्मीदवारों की योग्यता और पृष्ठभूमि को लेकर सवाल उठाए। साथ ही चार ऐसे लोगों के नाम सरकार को दिए जिनकी निष्ठा, प्रसिद्धि, अनुभव और समर्पण निश्चित ही सरकार के चारों उम्मीदवारों से ऊपर था।
समाज की ओर से प्रस्तावित नाम
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शैलेष गाँधी के अतिरिक्त जिन तीन व्यक्तियों के नाम सूचना आयुक्त के लिए सुझाए, उनमें जगदीप चोकर, त्रिलोचन शास्त्री और हनुमप्पा सुदर्शन शामिल हैं।

शैलेष गाँधी ने आईआईटी मुंबई से इंजीनियरिंग करने के बाद अपनी एक इंडस्ट्री स्थापित की, जिसमें करीब 300 लोग काम करते थे। इसी बीच महाराष्ट्र में सूचना के अधिकार की हलचल हुई तो शैलेष भी उससे जुड़ गए। महाराष्ट्र में उन्होंने सूचना के अधिकार का खूब इस्तेमाल किया। शुरू में उन्होंने रोजाना एक घंटा सूचना के अधिकार काम के लिए रखने की ठानी। जितने भी मुद्दे उनके सामने आते उन पर रोज सूचना मांगने का आवेदन लगा देते। इन आवेदनों के चलते मुंबई पुलिस में तबादला नीति बनना, बलात्कारी दरोगा को सजा, जेल में मोबाइल जैमर, ताज होटल को दी गई जमीन का मामला, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जेल गए मंत्री का बीमार होने का बहाना बनाकर सजा अस्पताल में काटने के मामले उठे और सैकड़ों सपफलताएं सूचना के अधिकार के खाते में जुड़ीं। एक अकेला आदमी सूचना के अधिकार के दम पर क्या कर सकता है, आज शैलेष इसकी मिसाल हैं।
इसके साथ-साथ वे सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान से भी जुड़ते चले गए और पिछले दिनों सूचना अभियान की समन्वय संस्था एनसीपीआरआई के समन्वयक भी थे। उन्होंने सूचना के अधिकार पर पूरी तरह काम करने के लिए अपनी इंडस्ट्री भी बंद कर दी और बिना किसी से सहायता लिए इस अभियान में तन मन धन से जुटे रहे हैं।

जगदीप चोकर भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद में प्रोफेसर और डीन के पद पर कार्य कर चुके हैं। इन्होंने भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की व्यापक लड़ाई लड़ी है। इसके लिए इन्होंने उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में अनेक जनहित याचिकाएं दाखिल की हैं और राजनैतिक दलों के विरोध के बावजूद इनके पक्ष में निर्णय दिए गए। इनकी याचिका का ही नतीजा था कि चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों को अपनी संपत्तियों और पूर्व आपराधिक मामलों का ब्यौरा देने को बाध्य होना पड़ा। जगदीप चोकर एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफोर्म के संस्थापक सदस्यों में हैं। यह संगठन भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। यह संगठन भ्रष्टाचार खत्म करने, शासन में पारदर्शिता लाने और चुनावी तंत्र को प्रभावी बनाने की लड़ाई लड़ रहा है।


त्रिलोचन शास्त्री आईआईटी दिल्ली, आईआईएम अहमदाबाद और अमेरिका के मेसाचुसेट्स तकनीकी संस्थान से शिक्षित हैं। वर्तमान में वह आईआईएम बैंगलोर में प्रोफेसर हैं। इसके अलावा भी वह कई विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं। त्रिलोचन भी एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म के संस्थापक सदस्यों में हैं। इन्होंने भी जगदीप चोकर की तरह चुनाव प्रणाली में सुधर के लिए उल्लेखनीय कार्य किए हैं।

हनुमप्पा सुदर्शन बंगलुरू मेडिकल कॉलेज से स्नातक कर 1973 में डॉक्टर बने। उन्होंने ग्रामीण खासकर आदिवासी इलाकों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। ये उन लोगों में हैं जिन्होंने शहरों के बजाय आदिवासियों के लिए काम करना पसंद किया। हिमालय, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक के रामकृष्ण मिशन संगठन में अपनी सेवाएं देने के उपरांत इन्होंने विवेकानंद गिरिजा कल्याण केन्द्र की स्थापना की, जो कर्नाटक के आदिवासियों के विकास हेतु समर्पित है। सुदर्शन के आदिवासियों के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन सुरक्षा आदि कार्यों को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और उन्हें राइट `लाइवलीहुड अवार्ड´ से नवाजा गया। सुदर्शन की इन्हीं सेवाओं को देखते हुए सरकार ने साल 2000 में पद्मश्री पुरूस्कार से भी सम्मानित किया। इसके अलावा सुदर्शन को उनके कार्य के लिए राज्योत्सव अवार्ड, विवेकानंद मेडल, इंटरनेशनल डििस्टंगविस फिसीशियन अवार्ड और हयूमन राइट अवार्ड भी हासिल हुआ है। सुदर्शन ने कर्नाटक के लोकायुक्त कार्यालय में विजिलेन्स डायरेक्टर के रूप में 1 रूपये मासिक वेतन पर भी काम किया है। इस पद पर रहते हुए उन्होंने सरकारी अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने में अहम भूमिका निभाई है। लोगों ने उनके कार्य की भरपूर प्रशंसा की है।

सरकार के चार उम्मीदवार
दूसरी तरफ़ सरकार जिन चार लोगों को सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बिठाने के लिए चुना वे हैं एम एल शर्मा, बी श्रीकुमार, सत्यानंद मिश्रा और अन्नपूर्णा दीक्षित।
सत्यानंद मिश्रा कार्मिक विभाग के सचिव थे। उनके सचिव रहते कार्मिक विभाग में सूचना के अधिकार की आत्मा के खिलाफ खूब काम हुए। सबसे पहले तो कार्मिक विभाग से ही लोगों को सूचना न मिलना इस बात का सबूत है कि वहां इस कानून को लेकर क्या मंशा रही है। इसके साथ ही उन्होंने हाल ही में धारा 6(३) के तहत सूचना मांगने वाले आवेदक की अर्जी को सही विभाग में भेजे जाने के कानूनी प्रावधन के विरुद्ध ही आदेश जारी करवाया। कानून में प्रावधन है कि यदि कोई आवेदक किसी गलत विभाग में अपना आवेदन भेज देता है तो उस विभाग का सूचना अधिकारी उसे सही विभाग में भेजेगा। सत्यानंद मिश्रा ने कानून की इस धारा के विरुद्ध जाते हुए व्यवस्था कराई है।

इसी तरह कार्मिक सचिव रहते उन्होंने केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा दो-दो बार नोटिस भेजे जाने के बाद भी अपने विभाग की वेबसाईट से उस व्याख्या को नहीं हटाया जिसमें फाईल नोटिंग्स को सूचना के अधिकार के दायरें से बाहर बताया गया था। गौरतलब है कि सैकड़ो मामलों में सरकारी अधिकारियों ने इसी वेबसाईट की व्याख्या के आधार पर लोगों को सूचना देने से मना कर दिया था। लेकिन मिश्रा ने केन्द्रीय सूचना आयोग के नोटिस के बाद भी यह व्याख्या नहीं हटाई गई। सामाजिक कार्यकर्ताओं की आपत्ति है कि ऐसे व्यक्ति से अब रिटायरमेंट के बाद आम लोगों को सूचना दिलवाने के मामलों में क्या अपेक्षा की जा सकती है।

एम एल शर्मा सीबीआई के विशेष निदेशक रह चुके हैं। शर्मा 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं, जिनका नाम हाल ही में सीबीआई डायरेक्टर के लिए उछाला जा रहा था लेकिन अचानक सरकार ने उन्हें इसके लिए अयोग्य मानते हुए अश्विनी कुमार को सीबीआई का डायरेक्टर नियुक्त कर दिया। इससे नाराज़ शर्मा ने नौकरी ही छोड़ दी थी। जिस व्यक्ति को सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर पद के लिए उपयुक्त नहीं माना, उसकी नाराज़गी दूर करने के लिए अब सूचना आयुक्त की कुर्सी दी जा रही है।

अन्नपूर्णा दीक्षित पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्वर्गीय जे एन दीक्षित की पत्नी हैं। वे एक हाउसवाइफ रही हैं और उनका कोई सामाजिक योगदान इस देश में रहा है ऐसा सामने तो नहीं आता। जे एन दीक्षित कांग्रेस के काफी नज़दीकी रहे हैं और माना जा रहा है कि उनके पति की सेवाओं के प्रतिफल के रूप में उन्हें सूचना आयुक्त की कुर्सी दी जा रही है।

सरकार की ओर से पहली सूची में एक नाम बी श्रीकुमार का भी था जिसे लालकृष्ण आडवाणी के विरोध के बाद हटा लिया। श्रीकुमार एक आईपीएस अधिकार थे और मोदी के खिलापफ अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते रहे हैं। मोदी के खिलापफ मुखर ही सूचना आयुक्त पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की योग्यता भी थी और शायद यही अयोग्यता भी बनी।


कैसा व्यवहार करते हैं हमारे सूचना आयुक्त
सूचना आयुक्तों पर हमेशा आरोप लगते हैं कि वे अधिकारियों का पक्ष लेते हैं और आवेदकों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। हम नीचे कुछ ऐसे उदाहरण दे रहे हैं जहां सूचना आयुक्तों का व्यवहार उनके पद की गरिमा और इस कानून की आत्मा के एकदम ख़िलाफ़ रहा-
1 सुनवाई के दौरान अगर आवेदक सूचना मांगने के पक्ष में अपना पक्ष स्पष्ट करे तो हरियाणा की सूचना आयुक्त मीनाक्षी आनंद चौधरी उसे कमरे से बाहर ही भगा देती है। बहादुरगढ़ के नरेश जून के एक मामले की सुनवाई करते हुए वे सूचना ने देने वाले अधिकारी का पक्ष लेने लगी और नरेश को डांटने लगी कि इतनी सूचना लेकर क्या करोगे? नरेश ने इसके जवाब में कहा कि इससे आपको मतलब नहीं होना चाहिए। आप सूचना देने के लिए बैठाए गए हैं न कि लोक सूचना अधिकारियों के लिए। यह सुनकर महामहिम तैश में आ गई। और नरेश को सुनवाई से बाहर भगा दिया। नरेश जून ने बहादुरगढ़ के सिविल अस्पताल के सम्बंधित सूचना मांगी थी।

2 हरियाणा की ही मीनाक्षी आनंद चौधरी ने हिसार से आए राजेन्द्र यादव को यह कहकर झिड़क दिया कि मुझे जो करना था कर दिया, तुम्हें जो करना है कर लो। राजेन्द्र यादव ने मीनाक्षी आनंद के फैसले से नाराजगी व्यक्त की थी। जिसकी प्रतिक्रिया में मीनाक्षी ने यह बात कही।

3 उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त बृजेश कुमार सिंह ने सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा को भरी अदालत में धमकी दी और कहा कि यदि वह अपना मामला आयोग में फ़िर लेकर आई तो उसे गिरफ्तार करवा दिया जाएगा। उसके बाद काफी समय तक उर्वशी के मामलों की आयोग में सुनवाई नहीं हुई। उर्वशी शर्मा ने प्रदेश के सामाजिक कल्याण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को सूचना के अधिकार के जरिए उठाया था। इस भ्रष्टाचार में अनेक अधिकारी फंस रहे थे।

4 उत्तर प्रदेश के राजाभैया यादव जब उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त सुनील चौधरी के यहां गए तो उन्होंने कहा- आप ही हैं राजाभैया, तुमने क्या आरटीआई का ठेका ले रखा है। राजाभैया ने अपने आवेदनों में नैरनी के तालाबों के अतिक्रमणों की जानकारी मांगी थी।

5 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तारिक इस्लाम जब अपनी अपीलों की सुनवाई के लिए केन्द्रीय सूचना आयुक्त ओ पी केजरीवाल के यहां गए तो उन्होंने खीझते हुए कहा- हम इतनी छोटी-छोटी बातों की कब तक सुनवाई करते रहेंगे। यदि ऐसा ही चलता रहा तो मैं ऐसे-ऐसे छोटे मामलों के खिलाफ वार्निंग इश्यू कर दूंगा। तारिक ने अलीगढ़ के मराठा किले के संबंध में सूचना मांगी थी। किले की संरक्षण और देखभाल की जिम्मेदारी भारतीय पुराताित्वक सर्वेक्षण ने एएमयू को सौंपी थी। किले जैसी धरोहरों पर किसी प्रकार का निर्माण मना है लेकिन विश्वविद्यालय के तात्कालीन उपकुलपति हामिद अंसारी की पत्नी ने किले के भीतर स्कूल बनवा दिया था। किसकी अनुमति से किला परिसर में स्कूल बनाया यही जानने के लिए उन्होंने आरटीआई दायर की थी। तारिक किले के अलावा विश्वविद्यालय से जुडे़ तीन अन्य मामलों की सुनवाई के लिए वे आयोग गए थे।

6 'हां मैं गुंडा हूं। यह मेरा बाजार है और यहां जो मैं चाहूंगा, वही होगा'। यह बात मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने दिल्ली की स्वाति और उसके सहयोगियों से कही। हबीबुल्ला काफी समय से स्वाति और उनके साथियों को आश्वासन दे रहे थे कि वह स्वास्थ्य विभाग के मामले सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम से लेकर स्वयं देखेगें या ओ पी केजरीवाल को ट्रांसफर कर देंगे। इस आश्वासन को पूरा करने के लिए जब स्वाति और स्वास्थ्य विभाग के रवैए से नाराज करीब 30 गरीब लोग वजाहत साहब के पास पहुंचे और उनसे सुनवाई के लिए कमिश्नर बदलने के लिए आग्रह करने लगे तो उन्होंने ये बातें कहीं।

7 केन्द्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के कहने के बावजूद सूचना आयुक्त एम एम अंसारी दिल्ली के एम के त्यागी की अपील की सुनवाई की तारीख नहीं दे रहे थे। आवेदक ने जब सुनवाई करने के लिए अंसारी को कहा तो वह बोले- मेरे पास समय नहीं है। अंसारी ने सुनवाई करने के स्थान पर कहा- आप अपने कागजात छोड़ जाइए, मैं देख लूंगा। आवेदक त्यागी ने इंडियन ऑयल की जांच सम्बन्धी सूचनाएं सीवीसी से मांगी थी। बाद में पता चला कि इंडियन ऑयल ने अंसारी की यात्राओं, होटल और खाने पीने पर लाखों रूपये खर्च किए थे।


सूचना का अधिकार और देश के होनहार

मनीष सिसोदिया
(सूचना के अधिकार पर काम करने वाले मनीष सिसोदिया के स्कूलों के बच्चों के साथ अनुभव पर आधारित)

पिछले दिनों सूचना के अधिकार की एक वर्कशॉप के सिलसिले में आगरा जाना हुआ। वर्कशॉप कई मामलों में उल्लेखनीय थी। एक तो इसका आयोजन दो छात्रों (रोहित और नेहा) ने किया था जो आगरा के स्कूलिंग करने के बाद अब दिल्ली में आईआईटी और लेडी श्री राम कॉलेज में पढ़ रहे है। उनमें अपने शहर आगरा के लिए कुछ करने की इच्छा है। दूसरे इसमें केवल आगरा के शीर्ष स्कूलों के होनहार लेकिन सूचना के अधिकार `जानने सीखने के इच्छुक´ बच्चों और उनके अध्यापकों, प्रधानाध्यापकों ही बुलाया गया था। यहां `सीखने के इच्छुक´ कहने के पीछे मतलब यह है कि वर्कशॉप के लिए 20 रुपए पंजीकरण फीस रखी गई थी। रविवार का दिन होने के बावजूद 70 से अधिक छात्र और साथ में कई अध्यापक एवं प्रधानाध्यापक भी पहुंचे। इन 70 छात्रों में शहर के लगभग सभी नामी गिरामी पब्लिक स्कूलों के छात्र थे, इनमें से ज्यादातर 10+2 दर्जे के थे।

वर्कशाप की शुरुआत मुझे सूचना के अधिकार की भूमिका बनाते हुए करनी थी। जैसा कि हम अक्सर करते हैं, मैंने बच्चों से पूछा कि आपमें से कितने लोक टैक्स देते है तो एक-दो छात्रों को छोड़कर किसी ने हाथ नहीं उठाया। कुछ ने दबी जबान से कहा कि हम नहीं देते हमारे माता-पिता देते है। कुछ ने कहा तो अभी कमाते ही नहीं हैं।
इसी क्रम में मैंने बच्चों से पूछा कि आपमें से कितने लोगों को डेमोक्रेसी की समझ है? तो लगभग सभी छात्रों ने जोर से हाथ खडे़ कर दिए। पूछने पर एक छात्र ने झटके से दोहरा दिया `डेमोक्रेसी मीन्स गवर्नमेंट बाई द पीपुल, ऑफ द पीपुल, फॉर द पीपुल´ । मैंने पूछा इसका मतलब क्या है तो जवाब आया ` हमारे लिए, हमारी और हमारे द्वारा सरकार´। मैंने आगे पूछा कि इसका क्या मतलब हुआ? आपकी सरकार कैसे हुई? आपके द्वारा कैसे हुई? इसका जवाब उन छात्रों के पास नहीं था।

बहरहाल, विषय को स्पष्ट करते हुए हम आगे बढे़। सूचना के अधिकार पर बात हुई। आम आदमी द्वारा सूचना का अधिकार इस्तेमाल के कुछ उदाहरण उनके सामने रखे तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। सूचना का अधिकार के परिचय के बाद अगला सत्र आवेदन तैयार करने के बारे में था। छात्रों के समूह बनाए गए। एक समूह में कोई एक विषय चुनकर सूचना के अधिकार आवेदन तैयार करना था। सबने अपनी अपनी समझ और जानकारी के आधार पर विषय चुने और आवेदन बनाए। सूचना मांगना और उसके लिए आवेदन बनाना तो खैर अनुभव का मामला था लेकिन आश्चर्य की बात थी कि कई बच्चों को यह भी पता नहीं था कि आगरा विकास प्राधिकरण जैसी कोई संस्था भी शहर में है। आगरा में यही विकास प्राधिकरण ही सड़कें, पुल बनवाने का अधिकतर काम करता हैं। इन्हें अपने नगर निगम के बार में जानकारी नहीं थी। कलेक्टर और एसपी के बारें में नहीं मालूम था। इन छात्रों में से अधिकतर (10 +२) 12वीं कक्षा के छात्र थे। ये शहर के सबसे होशियार बच्चें भले ही न हो लेकिन अपनी उम्र के बच्चों में क्रीमीलेयर से तो थे ही।

इसी क्रम में कुछ बात शिक्षा की चली तो मैंने पूछ लिया कि शिक्षा किसलिए लेते हैं? आपमें से हरेक कम से कम अपनी जिंदगी के 12 साल इस शिक्षा को दे चुका है और आगे की तैयारी है तो किसलिए? इस पर आए जवाब उम्मीद से परे थे। सभी छात्रों ने करीब करीब एक से उत्तर दिए- `एक अच्छा सिटीजन बनने के लिए´, अपने आसपास के बारे में जागरुक बनने के लिए´, `एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए´ वर्कशॉप का समय लगभग खत्म हो रहा था। मुझे लगा कि इन्हें कौन समझाएगा कि अच्छा, जिम्मेदार, सतर्क नागरिक बनने के लिए अपने मौजूदा वातावरण की समझ होना कितना जरुरी है। क्या अपने शहर की सड़कें, साफ सफाई, प्रशासन की जानकारी होना एक अच्छे, सतर्क, जिम्मेदार नागरिक बनने की आवश्यकता नहीं है? घर में इन सब बातों की समझाने के लिए समय नहीं है, स्कूल के पाठ्यक्रम का उद्देश्य अच्छे अंको में पास होना है। जहां डेमोक्रेसी की परिभाषा रटाने से काम चल ही जाता है।

वर्कशॉप के बाद कुछ बच्चों ने व्यक्तिगत बातचीत में माना कि सूचना के अधिकार के बारे में उन्होंने सुना तो था लेकिन यह उनके लिए उपयोगी भी हो सकता है, सोचा ही नहीं था। समाज के प्रति जिम्मेदारी में अपनी भूमिका अभी तक उन्हें सिर्फ वॉलंटियर बनकर यमुना सफाई अभियान में लगने, तो कभी प्लास्टिक कचरे के खिलाफ रैली में ही नजर आती थी। उन्होंने माना कि अपने शहर की सड़कों, नालियों, पार्कों आदि के बारे में वे अधिकार के साथ भी कुछ कर सकते हैं। यह पहली बार जानने में आया है।


सवाल से आया साहस

विमल कुमार सिंह

जहां दो व्यक्तियों को ग्रामप्रधन से सवाल पूछने के कारण जेल में ठूंस दिया जाए, वहां के लोग यदि डरने की बजाए सीधे जिला अधिकारी से ही सवाल पूछने लगें तो इसे आश्चर्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा। यह आश्चर्यजनक घटना कहीं और नहीं बल्कि आजमगढ़ में घटित हुयी।

राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, परिवर्तन और भारत रक्षा दल के संयुक्त तत्वाधन में आजमगढ़ में 13 अगस्त से लेकर 29 अगस्त तक एक अभियान चलाया गया। इस अभियान के तहत जिले के सैकड़ों लोगों ने सूचना का अधिकार अधिनियम , 2005 के तहत जिला अधिकारी से पूछा कि पिछले चार महीनों में उन्हें जनता की ओर से कुल ऐसे कितने आवेदन प्राप्त हुए जिनमें जिला प्रशासन के अन्तर्गत कार्यरत लोगों (कर्मचारियों एवं निर्वाचित प्रतिनिधियों ) के ख़िलाफ़ शिकायत की गयी है और उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का निवेदन किया गया है। इसी के साथ पूछा गया है कि शिकायत किसकी ओर से और कब की गयी? शिकायत पर जांच करने की जिम्मेदारी किस अधिकारी और कब दी गयी? अंत में जिला अधिकारी से प्रत्येक शिकायत पर की गयी कारZवाई का संक्षिप्त विवरण मांगा गया है। इसी तरह जिला अधिकारी को प्राप्त अन्य आवेदनों के बारे में भी जतना की ओर से जानकारी मांगी गयी।

जिला अधिकारी अर्थात डी एम से ही सवाल-जवाब क्यों, यह पूछे जाने पर मार्टिनगंज ब्लॉक के इंद्रसेन सिंह ने बताया कि जिले में नौकरशाही का बहुत खौफ है। सूचना मांगने वालों को परेशान करने की घटनाएं यहां आम हैं। खुद उन्हें गांव मे आए पैसे का हिसाब मांगने के कारण ग्रामप्रधान और स्थानीय अधिकारियों के गुस्से का शिकार होना पड़ा। उन्हें एक फर्जी मुकदमें में फंसा कर दो महीने के लिए जेल भेज दिया गया। ऐसी स्थिति में जरुरी था कि लोगों का डर दूर करने के लिए सीधे स्थानीय प्रशासन के मुखिया यानि डी एम से ही सवाल-जवाब किया जाए और वह भी सामूहिक रुप से। संगठित अभियान होने के कारण जहां नौकरशाही सवाल पूछने वालों को परेशान नहीं कर पाएगी, वहीं लोगों के बीच इस कानून को लेकर जागरुकता भी फैलेगी। इसका परिणाम होगा कि लोग आने वाले समय में बिना डरे इस कानून का इस्तेमाल कर सकेंगे। नौकरशाही के साफ़ संदेश जाएगा कि वह अब अपने उच्च अधिकारियों एवं राजनीतिक आकाओं के साथ-साथ जनता के प्रति भी जवाबदेह है।

सूचना के अधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे देश भर के कार्यकर्ताओं ने आजमगढ़ में चल रहे इस अभियान को अपना पूरा समर्थन दिया। 29 अगस्त को मैग्सैसे पुरस्कार विजेता एवं सूचना के अधिकार को प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अरविंद केजरीवाल तथा वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय सहित देश भर के कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जिला मुख्यालय में जाकर जिला अधिकारी से वही सवाल पूछा जो सवाल जिले की जनता जिला अधिकारी से पूछ रही थी। इस अवसर पर आयोजित एक प्रेसवार्ता में श्री केजरीवाल ने `आरटीआई फोरम आजमगढ़´ के गठन की घोषणा की। उन्होंने बताया कि जिले में अभियान के समन्वय की जिम्मेदारी आगे से यही फोरम उठाएगा। जिस किसी व्यक्ति ने आरटीआई का इस्तेमाल किया है, वही इसका सदस्य माना जाएगा। जिला प्रशासन को पारदर्शी बनाना इस फोरम का मुख्य उद्देश्य होगा।

अरविंद केजरीवाल ने कहा कि `आरटीआई फोरम आजमगढ़´ का कोई पंजीकरण नहीं किया जाएगा क्योंकि हम कोई संस्था नहीं बल्कि एक आंदोलन चलाना चाहते हैं। उन्होंने चुनौती दी कि यदि प्रशासन इस फोरम को अवैध मानता है तो वह उनके खिलाफ कारवाई कर सकता है। ज्ञातव्य हो कि जिले के मार्टिनगंज ब्लॉक में दो ग्रामीणों को केवल इसलिए जेल में डाल दिया गया था, क्योंकि बिना पंजीकरण करवाए एक संस्था के पैड पर गांव में आए पैसे का प्रशासन से हिसाब मांगा था। श्री केजरीवाल इन ग्रामीणों से मिलने 28 अगस्त को उनके गांव भी गए। वहां उन्होंने स्थानीय जनता को सूचना के अधिकार के महत्व के बारे में विस्तार से बताया और लोगों का आह्वान किया कि वे संगठित होकर इस कानून का इस्तेमाल करें। निर्दोष ग्रामीणों के खिलाफ चल रहे फर्जी मुकदमें को खत्म करने की मांग करते हुए उन्होंने सरकार को आगाह किया कि यदि सूचना मांगने वालों के साथ इस तरह की ज्यादती चलती रही तो सरकार को खामियाजा भुगतना पडे़गा ।


अब कहां जाएगी यूपीएससी?

दिल्ली उच्च न्यायालय की फुल बैंच ने भी संघ लोक सेवा आयोग यानि यूपीएससी के इरादों पर पानी फेर दिया है। फुल बैंच ने हाईकोर्ट की सिंगल बैंच उससे पहले सूचना आयोग के बहुचर्चित फैसले को सही ठहराते हुए आदेश दिया है कि उसे 2006 की सिविल सर्विस परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और उम्मीदवारों के कुल अंक सूचना के अधिकार के तहत मांगने पर उपलब्ध कराने होंगे।

यह कोई छोटा मामला नहीं है। यह देश को चलाने के लिए नौकरशाही के चुने जाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। देश के लोगों को यह पता होना चाहिए कि नौकरशाही का चयन कैसे होता है? कैसे छांटे जाते हैं इतने खास पदों के लिए योग्य लोग? कितने अंक लाने वाले आगे जाते हैं और कितने अंक पाने वाले रह जाते हैं? क्या कहीं धांधली तो नहीं होती? योग्य उम्मीदवारों को पीछे खिसका कर कहीं रसूख वाले लोग तो नहीं आगे आ जाते? सूचना का अधिकार लागू होने के बाद भले ही यह जानना आपका हक हो लेकिन यूपीएससी यह बताने को तैयार नहीं है। बल्कि यह सब छिपाने के लिए यूपीएससी के अधिकारी लाखों करोड़ों खर्च कर रहे हैं। मुकदमें लड़ रहे हैं। मंशा सिर्फ़ इतनी-सी है कि हमसे यह सब न पूछा जाए। वर्ष 2006 में आईएएस का सपना संजोए करीब 2500 उम्मीदवारों ने सूचना के अधिकार के तहत प्रारंभिक परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और अंक बताने की मांग की थी। जिसे यूपीएससी ने सूचना कानून की धारा8 के निजता के अन्तर्गत मानते हुए बताने से इंकार कर दिया था। बाद में सूचना आयोग में संघ लोक सेवा आयोग ने दलील दी कि परीक्षा के कट ऑफ़ मार्क्स और प्रारंभिक परीक्षा के अंक बताने से अभ्यार्थियों की बोद्धिक संपदा का हनन होगा और परीक्षा की प्रतियोगिता पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे होनहार अभ्यार्थी पिछड़ सकते हैं और कोचिंग संस्थान इसका नाजायज पफायदा उठा सकते हैं। जबकि सूचना आयोग ने इन दलीलों को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि किसी परीक्षार्थी के लिए कट ऑफ़ मार्क्स बहुत ही संवेदनशील होते हैं। यह किसी अभ्यार्थी के कैरियर और भविष्य से जुड़ा मामला है। इस तरह आयोग ने आदेश दिया कि अभ्यार्थियों के कट ऑफ़ मार्क्स और प्रारंभिक परीक्षा के साथ साक्षात्कार के कट ऑफ़ मार्क्स के अंक भी बताए।

केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश के ख़िलाफ़ लोक सेवा आयोग ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका की थी। न्यायालय ने भी सूचना आयोग के पफैसले को सही ठहराया। इसके बाद भी संघ लोक सेवा आयोग अपनी हट धर्मिता दिखाते हुए इस आदेश के ख़िलाफ़ अप्रैल 2007 में पुनर्विचार की याचिका दी थी। इसके बाद न्यायालय की डबल बैंच जिस्टस ए वी साहा और जिस्टस एस मुरलीधर ने लोक सेवा आयोग की दलील को खारिज कर दिया और अपने पूर्व जैसे निर्णय ही दिए है। साथ ही अदालत ने कहा है कि प्रारंभिक परीक्षा के अंक सार्वजनिक करने से प्रतियोगिता में सकारात्मक असर पड़ेगा। इससे तीसरे पक्ष पर भी कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पडे़गा बल्कि इससे परीक्षा प्रणाली में पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलेगी।

हैरानी की बात है कि देश के लिए आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, आईएफएस जैसे ओहदे के लिए योग्य उम्मीदवार चुनने की जिम्मेदारी जिस संस्था के पास हो और वह संसद द्वारा पारित एक कानून (सूचना का अधिकार) को मानने के लिए तैयार नहीं है, सूचना आयोग की बात मानने के लिए तैयार नहीं है। यहां तक की हाईकोर्ट की बात मानने को तैयार नहीं है। तक यह शक और पुख्ता हो जाता है कि सच्चाई जरूर कुछ काली है। यूपीएससी की सच्चाई क्या है, यह तो तभी पता चलेगी जब वह सूचना देगी। लेकिन छत्तीसगढ़ में सूचना के अधिकार राज्य लोक सेवा आयोग की जो सच्चाई सामने आई वह हिलाने वाली थी।


छत्तीसगढ़ जैसी ही तो काली नहीं यूपीएससी की सच्चाई

सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से जो सच्चाई छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग की 2003 की परीक्षा के दस्तावेजों से निकलकर आई उस पर सिर्फ़ शर्मिंदा हुआ जा सकता है।
राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा और साक्षात्कार में अपने उत्तरों से आश्वस्त कुछ उम्मीदवारों का चयन नहीं हुआ तो उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत उत्तर पुस्तिकाएं दिखाने की मांग की। राज्य लोक सेवा आयोग ने तमाम तरह की दलीलें देकर इससे बचने की कोशिश की लेकिन बड़ी संख्या में आंदोलन के चलते जब बात विधान मंडल तक पहुंच गई और वहां से भी सख्ती हुई तो सच सामने आया। राज्य लोक सेवा आयोग को उत्तर-पुस्तिकाएं दिखलानी पड़ीं।
उत्तर-पुस्तिकाओं के सामने आते ही मानो गड़बिड़यों का पिंडारा फूट पड़ा। जो कुछ सामने आया उसे इन पृष्ठों में समेटना संभव नहीं है लेकिन इसकी कुछ बानगी देखिए-

स्केलिंग में धांधली
- राजेश कुमार (रोल नम्बर 105188 वर्ष २००३) को सांिख्यकी की 300 अंक की परीक्षा में स्केलिंग के बाद 304 अंक दे दिए गए
- एक अन्य अभ्यर्थी ग्रजेस प्रताप सिंह (रोल नम्बर ६६१३६) को अपराध शास्त्र में 233 अंक मिले थे जिसे स्केलिंग के बाद शून्य कर दिया गया
- एक अन्य चयनित छात्र राजू सिंह चौहान ने (रोल नम्बर ३११०६) के वैकल्पिक विषय में 182 अंक प्राप्त किए थे जिसे स्केलिंग के बाद 188 कर दिया गया
- इसी तरह दो अन्य छात्रों जिन्होंने सांिख्यकीय में 235-235 अंक प्राप्त किए थे, स्केलिंग के बाद उनके अंक शून्य कर दिए गए
- मानव शास्त्र विषय के छ: विद्यार्थियों (16834, 102564, 40912, 77632, 97129, १०२५२६) ने 300 में प्रत्येक ने 200 अंक प्राप्त किए थे, जिसे स्केलिंग के बाद क्रमश: 170, 210, 205, 196, 196 और 239 कर दिया गया।

कट ऑफ़ मार्क्स
- वर्षा डोगरे का चयन कर्ट ऑफ़ मार्क्स से अधिक (१२९०) अंक प्राप्त करने के बाद भी नहीं किया गया। जबकि उससे नीचे 1274, 1273, 1247 अंक प्राप्त करने वाले कई अभ्यार्थियों का चयन कर लिया गया।
- इस परीक्षा में टॉपर रही थीं पदमिनी भोई, पदमिनी ने कुल 1481 अंक प्राप्त किए थे, लेकिन स्केलिंग के बाद इनके अंक 1501 कर दिए गए।
- दूसरी तरफ़ कुंदन कुमार जिन्होंने कुल 1523 अंक प्राप्त किए थे, उनका स्कोर स्केलिंग के बाद कुल 1314 कर दिया गया। और आखिरकार कुंदन का किसी पद पर चयन नहीं हो सका।

मूल्यांकन में धांधली
- कुल 300 अंक के एक पेपर में 60-60 अंक के पांच प्रश्न थे। एक उत्तर-पुस्तिका में केवल चार प्रश्नों के उत्तर दिए गए थे, लेकिन हरेक प्रश्न का मूल्यांकन कर 75-75 अंक दे दिए गए। इस तरह चार उत्तर देने वाले परीक्षार्थी को जिसे अधिकतम 240 अंक मिल सकते थे, सीधे-सीधे 300 अंक दे दिए गए।
- इसी विषय के मूल्यांकन में एक अन्य उत्तर-पुस्तिका के 5 सवालों में दो प्रश्न को अधिकतम 50-50 अंक और शेष तीन को अधिकतम 60-60 अंक के आधार पर जांचा गया है
- एक अन्य विषय की उत्तर-पुस्तिका में सही जवाब लिखने पर 20 अंक में से 10 अंक मिले जबकि गलत जवाब देने वाले परीक्षार्थी को 20 में से 13 अंक दिए गए हैं।
- न्यायायिक परीक्षा में एक परीक्षार्थी कर पूरी उत्तर-पुस्तिका में जांच के बावजूद बीच के दो पृष्ठ(10,११) का मूल्यांकन ही नहीं किया गया।

इन तथ्यों के आधार पर बिलासपुर उच्च न्यायालय में रिट दायर की गई तो आयोग के अèयक्ष अशोक दरवाड़ी ने माना कि परीक्षा में बड़ी मात्रा में गड़बड़ी हुई है। जिस पर अब उच्चतम न्यायालय में केस चल रहा है और अèयक्ष फिलहाल जमानत पर हैं जबकि आयोग के एक अन्य सदस्य अमोद सिंह फरार हैं।


गैर कानूनी तरीके से निकाला जा रहा है यमुना का पानी

कैसी विडंबना है कि जनता को पानी का महत्व समझाने वाली दिल्ली सरकार के अनेक सरकारी और अर्ध सरकारी संगठन ही पानी के नियमों की धज्जिया उड़ा रहे हैं। यह संगठन पानी संरक्षण के सभी नियमों को ताक पर रख गैरकानूनी तरीके से यमुना के खादर से पानी निकाल रहे हैं। सरकार इन संगठनों पर लगाम लगाने की बजाय सरकार इन्हीं पर मेहरबान दिख रही है।

यमुना जिए अभियान संगठन द्वारा दायर आरटीआई आवेदन के जवाब से पता चला है कि अनेक संगठन यमुना के खादर से बड़ी मात्रा में गैर कानूनी तरीकों से जल का दोहन कर रहे हैं। इनमें दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरशन और एम्मार-एमजीएपफ सहित कई संगठन शामिल हैं। डीएमआरसी एक सूचना पार्क, ऑपरेशन कंट्रोल सेंटर, यमुना बैंक स्टेशन और स्टाफ क्वार्टर का निर्माण यमुना नदी के किनारे कर रहा है। इसी प्रकार एम्मार-एमजीएपफ अक्षरधाम मंदिर के निकट कॉमनवेल्थ खेलों के लिए 1168 आवासीय फ्लेट्स बना रहा है। इनके निर्माण कार्यों में प्रयुक्त होने वाला जल यमुना के आसपास के क्षेत्र से ही निकाला जा रहा है।

यमुना के खादर से पानी निकालने की अनुमति क्या इन संगठनों ने ली है, यही जानने के लिए यमुना जिए अभियान ने केन्द्रीय भू-जल प्राधिकरण में आरटीआई आवेदन डाला। प्राधिकरण ने जवाब दिया कि उसने किसी संगठन को यमुना के खादर से पानी निकालने की अनुमति नहीं दी है। प्राधिकरण ने यह जानकारी भी दी कि इस क्षेत्र से पानी निकालना गैर कानूनी है और पर्यावरण संरक्षण नियम के तहत दंडनीय अपराध् है। केन्द्रीय भू-जल प्राधिकरण द्वारा दिए गए मानचित्रा से पता चलता है कि गाजियाबाद, लोनी बॉर्डर और नोएडा तक का विशाल क्षेत्र यमुना खादर के अन्तर्गत आता है।

संगठन द्वारा दिल्ली जल बोर्ड में दायर एक अन्य अर्जी से पता चला है कि दिल्ली सचिवालय, इंदिरा गाँधी इंडोर स्टेडियम, डीएमआरसी आदि में बोर्ड के पानी के कनेक्शन हैं ही नहीं। माना जा रहा है कि यहां भी पानी गैर कानूनी तरीकों से निकाला जा रहा है। इसके अलावा पानी के कार्यकर्ताओं ने यह भी कहा है कि अक्षरधाम मंदिर भी यमुना के खादर से पानी निकाल रहा है क्योंकि जितना जल दिल्ली जल बोर्ड से उसे मिलता है, वह झील सहित मंदिर की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

पानी के कार्यकर्ता मनोज मिश्रा दिल्ली के घटते भू जल स्तर के पीछे इस प्रकार के दोहन को एक बड़ी वजह माने रहे हैं। उन्होंने केन्द्रीय भू जल प्राधिकरण में इसकी शिकायत भी की है, लेकिन अब तक कोई कारवाई नहीं हुई है। मिश्रा और उनके सहयोगी यमुना पर अतिक्रमण और प्रदूषण के ख़िलाफ़ लगभग पिछले 13 महीनों से सत्याग्रह पर बैठे हैं।

मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त राजेन्द्र सिंह सहित पानी के कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि यमुना रिचार्ज जोन से प्रतिदिन एक मिलियन गेलन पानी निकाला जा रहा है। उनका कहना है कि यमुना के आसपास की जमीन से निकाले गए पानी के मूल्य की सही गणना संभव नहीं है, लेकिन अनुमान है कि हर साल 9 हजार करोड़ के मूल्य का पानी यहां से निकाला जा रहा है।

जानकारों का मानना है कि यदि यमुना के खादर से इसी तरह पानी को निकाला जाता रहा तो दिल्ली के लोगों के सामने पानी की गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाएगी। पानी के कार्यकर्ता दीवान सिंह का कहना है कि यमुना का खादर दिल्ली के भूजल का प्रमुख स्रोत है जो प्राकृतिक रूप से दिल्लीवासियों के लिए पानी की व्यवस्था करता है। उनका कहना है कि विकास के नाम पर जल के इस प्राकृतिक स्रोत को कंक्रीट बिछाकर नष्ट किया जा रहा है, जिसके परिणाम काफ़ी भयानक सिद्ध होंगे।


शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

उत्तर प्रदेश जहां मुख्य सचिव का दफ्तर सूचना अधिकार कानून से ऊपर है?

सूचना का अधिकार कानून प्रशासन के कामकाज में पारदर्शिता लाने के मकसद से ही लाया गया है। लेकिन यह नौकरशाही की हठ धर्मिता की हद है कि प्रशासन का मुखिया यानि राज्य का मुख्य सचिव अपने कार्यालय को इस कानून के दायरे से ऊपर मानता है। देश के उन 16 राज्यों में जहां के मुख्य सचिव खुद को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से अलग मानकर बैठे हैं, उत्तर प्रदेश भी शामिल है।

एक मामले में मुख्य सचिव कार्यालय ने आयोग में अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए खुलेआम कहा मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश प्रशासन के सचिवालय का नियंत्रण अधिकारी है लेकिन वह लोक प्राधिकारी की परिभाषा में नहीं आता। यह भी कहा गया कि मुख्य सचिव कार्यालय में न तो कोई लोक सूचना अधिकारी किया जाना अपेक्षित है और न ही वेबसाइट बनाना अपेक्षित है।

इसके जवाब में उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र शर्मा ने अपने आदेश में सवाल उठाया है क्या मुख्य सचिव को यह बताने की आवश्यकता है कि देश के प्रधानमंत्री की भी वेबसाइट है, प्रदेश के मुख्यमंत्री की अपनी अलग वेबसाइट है, केन्द्र सरकार के केबिनेट सचिव की भी अपनी वेबसाइट है, ऐसे में राज्य सचिवालय के प्रमुख द्वारा अपनी वेबसाइट अथवा किसी अन्य माध्यम से के तहत सूचनाएं न उपलब्ध कराना भी कानून की अवमानना है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून की धारा 4(बी) के अन्तर्गत प्रत्येक लोक प्राधिकारी को अपने कार्यालय के अधिकारिओं के नाम, पता, सूचना पाने की प्रक्रिया व जनहित की सूचनाएं स्वत: प्रकाशित करनी चाहिए, जिसका एक माध्यम वेबसाइट भी हो सकता है।

सूचना आयोग का यह कड़ा रूख और मुख्य सचिव कार्यालय का यह तर्क पारस नाथ वर्मा द्वारा मांगी गई सूचना के मामले में सामने आया है। वर्मा ने बहराइच में सहायक अध्यापकों की नियुक्ति के संबंध में सूचना चाही थी। मुख्य सचिव कार्यालय ने सामान्य पत्र की भांति उसे शिक्षा विभाग में भेज दिया लेकिन इसकी सूचना धरा 6(३) के अन्तर्गत आवेदक को नहीं दी। शिक्षा विभाग ने भी पारसनाथ को कोई सूचना नहीं दी। इस बीच आवेदक ने यह मानते हुए कि मुख्य सचिव कार्यालय ने सूचना नहीं दी है, आयोग में शिकायत कर दी। लेकिन मुख्य सचिव कार्यालय ने आयोग के नोटिसों को जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा। कुछ सुनवाईयों के बाद जब आयोग ने खुद मुख्य सचिव से स्पष्टीकरण मांगा तो उनके कार्यालय की तरपफ से उपरोक्त तर्क पेश किए गए।

आयोग ने मुख्य सचिव कार्यालय के तर्कों को खारिज करते हुए आदेश दिया कि मुख्य सचिव का कार्यालय सूचना के अधिकार धरा 2(एच) में दी गई परिभाषा अन्तर्गत लोक प्राधिकारी की श्रेणी में आता है। साथ ही कहा कि आदेश प्राप्ति के 15 दिनों के अंदर जन सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी के नाम, पते और टेलीफोन सार्वजनिक करे और इस संबंध में अपनी वेबसाइट निर्माण का फैसला भी जल्द करें। इस मामले में एक महीने का समय देते हुए आयोग ने अगली सुनवाई 25 सितंबर रखी है।

साल से लंबित पेंशन एक माह में मिला

पिछले तेरह साल से लटका पड़ा पेंशन का मामला सूचना के अधिकार की बदौलत एक महीने में ही सुलझ गया। उड़ीसा की 70 वर्षीय श्रीमति कबनाकलता त्रिपाठी स्वर्गीय स्वतंत्राता सेनानी श्याम सुंदर त्रिपाठी की पत्नी हैं। पति के मृत्यु के बाद श्रीमति त्रिपाठी को पेंशन मिलती थी लेकिन 1993 से 1995 के बीच का भुगतान नहीं किया गया। श्रीमति त्रिपाठी इस संबंध में गृह मंत्रालय को कई बार मौखिक एवं लिखित में बता चुकी थीं। इसके बाद भी पेंशन नहीं मिलने पर श्रीमति त्रिपाठी ने एक सामाजिक कार्यकर्ता के सहयोग से सूचना के अधिकार कानून के जरिए मंत्रालय से इस संबंध में जवाब-तलब किया। आवेदन डालने के कुछ ही दिन बाद मंत्रालय से फोन आया और फिर उनकी बकाया पेंशन भेज दी गई।

पीने के पानी के लिए महिलाओं का मार्च और 108 आरटीआई

ग्रामीण क्षेत्रों में लोग किस प्रकार सूचना अधिकार के जरिए अपने हक की जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं, इसका उदाहरण उड़ीसा के पुरी जिले के बहराना और कुनंगा गांव में देखने को मिला। गांव में पानी की समस्या को लेकर लगभग 200 महिलाओं का ब्लॉक कार्यालय तक पैदल मार्च करना व 108 आरटीआई आवेदन डालना सफल हुआ है। इन महिलाओं के संघर्ष का यह नतीजा निकला कि प्रशासन गांव में पानी आपूर्ति तुरंत दुरूस्त करने की व्यवस्था करनी पड़ी।
इससे पहले इन ग्रामीण महिलाओं ने प्रशासन से इस संबंध में आरटीआई के जरिए प्रश्न पूछे थे। पानी की समस्या को लेकर खंड विकास अधिकारी को एक ज्ञापन भी सौंपा गया था, जिसमें गांव में पीने के पानी की किल्लत दूर करने की मांग की गई थी। उस समय खंड विकास अधिकारी ने गांव का दौरा करने और उनकी समस्या हो हल करने का आश्वासन दिया था।

दरअसल कोणार्क के निकट स्थित बहराना, कुनंगा, मुरकुंडी, दसबतिया और शारदा आदि गांव के लोग काफी समय से पीने के पानी की किल्लत झेल रहे हैं। बहराना गांव में सरकार द्वारा लगाए गए तीन ट्यूबवेल हैं जिसमें खारा और लोहे की गंध युक्त पानी निकलता है। इस कारण बहुत से ग्रामीणों के रिश्तेदार गांव आने से कतराते हैं। बरसात के मौसम में गांव के लोगों को वर्षा का पानी पीने और खाना बनाने के लिए इस्तेमाल करना पड़ता है। गर्मियों में उन्हें दो किलोमीटर पैदल चलकर नहर से पानी लाना पड़ता है। जो लोग नहर से पानी लाने में असमर्थ हैं, वे तालाब के गंदे पानी से काम चलाते हैं।

गांव में इस प्रकार की पानी की समस्याओं को देखते हुए ग्रामीण महिलाएं एकजुट हुईं। ब्लॉक कार्यालय तक पैदल मार्च किया। इस बारे में 108 आरटीआई आवेदन डालकर अपनी समस्याओं और मांगों को प्रशासन से अवगत कराया और जवाब-तलब किया। आरटीआई के एक साथ इतने आवदेन देख विभाग तुरंत हरकत में आया और उसे गांव की पानी की समस्या दूर करने के लिए उपाय करने पडे़।


वृद्ध दंपत्ति के लिए वरदान बना आरटीआई

उड़ीसा के पुरी जिले के अनासारा गांव की 68 वर्षीय जनातुन बेगम और उनके 75 वर्षीय पति उहादुल्ला शाह के लिए सूचना का अधिकार किसी वरदान से कम नहीं है। इस अधिकार की बदौलत वृद्ध दंपत्ति को अनाज मिलना फिर से शुरू हो गया है। अंतोदय योजना के तहत मिलने वाला यह अनाज उनके जीवन का एकमात्र आसरा है।
जनातुन बेगम के पति पहले दिहाडी मजदूरी करते थे और अंतोदय कार्ड से मिलने वाले चावल पर निर्भर थे। पिछले कुछ महीनों से उनके कार्ड पर अजान मिलना बंद हो गया। आरटीआई कार्यकर्ता विश्वजीत को जब इस वृद्ध दंपत्ति की दुर्दशा मालूम हुई तो उन्होंने सूचना का अधिकार इस्तेमाल करने और राशन न मिलने की वजह जानने को कहा। लेकिन दंपत्ति राशन डीलर के कठोर व्यवहार से भयभीत थे। अत: विश्वजीत ने उनके पक्ष में आरटीआई आवेदन डालकर अधिकारिओं से जवाब-तलब किया। आरटीआई ने अपना असर दिखाया। एक सप्ताह के भीतर ही सम्बंधित अधिकार और डीलर जनातुन के दरवाजे पर आए और उन्हें एक क्विंटल चावल मुक्त में देकर गए। उस दिन के बाद जनातुन को चावल और जन वितरण प्रणाली का सभी सामान नियमित रूप से मिल रहा है।


गुरुवार, 11 सितंबर 2008

निगम अधिकारिओं के मोबाइल पर खर्च हुए 31 लाख

पुणे की मीरा-भयंदर नगर निगम ने पिछले 2 सालों में अपने 106 अधिकारिओं के मोबाइल पर करीब 31 लाख रूपये खर्च किए हैं। 25 लाख मोबाइल का बिल चुकाने और ६.4 लाख हैंडसेट्स खरीदने पर खर्च किए हैं। निगम हर साल अपने अधिकारिओं को हर साल नए हैन्डसेट्स भी खरीदकर देता है। प्रमोद पाटिल द्वारा दायर आरटीआई आवेदन के जवाब में यह जानकारी मिली है। क्षेत्र में नागरिक सुविधाओं की बदहाल स्थिति है और दूसरी तरफ़ निगम अधिकारिओं के मोबाइल पर जनता का पैसा पानी की तरह बहा रहा है। क्षेत्रा में न तो जल शुद्धिकरण का कोई संयत्र है और न पब्लिक लाईब्रेरी। पब्लिक टॉयलेट का भी बुरा हाल है। निगम के स्कूलों में बच्चों को समय पर नहीं मिलती। लोगों का मानना है कि यदि इस धन को नागरिक सेवाओं पर खर्च किया जाता तो कुछ समस्याएं काफ़ी हद तक हल हो सकती थीं।

निर्माण से पहले ही एनजीओ को सौंप दिया गया नंदी पार्क

गाजियाबाद नगर निगम ने आवारा पशुओं को रखने के लिए एक पार्क का निर्माण कार्य बाद में शुरू किया लेकिन उसके रखरखाव की ज़िम्मेदारी तीन महीने पहले ही एक संस्था को सौंप दी गई। सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवालों के जवाब से पता चलता है कि नंदी पार्क का निर्माण कार्य तो 12 दिसंबर 2007 को शुरू हुआ लेकिन इसके रखरखाव की जिम्मेदारी तीन महीने पहले ही लखनऊ की एनजीओ समाजोत्थान सेवा संस्थान को सौंप दी गई। और पार्क के रखरखाव के लिए गाजियाबाद नगर निगम द्वारा प्रतिमाह 98200 भी खर्च किए गए।
सूचना अधिकार जागृति अभियान समिति के उपाèयक्ष एडवोकेट मनमोहन शर्मा ने नगर निगम से इस सम्बन्ध में सूचना मांगी थी।निगम द्वारा दी गई जानकारियों खुद उसकी गड़बिड़यों की पोल खोलती हैं। दी गई जानकारी के मुताबिक 15 मई 2008 तक पार्क में कुल 171 नंदी(आवारा सांड ) लाये गए हैं जिनमें 55 की मौत हो चुकी है।

बिना सूचना ८५ प्रतिशत पुलिसवाले गैर हाज़िर

सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मिली है कि दिल्ली पुलिस के जवान बिना छुट्टी लिए और बिना अपने अफसरों को बताए भी गायब हो जाते हैं। जनवरी से जुलाई 2008 तक कुल 5509 पुलिसकर्मी बिना जानकारी दिए अनुपस्थित पाए गए। अनुपस्थित होने वाले पुलिसकर्मियों में 4121 पुरूष और 1388 महिलाएं हैं। इनमें सर्वाधिक संख्या सुरक्षा शाखा की है, जहां 59 महिलाओं सहित 2242 पुलिसकर्मी अनुपस्थित पाए गए। इस दौरान केवल 438 कर्मचारियों नें ही अपने अधिकारियों को सूचित किया जबकि 504 पुलिसकर्मियों ने एडवांस में छुट्टी ली थी। इसके अलावा 403 पुलिसकर्मियों को एमरजेन्सी छुट्टी दी गई।
वर्तमान में दिल्ली में अपराध् की दर बहुत ज्यादा है। आयदिन नारकोटिक और विस्पफोटक सामगि्रयों बरामद हो रही हैं। बलात्कार, हत्या, लूट आदि घटनाओं का ग्रापफ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में पुलिसकर्मियों की अनुपस्थितियां कापफी चिंताजनक मानी जा रही हैं।

बालगृह में सात बच्चे लेकिन खर्च 40 लाख

एक साल में सात बेसहारा बच्चों की देखभाल पर 40 लाख रुपए का खर्च। ऐसी किस्मत तो इस देश में अच्छे खासे खाते पीते परिवारों के बच्चों की भी नहीं होती है। लेकिन इन सात बच्चों का दुर्भाग्य है कि उनके नाम पर हे रहा यह खर्च महज़ दिल्ली सरकार के कुछ अफसरों की जेब गर्म कर रहा है। यह जानकारी खुद दिल्ली सरकार के सामाजिक कल्याण विभाग ने सूचना अधिकार आवेदन के जवाब में दी है। सामाजिक कल्याण विभाग 24 आश्रय गृह संचालित करता है। यह आश्रय गृह बेघर बच्चों, महिलाओं और भिखारियों के लिए बनाए गए हैं। इनमें से प्रत्येक में औसतन 100 से 150 व्यक्ति रहते हैं। प्रत्येक आश्रय गृह का औसतन सालाना खर्च 40 से 50 लाख रूपये के बीच है। जो प्रति व्यक्ति के हिसाब से करीब 4 हजार रूपये महीना बैठता है। एक भिखारियों के आश्रय गृह पर तो विभाग ने साल में १.5 करोड़ रूपये खर्च किए हैं। यह जानकारी प्रतिधि संस्था के राजमंगल प्रसाद ने हासिल की है।
राजमंगल ने बताया कि जिन 16 एजेन्सी से इन आश्रय गृहों की वस्तुएं खरीदी जाती थीं, उनमें 1५ फर्जी पाई गई हैं। उनका अनुमान है कि इसमें लगभग 20 करोड़ का घोटाला हुआ है और कम से कम दो दर्जन अधिकारी इसमें लिप्त हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अèयक्ष मोहिनी गिरी का इस बारे में कहना है कि इन गृहों में रहने वाले प्रति व्यक्ति पर करीब 4 हजार रूपये खर्च हो ही नहीं सकते। उन्होंने बताया कि अक्सर यहां रहने वाले बुजुर्गों और मानसिक रूप से कमजोर लोगों को ऐसी दवाईयां भी दी जाती हैं, जिससे वह दिनभर सोते रहें। उनके अनुसार ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि कर्मचारिओं को इनकी देखभाल से मुक्ति मिल जाए और खाने की बचत हो।

राजमंगल ने इन आश्रय गृहों में हुई मौतों की जानकारी भी आरटीआई के जरिए मांगी थी। उनका कहना है कि शुरू में विभाग ने यह जानकारी नहीं दी। लेकिन बाद में दबाव के कारण विभाग को इस बारे में जानकारी देनी पड़ी, जो काफ़ी चौंकाने वाली थी। विभाग ने बताया कि 2007 में एक माह के दौरान निर्मल छाया बाल गृह में 12 मौतें हुई हैं। जबकि 2007-08 में चार बाल गृहों में 89 बच्चों की मृत्यु हुई हैं। कुछ मामलों में बच्चों की मौत की वजह पिटाई भी रही है। इन गृहों में होने वाली हर मौत की जानकारी राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को देना अनिवार्य है, लेकिन आयोग को यह जानकारी नहीं दी गई। आयोग ने दिल्ली सरकार को इस बारे में नोटिस भी जारी किया है, लेकिन सरकार ने इस संबंध में कोई कारवाई नहीं की।


सोमवार, 8 सितंबर 2008

फुल बेंच ने कहा- आरटीआई के दायरे में है बीआईएएल

कर्नाटक उच्च न्यायालय की सिफारिश के बाद राज्य सूचना आयोग की पूर्ण बेंच ने आयोग के पूर्ववर्ती फैसले को बरकरार रखते हुए बंगलुरू इंटरनेशनल एयरपोर्ट को सूचना कानून के दायरे में माना है। मुख्य सूचना आयुक्त के के मिश्रा, सूचना आयुक्त एच एन कृष्णा और के ए थिप्पेस्वामी की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि एयरपोर्ट लोक प्राधिकरण है क्योंकि इसे राज्य और केन्द्र से आंशिक सहायता प्राप्त होती है।
इससे पहले बंगलुरू इंटरनेशनल एयरपोर्ट ने अपने आपको लोक प्राधिकरण ने मानते हुए बंगलुरू निवासी बेंसन ईसाक के आरटीआई आवेदन का जवाब देने से मना कर दिया था। एयरपोर्ट ने इसके पीछे तर्क दिया कि बीआईएएल एक कंपनी है जिसमें 74 प्रतिशत हिस्सेदारी प्राईवेट सेक्टर की है। बंगलुरू के ईसाक बेंसन ने सूचना न मिलने पर आयोग में इसकी शिकायत की। आयोग ने अपने फैसले में बीआईएएल को लोक प्राधिकरण माना और इसे सूचना देने के आदेश दिए। आयोग के पफैसले खिलापफ एयरपोर्ट ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी जिसे उच्च न्यायालय ने सूचना आयोग की पूर्ण बेंच को रेपफर कर दिया। बेंच ने आयोग के पूर्ववर्ती पफैसले को पूरी तरह सही ठहराया।

पूर्व स्थानीय डिप्टी कलेक्टर के खिलाफ दंडनीय कारवाई के आदेश

लंबित शिकायत को निपटाई गई बताना वर्धा के पूर्व स्थानीय डिप्टी कलेक्टर नरेन्द्र लोंकर को महंगा पड़ा है। महाराष्ट्र के सूचना आयुक्त विलास पाटिल ने ताराचंद चौबे के आवेदन का गलत जवाब देने के लिए नरेन्द्र लोंकर के खिलाफ दंडनीय कारवाई के आदेश दिए हैं।

ताराचंद ने अपने आवेदन में लोकशाही दिवस कार्यक्रम के दौरान दर्ज की गई अपनी शिकायत के स्टेटस की जानकारी मांगी थी। उन्होंने यह भी पूछा था कि कार्यक्रम के दौरान कलेक्ट्रेट कार्यालय को कुल कितनी शिकायतें प्राप्त हुई हैं, कितनों का निपटारा किया गया है और कितनी शिकायतें अभी लंबित हैं। ताराचंद को दी गई जानकारी में बताया गया कि इस दौरान कुल 31 शिकायतें मिली हैं जिनमें 29 का निपटारा कर दिया गया है और शेष दो निपटारे की प्रक्रिया में हैं। ताराचंद को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कैसे उनकी लंबित शिकायत को निपटाई गई बता दिया गया। इसके खिलाफ उन्होंने आयोग में अपील की। अपील की सुनवाई में आयोग ने नरेन्द्र लोंकर को झूठी सूचना देने का दोषी पाया और उनके खिलाफ दंडनीय कारवाई के आदेश दिए।


शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

मुख्य सूचना आयुक्त (राज्य) निलंबित

राज्यपाल टी वी राजेश्वर ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त एम् ऐ खान को निलंबित करके उनके कार्यालय आने पर रोक लगा दी है. खान के विरुद्ध अनियमित भर्तियाँ करने, आयोग के पदाधिकारियों के कार्य में अनुचित हस्तक्षेप करने, सूचना अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत कार्य करने सहित अनेक गंभीर आरोप हैं. पहले कई बार इनकी शिकायत भी की जा चुकी थी.
अनेक शिकायतें मिलने के बाद राज्यपाल ने जांच शुरू करने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम की धारा-17 के तहत सुप्रीम कोर्ट को रिफरेन्स भेजा. शिकायतों की जांच में निष्पक्षता के लिए खान को निलंबित कर उनके कार्यालय पर आने की रोक को उचित समझा. इसी कारण उन्हों ने खान को सूचना अधिकार अधिनियम की धारा 17(2) के तहत निलंबित कर दिया. मिलंबन के साथ ये भी आदेश दिए गए की जांच जारी रहने तक खान क्कार्यालय नहीं आयेंगे.
समाचार-पत्र अमर उजाला, कानपूर दिनांक-10-07-2008 में प्रकाशित समाचार