भागीरथ श्रीवास
जिनके ऊपर कानून के पालन की जिम्मेदारी है जब वही कानून की धज्जियाँ उड़ाने लगें तो अच्छे से अच्छा कानून दम तोड़ सकता है। सूचना के अधिकार कानून की स्थिति भी कुछ ऐसी ही हो रही है। सम्बंधित लोक सूचना अधिकारियों से सूचना न मिलने पर राज्य सूचना आयोग में अपील करने का प्रावधान है लेकिन अब जरा राज्य सूचना आयोगों की एक बानगी देखिए-
मामला उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग का है। यहां एक अपील पर 15 सुनवाइयां हुईं, 5 सूचना आयुक्तों ने मामला सुना, 5 बार कारण बताओ नोटिस जारी हुए फ़िर भी आवेदक को सूचनाएं नहीं मिलीं। 14 वीं सुनवाई में दो अधिकारियों पर 25-25 हजार जुर्माने के आदेश भी हुए और अगली ही सुनवाई में सूचना आयुक्त ने जुर्माना माफ कर दिया। नाराजगी व्यक्त करने पर सूचना आयुक्त का यह कहना कि मैं जो चाहूंगा आदेश में लिखूंगा, आवेदक मुझे कानून न बताए, सूचना मांगने आए हो या झगड़ा करने, ये कहकर सुनवाई की अगली तारीख 15 जनवरी 2008 तय कर दी।
उन्नाव निवासी देवदत्त शर्मा ने 27 नवंबर 2006 को शिक्षा निदेशालय एवं वित्त नियंत्रक कार्यालय से जो सूचनाएं मांगी थीं, वह अब तक नहीं मिलीं हैं। राज्य सूचना आयोग के 5 सूचना आयुक्तों द्वारा मामले को सुनने के बाद भी न तो आवेदक को वांछित सूचनाएं हासिल हुईं हैं और न ही अधिकारियों पर जुर्माना लगाया गया। हालांकि 14 वीं सुनवाई में जुर्माने का आदेश तो हो गया लेकिन अगली ही सुनवाई में उसे रद्द कर दिया गया।
दरअसल देवदत्त शर्मा को उनकी मृत पत्नी उषा शर्मा की भविष्य निधि की 1 लाख 55 हजार की राशि मिलनी थी। वह श्री नारायण बालिका डिग्री कॉलेज उन्नाव में अध्यापिका थीं। सितंबर 2000 में नगर मजिस्ट्रेट ने लखनऊ के लोकायुक्त को लिखे एक पत्र में इस राशि की पुष्टि भी की थी। बाद में कॉलेज की प्रिंसिपल और उन्नाव के जिला विद्यालय निरीक्षक ने भी यह बात मानी थी। बाजवूद इसके निदेशक ने उन्हें 1 लाख 40 हजार रुपये ही दिए गए यानि 15 हजार कम। देवदत्त शर्मा ने सूचना के अधिकार अन्तर्गत शिक्षा निदेशक और वित्त नियंत्रक कार्यालय से जानना चाहा था कि किस नियम के तहत उन्हें कम रकम दी गई है। लोक सूचना अधिकारियों ने आवेदन का 10 जुलाई 2007 को उत्तर दिया जिसमें जो सूचना दी गईं वह पूरी तरह असत्य, अपूर्ण एवं भ्रामक थीं।
आवेदन में मांगी गई सूचनाएं ने मिलने पर मामला राज्य सूचना आयोग गया, लेकिन आयोग ने भी उनके मामले को गंभीरता से नहीं लिया। सूचना आयुक्त वीरेन्द्र कुमार सक्सेना, संजय यादव, एम ए खान, राम सरन अवस्थी और सुनील कुमार चौधरी ने बारी-बारी से इस मामले को सुना और सभी आयुक्तों ने अधिकारी को कारण बताओ नोटिस भी जारी किए। परंतु लोक सूचना अधिकारी ने नोटिस का जवाब देना तो दूर सुनवाई में हाजिर होना भी जरूरी नहीं समझा। 15 सुनवाइयों में मात्र दो बार लोक सूचना अधिकारी के प्रतिनिधि हाजिर हुए। सूचना आयुक्तों ने जहां लोक सूचना अधिकारियों को मौके पर मौके दिए वहीं आवेदक को हर बार उनसे निराशा ही हाथ लगी।
कानून के साथ खिलवाड़ करने वाले सूचना आयुक्तों को हटाने एवं उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए आवेदक महामहिम राज्यपाल तक गुहार लगा चुके हैं लेकिन इसका नतीजा भी सिफर ही रहा। कहना गलत न होगा कि उत्तर प्रदेश में सूचना का अधिकार कानून सूचना आयुक्त के कारण अपना वजूद खोता जा रहा है।
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