अरविन्द केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया
सूचना अधिकार कार्यकर्ता शैलेष गाँधी का केन्द्रीय सूचना आयुक्त बनना एक उल्लेखनीय घटना है। इसका एक पहलू तो यही है कि सूचना आयोग में पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति को शामिल किया जा रहा है जिसे न सिर्फ़ इस कानून की अच्छी समझ है बल्कि इस कानून को लाने से लेकर इसके लागू किए जाने के संघर्ष में भी शामिल रहा है। आईआईटी मुंबई से केमीकल इंजीनियर बने शैलेष गाँधी ने सफलता पूर्वक चल रही अपनी फैक्ट्री कुछ साल पहले इसलिए बेच दी थी क्योंकि वे पूरी तरह सूचना के अधिकार के काम में जुट जाना चाहते थे। सैकड़ों ऐसे मामले हैं जहां शैलेष गाँधी ने आम आदमी के रुप में इस कानून का इस्तेमाल करते हुए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की है।
सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद पिछले तीन साल में केन्द्र और राज्यों के सूचना आयुक्तों पर लगातार कानून सम्मत फैसले न लेने, आम आदमी की सूचना की जरुरत के उलट फैसले देने और भ्रष्ट तंत्र को संरक्षित करने के आरोप लगे है। खुद शैलेष गाँधी केन्द्रीय और अन्य राज्यों के सूचना आयोगों के रवैए के खिलाफ लड़ते आए हैं। ऐसे में उनका केंद्रीय सूचना आयुक्त बनना आम आदमी में उम्मीद जगाता है। वह अब देखना चाहेगा कि विभिन्न मुद्दों पर सरकारों से सूचना मांगता आया व्यक्ति इस पद पर बैठकर क्या मानक स्थापित करता है? अभी यह तय नहीं है कि शैलेष गाँधी कौन-कौन से विभागों के मामले देखेंगे लेकिन लोगों को यह इंतजार तो रहेगा ही कि क्या वे अपने अधीन विभागों की सुनवाई कानून की भावना के अनुरुप 30 दिन में कर पाते हैं? क्या वे जीवन मरण से सम्बंधित सूचना कानून की भावना के अनुरुप 48 घंटे में दिलवाएंगे? क्या हर दोषी अधिकारी पर जुर्माना लगेगा? क्या आयोग के आदेश के बाद भी सूचना छिपाने वाले अधिकारियों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए जाएंगे। कानून हर आयुक्त को इन सबका अधिकार देता है लेकिन इस कानून का इस्तेमाल करने वाले लाखों लोगों की शिकायत रही है कि सूचना आयुक्त अपने अधिकारों का इस्तेमाल तो दूर, भ्रष्ट अधिकारियों का खुलेआम पक्ष लेते है। शैलेष गाँधी अगर कानून में दिए अधिकारों का इस्तेमाल सूचना दिलवाने के लिए करते हैं तो शायद इसी से तय होगा कि एक अच्छा सूचना आयुक्त होना लोगों के लिए क्या मायने रखता है।
लेकिन नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के घटनाक्रम का एक दु:खद पहलू यह है कि शैलेष गाँधी को सूचना आयुक्त बनाने का फैसला सरकार को संयोगवश असहज बन गई कुछ परिस्थितियों के चलते करना पड़ा है। सरकार ने तो गुपचुप तरीके से चार नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की तैयारी कर ली थी। उसकी सूची में पहले की तरह ही सत्तापक्ष के नजदीकी नौकरशाह और कृपा पात्रों के नाम थे। मीडिया में खबर आते ही अन्ना हजारे, मेधा पाटेकर, संदीप पांडे और प्रोफेसर अमित भादुड़ी आदि की तरफ से प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और सोनिया गाँधी को एक चिट्ठी भेजी गई। चिट्ठी में सरकार द्वारा चुने गए चारों लोगों की योग्यता, सूचना अधिकार की उनकी समझ और पारदर्शिता के प्रति उनके नजरिए को चुनौती देते हुए समाज की ओर से चार जाने- माने लोगों के नाम प्रस्तावित किए गए। यह भी लिखा गया कि ये चारों लोग सूचना आयुक्त बनाए जाने पर सरकारी वेतन के रुप में केवल एक रुपया लेंगे तथा बंगला और गाड़ी के बिना ही इस पद के लिए अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं। इनमें से एक नाम तो शैलेष गाँधी का ही था इसके अलावा आईआईएम से जुडे़ रहे और वर्तमान में राजनीतिक दलों की जवाबदेही के लिए अभियान चला रहे प्रोफेसर जगदीप चोकर और त्रिलोचन शास्त्री तथा पद्मश्री डॉक्टर सुदर्शन के नाम इस सूची में थे। ये चारों ही नाम ऐसे नागरिकों के हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन सरकार कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही की समाजसेवा के लिए समर्पित कर दिया है।
दूसरी तरपफ सरकार ने जिन नामों को अंतिम रुप दिया था उनमें मौजूदा कार्मिक सचिव सत्यानंद मिश्रा तथा गुजरात के पूर्व पुलिस अधिकारी बी श्रीकुमार के नाम भी थे। श्रीकुमार वही पुलिस अधिकारी हैं जिन्होंने गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका का खुलासा किया था। इसी पर मामला अटक गया। केन्द्रीय सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए सरकार के लिए आडवाणी की मंजूरी जरुरी थी क्योंकि कानून के मुताबिक इसका फैसला प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष तथा एक केन्द्रीय मंत्री की तीन सदस्यीय समिति को करना होता है। बी श्रीकुमार के नाम पर आडवाणी को ऐतराज होना ही था। उन्होंने चयन समिति की बैठक में भाग लेने से इंकार भी किया लेकिन यह कहते हुए कि सामाजिक कार्यकर्ताओं की आपत्ति जायज है। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि सरकार नामों पर फैसला ले चुकी है और अब उन्हें बैठक में बुलाने की औपचारिकता पूरी कर रही है।
आडवाणी की चिट्ठी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज की मीडिया में उठना सरकार के गले में हड्डी बन गया। ऐसे में उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रस्तावित नामों में से एक शैलेष गाँधी को अपनी सूची में शामिल कर लिया और जाहिर है आडवाणी की आपत्ति पर बी श्रीकुमार का नाम हटा दिया गया।
दरअसल सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद से सूचना आयोग में एक कुर्सी पाना रिटायर्ड नौकरशाहों के लिए तो विशेषकर एक सपना बन गया है। सुविधाओं और सेवाशर्तों के मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग में मुखिया का पद मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बराबर, सूचना आयुक्तों का पद निर्वाचन आयुक्तों के बराबर रखा गया है। इसी तरह राज्य सूचना आयोगों में मुखिया का पद निर्वाचन आयुक्त के बराबर और आयुक्तों का पद राज्य के मुख्य सचिव के बराबर रखा गया है। यानि लालबत्ती की गाड़ी, पेट्रोल, यात्रा मद, मोबाइल, टेलीफोन पर असीमित खर्च। इसके साथ ही उन्हें सिविल कोर्ट की शक्तियां भी प्राप्त है। सरकार नाम की व्यवस्था में आए हर पतन के बावजूद आज भी मुख्य सचिव बनने के लिए एक अधिकारी को खूब पापड़ बेलने पड़ते है। उसकी वरिष्ठता, कामकाज, पुराना इतिहास, निष्ठा, बहुत कुछ मायने रखता है। लेकिन येन-केन प्रकारेण सूचना आयुक्त बनने से न्यूनतम इस पद के बराबर तो हैसियत तुरंत हो ही जाती है। ऐसे में यह कुर्सी सबको पसंद आ रही है।
सूचना का अधिकार कानून कहता है कि सूचना आयुक्त के पद पर जन सेवा में लगे ऐसे लोगों को नियुक्त किया जा सकता है जो कानून की समझ रखते हों और विज्ञान, समाजिक क्षेत्र, मेनेजमेंट, पत्रकारिता, जनसंचार या प्रशासन का ज्ञान एवं अनुभव हो (धरा 12(५)। इसके आधार पर अभी तक केन्द्र और राज्यों में सूचना आयुक्त के पद पर अधिकांश सत्ता पक्ष के नजदीक रहे नौकरशाहों को ही जगह मिली है। कई मामलों में तो राज्यों के मुख्य सचिव अथवा मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव पर बैठे आईआईएस अधिकारियों ने वक्त से पहले नौकरी छोड़ मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी पर कब्जा किया है।
हरियाणा, उत्तरांचल, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि ऐसे राज्य हैं जहाँ कानून लागू होने के वक्त मुख्य सचिव की कुर्सी पर बैठे अधिकारियों ने ही मुख्य सूचना आयुक्त बनना पसंद किया और उनके चलते राज्यों में सूचना अयोग के गठन में भी देरी की गई। केन्द्र में भी तत्कालीन कार्मिक सचिव ए एन तिवारी ने अपने ही कार्यालय से अपने नाम की फाईल मुख्य सूचना आयुक्त बनाए जाने के लिए चलवाई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से विरोध के बाद उन्हें सिर्फ सूचना आयुक्त के पद से संतोष करना पड़ा। इसी क्रम में मौजूदा कार्मिक सचिव का सूचना आयुक्त बनना ऐसी परंपरा कायम करना है जिसके तहत कार्मिक सचिव रिटायरमेंट के बाद सीधे सूचना आयुक्त बनेगा। सत्यानंद मिश्रा के नाम पर सामाजिक प्रतिरोध इसलिए भी था क्योंकि उन्होंने कार्मिक सचिव पद पर रहते हुए अपने ही विभाग में सूचना के अधिकार कानून का मजाक उड़ाया था।
भूतपूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर जे एन दीक्षित की पत्नी अन्नपूर्णा दीक्षित, जो न तो कहीं सामाजिक जीवन मे सक्रिय रहीं हैं और न ही उन्हें कानून, सूचना अधिकार आदि के काम का कोई अनुभव है। उनका नाम सूचना आयुक्त पद के उम्मीदवारों में कैसे आया? क्या सरकर कभी यह बताने की जहमत उठाएगी? इसी प्रकार सीबीआई निदेशक न बनाए जाने से खफा एम एल शर्मा को भी अचानक सूचना आयुक्त बनाए जाने से यह सवाल भी उठता है कि क्या सूचना आयोग सत्ता पक्ष से `निजी संबंध´ की योग्यता से प्रतिभा संपन्न लोगों की भोगवादी संस्था बन गई है। कैसे सूचना आयुक्तों को मनोनयन, चयन करने वाली समितिया उन्हें ही विद्वान, अनुभवी और लब्ध प्रतिष्ठित मान लेती हैं जो उनके करीबी और चहेते होते है या फ़िर जिन्हें सत्ता पक्ष संतुष्ट करना चाहता है।
सूचना के अधिकार कानून का मकसद सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाना, उसे जवाबदेह बनाना और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है। क्या संबंधों के आधार पर चुने गए लोग इस दिशा में काम करेंगे। जब सूचना आयुक्तों की चयन प्रकिया ही पारदर्शी और कानून सम्मत नहीं होगी, ईमानदार, प्रख्यात और विद्वान लोगों आयोगों में नहीं आऐंगे तो यह कानून किस काम का रह जाएगा और अंतत: क्या इस तरह के कामो से लोगों का भरोसा लोकतंत्र और कानून से उठ नहीं जाएगा।
सरकार के चार बनाम जनता के चार
जैसे ही सरकार ने चार नए सूचना आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की और उसकी खबर मीडिया में आई, सूचना के अधिकार पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने गुपचुप तरीके से की जा रही नियुक्ति की प्रक्रिया और सरकार के उम्मीदवारों की योग्यता और पृष्ठभूमि को लेकर सवाल उठाए। साथ ही चार ऐसे लोगों के नाम सरकार को दिए जिनकी निष्ठा, प्रसिद्धि, अनुभव और समर्पण निश्चित ही सरकार के चारों उम्मीदवारों से ऊपर था।
समाज की ओर से प्रस्तावित नाम
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शैलेष गाँधी के अतिरिक्त जिन तीन व्यक्तियों के नाम सूचना आयुक्त के लिए सुझाए, उनमें जगदीप चोकर, त्रिलोचन शास्त्री और हनुमप्पा सुदर्शन शामिल हैं।
शैलेष गाँधी ने आईआईटी मुंबई से इंजीनियरिंग करने के बाद अपनी एक इंडस्ट्री स्थापित की, जिसमें करीब 300 लोग काम करते थे। इसी बीच महाराष्ट्र में सूचना के अधिकार की हलचल हुई तो शैलेष भी उससे जुड़ गए। महाराष्ट्र में उन्होंने सूचना के अधिकार का खूब इस्तेमाल किया। शुरू में उन्होंने रोजाना एक घंटा सूचना के अधिकार काम के लिए रखने की ठानी। जितने भी मुद्दे उनके सामने आते उन पर रोज सूचना मांगने का आवेदन लगा देते। इन आवेदनों के चलते मुंबई पुलिस में तबादला नीति बनना, बलात्कारी दरोगा को सजा, जेल में मोबाइल जैमर, ताज होटल को दी गई जमीन का मामला, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जेल गए मंत्री का बीमार होने का बहाना बनाकर सजा अस्पताल में काटने के मामले उठे और सैकड़ों सपफलताएं सूचना के अधिकार के खाते में जुड़ीं। एक अकेला आदमी सूचना के अधिकार के दम पर क्या कर सकता है, आज शैलेष इसकी मिसाल हैं।
इसके साथ-साथ वे सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान से भी जुड़ते चले गए और पिछले दिनों सूचना अभियान की समन्वय संस्था एनसीपीआरआई के समन्वयक भी थे। उन्होंने सूचना के अधिकार पर पूरी तरह काम करने के लिए अपनी इंडस्ट्री भी बंद कर दी और बिना किसी से सहायता लिए इस अभियान में तन मन धन से जुटे रहे हैं।
जगदीप चोकर भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद में प्रोफेसर और डीन के पद पर कार्य कर चुके हैं। इन्होंने भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की व्यापक लड़ाई लड़ी है। इसके लिए इन्होंने उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में अनेक जनहित याचिकाएं दाखिल की हैं और राजनैतिक दलों के विरोध के बावजूद इनके पक्ष में निर्णय दिए गए। इनकी याचिका का ही नतीजा था कि चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों को अपनी संपत्तियों और पूर्व आपराधिक मामलों का ब्यौरा देने को बाध्य होना पड़ा। जगदीप चोकर एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफोर्म के संस्थापक सदस्यों में हैं। यह संगठन भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। यह संगठन भ्रष्टाचार खत्म करने, शासन में पारदर्शिता लाने और चुनावी तंत्र को प्रभावी बनाने की लड़ाई लड़ रहा है।
त्रिलोचन शास्त्री आईआईटी दिल्ली, आईआईएम अहमदाबाद और अमेरिका के मेसाचुसेट्स तकनीकी संस्थान से शिक्षित हैं। वर्तमान में वह आईआईएम बैंगलोर में प्रोफेसर हैं। इसके अलावा भी वह कई विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं। त्रिलोचन भी एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म के संस्थापक सदस्यों में हैं। इन्होंने भी जगदीप चोकर की तरह चुनाव प्रणाली में सुधर के लिए उल्लेखनीय कार्य किए हैं।
हनुमप्पा सुदर्शन बंगलुरू मेडिकल कॉलेज से स्नातक कर 1973 में डॉक्टर बने। उन्होंने ग्रामीण खासकर आदिवासी इलाकों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। ये उन लोगों में हैं जिन्होंने शहरों के बजाय आदिवासियों के लिए काम करना पसंद किया। हिमालय, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक के रामकृष्ण मिशन संगठन में अपनी सेवाएं देने के उपरांत इन्होंने विवेकानंद गिरिजा कल्याण केन्द्र की स्थापना की, जो कर्नाटक के आदिवासियों के विकास हेतु समर्पित है। सुदर्शन के आदिवासियों के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन सुरक्षा आदि कार्यों को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और उन्हें राइट `लाइवलीहुड अवार्ड´ से नवाजा गया। सुदर्शन की इन्हीं सेवाओं को देखते हुए सरकार ने साल 2000 में पद्मश्री पुरूस्कार से भी सम्मानित किया। इसके अलावा सुदर्शन को उनके कार्य के लिए राज्योत्सव अवार्ड, विवेकानंद मेडल, इंटरनेशनल डििस्टंगविस फिसीशियन अवार्ड और हयूमन राइट अवार्ड भी हासिल हुआ है। सुदर्शन ने कर्नाटक के लोकायुक्त कार्यालय में विजिलेन्स डायरेक्टर के रूप में 1 रूपये मासिक वेतन पर भी काम किया है। इस पद पर रहते हुए उन्होंने सरकारी अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने में अहम भूमिका निभाई है। लोगों ने उनके कार्य की भरपूर प्रशंसा की है।
सरकार के चार उम्मीदवार
दूसरी तरफ़ सरकार जिन चार लोगों को सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बिठाने के लिए चुना वे हैं एम एल शर्मा, बी श्रीकुमार, सत्यानंद मिश्रा और अन्नपूर्णा दीक्षित।
सत्यानंद मिश्रा कार्मिक विभाग के सचिव थे। उनके सचिव रहते कार्मिक विभाग में सूचना के अधिकार की आत्मा के खिलाफ खूब काम हुए। सबसे पहले तो कार्मिक विभाग से ही लोगों को सूचना न मिलना इस बात का सबूत है कि वहां इस कानून को लेकर क्या मंशा रही है। इसके साथ ही उन्होंने हाल ही में धारा 6(३) के तहत सूचना मांगने वाले आवेदक की अर्जी को सही विभाग में भेजे जाने के कानूनी प्रावधन के विरुद्ध ही आदेश जारी करवाया। कानून में प्रावधन है कि यदि कोई आवेदक किसी गलत विभाग में अपना आवेदन भेज देता है तो उस विभाग का सूचना अधिकारी उसे सही विभाग में भेजेगा। सत्यानंद मिश्रा ने कानून की इस धारा के विरुद्ध जाते हुए व्यवस्था कराई है।
इसी तरह कार्मिक सचिव रहते उन्होंने केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा दो-दो बार नोटिस भेजे जाने के बाद भी अपने विभाग की वेबसाईट से उस व्याख्या को नहीं हटाया जिसमें फाईल नोटिंग्स को सूचना के अधिकार के दायरें से बाहर बताया गया था। गौरतलब है कि सैकड़ो मामलों में सरकारी अधिकारियों ने इसी वेबसाईट की व्याख्या के आधार पर लोगों को सूचना देने से मना कर दिया था। लेकिन मिश्रा ने केन्द्रीय सूचना आयोग के नोटिस के बाद भी यह व्याख्या नहीं हटाई गई। सामाजिक कार्यकर्ताओं की आपत्ति है कि ऐसे व्यक्ति से अब रिटायरमेंट के बाद आम लोगों को सूचना दिलवाने के मामलों में क्या अपेक्षा की जा सकती है।
एम एल शर्मा सीबीआई के विशेष निदेशक रह चुके हैं। शर्मा 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं, जिनका नाम हाल ही में सीबीआई डायरेक्टर के लिए उछाला जा रहा था लेकिन अचानक सरकार ने उन्हें इसके लिए अयोग्य मानते हुए अश्विनी कुमार को सीबीआई का डायरेक्टर नियुक्त कर दिया। इससे नाराज़ शर्मा ने नौकरी ही छोड़ दी थी। जिस व्यक्ति को सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर पद के लिए उपयुक्त नहीं माना, उसकी नाराज़गी दूर करने के लिए अब सूचना आयुक्त की कुर्सी दी जा रही है।
अन्नपूर्णा दीक्षित पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्वर्गीय जे एन दीक्षित की पत्नी हैं। वे एक हाउसवाइफ रही हैं और उनका कोई सामाजिक योगदान इस देश में रहा है ऐसा सामने तो नहीं आता। जे एन दीक्षित कांग्रेस के काफी नज़दीकी रहे हैं और माना जा रहा है कि उनके पति की सेवाओं के प्रतिफल के रूप में उन्हें सूचना आयुक्त की कुर्सी दी जा रही है।
सरकार की ओर से पहली सूची में एक नाम बी श्रीकुमार का भी था जिसे लालकृष्ण आडवाणी के विरोध के बाद हटा लिया। श्रीकुमार एक आईपीएस अधिकार थे और मोदी के खिलापफ अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते रहे हैं। मोदी के खिलापफ मुखर ही सूचना आयुक्त पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की योग्यता भी थी और शायद यही अयोग्यता भी बनी।
कैसा व्यवहार करते हैं हमारे सूचना आयुक्त
सूचना आयुक्तों पर हमेशा आरोप लगते हैं कि वे अधिकारियों का पक्ष लेते हैं और आवेदकों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। हम नीचे कुछ ऐसे उदाहरण दे रहे हैं जहां सूचना आयुक्तों का व्यवहार उनके पद की गरिमा और इस कानून की आत्मा के एकदम ख़िलाफ़ रहा-
1 सुनवाई के दौरान अगर आवेदक सूचना मांगने के पक्ष में अपना पक्ष स्पष्ट करे तो हरियाणा की सूचना आयुक्त मीनाक्षी आनंद चौधरी उसे कमरे से बाहर ही भगा देती है। बहादुरगढ़ के नरेश जून के एक मामले की सुनवाई करते हुए वे सूचना ने देने वाले अधिकारी का पक्ष लेने लगी और नरेश को डांटने लगी कि इतनी सूचना लेकर क्या करोगे? नरेश ने इसके जवाब में कहा कि इससे आपको मतलब नहीं होना चाहिए। आप सूचना देने के लिए बैठाए गए हैं न कि लोक सूचना अधिकारियों के लिए। यह सुनकर महामहिम तैश में आ गई। और नरेश को सुनवाई से बाहर भगा दिया। नरेश जून ने बहादुरगढ़ के सिविल अस्पताल के सम्बंधित सूचना मांगी थी।
2 हरियाणा की ही मीनाक्षी आनंद चौधरी ने हिसार से आए राजेन्द्र यादव को यह कहकर झिड़क दिया कि मुझे जो करना था कर दिया, तुम्हें जो करना है कर लो। राजेन्द्र यादव ने मीनाक्षी आनंद के फैसले से नाराजगी व्यक्त की थी। जिसकी प्रतिक्रिया में मीनाक्षी ने यह बात कही।
3 उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त बृजेश कुमार सिंह ने सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा को भरी अदालत में धमकी दी और कहा कि यदि वह अपना मामला आयोग में फ़िर लेकर आई तो उसे गिरफ्तार करवा दिया जाएगा। उसके बाद काफी समय तक उर्वशी के मामलों की आयोग में सुनवाई नहीं हुई। उर्वशी शर्मा ने प्रदेश के सामाजिक कल्याण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को सूचना के अधिकार के जरिए उठाया था। इस भ्रष्टाचार में अनेक अधिकारी फंस रहे थे।
4 उत्तर प्रदेश के राजाभैया यादव जब उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त सुनील चौधरी के यहां गए तो उन्होंने कहा- आप ही हैं राजाभैया, तुमने क्या आरटीआई का ठेका ले रखा है। राजाभैया ने अपने आवेदनों में नैरनी के तालाबों के अतिक्रमणों की जानकारी मांगी थी।
5 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तारिक इस्लाम जब अपनी अपीलों की सुनवाई के लिए केन्द्रीय सूचना आयुक्त ओ पी केजरीवाल के यहां गए तो उन्होंने खीझते हुए कहा- हम इतनी छोटी-छोटी बातों की कब तक सुनवाई करते रहेंगे। यदि ऐसा ही चलता रहा तो मैं ऐसे-ऐसे छोटे मामलों के खिलाफ वार्निंग इश्यू कर दूंगा। तारिक ने अलीगढ़ के मराठा किले के संबंध में सूचना मांगी थी। किले की संरक्षण और देखभाल की जिम्मेदारी भारतीय पुराताित्वक सर्वेक्षण ने एएमयू को सौंपी थी। किले जैसी धरोहरों पर किसी प्रकार का निर्माण मना है लेकिन विश्वविद्यालय के तात्कालीन उपकुलपति हामिद अंसारी की पत्नी ने किले के भीतर स्कूल बनवा दिया था। किसकी अनुमति से किला परिसर में स्कूल बनाया यही जानने के लिए उन्होंने आरटीआई दायर की थी। तारिक किले के अलावा विश्वविद्यालय से जुडे़ तीन अन्य मामलों की सुनवाई के लिए वे आयोग गए थे।
6 'हां मैं गुंडा हूं। यह मेरा बाजार है और यहां जो मैं चाहूंगा, वही होगा'। यह बात मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने दिल्ली की स्वाति और उसके सहयोगियों से कही। हबीबुल्ला काफी समय से स्वाति और उनके साथियों को आश्वासन दे रहे थे कि वह स्वास्थ्य विभाग के मामले सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम से लेकर स्वयं देखेगें या ओ पी केजरीवाल को ट्रांसफर कर देंगे। इस आश्वासन को पूरा करने के लिए जब स्वाति और स्वास्थ्य विभाग के रवैए से नाराज करीब 30 गरीब लोग वजाहत साहब के पास पहुंचे और उनसे सुनवाई के लिए कमिश्नर बदलने के लिए आग्रह करने लगे तो उन्होंने ये बातें कहीं।
7 केन्द्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के कहने के बावजूद सूचना आयुक्त एम एम अंसारी दिल्ली के एम के त्यागी की अपील की सुनवाई की तारीख नहीं दे रहे थे। आवेदक ने जब सुनवाई करने के लिए अंसारी को कहा तो वह बोले- मेरे पास समय नहीं है। अंसारी ने सुनवाई करने के स्थान पर कहा- आप अपने कागजात छोड़ जाइए, मैं देख लूंगा। आवेदक त्यागी ने इंडियन ऑयल की जांच सम्बन्धी सूचनाएं सीवीसी से मांगी थी। बाद में पता चला कि इंडियन ऑयल ने अंसारी की यात्राओं, होटल और खाने पीने पर लाखों रूपये खर्च किए थे।
सूचना अधिकार कार्यकर्ता शैलेष गाँधी का केन्द्रीय सूचना आयुक्त बनना एक उल्लेखनीय घटना है। इसका एक पहलू तो यही है कि सूचना आयोग में पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति को शामिल किया जा रहा है जिसे न सिर्फ़ इस कानून की अच्छी समझ है बल्कि इस कानून को लाने से लेकर इसके लागू किए जाने के संघर्ष में भी शामिल रहा है। आईआईटी मुंबई से केमीकल इंजीनियर बने शैलेष गाँधी ने सफलता पूर्वक चल रही अपनी फैक्ट्री कुछ साल पहले इसलिए बेच दी थी क्योंकि वे पूरी तरह सूचना के अधिकार के काम में जुट जाना चाहते थे। सैकड़ों ऐसे मामले हैं जहां शैलेष गाँधी ने आम आदमी के रुप में इस कानून का इस्तेमाल करते हुए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की है।
सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद पिछले तीन साल में केन्द्र और राज्यों के सूचना आयुक्तों पर लगातार कानून सम्मत फैसले न लेने, आम आदमी की सूचना की जरुरत के उलट फैसले देने और भ्रष्ट तंत्र को संरक्षित करने के आरोप लगे है। खुद शैलेष गाँधी केन्द्रीय और अन्य राज्यों के सूचना आयोगों के रवैए के खिलाफ लड़ते आए हैं। ऐसे में उनका केंद्रीय सूचना आयुक्त बनना आम आदमी में उम्मीद जगाता है। वह अब देखना चाहेगा कि विभिन्न मुद्दों पर सरकारों से सूचना मांगता आया व्यक्ति इस पद पर बैठकर क्या मानक स्थापित करता है? अभी यह तय नहीं है कि शैलेष गाँधी कौन-कौन से विभागों के मामले देखेंगे लेकिन लोगों को यह इंतजार तो रहेगा ही कि क्या वे अपने अधीन विभागों की सुनवाई कानून की भावना के अनुरुप 30 दिन में कर पाते हैं? क्या वे जीवन मरण से सम्बंधित सूचना कानून की भावना के अनुरुप 48 घंटे में दिलवाएंगे? क्या हर दोषी अधिकारी पर जुर्माना लगेगा? क्या आयोग के आदेश के बाद भी सूचना छिपाने वाले अधिकारियों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए जाएंगे। कानून हर आयुक्त को इन सबका अधिकार देता है लेकिन इस कानून का इस्तेमाल करने वाले लाखों लोगों की शिकायत रही है कि सूचना आयुक्त अपने अधिकारों का इस्तेमाल तो दूर, भ्रष्ट अधिकारियों का खुलेआम पक्ष लेते है। शैलेष गाँधी अगर कानून में दिए अधिकारों का इस्तेमाल सूचना दिलवाने के लिए करते हैं तो शायद इसी से तय होगा कि एक अच्छा सूचना आयुक्त होना लोगों के लिए क्या मायने रखता है।
लेकिन नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के घटनाक्रम का एक दु:खद पहलू यह है कि शैलेष गाँधी को सूचना आयुक्त बनाने का फैसला सरकार को संयोगवश असहज बन गई कुछ परिस्थितियों के चलते करना पड़ा है। सरकार ने तो गुपचुप तरीके से चार नए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की तैयारी कर ली थी। उसकी सूची में पहले की तरह ही सत्तापक्ष के नजदीकी नौकरशाह और कृपा पात्रों के नाम थे। मीडिया में खबर आते ही अन्ना हजारे, मेधा पाटेकर, संदीप पांडे और प्रोफेसर अमित भादुड़ी आदि की तरफ से प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और सोनिया गाँधी को एक चिट्ठी भेजी गई। चिट्ठी में सरकार द्वारा चुने गए चारों लोगों की योग्यता, सूचना अधिकार की उनकी समझ और पारदर्शिता के प्रति उनके नजरिए को चुनौती देते हुए समाज की ओर से चार जाने- माने लोगों के नाम प्रस्तावित किए गए। यह भी लिखा गया कि ये चारों लोग सूचना आयुक्त बनाए जाने पर सरकारी वेतन के रुप में केवल एक रुपया लेंगे तथा बंगला और गाड़ी के बिना ही इस पद के लिए अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं। इनमें से एक नाम तो शैलेष गाँधी का ही था इसके अलावा आईआईएम से जुडे़ रहे और वर्तमान में राजनीतिक दलों की जवाबदेही के लिए अभियान चला रहे प्रोफेसर जगदीप चोकर और त्रिलोचन शास्त्री तथा पद्मश्री डॉक्टर सुदर्शन के नाम इस सूची में थे। ये चारों ही नाम ऐसे नागरिकों के हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन सरकार कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही की समाजसेवा के लिए समर्पित कर दिया है।
दूसरी तरपफ सरकार ने जिन नामों को अंतिम रुप दिया था उनमें मौजूदा कार्मिक सचिव सत्यानंद मिश्रा तथा गुजरात के पूर्व पुलिस अधिकारी बी श्रीकुमार के नाम भी थे। श्रीकुमार वही पुलिस अधिकारी हैं जिन्होंने गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका का खुलासा किया था। इसी पर मामला अटक गया। केन्द्रीय सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए सरकार के लिए आडवाणी की मंजूरी जरुरी थी क्योंकि कानून के मुताबिक इसका फैसला प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष तथा एक केन्द्रीय मंत्री की तीन सदस्यीय समिति को करना होता है। बी श्रीकुमार के नाम पर आडवाणी को ऐतराज होना ही था। उन्होंने चयन समिति की बैठक में भाग लेने से इंकार भी किया लेकिन यह कहते हुए कि सामाजिक कार्यकर्ताओं की आपत्ति जायज है। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि सरकार नामों पर फैसला ले चुकी है और अब उन्हें बैठक में बुलाने की औपचारिकता पूरी कर रही है।
आडवाणी की चिट्ठी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज की मीडिया में उठना सरकार के गले में हड्डी बन गया। ऐसे में उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रस्तावित नामों में से एक शैलेष गाँधी को अपनी सूची में शामिल कर लिया और जाहिर है आडवाणी की आपत्ति पर बी श्रीकुमार का नाम हटा दिया गया।
दरअसल सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद से सूचना आयोग में एक कुर्सी पाना रिटायर्ड नौकरशाहों के लिए तो विशेषकर एक सपना बन गया है। सुविधाओं और सेवाशर्तों के मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग में मुखिया का पद मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बराबर, सूचना आयुक्तों का पद निर्वाचन आयुक्तों के बराबर रखा गया है। इसी तरह राज्य सूचना आयोगों में मुखिया का पद निर्वाचन आयुक्त के बराबर और आयुक्तों का पद राज्य के मुख्य सचिव के बराबर रखा गया है। यानि लालबत्ती की गाड़ी, पेट्रोल, यात्रा मद, मोबाइल, टेलीफोन पर असीमित खर्च। इसके साथ ही उन्हें सिविल कोर्ट की शक्तियां भी प्राप्त है। सरकार नाम की व्यवस्था में आए हर पतन के बावजूद आज भी मुख्य सचिव बनने के लिए एक अधिकारी को खूब पापड़ बेलने पड़ते है। उसकी वरिष्ठता, कामकाज, पुराना इतिहास, निष्ठा, बहुत कुछ मायने रखता है। लेकिन येन-केन प्रकारेण सूचना आयुक्त बनने से न्यूनतम इस पद के बराबर तो हैसियत तुरंत हो ही जाती है। ऐसे में यह कुर्सी सबको पसंद आ रही है।
सूचना का अधिकार कानून कहता है कि सूचना आयुक्त के पद पर जन सेवा में लगे ऐसे लोगों को नियुक्त किया जा सकता है जो कानून की समझ रखते हों और विज्ञान, समाजिक क्षेत्र, मेनेजमेंट, पत्रकारिता, जनसंचार या प्रशासन का ज्ञान एवं अनुभव हो (धरा 12(५)। इसके आधार पर अभी तक केन्द्र और राज्यों में सूचना आयुक्त के पद पर अधिकांश सत्ता पक्ष के नजदीक रहे नौकरशाहों को ही जगह मिली है। कई मामलों में तो राज्यों के मुख्य सचिव अथवा मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव पर बैठे आईआईएस अधिकारियों ने वक्त से पहले नौकरी छोड़ मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी पर कब्जा किया है।
हरियाणा, उत्तरांचल, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि ऐसे राज्य हैं जहाँ कानून लागू होने के वक्त मुख्य सचिव की कुर्सी पर बैठे अधिकारियों ने ही मुख्य सूचना आयुक्त बनना पसंद किया और उनके चलते राज्यों में सूचना अयोग के गठन में भी देरी की गई। केन्द्र में भी तत्कालीन कार्मिक सचिव ए एन तिवारी ने अपने ही कार्यालय से अपने नाम की फाईल मुख्य सूचना आयुक्त बनाए जाने के लिए चलवाई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से विरोध के बाद उन्हें सिर्फ सूचना आयुक्त के पद से संतोष करना पड़ा। इसी क्रम में मौजूदा कार्मिक सचिव का सूचना आयुक्त बनना ऐसी परंपरा कायम करना है जिसके तहत कार्मिक सचिव रिटायरमेंट के बाद सीधे सूचना आयुक्त बनेगा। सत्यानंद मिश्रा के नाम पर सामाजिक प्रतिरोध इसलिए भी था क्योंकि उन्होंने कार्मिक सचिव पद पर रहते हुए अपने ही विभाग में सूचना के अधिकार कानून का मजाक उड़ाया था।
भूतपूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर जे एन दीक्षित की पत्नी अन्नपूर्णा दीक्षित, जो न तो कहीं सामाजिक जीवन मे सक्रिय रहीं हैं और न ही उन्हें कानून, सूचना अधिकार आदि के काम का कोई अनुभव है। उनका नाम सूचना आयुक्त पद के उम्मीदवारों में कैसे आया? क्या सरकर कभी यह बताने की जहमत उठाएगी? इसी प्रकार सीबीआई निदेशक न बनाए जाने से खफा एम एल शर्मा को भी अचानक सूचना आयुक्त बनाए जाने से यह सवाल भी उठता है कि क्या सूचना आयोग सत्ता पक्ष से `निजी संबंध´ की योग्यता से प्रतिभा संपन्न लोगों की भोगवादी संस्था बन गई है। कैसे सूचना आयुक्तों को मनोनयन, चयन करने वाली समितिया उन्हें ही विद्वान, अनुभवी और लब्ध प्रतिष्ठित मान लेती हैं जो उनके करीबी और चहेते होते है या फ़िर जिन्हें सत्ता पक्ष संतुष्ट करना चाहता है।
सूचना के अधिकार कानून का मकसद सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाना, उसे जवाबदेह बनाना और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है। क्या संबंधों के आधार पर चुने गए लोग इस दिशा में काम करेंगे। जब सूचना आयुक्तों की चयन प्रकिया ही पारदर्शी और कानून सम्मत नहीं होगी, ईमानदार, प्रख्यात और विद्वान लोगों आयोगों में नहीं आऐंगे तो यह कानून किस काम का रह जाएगा और अंतत: क्या इस तरह के कामो से लोगों का भरोसा लोकतंत्र और कानून से उठ नहीं जाएगा।
सरकार के चार बनाम जनता के चार
जैसे ही सरकार ने चार नए सूचना आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की और उसकी खबर मीडिया में आई, सूचना के अधिकार पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने गुपचुप तरीके से की जा रही नियुक्ति की प्रक्रिया और सरकार के उम्मीदवारों की योग्यता और पृष्ठभूमि को लेकर सवाल उठाए। साथ ही चार ऐसे लोगों के नाम सरकार को दिए जिनकी निष्ठा, प्रसिद्धि, अनुभव और समर्पण निश्चित ही सरकार के चारों उम्मीदवारों से ऊपर था।
समाज की ओर से प्रस्तावित नाम
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शैलेष गाँधी के अतिरिक्त जिन तीन व्यक्तियों के नाम सूचना आयुक्त के लिए सुझाए, उनमें जगदीप चोकर, त्रिलोचन शास्त्री और हनुमप्पा सुदर्शन शामिल हैं।
शैलेष गाँधी ने आईआईटी मुंबई से इंजीनियरिंग करने के बाद अपनी एक इंडस्ट्री स्थापित की, जिसमें करीब 300 लोग काम करते थे। इसी बीच महाराष्ट्र में सूचना के अधिकार की हलचल हुई तो शैलेष भी उससे जुड़ गए। महाराष्ट्र में उन्होंने सूचना के अधिकार का खूब इस्तेमाल किया। शुरू में उन्होंने रोजाना एक घंटा सूचना के अधिकार काम के लिए रखने की ठानी। जितने भी मुद्दे उनके सामने आते उन पर रोज सूचना मांगने का आवेदन लगा देते। इन आवेदनों के चलते मुंबई पुलिस में तबादला नीति बनना, बलात्कारी दरोगा को सजा, जेल में मोबाइल जैमर, ताज होटल को दी गई जमीन का मामला, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जेल गए मंत्री का बीमार होने का बहाना बनाकर सजा अस्पताल में काटने के मामले उठे और सैकड़ों सपफलताएं सूचना के अधिकार के खाते में जुड़ीं। एक अकेला आदमी सूचना के अधिकार के दम पर क्या कर सकता है, आज शैलेष इसकी मिसाल हैं।
इसके साथ-साथ वे सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान से भी जुड़ते चले गए और पिछले दिनों सूचना अभियान की समन्वय संस्था एनसीपीआरआई के समन्वयक भी थे। उन्होंने सूचना के अधिकार पर पूरी तरह काम करने के लिए अपनी इंडस्ट्री भी बंद कर दी और बिना किसी से सहायता लिए इस अभियान में तन मन धन से जुटे रहे हैं।
जगदीप चोकर भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद में प्रोफेसर और डीन के पद पर कार्य कर चुके हैं। इन्होंने भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की व्यापक लड़ाई लड़ी है। इसके लिए इन्होंने उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में अनेक जनहित याचिकाएं दाखिल की हैं और राजनैतिक दलों के विरोध के बावजूद इनके पक्ष में निर्णय दिए गए। इनकी याचिका का ही नतीजा था कि चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों को अपनी संपत्तियों और पूर्व आपराधिक मामलों का ब्यौरा देने को बाध्य होना पड़ा। जगदीप चोकर एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफोर्म के संस्थापक सदस्यों में हैं। यह संगठन भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। यह संगठन भ्रष्टाचार खत्म करने, शासन में पारदर्शिता लाने और चुनावी तंत्र को प्रभावी बनाने की लड़ाई लड़ रहा है।
त्रिलोचन शास्त्री आईआईटी दिल्ली, आईआईएम अहमदाबाद और अमेरिका के मेसाचुसेट्स तकनीकी संस्थान से शिक्षित हैं। वर्तमान में वह आईआईएम बैंगलोर में प्रोफेसर हैं। इसके अलावा भी वह कई विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं। त्रिलोचन भी एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म के संस्थापक सदस्यों में हैं। इन्होंने भी जगदीप चोकर की तरह चुनाव प्रणाली में सुधर के लिए उल्लेखनीय कार्य किए हैं।
हनुमप्पा सुदर्शन बंगलुरू मेडिकल कॉलेज से स्नातक कर 1973 में डॉक्टर बने। उन्होंने ग्रामीण खासकर आदिवासी इलाकों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। ये उन लोगों में हैं जिन्होंने शहरों के बजाय आदिवासियों के लिए काम करना पसंद किया। हिमालय, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक के रामकृष्ण मिशन संगठन में अपनी सेवाएं देने के उपरांत इन्होंने विवेकानंद गिरिजा कल्याण केन्द्र की स्थापना की, जो कर्नाटक के आदिवासियों के विकास हेतु समर्पित है। सुदर्शन के आदिवासियों के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन सुरक्षा आदि कार्यों को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और उन्हें राइट `लाइवलीहुड अवार्ड´ से नवाजा गया। सुदर्शन की इन्हीं सेवाओं को देखते हुए सरकार ने साल 2000 में पद्मश्री पुरूस्कार से भी सम्मानित किया। इसके अलावा सुदर्शन को उनके कार्य के लिए राज्योत्सव अवार्ड, विवेकानंद मेडल, इंटरनेशनल डििस्टंगविस फिसीशियन अवार्ड और हयूमन राइट अवार्ड भी हासिल हुआ है। सुदर्शन ने कर्नाटक के लोकायुक्त कार्यालय में विजिलेन्स डायरेक्टर के रूप में 1 रूपये मासिक वेतन पर भी काम किया है। इस पद पर रहते हुए उन्होंने सरकारी अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने में अहम भूमिका निभाई है। लोगों ने उनके कार्य की भरपूर प्रशंसा की है।
सरकार के चार उम्मीदवार
दूसरी तरफ़ सरकार जिन चार लोगों को सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बिठाने के लिए चुना वे हैं एम एल शर्मा, बी श्रीकुमार, सत्यानंद मिश्रा और अन्नपूर्णा दीक्षित।
सत्यानंद मिश्रा कार्मिक विभाग के सचिव थे। उनके सचिव रहते कार्मिक विभाग में सूचना के अधिकार की आत्मा के खिलाफ खूब काम हुए। सबसे पहले तो कार्मिक विभाग से ही लोगों को सूचना न मिलना इस बात का सबूत है कि वहां इस कानून को लेकर क्या मंशा रही है। इसके साथ ही उन्होंने हाल ही में धारा 6(३) के तहत सूचना मांगने वाले आवेदक की अर्जी को सही विभाग में भेजे जाने के कानूनी प्रावधन के विरुद्ध ही आदेश जारी करवाया। कानून में प्रावधन है कि यदि कोई आवेदक किसी गलत विभाग में अपना आवेदन भेज देता है तो उस विभाग का सूचना अधिकारी उसे सही विभाग में भेजेगा। सत्यानंद मिश्रा ने कानून की इस धारा के विरुद्ध जाते हुए व्यवस्था कराई है।
इसी तरह कार्मिक सचिव रहते उन्होंने केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा दो-दो बार नोटिस भेजे जाने के बाद भी अपने विभाग की वेबसाईट से उस व्याख्या को नहीं हटाया जिसमें फाईल नोटिंग्स को सूचना के अधिकार के दायरें से बाहर बताया गया था। गौरतलब है कि सैकड़ो मामलों में सरकारी अधिकारियों ने इसी वेबसाईट की व्याख्या के आधार पर लोगों को सूचना देने से मना कर दिया था। लेकिन मिश्रा ने केन्द्रीय सूचना आयोग के नोटिस के बाद भी यह व्याख्या नहीं हटाई गई। सामाजिक कार्यकर्ताओं की आपत्ति है कि ऐसे व्यक्ति से अब रिटायरमेंट के बाद आम लोगों को सूचना दिलवाने के मामलों में क्या अपेक्षा की जा सकती है।
एम एल शर्मा सीबीआई के विशेष निदेशक रह चुके हैं। शर्मा 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं, जिनका नाम हाल ही में सीबीआई डायरेक्टर के लिए उछाला जा रहा था लेकिन अचानक सरकार ने उन्हें इसके लिए अयोग्य मानते हुए अश्विनी कुमार को सीबीआई का डायरेक्टर नियुक्त कर दिया। इससे नाराज़ शर्मा ने नौकरी ही छोड़ दी थी। जिस व्यक्ति को सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर पद के लिए उपयुक्त नहीं माना, उसकी नाराज़गी दूर करने के लिए अब सूचना आयुक्त की कुर्सी दी जा रही है।
अन्नपूर्णा दीक्षित पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्वर्गीय जे एन दीक्षित की पत्नी हैं। वे एक हाउसवाइफ रही हैं और उनका कोई सामाजिक योगदान इस देश में रहा है ऐसा सामने तो नहीं आता। जे एन दीक्षित कांग्रेस के काफी नज़दीकी रहे हैं और माना जा रहा है कि उनके पति की सेवाओं के प्रतिफल के रूप में उन्हें सूचना आयुक्त की कुर्सी दी जा रही है।
सरकार की ओर से पहली सूची में एक नाम बी श्रीकुमार का भी था जिसे लालकृष्ण आडवाणी के विरोध के बाद हटा लिया। श्रीकुमार एक आईपीएस अधिकार थे और मोदी के खिलापफ अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते रहे हैं। मोदी के खिलापफ मुखर ही सूचना आयुक्त पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की योग्यता भी थी और शायद यही अयोग्यता भी बनी।
कैसा व्यवहार करते हैं हमारे सूचना आयुक्त
सूचना आयुक्तों पर हमेशा आरोप लगते हैं कि वे अधिकारियों का पक्ष लेते हैं और आवेदकों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। हम नीचे कुछ ऐसे उदाहरण दे रहे हैं जहां सूचना आयुक्तों का व्यवहार उनके पद की गरिमा और इस कानून की आत्मा के एकदम ख़िलाफ़ रहा-
1 सुनवाई के दौरान अगर आवेदक सूचना मांगने के पक्ष में अपना पक्ष स्पष्ट करे तो हरियाणा की सूचना आयुक्त मीनाक्षी आनंद चौधरी उसे कमरे से बाहर ही भगा देती है। बहादुरगढ़ के नरेश जून के एक मामले की सुनवाई करते हुए वे सूचना ने देने वाले अधिकारी का पक्ष लेने लगी और नरेश को डांटने लगी कि इतनी सूचना लेकर क्या करोगे? नरेश ने इसके जवाब में कहा कि इससे आपको मतलब नहीं होना चाहिए। आप सूचना देने के लिए बैठाए गए हैं न कि लोक सूचना अधिकारियों के लिए। यह सुनकर महामहिम तैश में आ गई। और नरेश को सुनवाई से बाहर भगा दिया। नरेश जून ने बहादुरगढ़ के सिविल अस्पताल के सम्बंधित सूचना मांगी थी।
2 हरियाणा की ही मीनाक्षी आनंद चौधरी ने हिसार से आए राजेन्द्र यादव को यह कहकर झिड़क दिया कि मुझे जो करना था कर दिया, तुम्हें जो करना है कर लो। राजेन्द्र यादव ने मीनाक्षी आनंद के फैसले से नाराजगी व्यक्त की थी। जिसकी प्रतिक्रिया में मीनाक्षी ने यह बात कही।
3 उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त बृजेश कुमार सिंह ने सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा को भरी अदालत में धमकी दी और कहा कि यदि वह अपना मामला आयोग में फ़िर लेकर आई तो उसे गिरफ्तार करवा दिया जाएगा। उसके बाद काफी समय तक उर्वशी के मामलों की आयोग में सुनवाई नहीं हुई। उर्वशी शर्मा ने प्रदेश के सामाजिक कल्याण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को सूचना के अधिकार के जरिए उठाया था। इस भ्रष्टाचार में अनेक अधिकारी फंस रहे थे।
4 उत्तर प्रदेश के राजाभैया यादव जब उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त सुनील चौधरी के यहां गए तो उन्होंने कहा- आप ही हैं राजाभैया, तुमने क्या आरटीआई का ठेका ले रखा है। राजाभैया ने अपने आवेदनों में नैरनी के तालाबों के अतिक्रमणों की जानकारी मांगी थी।
5 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तारिक इस्लाम जब अपनी अपीलों की सुनवाई के लिए केन्द्रीय सूचना आयुक्त ओ पी केजरीवाल के यहां गए तो उन्होंने खीझते हुए कहा- हम इतनी छोटी-छोटी बातों की कब तक सुनवाई करते रहेंगे। यदि ऐसा ही चलता रहा तो मैं ऐसे-ऐसे छोटे मामलों के खिलाफ वार्निंग इश्यू कर दूंगा। तारिक ने अलीगढ़ के मराठा किले के संबंध में सूचना मांगी थी। किले की संरक्षण और देखभाल की जिम्मेदारी भारतीय पुराताित्वक सर्वेक्षण ने एएमयू को सौंपी थी। किले जैसी धरोहरों पर किसी प्रकार का निर्माण मना है लेकिन विश्वविद्यालय के तात्कालीन उपकुलपति हामिद अंसारी की पत्नी ने किले के भीतर स्कूल बनवा दिया था। किसकी अनुमति से किला परिसर में स्कूल बनाया यही जानने के लिए उन्होंने आरटीआई दायर की थी। तारिक किले के अलावा विश्वविद्यालय से जुडे़ तीन अन्य मामलों की सुनवाई के लिए वे आयोग गए थे।
6 'हां मैं गुंडा हूं। यह मेरा बाजार है और यहां जो मैं चाहूंगा, वही होगा'। यह बात मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने दिल्ली की स्वाति और उसके सहयोगियों से कही। हबीबुल्ला काफी समय से स्वाति और उनके साथियों को आश्वासन दे रहे थे कि वह स्वास्थ्य विभाग के मामले सूचना आयुक्त पदमा बालासुब्रमण्यम से लेकर स्वयं देखेगें या ओ पी केजरीवाल को ट्रांसफर कर देंगे। इस आश्वासन को पूरा करने के लिए जब स्वाति और स्वास्थ्य विभाग के रवैए से नाराज करीब 30 गरीब लोग वजाहत साहब के पास पहुंचे और उनसे सुनवाई के लिए कमिश्नर बदलने के लिए आग्रह करने लगे तो उन्होंने ये बातें कहीं।
7 केन्द्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के कहने के बावजूद सूचना आयुक्त एम एम अंसारी दिल्ली के एम के त्यागी की अपील की सुनवाई की तारीख नहीं दे रहे थे। आवेदक ने जब सुनवाई करने के लिए अंसारी को कहा तो वह बोले- मेरे पास समय नहीं है। अंसारी ने सुनवाई करने के स्थान पर कहा- आप अपने कागजात छोड़ जाइए, मैं देख लूंगा। आवेदक त्यागी ने इंडियन ऑयल की जांच सम्बन्धी सूचनाएं सीवीसी से मांगी थी। बाद में पता चला कि इंडियन ऑयल ने अंसारी की यात्राओं, होटल और खाने पीने पर लाखों रूपये खर्च किए थे।