सूचना के अधिकार ने शासकों और शासितों का रिश्ता बदल दिया है....... बिहार के झंझारपुर गांव का अनपढ़ रिक्शा चालाक मज़लूम जिसने इंदिरा आवास योजना के पैसे के बदले रिश्वतखोर बीडीओ को यह कहकर चौंका दिया कि वह सोचना की अर्जी लगा देगा (उसे सूचना का का अधिकार कहना भी नहीं आता),......... या बुंदेलखंड की वे अनपढ़ मांएं जिन्होंने अपने बच्चों को मिलने वाली स्कूल वर्दी और किताबों का हिसाब मांगकर भ्रष्ट अफसरों को पूरे चित्रकूट ज़िले के प्राईमरी स्कूलों में वर्दी और किताबें बांटने को मजबूर किया और सवा दो करोड़ रुपए की चोरी रोकी ......... या फिर बहराईच ज़िले के कतार्नियाघट जंगलों में अपने वजूद का सरकारी सबूत ढूंढ रहे वनग्रामवासी, जिनके सवालों ने सरकार को मजबूर किया कि वह खुद उनके वहां होने के सबूत तैयार करे.... आज दूर दराज़ के आदिवासी इलाकों में बैठा एक अनपढ़ ग्रामीण भी शासकों से न सिर्फ सवाल पूछ रहा है बल्कि जवाब न देने की स्थिति में उन्हें दंडित करवाने के कदम भी उठा रहा है। शायद इसीलिए यह कानून लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में अभी तक किए गए प्रयासों में सबसे अधिक लोकिप्रय भी बन गया है. आज ऐसे सैकड़ों नहीं हज़ारों मामले हैं जहां इस कानून ने शासन प्रक्रिया में आम आदमी की हैसियत बढ़ाई है. लेकिन पिछले कई वर्षों के अनुभव से यह भी सामने आया है कि इस कानून की सीमा है. अगर ठीक से लागू हो सके तो यह व्यवस्था को पारदर्शी तो बना सकता है लेकिन जवाबदेह नहीं. इसे एक बड़े ही सटीक उदाहरण से समझा सकता है - सूचना अधिकार के लिए मेगसेसे से सम्मानित अरविंद केजरीवाल गाज़ियाबाद के कौशाम्बी इलाके में रहते हैं. अपने मोहल्ले की टूटी फूटी सड़कों के बारे में उन्होंने सूचना मांगी कि इन्हें कब और कितने पैसे में बनाया गया था। सूचना दी गई कि चार महीने पहले ही इन पर 42 लाख रुपए खर्च कर बनाया गया था. यह सूचना एकदम झूंठ थी क्योंकि वे सड़कें पिछले दस साल से बनी ही नहीं थीं. यह जनता के 42 लाख रुपए के सीधे सीधे गबन का मामला है लेकिन वे पुलिस में गए तो उसने हाथ खड़े कर दिए. डीएम से लेकर सीएम तक को लिखा लेकिन कोई नतीज़ा नहीं. यहां सूचना के अधिकार ने तो अपना काम कर दिया लेकिन हमारी शासन व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें आम आदमी कुछ कर ही नहीं सकता. लोकतंत्र के नाम पर हमारे पास महज़ एक अधिकार है, पांच साल में अपना वोट देने का. व्यवस्था से शिकायत हो तो हम ज्यादा पांच साल में अपना वोट सरकार बदलने के लिए दे सकते हैं. और साठ साल से लोग यही करते आए हैं. केन्द्र और राज्यों को मिलाकर देखें तो हमने हर पार्टी और नेता को सत्ता में बिठाकर देख लिया है. व्यवस्था के सामने आम आदमी की हैसियत वहीं की वहीं है. सिर्फ सूचना का अधिकार कानून एक ऐसा कानून रहा है जिसने आम आदमी को व्यवस्था से सवाल पूछने की ताकत दी है. सूचना कानून के तहत प्राप्त सूचनाओं से, देश भर में ऐसे मामलों का खुलासा हुआ है जहां सड़कें, हैंडपंप इत्यादि कागजों पर ही बना दिए गए. इसके आगे लोग शिकायत करते हैं तो कोई कार्रवाई नहीं होती. अब ज़रूरत इस बात की है कि हम इससे आगे के कदम की बात करें.
लेकिन आगे का कदम होगा क्या? हज़ारों लोग हैं जिन्होंने ऊपर के उदाहरण की तरह सूचना निकलवा कर भ्रष्टाचार उजागर किया है। लेकिन इसके बाद क्या?
अब यह व्यवस्था चाहिए कि सरकारी अमला लोगों के सीधे नियंत्रण में हो. किसी इलाके के सरकारी कर्मचारी, उनका काम, विभागों का पैसा, योजनाओं का लाभ ... सब कुछ जनता की खुली बैठकों में तय हो. वहां से जो बात निकले वही जनता का आदेश हो. नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का काम महज़ उस पर अमल करना हो. और जो नेता या अधिकारी जनता के आदेश में न चले, उसे हटाने, दंडित करने की ताकत जनता के पास हो. यानि लोग खुद, कानूनी रूप से उन कामों को करवा सकें जिन्हें किए जाने की उम्मीद हम ऊपर के अफसरों और नेताओं से लगाए रहते हैं. अगर हम खुद को लोकतंत्र कहते हैं तो हमें लोगों को सबसे ऊपर लाना ही होगा. यही स्वराज होगा. तो आईए! सूचना के अधिकार के बाद अब स्वराज मांगें।
1 टिप्पणी:
kyon aakhir right to information act sirf lekh kitabo tak hi seemit ho gaya hai .......koi bvhi soochna samaye par uplabd nahi ho paati .......to swaraj kaise prapt hoga hame ......
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