मनीष सिसोदिया
समझ नहीं आता कहां से शुरू करूं। भूख और भीख के बीच नमक चाटकर अपनी जमीन से जुडे़ रहने की जद्दोजहद में लोगों से,....भपटयाही गांव के स्कूल शिविर में रोती छटिहा गांव की गुलाबी देवी से ( जिसे अपनी पतोहू के लिए एक कड़छी खिचड़ी ज्यादा लेने के जुर्म में थप्पड़ जड़ दिया गया), ....हर अजनबी को फरिश्ता समझ,, भरे गले से सर ......का ....र बोलकर मदद की उम्मीद में रो उठती पचास वर्षीय रसूलन खातून से (जिसका पति उसे संभालते-संभालते पानी में बह गया), .... अपने बच्चे के वास्ते एक कप दूध की खातिर दुत्कार खा रहे वासुदेव सिंह से (जिसकी 15 हजार की दूध देती गाय पानी में बह गई), .... के मोतीलाल विद्यालय राहत शिविर में जन्मी उस बच्ची का नाम प्रलय रखा गया है।
... संयुक्त राष्ट्र, यूनीसेफ , ओक्सफेम , कासा, रामदेव, आसाराम, आनंदमार्गी, रविशंकर, आरएसएस आदि आदि बैनरों के पीछे दिखते शिविरों से .....सत्ता , पद और सुविधाओं के अहम में डूबे अफसरों से....फर्जी आंकड़ों की बाजीगरी के दम पर वाहवाही लूटने के लिए बनाई गई आपदा प्रबंधन विभाग से.....या कोशी की चुनौती में चुनावी अवसर खोजते नीतीश, लालू और पासवान के बड़े-बडे़ पोस्टरों से....
यह बिहार का कोसी इलाका है जो बाढ़ के एक महीने के बाद भी समंदर-सा दिखता है। यहां हर चेहरा एक कहानी है, हर दृश्य एक फोटो, हर घटना एक शॉट की तरह घटती है। इसे लिखना अंदर से हुड़क-हुड़क कर रोने और बाहर से सामान्य बने रहने का एक कठिन काम है। फ़िर भी, यह, सब कुछ गवां कर जिंदगी को समेटने में लगे लोगों का जीवट और एक तथाकथित लोकतंत्र का काहिलपन है जो बयां होना चाहता है। किसी भी शिविर में, किसी भी गांव में चले जाइए, हर तरफ यही आवाज सुनने को मिलती है- ए बाबू! अब केना जीबेय, फसल, जानिवर, घार, सबटा बरबाद भय गेलेय......इहां कोई दिखे बाला नै छै, भूखले सूतैय छै।
यकीन नहीं होता कि यह वही बिहार है जिसने डेढ़ साल पहले आम आदमी को टेलिफोन के जरिए सूचना मांगने का अधिकार देकर एक नया इतिहास रचा था। आज उसी बिहार के 25 लाख लोग, भिखारी की तरह लाइन में खडे़ होने पर मजबूर हैं, वह भी इसलिए क्योंकि उनकी सरकार उन्हें सूचनाएं देने में पीछे हट गई है। उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि उनकी सरकार ने उनके लिए क्या तय किया ह? क्या-क्या सामान दिया है? कितना पैसा दिया है? और यह सब उन्हें कहां, कैसे, किससे, कब-कब मिलेगा? अगस्त महीने में आई बाढ़ से तबाह कोसी इलाके के लोगों की मदद और राहत के लिए पटना और दिल्ली में फैसले तो बहुत लिए गए। उनमें से कई तो ऐसे हैं जिन्हें देखकर सरकारी बुद्धि पर भी फक्र करने का मन करता है। लेकिन ये फैसले जिला मुख्यालय तक पहुंचते-पहुंचते कागज का एक पुलिंदा भर रह जाते हैं।
बाढ़ के करीब एक महीने बाद जब ज़िलाधिकारिओं से पूछा गया कि पीडितो को सरकार की योजनाओं और उनके अधिकार की सूचना मिल सके, उन्हें अपने हक और उसके लिए की गई व्यवस्था, उसके निर्धारित तरीकों की जानकारी आसानी से उपलब्ध हो सके, इसके लिए क्या-क्या कदम उठाएं हैं तो जवाब अलग-अलग थे। सुपौल के जिलाधिकारी श्रवन का कहना था- पोस्टर लगाए जा रहे हैं, बस एक-दो दिन में तैयार हो जाएंगे। हम अपनी वेबसाइट पर भी इन्हें डालेंगे। लेकिन आज तक उनकी वेबसाइट पर ऐसा पोस्टर नहीं डला है। फोन कर जब फ़िर इसके बाबत पूछा गया तो उनकी दिलचस्पी ही इस पोस्टर में नहीं दिखी। सहरसा के जिलाधिकारी आर लक्ष्मणन ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि एक संस्था ने बाढ़ पीडितों के लिए हैंडबिल तैयार कराया है। हालांकि उनके पास उसकी कोई प्रति नहीं थी। बहुत ढूंढ़ने के बाद एक अपर जिलाधिकारी के पास से वह हैंडबिल मिला जिस पर एक तरफ छोटे-छोटे अक्षरों में पर्चा छपवाने वाली संस्था के इतिहास का बखान था। सहरसा जिलाधिकारी बाढ़ पीडितों के लिए राहत और मदद से सम्बंधित दस्तावेजों वाली फाईल दिखाने से सापफ मना कर देते हैं। वहीं मधेपुरा के जिलाधिकारी इतने से ही संतुष्ट हैं कि सरकार ही हर घोषणा की खबर अखबार में तो छपती है, बाकी हमारे अधिकारियों को हम इसके बारे में बता देते हैं।
सवाल आपदा के आडे़ वक्त में, राहत और बचाव कार्यों में व्यस्त प्रशासन को सूचना अधिकर कानून के दांवपेंचों में उलझाने का नहीं है। बल्कि सवाल उन्हीं बाढ़ पीडितों के लिए समय पर, सही और पूरी जानकारी उपलब्ध कराने का है। बडे़-बडे़ फैसले लेकर निचले लेवल के सरकारी तंत्र के भरोसे छोड़ देना भ्रष्टाचार के खुले अवसर देने जैसा है और हम जानते हैं कि ऐसा होता आया है। बिहार की सुशासन सरकार के कामकाज में यह विरोधाभास कोसी नदी नदी में आई बाढ़ के एक महीने बाद हर जगह दिखता है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (टिस) के राहत एवं बचाव कार्य के लिए आए एक छात्रा एजिस डिसूजा बताते हैं कि सुपौल जिले में एक सरकारी केन्द्र पर पशुओं के चारे के लिए लोगों से 350 रूपये कुंतल वसूले जा रहे हैं। तीन किलोमीटर पानी में पैदल चलकर आए आदमी को पता ही नहीं था कि सरकार बाढ़ में फंसे उसके पशुओं के लिए मुफ्त चारा बांट रही है और यह इस केन्द्र पर मुफ्त मिलना चाहिए।
लोगों को पता ही नहीं है कि बाढ़ पीडितों जिलों में सदर अस्पतालों में सरकार ने एक्स रे और पैथोलॉजी टेस्ट की सेवा मुफ्त कर दी है। आदेश सभी सिविल सर्जनों को दिया जा चुका है लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ा। दिल्ली से गए सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं ने सहरसा के अस्पताल में जब लोगों को पैसों के अभाव में भटकते देखा तो पता चला कि मुफ्त सेवा सिविल सर्जनों के रहमो करम पर है। पटना से चला एक आदेश सहरसा तक आकर किस तरह अपफसर की कलम में लटक कर रह जाता है, यह इसका एक सजीव उदाहरण है। स्वास्थ्य आयुक्त और आपदा प्रबंध्न के अधिकारियों से पफोन पर बात की गई पिफर भी इस आदेश को आगे बढ़वाने में चार दिन तक लगातार दबाव बनाना पड़ा। इस दौरान भी करीब 250 मरीजों का एक्स रे और टेस्ट उसकी कीमत वसूलकर किए गए। सहरसा अस्पताल सुधर समिति के मनजीत सिंह बताते हैं कि जितने भी आदेश आए हैं अगर उन्हें दीवारों पर चिपका दें तो भी लोगों को अपने अधिकारों का पता चल सकेगा।
बाढ़ राहत के नाम पर बांटी जा रही सामग्री का भी यही हाल है। रहटा भवानीपुर गांव जिला मधेपुरा, के शालीग्राम यादव दो मुट्ठी चावल और एक चमचा दाल की खातिर तीन सौ लोगों की लाइन में लगे बैठे हैं। यह शिविर पब्लिक सेक्टर की कई बड़ी कंपनियों के पैसे से चल रहा है। हालांकि इस पर बड़े-बडे़ फोटो केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के लगे हैं। बगल में उनकी पांच-छह साल की पोती भी पत्तल लिए बैठी है। जब ये लोग खाना खा लेंगे तो अगली पंगत में परिवार के बाकी सदस्य भी बैठेंगे। दाल भात बंटना शुरू होता है। थोड़ी आपाधपी शुरू होती है तो खाना बांटने वाला आगे निकल जाता है, बच्ची को खाना नहीं मिलता, वे उसे भी अपनी पत्तल में से खिला देते हैं। खाना खाकर उठते हैं तो बताते हैं कि महीना भर पहले तक गांव के पक्के मकान में रहते थे। बेटे की एसटीडी की दुकान थी। कुछ पशु और धन की खेती। कुल मिलाकर परिवार भरा पूरा था और खुशहाली से खा पी रहा था। लेकिन कोसी में आई बाढ़ ने सब कुछ लील लिया। पांच दिन छत पर काटे तक जाकर सेना की नांव में बाहर आ सके हैं। भरे गले और आंखों की कोर से टपकते आंसू को रोकने की कोशिश करते हुए वे कहते हैं कि आज उनका पूरा परिवार इस शिविर में भिखारी की तरह रहने को मजबूर है। मैं पूछता हूं कि आप राज्य सरकार के कैंप में क्यों नहीं गए? मेगा कैंपों की हालत तो यहां से कहीं बेहतर है। उन्होंने बताया कि जब वे सहरसा आए तो अपने परिवार के साथ सरकार के चारों मेगा कैंपों में गए लेकिन हर जगह कह दिया गया कि अब यहां जगह नहीं है। पिफर? कहां जाएं? इसका जवाब देने वाला कोई नहीं था। मजबूरन इस संस्था के हालनुमा कैंप में आना पड़ा जहां दो हजार लोग एक ही छत के नीचे भेड़ बकरियों की तरह पड़े हैं।
त्रिवेणीगंज के मेिढया सैफ़न इलाके में बरकुवा गांव में बाढ़ राहत में लगे एक समाजसेवी का कहना है जितना पैसा, सामान, खाना, पशु, चारा, नाव व्यवस्था सरकार के कागजों में दिखती है अगर उसका पता आम आदमी को समय रहते, ठीक-ठीक लग जाता तो लोगों को भिखारी की तरह नहीं भकटना पड़ता। जैसे ही सेना लोगों को बाढ़ से निकालकर बाहर लाई सरकार को उसे उसके अधिकारों और उसकी प्रक्रिया की जानकारी देने की व्यवस्था बनानी चाहिए थी लेकिन ऊपर बैठे लोग योजनाएं बनाना जानते हैं और नीचे बैठे लोग उनसे कमाना। यह कमाई ऊपर कितना पहुंचती है यह तो पता नहीं लेकिन धरातल पर सरकार की घोषणाएं और व्यवस्था एक दूसरे से इत्तेफाक नहीं रखते दिखे। अगर दुनियाभर की संस्थाएं आगे न आती तो सिर्फ़ सरकारी व्यवस्था के सहारे मुश्किल से 25 प्रतिशत लोगों को ही जिंदा रखा जा सकता था। याद रहे कि इस बाढ़ से 30 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।
फ़िर भी इन संस्थाओं की एक सीमा है। ये कितना कर सकती है, कब तक कर सकती है। अन्तत: इन लोगों को किसी दान के सहारे नहीं बल्कि हक और सम्मान के साथ सुरक्षित रखना सरकार की जिम्मेदारी है। परंतु जब सरकार की मध्यम और निचली मशीनरी अपने सुशासन के गरूर में काम करती हो, और लोगों तक उनके अधिकारों की जानकारी पहुंचाने को अपनी जिम्मेदारी न गिने तो लोग भिखारी बनकर खडे़ होने पर मजबूर तो होंगे ही।
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गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008
सबसे बड़ी चुनौती ज़ुर्माना नहीं आयोगों में लंबित मामलों की संख्या है- शैलेष गाँधी
व्यवसायी, इंजीनियर और आरटीआई कार्यकर्ता रह चुके और अब केन्द्रीय सूचना आयुक्त बने शैलेष गाँधी ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिन्हें जनता की मांग पर सूचना आयुक्त बनाया गया है। जनता को उनसे काफ़ी उम्मीदें हैं और लोग उनसे वह भूमिका निभाने की उम्मीद में बैठे हैं जो आज तक सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बैठकर कोई नहीं निभा सका है। पिछले अंक में हमने शैलेष गाँधी की नियुक्ति और उनसे उम्मीदों पर विस्तार से चर्चा की थी। अब जबकि वे पद ग्रहण कर चुके हैं और मामलों की सुनवाई भी शुरू कर चुके हैं तो हमने उनके मन को टटोलने की कोशिश की, यह जानने के लिए कि सरकारी कुर्सी पर बैठने की ठीक शुरूआत में उनके अंदर का आरटीआई कार्यकर्ता क्या महसूस कर रहा है। पेश हैं उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश -
सबसे पहले तो आपको सूचना आयुक्त बनने पर बधाई
धन्यवाद
सूचना आयुक्त के रूप में सबसे बड़ी चुनौती किसे मानते हैं?
मैं आरटीआई कार्यकर्ता और अब सूचना आयुक्त के रूप में भी पेन्डेंसी को ही सूचना कानून की सबसे बड़ी चुनौती और खतरा मान रहा हूं। क्योंकि इसकी वजह से यदि एक या दो साल बाद सूचना मिलेगी तो आम आदमी इस कानून से दूर भाग जाएगा।
इसे कम करने के लिए क्या करेंगे?
मेरे विचार से दिन में 25 से 30 सुनवाईयां रखी जा सकती हैं। जितनी ज्यादा संभव हो सके सुनवाईयां होनी चाहिए। ऐसा होने पर लोगों को जल्दी सूचना मिलेगी और कानून के प्रति भरोसा जगेगा। मैं गारंटी देता हूं कि 6 महीने बाद मेरे पास आने वाले मामलों की पेन्डेंसी 3 महीने से ज्यादा नहीं रहेगी।
पेंडेंसी का मतलब साफ़ है कि सरकार में बैठे लोग नागरिकों के सूचना को अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं, इसकी क्या वजह सामने आती है?
मुझे लगता है कि नागरिक और सरकार में फर्क नहीं होना चाहिए। सरकार नागरिक से अलग नहीं है। लोकशाही में सरकार अलग हो ही नहीं सकती। हालांकि इसमें बहुत त्रुटियां हैं लेकिन यह सरकार हमारी है और हमें ही इसे सुधारना है। केवल सरकार को दोष देना ठीक नहीं है। खामियां संगठनों और समाज दोनों में हैं।
क्या यह पेंडेंसी पेनल्टी न लगाने की वजह से नहीं है। पेनल्टी न लगाने की वजह से अधिकारियों में इस कानून को लेकर कोई डर नहीं रह गया है, और शायद अब आप भी यह मानने लगे हैं कि पेनल्टी ज़रूरी नहीं है?
पेनल्टी सिर्फ़ एक जरिया है। लोगों को सूचना मिले, मुद्दा यह है। मैं यह नहीं कह रहा कि पेनल्टी नहीं लगेगी। कायदे को सबल बनाने के लिए जब-जब इसका अवमान होगा पेनल्टी जरूर लगेगी। लेकिन मेरा यह मानना है कि दंड और डंडे से सुधार नहीं किया जा सकता। मैं अपने आपको पेनल्टी से नहीं बल्कि इस बात से मापूंगा कि लोगों को सूचना मिले।
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जब आपका नाम सूचना आयुक्त के लिए प्रस्तावित किया था तो सोचा था आप दोषी सूचना अधिकारियों के प्रति सख्ती से पेश आएंगे, तो क्या आपके इस रूख से वे ठगा से महसूस नहीं करेंगे?
देश का एक छोटा-सा तबका ऐसा मानता है। बाकी लोग ऐसा नहीं कह रहे। मैंने बराबर लोगों से इस बारे में राय ली हैं। लगभग 70 प्रतिशत लोग मेरे विचारों से सहमत हैं। देश में कुछ आरटीआई कार्यकर्ता ऐसे है जिन्हें कानून से कम और पेनल्टी से अधिक मतलब होता है। उन्हें पेनल्टी लगवाने में बड़ी खुशी मिलती है। कुछ लोगों की राय को देश ही राय नहीं माननी चाहिए। मैं उन लोगों को भी गलत नहीं मानता क्योंकि उनका मकसद भी यही है कि कानून ठीक से काम करे।
जब आपका नाम प्रस्तावित हुआ था तो आपकी तरपफ से घोषणा की गई थी कि आप एक रुपया सेलरी, बिना सरकारी गाड़ी और बंगला लिए सादगी से, सेवा भाव से इस पद पर काम करेंगे? सुनने में आया कि अब आप इस पद बात पर कायम नहीं हैं?
कायम नहीं हूं? यह एक ग्रुप डिसीजन था। उस समय यह विचार आया था। लेकिन बाद में सोचा कि मैं दिल्ली में रहूंगा कैसे? कुछ लोगों ने घर, गाड़ी का सुझाया लेकिन बाद में मुझे यह ठीक नहीं लगा। लगा कि मैं इस जद्दोजहद में उलझ कर रह जाऊंगा । किसी से मांगने से बेहतर लगा सरकार से लूँ । मैनें लोगों के परामर्श करके यह निर्णय बदला।
यह भी सुनने को मिला कि आप अब आरटीआई का इस्तेमाल नहीं करेंगे
यह सही है। पहले सोचा इसका इस्तेमाल करूंगा, लेकिन बाद में विचार आया कि यदि मैं कमीशन में आया तो विचित्रा स्थिति पैदा हो जाएगी। जब दो कमिश्नर किसी विषय पर आमने-सामने होंगे तो आपत्तिजनक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। मैं किसी के आगे ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं करना चाहता।
आयुक्त के पद पर रहते हुए कानून की सफलता के लिए क्या करेंगे?
शुरू के 6 महीनों तक मेरी प्राथमिकता पेन्डेंसी के निपटारे की होगी। उसके बाद पीआईओ के साथ मीटिंग करके इस दिशा में पहल करूंगा। तीसरी प्राथमिकता जनता के बीच जाकर इसके फैलाव और इस पर अमल करने की कोशिश होगी।
सबसे पहले तो आपको सूचना आयुक्त बनने पर बधाई
धन्यवाद
सूचना आयुक्त के रूप में सबसे बड़ी चुनौती किसे मानते हैं?
मैं आरटीआई कार्यकर्ता और अब सूचना आयुक्त के रूप में भी पेन्डेंसी को ही सूचना कानून की सबसे बड़ी चुनौती और खतरा मान रहा हूं। क्योंकि इसकी वजह से यदि एक या दो साल बाद सूचना मिलेगी तो आम आदमी इस कानून से दूर भाग जाएगा।
इसे कम करने के लिए क्या करेंगे?
मेरे विचार से दिन में 25 से 30 सुनवाईयां रखी जा सकती हैं। जितनी ज्यादा संभव हो सके सुनवाईयां होनी चाहिए। ऐसा होने पर लोगों को जल्दी सूचना मिलेगी और कानून के प्रति भरोसा जगेगा। मैं गारंटी देता हूं कि 6 महीने बाद मेरे पास आने वाले मामलों की पेन्डेंसी 3 महीने से ज्यादा नहीं रहेगी।
पेंडेंसी का मतलब साफ़ है कि सरकार में बैठे लोग नागरिकों के सूचना को अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं, इसकी क्या वजह सामने आती है?
मुझे लगता है कि नागरिक और सरकार में फर्क नहीं होना चाहिए। सरकार नागरिक से अलग नहीं है। लोकशाही में सरकार अलग हो ही नहीं सकती। हालांकि इसमें बहुत त्रुटियां हैं लेकिन यह सरकार हमारी है और हमें ही इसे सुधारना है। केवल सरकार को दोष देना ठीक नहीं है। खामियां संगठनों और समाज दोनों में हैं।
क्या यह पेंडेंसी पेनल्टी न लगाने की वजह से नहीं है। पेनल्टी न लगाने की वजह से अधिकारियों में इस कानून को लेकर कोई डर नहीं रह गया है, और शायद अब आप भी यह मानने लगे हैं कि पेनल्टी ज़रूरी नहीं है?
पेनल्टी सिर्फ़ एक जरिया है। लोगों को सूचना मिले, मुद्दा यह है। मैं यह नहीं कह रहा कि पेनल्टी नहीं लगेगी। कायदे को सबल बनाने के लिए जब-जब इसका अवमान होगा पेनल्टी जरूर लगेगी। लेकिन मेरा यह मानना है कि दंड और डंडे से सुधार नहीं किया जा सकता। मैं अपने आपको पेनल्टी से नहीं बल्कि इस बात से मापूंगा कि लोगों को सूचना मिले।
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जब आपका नाम सूचना आयुक्त के लिए प्रस्तावित किया था तो सोचा था आप दोषी सूचना अधिकारियों के प्रति सख्ती से पेश आएंगे, तो क्या आपके इस रूख से वे ठगा से महसूस नहीं करेंगे?
देश का एक छोटा-सा तबका ऐसा मानता है। बाकी लोग ऐसा नहीं कह रहे। मैंने बराबर लोगों से इस बारे में राय ली हैं। लगभग 70 प्रतिशत लोग मेरे विचारों से सहमत हैं। देश में कुछ आरटीआई कार्यकर्ता ऐसे है जिन्हें कानून से कम और पेनल्टी से अधिक मतलब होता है। उन्हें पेनल्टी लगवाने में बड़ी खुशी मिलती है। कुछ लोगों की राय को देश ही राय नहीं माननी चाहिए। मैं उन लोगों को भी गलत नहीं मानता क्योंकि उनका मकसद भी यही है कि कानून ठीक से काम करे।
जब आपका नाम प्रस्तावित हुआ था तो आपकी तरपफ से घोषणा की गई थी कि आप एक रुपया सेलरी, बिना सरकारी गाड़ी और बंगला लिए सादगी से, सेवा भाव से इस पद पर काम करेंगे? सुनने में आया कि अब आप इस पद बात पर कायम नहीं हैं?
कायम नहीं हूं? यह एक ग्रुप डिसीजन था। उस समय यह विचार आया था। लेकिन बाद में सोचा कि मैं दिल्ली में रहूंगा कैसे? कुछ लोगों ने घर, गाड़ी का सुझाया लेकिन बाद में मुझे यह ठीक नहीं लगा। लगा कि मैं इस जद्दोजहद में उलझ कर रह जाऊंगा । किसी से मांगने से बेहतर लगा सरकार से लूँ । मैनें लोगों के परामर्श करके यह निर्णय बदला।
यह भी सुनने को मिला कि आप अब आरटीआई का इस्तेमाल नहीं करेंगे
यह सही है। पहले सोचा इसका इस्तेमाल करूंगा, लेकिन बाद में विचार आया कि यदि मैं कमीशन में आया तो विचित्रा स्थिति पैदा हो जाएगी। जब दो कमिश्नर किसी विषय पर आमने-सामने होंगे तो आपत्तिजनक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। मैं किसी के आगे ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं करना चाहता।
आयुक्त के पद पर रहते हुए कानून की सफलता के लिए क्या करेंगे?
शुरू के 6 महीनों तक मेरी प्राथमिकता पेन्डेंसी के निपटारे की होगी। उसके बाद पीआईओ के साथ मीटिंग करके इस दिशा में पहल करूंगा। तीसरी प्राथमिकता जनता के बीच जाकर इसके फैलाव और इस पर अमल करने की कोशिश होगी।
सूचना कानून: तीन साल में अढ़ाई कोस
भागीरथ श्रीवास
कानून बनाकर उन्हें भूल जाना, सरकारी फितरत रही है। और कानून तो आखिर कानून है, उसकी नियति अंतत: सरकार की नीयत पर ही निर्भर रहती है। लेकिन सूचना का अधिकार एक ऐसा कानून है जो जन की मांग पर आया, और जन के चलते ही सरकारें चाहकर भी अपनी फितरत में कामयाब नहीं हो पा रही है। इसका श्रेय मीडिया, ग़ैर सरकारी संस्थाओं, अभियानों, आंदोलनों के साथ साथ उन लाखों लोगों को जाता है जिन्होंने पिछले तीन साल में इस कानून का इस्तेमाल किया है। तीन साल पहले अक्टूबर में जब यह कानून लागू हुआ था तो शायद सरकार में बैठे लोगों को आभास नहीं रहा होगा कि वे चाहकर भी इस कानून को फाइलों में दबाकर नहीं रख पाएंगे।
12 अक्टूबर 2005 को लागू होने के बाद से ही इस कानून को लेकर जनता और सरकार में तू डाल-डाल हम पात-पात का खेल चल रहा है। कानून लागू होने के बाद जब जनता ने इसे इस्तेमाल करना शुरू किया तो भ्रष्ट सत्ताधीशों और नौकरशाहों के होश उड़ने लगे। इसीलिए कुछ लोगों ने मिलकर योजना बनाई कि इस कानून के पंख पालने में ही काट दिए जाएं। इसीलिए महज़ नौ महीने में ही इस कानून की धारदार धराओं को कुंद बनाने के लिए एक बिल लाने की कोशिश की गई लेकिन जनांदोलनों और मीडिया के दवाब में सरकार के लिए यह संशोधन लाना मुश्किल हो गया।
इसी बीच यह रास्ता भी निकल कर आ गया था कि सूचना के अधिकार की जान सूचना आयोग नाम के तोते में है। किसी तरह उसकी गर्दन हाथ में रखी जाए। अत: सूचना आयुक्तों की कुर्सी राजनीतिक घरानों के प्रमाणित वफादारों को ही दी जाए। महज़ मर्यादा के लिए एकाध अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे लोगों को ही सूचना आयुक्त बनाया गया जिनकी सुबह सत्तासीन चेहरों की आरती के साथ शुरू होती थी। ये लोग पूरे वफादार निकले हैं। यही वजह है कि एक सशक्त कानून होते हुए भी तीन साल में सूचना के अधिकार की बदौलत एक भी ऐसा खुलासा संभव नहीं हुआ है जिससे कोई राजनीतिक हलचल मची हो। सूचना आयुक्तों ने अपने आकाओं के प्रति वफादारी निभाने के लिए हर उस मुद्दे की हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसमें ज़रा सी भी संभावना थी। कभी सूचना दिलाने से साफ़ मना करके तो कभी मामले को इतना लंबा खींचकर कि उठाने वाले का हौसला ही पस्त हो जाए। सूचना न देने वाले अधिकारियों को तो खुली छूट उसी दिन मिल गई थी जब देश के प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त वज़ाहत हबीबुल्ला ने एक अखबार के इंटरव्यू में कहा था कि वे अहिंसा वादी हैं और सूचना के अधिकार कानून के तहत दोषी अधिकारियों को दंडित करना उनकी नज़र में हिंसा थी।
इस सबके बाद भी सूचना का अधिकार कानून एक उम्मीद जगाता है तो महज़ इसलिए कि देश की जनता इससे जुड़ी है, समाज ने इसमें संभावनाएं देखी हैं। वह चाहे दिल्ली में नन्नू का राशनकार्ड मिलने की घटना हो या बिहार में रिक्शा चालक का बीडीओ को यह कहना कि, सूचना के अधिकार की अर्जी लगा दूंगा। बुंदेलखंड में 27 अनपढ़ महिलाओं द्वारा बच्चों की स्कूल ड्रेस और किताबों के नाम पर आए सवा दो करोड़ रुपए की चोरी रोकने की घटना हो या दिल्ली में टूटी सड़कों की मरम्मत कराने में मिली सपफलता। इस कानून ने खुद पर भरोसा रखने वाले लोगों के मन में एक उम्मीद जगाई है। भ्रष्टाचार के आगे बेबस जो लोग यह मानने लगे थे कि कहीं कुछ नहीं हो सकता उन्होंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर नई-नई मिसालें पेश की हैं।
हाल ही में प्रिया संस्था द्वारा देश के 10 राज्यों में सूचना प्राप्त करने में आ रही दिक्कतों को लेकर जो सर्वे किया गया, उसमें स्पष्ट है कि सूचना आयोगों ने ही कानून को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। आयुक्तों के नकारात्मक रवैये के कारण आम जनता को इस कानून से भरोसा उठने लगा है। उनके रवैये से लोक सूचना अधिकारिओं में सूचना न देने की प्रवृत्ति भी तेजी से बढ़ती जा रही है। अनेक राज्यों में जनता को कानून की पहुंच से दूर करने के लिए आवेदन शुल्क और सूचना लेने के लिए दिया जाने वाला शुल्क भी काफ़ी अधिक रखा गया है। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में फोटो कॉपी शुल्क 10 रूपये प्रतिपृष्ठ रखा गया तो उत्तर प्रदेश और दिल्ली हाई कोर्ट में कानून के तहत दिए जाने वाले आवेदन का शुल्क 500 रूपये है। नागरिकों को कानून के दूर करने के लिए आयोगों द्वारा ऐसी नियमावालियां बनाई जा रहीं हैं, जो न केवल कठिन हैं बल्कि आम जनता के समझ से भी परे हैं।
सूचना के अधिकार के सफल क्रियान्वयन की जिम्मेदारी है जिन आयोगों पर है वही पारदर्शी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु, उडीसा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सेल्फ डिस्क्लोजर ही पूरे एवं ठीक नहीं हैं। अधिकांश आयोगों ने तीन सालों में अपनी वार्षिक रिपोर्ट तक प्रकाशित नहीं की है।
कुछ राज्य सूचना आयोगों को छोड़ दिया जाए तो अिध्कांश ने अपने पास आने वाली अपीलों और शिकायतों को शुरूआती वर्षों में काफ़ी धीमी गति से निपटाया है। मध्य प्रदेश सूचना आयोग ने अपीलों को जहां अपीलों को 20 प्रतिशत की दर से निपटाया है, वहीं झारखंड ने 66, गुजरात ने 40, बिहार में 50, राजस्थान में 82, केरल में 68, उडीसा में 47 प्रतिशत की दर से अपीलें निपटाई गईं हैं। इतनी धीमी कार्यप्रणाली के कारण आयोग पर लंबित मामलों को बोझ बढ़ता जा रहा है। यदि कोई आवेदक सूचना आयोग में अपील करता है तो उसकी सुनवाई होने में करीब साल भर का वक्त लग रहा है। महाराष्ट्र, केन्द्र और कुछ राज्यों में यह अविध् डेढ़ से दो साल के बीच पहुंच गई है। ऐसे में लोगों को आयोगों से भरोसा उठना लाजिमी है। इसे सूचना आयोगों की कमजोरी ही कहा कि उनके आदेशों की अवज्ञा होने लगी है। विभिन्न राज्यों में आयोग के ऐसे पफैसलों की कमी नहीं हैं जिसमें आवेदक की बात को ठीक से नहीं सुना गया।
कानून के तहत सूचना न देना, गलत सूचना देना या भ्रामक सूचना देने वाले जन सूचना अधिकारी पर आर्थिक दंड का प्रावधन है, लेकिन शुरूआती तीन सालों में गिने-चुने मामलों में ही जुर्माना लगाने के आदेश दिए गए हैं। जुर्माना न लगने से अधिकारिओं में इस कानून का भय खत्म होता जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल का इस विषय में कहना है कि सूचना का अधिकार कानून, 2005 की सबसे बडी विशेषता है सूचना नहीं दिये जाने या देरी से सूचना देने पर प्रतिदिन के हिसाब से लगने वाला जुर्माना। यही वो प्रावधन है जो इस कानून को कारगर बनाता है, परंतु देखा यह जा रहा है कि सूचना आयुक्त जुर्माना लगाने से बच रहे हैं।
लोक सूचना अधिकारियों की मंशा तो शुरू से ही कानून विरोधी रही है। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि आम नागरिक उनसे सवाल पूछे। कानून के माध्यम सवाल पूछने पर झूठे मुकदमों में जेल भेजने की खबरें भी आम हो चली हैं। चाहे वह लखनउफ के सलीम बेग का किस्सा हो, जिन्हें पुलिस से सूचना मांगने पर 17 दिनों तक जेल में रहने पड़ा या बिहार के शिव प्रकाश राय का, जिन्हें डीएम से सवाल पूछने पर झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। झारखंड के पलामू जिले के सामाजिक कार्यकर्ता ललित मेहता को कौन भूल सकता है, उनका तो बेहरमी से कत्ल ही कर दिया गया था। ललित मेहता ने आरटीआई के जरिए सोशल ऑडिट करने का प्रयास किया, जिसमें व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार और धांधली हुई थी।
सूचना आयोगों का नाकामियों, सरकार की बेरूखी और अधिकारियों की कानून में दिलचस्पी ने होने के बाद भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि इसकी सफलताएं शून्य हैं। अनेक लोगों की जमीनी स्तर से जुड़ी समस्याएं सूचना कानून के बदौलत दूर हुई हैं। चाहे वह पुरी के बहराना और कुनंगा गांव में कानून के संगठित इस्तेमाल से पीने की पानी की व्यवस्था हो या बांदा जिले में नरेगा के तहत हो हरे काम लगे मजदूरों का भुगतान। दिल्ली के मोहित कुमार द्वारा अपने क्षेत्र की सड़क को दुरूस्त करवाना हो या उडीसा की कबनाकलता त्रिपाठी का 13 साल से लटका पेंशन मिलना। देश भर में सूचना के अधिकार के हजारों ऐसे सफल उदाहरण देखे जा सकते हैं। कानून ने भ्रष्टाचार और गैर जवाबदेहता पर थोड़ा बहुत अंकुश तो जरूर लगाया है, लेकिन यह ऊँट के मुंह में जीरे के समान ही है। इस दिशा में अभी बहुत आगे जाने की जरूरत है। पर, आगे जाने के रास्ते क्या होंगे यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि जिनसे उम्मीदें थीं वही कानून को लोगों से दूर करने पर अमादा हैं।
कानून बनाकर उन्हें भूल जाना, सरकारी फितरत रही है। और कानून तो आखिर कानून है, उसकी नियति अंतत: सरकार की नीयत पर ही निर्भर रहती है। लेकिन सूचना का अधिकार एक ऐसा कानून है जो जन की मांग पर आया, और जन के चलते ही सरकारें चाहकर भी अपनी फितरत में कामयाब नहीं हो पा रही है। इसका श्रेय मीडिया, ग़ैर सरकारी संस्थाओं, अभियानों, आंदोलनों के साथ साथ उन लाखों लोगों को जाता है जिन्होंने पिछले तीन साल में इस कानून का इस्तेमाल किया है। तीन साल पहले अक्टूबर में जब यह कानून लागू हुआ था तो शायद सरकार में बैठे लोगों को आभास नहीं रहा होगा कि वे चाहकर भी इस कानून को फाइलों में दबाकर नहीं रख पाएंगे।
12 अक्टूबर 2005 को लागू होने के बाद से ही इस कानून को लेकर जनता और सरकार में तू डाल-डाल हम पात-पात का खेल चल रहा है। कानून लागू होने के बाद जब जनता ने इसे इस्तेमाल करना शुरू किया तो भ्रष्ट सत्ताधीशों और नौकरशाहों के होश उड़ने लगे। इसीलिए कुछ लोगों ने मिलकर योजना बनाई कि इस कानून के पंख पालने में ही काट दिए जाएं। इसीलिए महज़ नौ महीने में ही इस कानून की धारदार धराओं को कुंद बनाने के लिए एक बिल लाने की कोशिश की गई लेकिन जनांदोलनों और मीडिया के दवाब में सरकार के लिए यह संशोधन लाना मुश्किल हो गया।
इसी बीच यह रास्ता भी निकल कर आ गया था कि सूचना के अधिकार की जान सूचना आयोग नाम के तोते में है। किसी तरह उसकी गर्दन हाथ में रखी जाए। अत: सूचना आयुक्तों की कुर्सी राजनीतिक घरानों के प्रमाणित वफादारों को ही दी जाए। महज़ मर्यादा के लिए एकाध अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे लोगों को ही सूचना आयुक्त बनाया गया जिनकी सुबह सत्तासीन चेहरों की आरती के साथ शुरू होती थी। ये लोग पूरे वफादार निकले हैं। यही वजह है कि एक सशक्त कानून होते हुए भी तीन साल में सूचना के अधिकार की बदौलत एक भी ऐसा खुलासा संभव नहीं हुआ है जिससे कोई राजनीतिक हलचल मची हो। सूचना आयुक्तों ने अपने आकाओं के प्रति वफादारी निभाने के लिए हर उस मुद्दे की हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसमें ज़रा सी भी संभावना थी। कभी सूचना दिलाने से साफ़ मना करके तो कभी मामले को इतना लंबा खींचकर कि उठाने वाले का हौसला ही पस्त हो जाए। सूचना न देने वाले अधिकारियों को तो खुली छूट उसी दिन मिल गई थी जब देश के प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त वज़ाहत हबीबुल्ला ने एक अखबार के इंटरव्यू में कहा था कि वे अहिंसा वादी हैं और सूचना के अधिकार कानून के तहत दोषी अधिकारियों को दंडित करना उनकी नज़र में हिंसा थी।
इस सबके बाद भी सूचना का अधिकार कानून एक उम्मीद जगाता है तो महज़ इसलिए कि देश की जनता इससे जुड़ी है, समाज ने इसमें संभावनाएं देखी हैं। वह चाहे दिल्ली में नन्नू का राशनकार्ड मिलने की घटना हो या बिहार में रिक्शा चालक का बीडीओ को यह कहना कि, सूचना के अधिकार की अर्जी लगा दूंगा। बुंदेलखंड में 27 अनपढ़ महिलाओं द्वारा बच्चों की स्कूल ड्रेस और किताबों के नाम पर आए सवा दो करोड़ रुपए की चोरी रोकने की घटना हो या दिल्ली में टूटी सड़कों की मरम्मत कराने में मिली सपफलता। इस कानून ने खुद पर भरोसा रखने वाले लोगों के मन में एक उम्मीद जगाई है। भ्रष्टाचार के आगे बेबस जो लोग यह मानने लगे थे कि कहीं कुछ नहीं हो सकता उन्होंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर नई-नई मिसालें पेश की हैं।
हाल ही में प्रिया संस्था द्वारा देश के 10 राज्यों में सूचना प्राप्त करने में आ रही दिक्कतों को लेकर जो सर्वे किया गया, उसमें स्पष्ट है कि सूचना आयोगों ने ही कानून को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। आयुक्तों के नकारात्मक रवैये के कारण आम जनता को इस कानून से भरोसा उठने लगा है। उनके रवैये से लोक सूचना अधिकारिओं में सूचना न देने की प्रवृत्ति भी तेजी से बढ़ती जा रही है। अनेक राज्यों में जनता को कानून की पहुंच से दूर करने के लिए आवेदन शुल्क और सूचना लेने के लिए दिया जाने वाला शुल्क भी काफ़ी अधिक रखा गया है। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में फोटो कॉपी शुल्क 10 रूपये प्रतिपृष्ठ रखा गया तो उत्तर प्रदेश और दिल्ली हाई कोर्ट में कानून के तहत दिए जाने वाले आवेदन का शुल्क 500 रूपये है। नागरिकों को कानून के दूर करने के लिए आयोगों द्वारा ऐसी नियमावालियां बनाई जा रहीं हैं, जो न केवल कठिन हैं बल्कि आम जनता के समझ से भी परे हैं।
सूचना के अधिकार के सफल क्रियान्वयन की जिम्मेदारी है जिन आयोगों पर है वही पारदर्शी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु, उडीसा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सेल्फ डिस्क्लोजर ही पूरे एवं ठीक नहीं हैं। अधिकांश आयोगों ने तीन सालों में अपनी वार्षिक रिपोर्ट तक प्रकाशित नहीं की है।
कुछ राज्य सूचना आयोगों को छोड़ दिया जाए तो अिध्कांश ने अपने पास आने वाली अपीलों और शिकायतों को शुरूआती वर्षों में काफ़ी धीमी गति से निपटाया है। मध्य प्रदेश सूचना आयोग ने अपीलों को जहां अपीलों को 20 प्रतिशत की दर से निपटाया है, वहीं झारखंड ने 66, गुजरात ने 40, बिहार में 50, राजस्थान में 82, केरल में 68, उडीसा में 47 प्रतिशत की दर से अपीलें निपटाई गईं हैं। इतनी धीमी कार्यप्रणाली के कारण आयोग पर लंबित मामलों को बोझ बढ़ता जा रहा है। यदि कोई आवेदक सूचना आयोग में अपील करता है तो उसकी सुनवाई होने में करीब साल भर का वक्त लग रहा है। महाराष्ट्र, केन्द्र और कुछ राज्यों में यह अविध् डेढ़ से दो साल के बीच पहुंच गई है। ऐसे में लोगों को आयोगों से भरोसा उठना लाजिमी है। इसे सूचना आयोगों की कमजोरी ही कहा कि उनके आदेशों की अवज्ञा होने लगी है। विभिन्न राज्यों में आयोग के ऐसे पफैसलों की कमी नहीं हैं जिसमें आवेदक की बात को ठीक से नहीं सुना गया।
कानून के तहत सूचना न देना, गलत सूचना देना या भ्रामक सूचना देने वाले जन सूचना अधिकारी पर आर्थिक दंड का प्रावधन है, लेकिन शुरूआती तीन सालों में गिने-चुने मामलों में ही जुर्माना लगाने के आदेश दिए गए हैं। जुर्माना न लगने से अधिकारिओं में इस कानून का भय खत्म होता जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल का इस विषय में कहना है कि सूचना का अधिकार कानून, 2005 की सबसे बडी विशेषता है सूचना नहीं दिये जाने या देरी से सूचना देने पर प्रतिदिन के हिसाब से लगने वाला जुर्माना। यही वो प्रावधन है जो इस कानून को कारगर बनाता है, परंतु देखा यह जा रहा है कि सूचना आयुक्त जुर्माना लगाने से बच रहे हैं।
लोक सूचना अधिकारियों की मंशा तो शुरू से ही कानून विरोधी रही है। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि आम नागरिक उनसे सवाल पूछे। कानून के माध्यम सवाल पूछने पर झूठे मुकदमों में जेल भेजने की खबरें भी आम हो चली हैं। चाहे वह लखनउफ के सलीम बेग का किस्सा हो, जिन्हें पुलिस से सूचना मांगने पर 17 दिनों तक जेल में रहने पड़ा या बिहार के शिव प्रकाश राय का, जिन्हें डीएम से सवाल पूछने पर झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। झारखंड के पलामू जिले के सामाजिक कार्यकर्ता ललित मेहता को कौन भूल सकता है, उनका तो बेहरमी से कत्ल ही कर दिया गया था। ललित मेहता ने आरटीआई के जरिए सोशल ऑडिट करने का प्रयास किया, जिसमें व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार और धांधली हुई थी।
सूचना आयोगों का नाकामियों, सरकार की बेरूखी और अधिकारियों की कानून में दिलचस्पी ने होने के बाद भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि इसकी सफलताएं शून्य हैं। अनेक लोगों की जमीनी स्तर से जुड़ी समस्याएं सूचना कानून के बदौलत दूर हुई हैं। चाहे वह पुरी के बहराना और कुनंगा गांव में कानून के संगठित इस्तेमाल से पीने की पानी की व्यवस्था हो या बांदा जिले में नरेगा के तहत हो हरे काम लगे मजदूरों का भुगतान। दिल्ली के मोहित कुमार द्वारा अपने क्षेत्र की सड़क को दुरूस्त करवाना हो या उडीसा की कबनाकलता त्रिपाठी का 13 साल से लटका पेंशन मिलना। देश भर में सूचना के अधिकार के हजारों ऐसे सफल उदाहरण देखे जा सकते हैं। कानून ने भ्रष्टाचार और गैर जवाबदेहता पर थोड़ा बहुत अंकुश तो जरूर लगाया है, लेकिन यह ऊँट के मुंह में जीरे के समान ही है। इस दिशा में अभी बहुत आगे जाने की जरूरत है। पर, आगे जाने के रास्ते क्या होंगे यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि जिनसे उम्मीदें थीं वही कानून को लोगों से दूर करने पर अमादा हैं।
जनहित मामलों को सुनवाई का इंतजार
सूचना के अधिकार के सफल क्रियान्वयन के लिए सूचना आयोगों का गठन किया गया था ताकि लोगों का सूचना पाने का मौलिक अधिकार कोई न छीन सके। कानून के तीन साल बाद अब लोगों का सूचना आयोगों से भरोसा उठता जा रहा है क्योंकि उन्हें आयोग में अपनी अपीलों और शिकायतों की सुनवाई के लिए सालों इंतजार करना पड़ रहा है। देश भर के सूचना आयोगों का कमोवेश यही हाल है लेकिन उड़ीसा में स्थिति कापफी चिंताजनक है। जहां सामान्य अपीलें और शिकायतें तो दूर जनहित के मामलों की सुनवाई भी आयोग में नहीं हो रही है। ऐसे मामले पिछले एक साल से भी अधिक समय से आयोग में लंबित पड़े हैं। इतने समय से लंबित होने से आप उड़ीसा राज्य सूचना आयोग की लचर कार्यप्रणाली का पता चलता है। हम नीचे कुछ ऐसे ही मामलों का जिक्र कर रहे हैं-
१- मटियापाड़ा गांव के मानव बहरा ने आयोग में शिकायत की थी। 18 जून 2007 से उनका जनहित का मामला प्रथम सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।
२- ताराकोरा के प्रफुल्ल सेनापति 11 अगस्त 2007 से प्रथम सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं।
३- सिमली गांव के राजकिशोर बहरा की आयोग में शिकायत करने के बाद 18 अगस्त 2007 से सुनवाई नहीं हुई है।
४- अनसारा गांव के नभाघन मुदुली 6 जुलाई 2006 से अंतिम फैसले की प्रतीक्षा में हैं।
उपरोक्त उदाहरणों की भांति राज्य में ऐसे अनेक जनहित से सम्बंधित मामले हैं जो काफ़ी लंबे समय से लटके पड़े हैं। जनहित के मामलों की सुनवाई शीघ्र करने का प्रावधन है, लेकिन इन उदाहरणों से वस्तुस्थिति का आकलन आसानी से किया जा सकता है। राज्य में जब जनहित के मामलों का यह हाल है तो साधारण अपीलों या शिकायतों का क्या होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है।
१- मटियापाड़ा गांव के मानव बहरा ने आयोग में शिकायत की थी। 18 जून 2007 से उनका जनहित का मामला प्रथम सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं।
२- ताराकोरा के प्रफुल्ल सेनापति 11 अगस्त 2007 से प्रथम सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं।
३- सिमली गांव के राजकिशोर बहरा की आयोग में शिकायत करने के बाद 18 अगस्त 2007 से सुनवाई नहीं हुई है।
४- अनसारा गांव के नभाघन मुदुली 6 जुलाई 2006 से अंतिम फैसले की प्रतीक्षा में हैं।
उपरोक्त उदाहरणों की भांति राज्य में ऐसे अनेक जनहित से सम्बंधित मामले हैं जो काफ़ी लंबे समय से लटके पड़े हैं। जनहित के मामलों की सुनवाई शीघ्र करने का प्रावधन है, लेकिन इन उदाहरणों से वस्तुस्थिति का आकलन आसानी से किया जा सकता है। राज्य में जब जनहित के मामलों का यह हाल है तो साधारण अपीलों या शिकायतों का क्या होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है।
सूचना आयुक्त ने भी नहीं दिलवाई सूचना
जब सूचना दिलवाने के जिम्मेदार आयुक्त ही सूचना दिलाने में असमर्थ हों तो बेचारे आवेदक कहां जाएं? ऐसे ही एक आवेदक हैं दिल्ली के गोपालदास, जिन्हें केन्द्रीय सूचना आयुक्त ओ पी केजरीवाल ने सूचना दिलवाने के स्थान पर उच्च अधिकारियों से बात करने की सलाह देकर अपनी जिम्मेदारियों से कन्नी काट ली है। दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र में लाइटिंग असिसटैंट के पद पर कार्यरत गोपालदास ने योग्यताओं के बावजूद तरक्की न मिलने पर आरटीआई के तहत इसका कारण जानना चाहा था। लेकिन न तो उन्हें अधिकारियों से इसका संतोषजनक जवाब मिला और न ही सूचना आयुक्त के दरबार से।
दरअसल गोपालदास का 1998 में प्रमोशन होना था और वह इस योग्य भी थे, लेकिन दूरदर्शन दिल्ली केन्द्र ने उन्हें प्रमोशन नहीं दिया। 1999 में दूरदर्शन मुख्यालय, मंडी हाउस ने एक आदेश भी जारी किया जिसमें कहा गया कि जो लाइटिंग असिसटैंट योग्य एवं प्रशिक्षण प्राप्त हैं उन्हें तरक्की दी जाए। मुख्यालय के आदेश के बाद भी गोपालदास को तरक्की नहीं मिली जबकि उनके अनेक जूनियरों को तरक्की दे दी गई। 2006 में उन्होंने पहले दूरदर्शन मुख्यालय और पिफर दिल्ली केन्द्र से आरटीआई के जरिए कुल पांच प्रश्न पूछे। चार प्रश्नों के जवाब तो मिल गए लेकिन उस प्रश्न का संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया जिसमें पूछा गया था कि क्यों दूरदर्शन मुख्यालय के आदेश के बाद भी उनको तरक्की नहीं दी गई।
अपीलीय अधिकारी से भी संतोषजनक जवाब न मिलने पर मामला केन्द्रीय सूचना आयोग में ओ पी केजरीवाल के यहां पहुंचा। आयुक्त ने इस बाबत जब दूरदर्शन दिल्ली केन्द्र के निदेशक और मुख्यालय के डायरेक्टर जनरल से स्पष्टीकरण मांगा तो उन्होंने कहा कि हमारे पास जो सूचना उपलब्ध थी, दे दी। तब सूचना आयुक्त ने प्रमोशन से जुडे़ दस्तावेजों के निरीक्षण की अनुमति आवेदक को दी। लेकिन जब आवेदक निरीक्षण करने गए तो वहां से मुख्य दस्तावेज गायब थे। उनके सामने दो फाइलें रख दी गईं और कहा गया कि जो चाहिए ले लो। जानकारी न मिलने पर जब ओ पी केजरीवाल के यहां शिकायत की गई तो उन्होंने जवाब दिया कि आप उच्च अधिकारियों से इस सिलसिले में बात करें, हम कुछ नहीं कर सकते। गोपालदास ने सूचना आयुक्त पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए कहा कि प्रारंभ में दूरदर्शन से जुड़े रहने के कारण उनकी सहानुभूति दूरदर्शन के अधिकारियों से अधिक थी। इसी कारण अधिकारियों के साथ नरमी बरती गई।
दरअसल गोपालदास का 1998 में प्रमोशन होना था और वह इस योग्य भी थे, लेकिन दूरदर्शन दिल्ली केन्द्र ने उन्हें प्रमोशन नहीं दिया। 1999 में दूरदर्शन मुख्यालय, मंडी हाउस ने एक आदेश भी जारी किया जिसमें कहा गया कि जो लाइटिंग असिसटैंट योग्य एवं प्रशिक्षण प्राप्त हैं उन्हें तरक्की दी जाए। मुख्यालय के आदेश के बाद भी गोपालदास को तरक्की नहीं मिली जबकि उनके अनेक जूनियरों को तरक्की दे दी गई। 2006 में उन्होंने पहले दूरदर्शन मुख्यालय और पिफर दिल्ली केन्द्र से आरटीआई के जरिए कुल पांच प्रश्न पूछे। चार प्रश्नों के जवाब तो मिल गए लेकिन उस प्रश्न का संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया जिसमें पूछा गया था कि क्यों दूरदर्शन मुख्यालय के आदेश के बाद भी उनको तरक्की नहीं दी गई।
अपीलीय अधिकारी से भी संतोषजनक जवाब न मिलने पर मामला केन्द्रीय सूचना आयोग में ओ पी केजरीवाल के यहां पहुंचा। आयुक्त ने इस बाबत जब दूरदर्शन दिल्ली केन्द्र के निदेशक और मुख्यालय के डायरेक्टर जनरल से स्पष्टीकरण मांगा तो उन्होंने कहा कि हमारे पास जो सूचना उपलब्ध थी, दे दी। तब सूचना आयुक्त ने प्रमोशन से जुडे़ दस्तावेजों के निरीक्षण की अनुमति आवेदक को दी। लेकिन जब आवेदक निरीक्षण करने गए तो वहां से मुख्य दस्तावेज गायब थे। उनके सामने दो फाइलें रख दी गईं और कहा गया कि जो चाहिए ले लो। जानकारी न मिलने पर जब ओ पी केजरीवाल के यहां शिकायत की गई तो उन्होंने जवाब दिया कि आप उच्च अधिकारियों से इस सिलसिले में बात करें, हम कुछ नहीं कर सकते। गोपालदास ने सूचना आयुक्त पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए कहा कि प्रारंभ में दूरदर्शन से जुड़े रहने के कारण उनकी सहानुभूति दूरदर्शन के अधिकारियों से अधिक थी। इसी कारण अधिकारियों के साथ नरमी बरती गई।
गैर अनुदान प्राप्त कॉलेजों को देनी होगी सूचना
गैर अनुदान प्राप्त प्राईवेट मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज अब सूचना के अधिकार से नहीं बच पाएंगे। महाराष्ट्र में नागपुर और अमरावती क्षेत्र के सूचना आयुक्त विलास पाटिल ने अपने एक अहम पफैसले में सभी प्राईवेट मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों को सूचना कानून के तहज सूचना देने को अनिवार्य बताया है। यह आदेश यशवंतराव चवन इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसिपल एवं अपीलीय अधिकारी और जन सूचना अधिकारी के ख़िलाफ़ राजकुमार भोयर द्वारा की गई शिकायत की सुनवाई के बाद दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दो फैसलों को आधार बनाते हुए पाटिल ने कहा- सभी प्राईवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकि शिक्षा परिषद और मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा संचालित होते हैं। इस कारण वे सूचना देने को बाध्य हैं। अब तक यह प्राईवेट कॉलेज सूचना ने देने के पीछे तर्क देते थे कि उन्हें न तो सरकार द्वारा संचालित किया जाता है और न ही उन्हें सरकारी अनुदान प्राप्त होता है, इसलिए वे सूचना कानून के दायरे से बाहर हैं। लेकिन सूचना आयुक्त के इस फैसले ने उनकी मंशा पर पानी फेर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दो फैसलों को आधार बनाते हुए पाटिल ने कहा- सभी प्राईवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकि शिक्षा परिषद और मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा संचालित होते हैं। इस कारण वे सूचना देने को बाध्य हैं। अब तक यह प्राईवेट कॉलेज सूचना ने देने के पीछे तर्क देते थे कि उन्हें न तो सरकार द्वारा संचालित किया जाता है और न ही उन्हें सरकारी अनुदान प्राप्त होता है, इसलिए वे सूचना कानून के दायरे से बाहर हैं। लेकिन सूचना आयुक्त के इस फैसले ने उनकी मंशा पर पानी फेर दिया है।
सुधर जाइए रजिस्ट्रार साहब!
जुर्माने पर जुर्माना लगने के बाद भी गुजरात विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार एवं लोक सूचना अधिकारी सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। आरटीआई आवेदनों की अनदेखी करने पर सितंबर माह में उन पर तीन जुर्माने लगे हैं। 10,25,25 हजार के तीनों जुर्मानों की राशि उनके वेतन से वसूली जाएगी। हाल ही में रजिस्ट्रार पर संस्कार ऐजुकेशन ट्रस्ट के प्रदीप जेसवाल के आवदेन का जवाब न देने पर 25 हजार का जुर्माना लगा है। जेसवाल ने ट्रस्ट द्वारा संचालित विभिन्न कॉलेजों का गुजरात विश्वविद्यालय में जमा किए गए धन का ब्यौरा मांगा था। आयोग के समक्ष जेसवाल ने बताया कि आवेदन दाखिल करने के बाद वे दो बार रजिस्ट्रार से मिले और उन्हें सूचना देने को कहा लेकिन अब तक सूचना नहीं दी गई। रजिस्ट्रार ने अपना बचाव करते हुए दलील दी कि अधिक कार्यभार और परीक्षा प्रारंभ होने के कारण वे सूचना नहीं दे पाए। उन्होंने यह भी कहा कि विश्वविद्यालय में अनेक कॉलेज धन जमा करते हैं। इस कारण रिकॉर्ड ढूंढ़ने में काफ़ी वक्त लगता है। आयोग ने इन दलीलों को सिरे से खारिज करते हुए उन्हें 25 हजार रूपये जुर्माने के रूप में दो किश्तों में भरने के आदेश दिए। साथ ही चेतावनी दी कि यदि वह ऐसे ही कानून की अवहेलना करते रहे तो सर्विस रूल्स के तहत उनके खिलापफ अनुशासात्मक जांच के आदेश दिए जा सकते हैं।
इससे पहले आयोग ने रजिस्ट्रार पर 25 हजार जुर्माना पंकज श्रीमाली की अपील की सुनवाई के बाद लगाया था। श्रीमाली ने अपने आवेदन में विश्वविद्यालय की दाखिला प्रक्रिया, चयन समिति की कार्यप्रणाली, विशेष मामलों में दिए गए दाखिलों से जुडे़ 21 प्रश्न आवेदन में किए गए थे। लोक सूचना अधिकारी से जवाब न मिलने पर आयोग में इसकी शिकायत की गई। रजिस्ट्रार ने यहां तर्क दिया कि पूछे गए 21 प्रश्नों की विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों से जानकारी लेने में कापफी समय लगता है। साथ ही कहा कि प्रशासनिक कार्यभार और बहुत सी जायज परेशानियों के कारण भी समय पर सूचनाएं नहीं दी जा सकीं। रजिस्ट्रार की यह दलील आवेदन दाखिल करने के 16 महीने बाद दी गई थी। यहां भी आयोग ने उनकी दलीलों को कमजोर पाया और उन्हें 25 हजार रूपये भरने के आदेश दिए थे। इसी माह एक अन्य मामले में भी गुजरात विश्वविद्यालय के ही आर्ट्स फेकेल्टी के डीन प्रदीप प्रजापति की अपील की सुनवाई के बाद रजिस्ट्रार पर 10 हजार का जुर्माना लग चुका है।
इससे पहले आयोग ने रजिस्ट्रार पर 25 हजार जुर्माना पंकज श्रीमाली की अपील की सुनवाई के बाद लगाया था। श्रीमाली ने अपने आवेदन में विश्वविद्यालय की दाखिला प्रक्रिया, चयन समिति की कार्यप्रणाली, विशेष मामलों में दिए गए दाखिलों से जुडे़ 21 प्रश्न आवेदन में किए गए थे। लोक सूचना अधिकारी से जवाब न मिलने पर आयोग में इसकी शिकायत की गई। रजिस्ट्रार ने यहां तर्क दिया कि पूछे गए 21 प्रश्नों की विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों से जानकारी लेने में कापफी समय लगता है। साथ ही कहा कि प्रशासनिक कार्यभार और बहुत सी जायज परेशानियों के कारण भी समय पर सूचनाएं नहीं दी जा सकीं। रजिस्ट्रार की यह दलील आवेदन दाखिल करने के 16 महीने बाद दी गई थी। यहां भी आयोग ने उनकी दलीलों को कमजोर पाया और उन्हें 25 हजार रूपये भरने के आदेश दिए थे। इसी माह एक अन्य मामले में भी गुजरात विश्वविद्यालय के ही आर्ट्स फेकेल्टी के डीन प्रदीप प्रजापति की अपील की सुनवाई के बाद रजिस्ट्रार पर 10 हजार का जुर्माना लग चुका है।
नेत्रहीन ग्रामीण ने खोली पंचायत की पोल
राजकोट जिले के रंगपुर गांव के 26 साल के रत्ना आल नेत्रहीन जरूर हैं लेकिन उन्हें वह सब गड़बिड़यां दिखाई देतीं हैं जो गांव के अन्य लोगों को नहीं दिखतीं। दसवीं कक्षा तक पढ़ाई करने वाले रत्ना आल सूचना के अधिकार के माध्यम से ग्राम पंचायत द्वारा विकास कार्यों में की गई गड़बिड़यों की पिछले दो सालों से पोल खोल रहे हैं। जो पंचायत रोड़ के मरम्मत, वृक्षारोपड़ आदि विकास कार्यों के दावे करती थी, उसे रत्ना आल ने सूचना कानून के जरिए झूठा साबित किया है। उनके द्वारा सूचना कानून के तहत निकलवाए गए दस्तावेज इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। ग्राम पंचायत ने दावा किया था कि उसने 27187 रूपये वृक्षारोपड़, 18503 रूपये सड़क मरम्मत पर व्यय किए गए हैं, जिन्हें वास्तव में कभी खर्च ही नहीं किया गया।
रत्ना ने जब सबसे पहले सूचना कानून के तहत पंचायत से सवाल पूछे तो पंचायत ने उसे बेइज्जत करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। बाद में दस्तावेजों को लेकर वे कई अधिकारियों से भी मिले लेकिन किसी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। रत्ना को इस बात को लेकर बड़ा दुख रहता है कि विकास के नाम पर गांवों में आने वाला धन यहां नहीं पहुंच पाता और ग्रामीणों को जन सुविधाओं के अभाव में जीवन गुजारना पड़ता है। गांव की महिलाएं गर्मियों में जब पानी लाने के लिए दो किलोमीटर पैदल चलकर जाती हैं, तो रत्ना को बड़ी तकलीफ होती है। सूचना कानून को अपने हक की लड़ाई का औजार मानने वाले रत्ना कहते हैं कि मैं अँधा जरूर हूं लेकिन मेरी दृष्टि साफ़ है।
रत्ना ने जब सबसे पहले सूचना कानून के तहत पंचायत से सवाल पूछे तो पंचायत ने उसे बेइज्जत करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। बाद में दस्तावेजों को लेकर वे कई अधिकारियों से भी मिले लेकिन किसी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। रत्ना को इस बात को लेकर बड़ा दुख रहता है कि विकास के नाम पर गांवों में आने वाला धन यहां नहीं पहुंच पाता और ग्रामीणों को जन सुविधाओं के अभाव में जीवन गुजारना पड़ता है। गांव की महिलाएं गर्मियों में जब पानी लाने के लिए दो किलोमीटर पैदल चलकर जाती हैं, तो रत्ना को बड़ी तकलीफ होती है। सूचना कानून को अपने हक की लड़ाई का औजार मानने वाले रत्ना कहते हैं कि मैं अँधा जरूर हूं लेकिन मेरी दृष्टि साफ़ है।
नेताओं के रिश्तेदारों में बंटा किसानों का राहत पैकेज
विदर्भ क्षेत्र के किसान जहां एक तरफ़ गरीबी और भुखमरी के चलते आत्महत्या करने को विवश हैं, वहीं दूसरी तरफ़ उनके नाम पर आने वाला राहत पैकेज नेताओं और अधिकारियों के रिश्तेदारों में बांटा गया है। मामला विदर्भ क्षेत्र के यवतमाल जिले का है जहां प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की ओर से गरीबी रेखा से नीचे और आत्महत्या करने वाले किसानों के परिजनों को मिलने वाले पैकेज की सांसदों और विधायकों के बीच जमकर बंदरबाट हुई है। यह खुलासा जिले के सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार विलास वानखेडे़ द्वारा दायर आरटीआई आवेदन के जवाब से हुआ है।
वानखेडे़ ने जिले के एनीमल हसबेंडरी डिपार्टमेंट से राहत पैकेज के लाभार्थियों का विवरण मांगा था। किसानों को मिलने वाले इस विशेष पैकेज में गाय या भैंस की खरीद पर 50 प्रतिशत छूट का प्रावधान था। विभाग से जानकारी मिली कि भूतपूर्व कांग्रेस सांसद उत्तमराव पाटिल और उनके परिवार के सदस्यों ने इस पैकेज के तहत 10 गाय हासिल कीं। क्षेत्र के विधायक डिगरास संजय देशमुख की पत्नी और मां को एक-एक गाय मिली। नागपुर जिले के पूर्व गार्जियन मंत्री शिवाजी राव मोघे के सम्बन्धियों को आठ गाय हासिल हुईं। इसी तर्ज पर वाणी के पूर्व विधायक वामाराव कसावर के 4 सम्बन्धियों को 8 गाय मिलीं, जबकि कांग्रेस नेता सुरेश लोंकर के रिश्तेदारों ने 6 गाय हासिल कीं। सबसे हैरानी की बात है जिस ठेकेदार अमोल क्षीरसागर ने गायों की आपूर्ति की, वह खुद लाभार्थियों में शामिल है। ये पशु तात्कालीन जिला कलेक्टर हर्षदीप कांबले के कार्यकाल में आबंटित किए गए थे। सभी लाभार्थियों का चयन चार सदस्यीय चयन समिति ने किया था और हर्षदीप कांबले समिति के प्रमुख थे।
हालांकि मामले को तूल पकड़ता देख मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने मामले की उच्चस्तरीय जांच के आदेश दे दिए हैं। लेकिन इस घोटाले से सरकार की जमकर आलोचना हो रही है क्योंकि लाभ पाने वाले सभी नेता कांग्रेस, एनसीपी और उनकी सहयोगी पार्टियों के हैं।
वानखेडे़ ने जिले के एनीमल हसबेंडरी डिपार्टमेंट से राहत पैकेज के लाभार्थियों का विवरण मांगा था। किसानों को मिलने वाले इस विशेष पैकेज में गाय या भैंस की खरीद पर 50 प्रतिशत छूट का प्रावधान था। विभाग से जानकारी मिली कि भूतपूर्व कांग्रेस सांसद उत्तमराव पाटिल और उनके परिवार के सदस्यों ने इस पैकेज के तहत 10 गाय हासिल कीं। क्षेत्र के विधायक डिगरास संजय देशमुख की पत्नी और मां को एक-एक गाय मिली। नागपुर जिले के पूर्व गार्जियन मंत्री शिवाजी राव मोघे के सम्बन्धियों को आठ गाय हासिल हुईं। इसी तर्ज पर वाणी के पूर्व विधायक वामाराव कसावर के 4 सम्बन्धियों को 8 गाय मिलीं, जबकि कांग्रेस नेता सुरेश लोंकर के रिश्तेदारों ने 6 गाय हासिल कीं। सबसे हैरानी की बात है जिस ठेकेदार अमोल क्षीरसागर ने गायों की आपूर्ति की, वह खुद लाभार्थियों में शामिल है। ये पशु तात्कालीन जिला कलेक्टर हर्षदीप कांबले के कार्यकाल में आबंटित किए गए थे। सभी लाभार्थियों का चयन चार सदस्यीय चयन समिति ने किया था और हर्षदीप कांबले समिति के प्रमुख थे।
हालांकि मामले को तूल पकड़ता देख मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने मामले की उच्चस्तरीय जांच के आदेश दे दिए हैं। लेकिन इस घोटाले से सरकार की जमकर आलोचना हो रही है क्योंकि लाभ पाने वाले सभी नेता कांग्रेस, एनसीपी और उनकी सहयोगी पार्टियों के हैं।
दिल्ली में तीन साल में लापता हुए 8942 बच्चे
देश की राजधानी दिल्ली में सितंबर 2004 से अगस्त 2007 तक 8942 बच्चे लापता हुए हैं और इनमें से 2086 बच्चों को अब तक नहीं खोजा जा सका है। लापता हुए बच्चों का यह आंकड़ा दिल्ली के 10 में से सिर्फ़ 7 जिलों का है। यह जानकारी पुलिस आयुक्त कार्यालय (अपराध एवं रेलवे) ने आरटीआई आवेदन के जवाब में इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस संस्था (आई एस एस) को उपलब्ध कराई है। संस्था ने सूचना के अधिकार के जरिए दिल्ली में गायब हुए बच्चों का ब्यौरा मांगा था।
प्राप्त जानकारी के अनुसार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुल 104 बच्चे गुम हुए हैं। इनमें से 91 बच्चों के केस पुलिस रोजनामचे में दर्ज हैं जबकि 13 मामलों में प्रथम सूचना दर्ज की गई है। इनमें से 61 बच्चों को खोजा जा चुका है और मात्रा 4 अपराधी गिरफ्तार हुए हैं।
पुलिस से प्राप्त जानकारी के अनुसार बाहरी जिले से सर्वाधिक 2924 बच्चे गायब हुए हैं। इनमें से 2227 बच्चे खोजे जा चुके हैं और 697 अब तक लापता हैं। पूर्वी जिले से इन तीन सालों में 2485 बच्चों के लापता होने की जानकारी पुलिस ने दी है। इनमें से 2113 केस रोजनामचे में दर्ज हैं। पूर्वी जिले से गायब हुए बच्चों में से 1753 बच्चे खोजे जा चुके हैं और इन मामलों में 105 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है। इसी तरह उत्तर पूर्वी जिले में कुल लापता बच्चों की संख्या 2094 और मध्य जिले में यह संख्या 858 है।
पुलिस द्वारा गायब बच्चों का दिया गया यह आंकड़ा जानकारों के गले नहीं उतर रहा है। उनका कहना है कि पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई यह जानकारी गायब हुए सभी बच्चों की सच्ची तस्वीर पेश नहीं करती। किरण बेदी के अनुसार बच्चों की गुमशुदगी की जितनी रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज होती है उससे अधिक रिपोर्ट चाइल्ड हेल्पलाइन के पास दर्ज हैं। यह अंतर इस सच्चाई पर प्रकाश डाल रहा है कि बच्चे अधिक गुम होते हैं परंतु रिपोर्ट कम दर्ज की जाती हैं। दूसरी तरफ़ पुलिस द्वारा खोजे गए बच्चों को जो प्रतिशत बताया गया है, वह भी प्रामाणिक नहीं लगता। क्योंकि आईएसएस संस्था ने अपने सर्वे में लापता बच्चों के जितने परिजनों से बात की, उनसे पता चला कि उनके बच्चे अब तक नहीं मिले हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एवं अन्य समाजसेवियों का भी कहना है कि दिल्ली में लापता हुए कुल बच्चों में मात्रा 35 प्रतिशत बच्चे ही खोजे जाते हैं। गुम हुए बच्चों में सर्वाधिक 12-19 साल की लड़कियां हैं तथा इनमें से 80 प्रतिशत बच्चे झुग्गी झोपडियों में रहने वाले परिवारों से हैं। संस्था की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 45000 बच्चे लापता होते हैं जिनमें से 11000 बच्चे कभी नहीं मिलते।
प्राप्त जानकारी के अनुसार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुल 104 बच्चे गुम हुए हैं। इनमें से 91 बच्चों के केस पुलिस रोजनामचे में दर्ज हैं जबकि 13 मामलों में प्रथम सूचना दर्ज की गई है। इनमें से 61 बच्चों को खोजा जा चुका है और मात्रा 4 अपराधी गिरफ्तार हुए हैं।
पुलिस से प्राप्त जानकारी के अनुसार बाहरी जिले से सर्वाधिक 2924 बच्चे गायब हुए हैं। इनमें से 2227 बच्चे खोजे जा चुके हैं और 697 अब तक लापता हैं। पूर्वी जिले से इन तीन सालों में 2485 बच्चों के लापता होने की जानकारी पुलिस ने दी है। इनमें से 2113 केस रोजनामचे में दर्ज हैं। पूर्वी जिले से गायब हुए बच्चों में से 1753 बच्चे खोजे जा चुके हैं और इन मामलों में 105 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है। इसी तरह उत्तर पूर्वी जिले में कुल लापता बच्चों की संख्या 2094 और मध्य जिले में यह संख्या 858 है।
पुलिस द्वारा गायब बच्चों का दिया गया यह आंकड़ा जानकारों के गले नहीं उतर रहा है। उनका कहना है कि पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई यह जानकारी गायब हुए सभी बच्चों की सच्ची तस्वीर पेश नहीं करती। किरण बेदी के अनुसार बच्चों की गुमशुदगी की जितनी रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज होती है उससे अधिक रिपोर्ट चाइल्ड हेल्पलाइन के पास दर्ज हैं। यह अंतर इस सच्चाई पर प्रकाश डाल रहा है कि बच्चे अधिक गुम होते हैं परंतु रिपोर्ट कम दर्ज की जाती हैं। दूसरी तरफ़ पुलिस द्वारा खोजे गए बच्चों को जो प्रतिशत बताया गया है, वह भी प्रामाणिक नहीं लगता। क्योंकि आईएसएस संस्था ने अपने सर्वे में लापता बच्चों के जितने परिजनों से बात की, उनसे पता चला कि उनके बच्चे अब तक नहीं मिले हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एवं अन्य समाजसेवियों का भी कहना है कि दिल्ली में लापता हुए कुल बच्चों में मात्रा 35 प्रतिशत बच्चे ही खोजे जाते हैं। गुम हुए बच्चों में सर्वाधिक 12-19 साल की लड़कियां हैं तथा इनमें से 80 प्रतिशत बच्चे झुग्गी झोपडियों में रहने वाले परिवारों से हैं। संस्था की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 45000 बच्चे लापता होते हैं जिनमें से 11000 बच्चे कभी नहीं मिलते।
शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008
सूचना देने के सम्बन्ध में हाईकोर्ट ने दिया मुख्यमन्त्री कार्यालय को आदेश
(डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर)
इलाहाबाद हाईकोर्ट, उत्तर प्रदेश की लखनऊ पीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से एक लाख रुपये से अधिक की धनराशि प्राप्त लाभार्थियों के बारे में जानकारी सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत दी जा सकती है। पीठ ने अपने फैसले में यह भी कहा कि मुख्यमन्त्री विवेकाधीन कोष वास्तव में जनता का कोष है। ऎसी स्थिति में जनता को यह जानने का हक़ है कि इस कोष से किसकी सहायता की जा रही है। जनहित में यह जानकारी देने में कोई बाधा नहीं है। न्यायमूर्ति श्री प्रदीपकांत और न्यायमूर्ति श्री श्रीनारायण शुक्ल की खंडपीठ ने यह फैसला जन सूचना अधिकारी की ओर से दायर याचिका को खारिज करते हुए सुनाया।
मुख्यमन्त्री विवेकाधीन कोष से लाभार्थियों की सूची देने के सम्बन्ध में यह फैसला उत्तर-प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मुख्य प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत मांगी गई सूचना से उत्पन्न मामले से सम्बंधित था। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मुख्य प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह ने दिनांक 12 जून 2007 को सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत मुख्यमंत्री कार्यालय से इस सम्बन्ध में सूचना मांगी कि दिनांक 28 अगस्त 2003 से 31 मार्च 2007 तक की अवधि में मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से एक लाख रुपये से अधिक की धनराशि पाने वाले व्यक्तियों की सूची उपलब्ध कराई जाए।
मुख्यमंत्री कार्यालय ने अखिलेश प्रताप सिंह के आवेदन-पात्र को दिनांक 19 जुलाई 2007 को अन्तिम रूप से निस्तारित करते हुए वांछित सूचना उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया। कार्यालय के जन सूचना अधिकारी ने सूचना का अधिकार अधिनियम की विविध धाराओं का जिक्र करते हुए इस आवेदन की सूचना को देने से इनकार किया था। मुख्यमंत्री कार्यालय से सूचना प्राप्ति की अस्वीकृति के पश्चात् अखिलेश ने सूचना प्राप्ति हेतु राज्य सूचना आयोग के समक्ष अपील की। मामले की सुनवाई करने के पश्चात् दिनांक 12 दिसम्बर 2007 को आयोग द्बारा मुख्यमंत्री कार्यालय को आदेश दिया गया कि आवेदनकर्ता को वांछित सूचना उपलब्ध करा दी जाए।
आयोग द्वारा आदेश पारित किए जाने के बाद अखिलेश सिंह के आवेदन पर पुनर्विचार करते हुए मुख्यमंत्री कार्यालय से दिनांक 12 जनवरी 2008 को एक पत्र अखिलेश को भेजा गया। इस पत्र के माध्यम से अखिलेश को 336 पृष्ठों की सूचना देने के लिए 15 रुपये प्रति पृष्ठ की दर से 5040 रुपये जमा करने को कहा गया। अखिलेश द्वारा इस पत्र के प्रत्युत्तर में दिनांक 18 जनवरी 2008 को आयोग में पुनः अपील की, जिसमें उन्हों ने अधिनियम की धारा 7 की उपधारा 6 का उल्लेख किया। इस धारा के अनुसार 30 दिन के भीतर ही सूचना उपलब्ध कराने की दशा में ही छाया-प्रति का शुल्क लिया जा सकता है। 30 दिन की समयावधि बीत जाने के पश्चात् सूचना (छाया-प्रति) निःशुल्क प्रदान की जाती है। इस धारा के आधार पर अखिलेश सिंह ने सूचना की छाया-प्रति निःशुल्क दिए जाने की अपील की। मामले की सुनवाई के पश्चात तुंरत ही मुख्यमंत्री कार्यालय को आदेशित किया गया कि वह सूचना उपलब्ध कराये। इस आदेश के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय के जन सूचना अधिकारी ने राज्य सूचना आयोग से इस आदेश पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया।
मामले की पुनः सुनवाई करते हुए सूचना आयोग ने दिनांक 15 फरवरी 2008 को अन्तिम रूप से मुख्यमंत्री कार्यालय को आदेश दिया कि मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से एक लाख रुपये से अधिक की धनराशि प्राप्त करने वाले लाभार्थियों की सूची अखिलेश सिंह को प्रदान की जाए।
आयोग द्वारा इस पूरे मामले में मुख्यमंत्री कार्यालय को तीन बार आदेश दिए गए. मुख्यमन्त्री कार्यालय के जन सूचना अधिकारी द्वारा आयोग द्वारा दिए गए इन तीनों आदेशों ( दिनांक 12 दिसम्बर 2007, दिनांक 12 जनवरी 2008 तथा दिनांक 15 फरवरी 2008 को दिए गए उक्त आदेशों) को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में एक याचिका दायर की गई। न्यायलय ने पूरे मामले की सुनवाई के पश्चात् यह याचिका खारिज करते हुए मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से एक लाख रुपये से अधिक की धनराशि प्राप्त करने वाले लाभार्थियों की जानकारी जनहित में देने का आदेश मुख्यमंत्री कार्यालय को दिया। अखिलेश प्रताप सिंह के अधिवक्ता सी0 बी0 पाण्डेय ने बताया कि न्यायलय ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि इसमें किसी तरह की 'मेरिट' नहीं है और यह सूची उपलब्ध कराने में किसी तरह की बाधा नहीं है। जनता के धन से बने मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से एक लाख रुपये से अधिक की धनराशि प्राप्त करने वाले लाभार्थियों की सूची जनहित में देने का आदेश न्यायलय द्वारा सरकार (मुख्यमंत्री कार्यालय) को दिया गया।