मनीष सिसोदिया
समझ नहीं आता कहां से शुरू करूं। भूख और भीख के बीच नमक चाटकर अपनी जमीन से जुडे़ रहने की जद्दोजहद में लोगों से,....भपटयाही गांव के स्कूल शिविर में रोती छटिहा गांव की गुलाबी देवी से ( जिसे अपनी पतोहू के लिए एक कड़छी खिचड़ी ज्यादा लेने के जुर्म में थप्पड़ जड़ दिया गया), ....हर अजनबी को फरिश्ता समझ,, भरे गले से सर ......का ....र बोलकर मदद की उम्मीद में रो उठती पचास वर्षीय रसूलन खातून से (जिसका पति उसे संभालते-संभालते पानी में बह गया), .... अपने बच्चे के वास्ते एक कप दूध की खातिर दुत्कार खा रहे वासुदेव सिंह से (जिसकी 15 हजार की दूध देती गाय पानी में बह गई), .... के मोतीलाल विद्यालय राहत शिविर में जन्मी उस बच्ची का नाम प्रलय रखा गया है।
... संयुक्त राष्ट्र, यूनीसेफ , ओक्सफेम , कासा, रामदेव, आसाराम, आनंदमार्गी, रविशंकर, आरएसएस आदि आदि बैनरों के पीछे दिखते शिविरों से .....सत्ता , पद और सुविधाओं के अहम में डूबे अफसरों से....फर्जी आंकड़ों की बाजीगरी के दम पर वाहवाही लूटने के लिए बनाई गई आपदा प्रबंधन विभाग से.....या कोशी की चुनौती में चुनावी अवसर खोजते नीतीश, लालू और पासवान के बड़े-बडे़ पोस्टरों से....
यह बिहार का कोसी इलाका है जो बाढ़ के एक महीने के बाद भी समंदर-सा दिखता है। यहां हर चेहरा एक कहानी है, हर दृश्य एक फोटो, हर घटना एक शॉट की तरह घटती है। इसे लिखना अंदर से हुड़क-हुड़क कर रोने और बाहर से सामान्य बने रहने का एक कठिन काम है। फ़िर भी, यह, सब कुछ गवां कर जिंदगी को समेटने में लगे लोगों का जीवट और एक तथाकथित लोकतंत्र का काहिलपन है जो बयां होना चाहता है। किसी भी शिविर में, किसी भी गांव में चले जाइए, हर तरफ यही आवाज सुनने को मिलती है- ए बाबू! अब केना जीबेय, फसल, जानिवर, घार, सबटा बरबाद भय गेलेय......इहां कोई दिखे बाला नै छै, भूखले सूतैय छै।
यकीन नहीं होता कि यह वही बिहार है जिसने डेढ़ साल पहले आम आदमी को टेलिफोन के जरिए सूचना मांगने का अधिकार देकर एक नया इतिहास रचा था। आज उसी बिहार के 25 लाख लोग, भिखारी की तरह लाइन में खडे़ होने पर मजबूर हैं, वह भी इसलिए क्योंकि उनकी सरकार उन्हें सूचनाएं देने में पीछे हट गई है। उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि उनकी सरकार ने उनके लिए क्या तय किया ह? क्या-क्या सामान दिया है? कितना पैसा दिया है? और यह सब उन्हें कहां, कैसे, किससे, कब-कब मिलेगा? अगस्त महीने में आई बाढ़ से तबाह कोसी इलाके के लोगों की मदद और राहत के लिए पटना और दिल्ली में फैसले तो बहुत लिए गए। उनमें से कई तो ऐसे हैं जिन्हें देखकर सरकारी बुद्धि पर भी फक्र करने का मन करता है। लेकिन ये फैसले जिला मुख्यालय तक पहुंचते-पहुंचते कागज का एक पुलिंदा भर रह जाते हैं।
बाढ़ के करीब एक महीने बाद जब ज़िलाधिकारिओं से पूछा गया कि पीडितो को सरकार की योजनाओं और उनके अधिकार की सूचना मिल सके, उन्हें अपने हक और उसके लिए की गई व्यवस्था, उसके निर्धारित तरीकों की जानकारी आसानी से उपलब्ध हो सके, इसके लिए क्या-क्या कदम उठाएं हैं तो जवाब अलग-अलग थे। सुपौल के जिलाधिकारी श्रवन का कहना था- पोस्टर लगाए जा रहे हैं, बस एक-दो दिन में तैयार हो जाएंगे। हम अपनी वेबसाइट पर भी इन्हें डालेंगे। लेकिन आज तक उनकी वेबसाइट पर ऐसा पोस्टर नहीं डला है। फोन कर जब फ़िर इसके बाबत पूछा गया तो उनकी दिलचस्पी ही इस पोस्टर में नहीं दिखी। सहरसा के जिलाधिकारी आर लक्ष्मणन ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि एक संस्था ने बाढ़ पीडितों के लिए हैंडबिल तैयार कराया है। हालांकि उनके पास उसकी कोई प्रति नहीं थी। बहुत ढूंढ़ने के बाद एक अपर जिलाधिकारी के पास से वह हैंडबिल मिला जिस पर एक तरफ छोटे-छोटे अक्षरों में पर्चा छपवाने वाली संस्था के इतिहास का बखान था। सहरसा जिलाधिकारी बाढ़ पीडितों के लिए राहत और मदद से सम्बंधित दस्तावेजों वाली फाईल दिखाने से सापफ मना कर देते हैं। वहीं मधेपुरा के जिलाधिकारी इतने से ही संतुष्ट हैं कि सरकार ही हर घोषणा की खबर अखबार में तो छपती है, बाकी हमारे अधिकारियों को हम इसके बारे में बता देते हैं।
सवाल आपदा के आडे़ वक्त में, राहत और बचाव कार्यों में व्यस्त प्रशासन को सूचना अधिकर कानून के दांवपेंचों में उलझाने का नहीं है। बल्कि सवाल उन्हीं बाढ़ पीडितों के लिए समय पर, सही और पूरी जानकारी उपलब्ध कराने का है। बडे़-बडे़ फैसले लेकर निचले लेवल के सरकारी तंत्र के भरोसे छोड़ देना भ्रष्टाचार के खुले अवसर देने जैसा है और हम जानते हैं कि ऐसा होता आया है। बिहार की सुशासन सरकार के कामकाज में यह विरोधाभास कोसी नदी नदी में आई बाढ़ के एक महीने बाद हर जगह दिखता है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (टिस) के राहत एवं बचाव कार्य के लिए आए एक छात्रा एजिस डिसूजा बताते हैं कि सुपौल जिले में एक सरकारी केन्द्र पर पशुओं के चारे के लिए लोगों से 350 रूपये कुंतल वसूले जा रहे हैं। तीन किलोमीटर पानी में पैदल चलकर आए आदमी को पता ही नहीं था कि सरकार बाढ़ में फंसे उसके पशुओं के लिए मुफ्त चारा बांट रही है और यह इस केन्द्र पर मुफ्त मिलना चाहिए।
लोगों को पता ही नहीं है कि बाढ़ पीडितों जिलों में सदर अस्पतालों में सरकार ने एक्स रे और पैथोलॉजी टेस्ट की सेवा मुफ्त कर दी है। आदेश सभी सिविल सर्जनों को दिया जा चुका है लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ा। दिल्ली से गए सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं ने सहरसा के अस्पताल में जब लोगों को पैसों के अभाव में भटकते देखा तो पता चला कि मुफ्त सेवा सिविल सर्जनों के रहमो करम पर है। पटना से चला एक आदेश सहरसा तक आकर किस तरह अपफसर की कलम में लटक कर रह जाता है, यह इसका एक सजीव उदाहरण है। स्वास्थ्य आयुक्त और आपदा प्रबंध्न के अधिकारियों से पफोन पर बात की गई पिफर भी इस आदेश को आगे बढ़वाने में चार दिन तक लगातार दबाव बनाना पड़ा। इस दौरान भी करीब 250 मरीजों का एक्स रे और टेस्ट उसकी कीमत वसूलकर किए गए। सहरसा अस्पताल सुधर समिति के मनजीत सिंह बताते हैं कि जितने भी आदेश आए हैं अगर उन्हें दीवारों पर चिपका दें तो भी लोगों को अपने अधिकारों का पता चल सकेगा।
बाढ़ राहत के नाम पर बांटी जा रही सामग्री का भी यही हाल है। रहटा भवानीपुर गांव जिला मधेपुरा, के शालीग्राम यादव दो मुट्ठी चावल और एक चमचा दाल की खातिर तीन सौ लोगों की लाइन में लगे बैठे हैं। यह शिविर पब्लिक सेक्टर की कई बड़ी कंपनियों के पैसे से चल रहा है। हालांकि इस पर बड़े-बडे़ फोटो केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के लगे हैं। बगल में उनकी पांच-छह साल की पोती भी पत्तल लिए बैठी है। जब ये लोग खाना खा लेंगे तो अगली पंगत में परिवार के बाकी सदस्य भी बैठेंगे। दाल भात बंटना शुरू होता है। थोड़ी आपाधपी शुरू होती है तो खाना बांटने वाला आगे निकल जाता है, बच्ची को खाना नहीं मिलता, वे उसे भी अपनी पत्तल में से खिला देते हैं। खाना खाकर उठते हैं तो बताते हैं कि महीना भर पहले तक गांव के पक्के मकान में रहते थे। बेटे की एसटीडी की दुकान थी। कुछ पशु और धन की खेती। कुल मिलाकर परिवार भरा पूरा था और खुशहाली से खा पी रहा था। लेकिन कोसी में आई बाढ़ ने सब कुछ लील लिया। पांच दिन छत पर काटे तक जाकर सेना की नांव में बाहर आ सके हैं। भरे गले और आंखों की कोर से टपकते आंसू को रोकने की कोशिश करते हुए वे कहते हैं कि आज उनका पूरा परिवार इस शिविर में भिखारी की तरह रहने को मजबूर है। मैं पूछता हूं कि आप राज्य सरकार के कैंप में क्यों नहीं गए? मेगा कैंपों की हालत तो यहां से कहीं बेहतर है। उन्होंने बताया कि जब वे सहरसा आए तो अपने परिवार के साथ सरकार के चारों मेगा कैंपों में गए लेकिन हर जगह कह दिया गया कि अब यहां जगह नहीं है। पिफर? कहां जाएं? इसका जवाब देने वाला कोई नहीं था। मजबूरन इस संस्था के हालनुमा कैंप में आना पड़ा जहां दो हजार लोग एक ही छत के नीचे भेड़ बकरियों की तरह पड़े हैं।
त्रिवेणीगंज के मेिढया सैफ़न इलाके में बरकुवा गांव में बाढ़ राहत में लगे एक समाजसेवी का कहना है जितना पैसा, सामान, खाना, पशु, चारा, नाव व्यवस्था सरकार के कागजों में दिखती है अगर उसका पता आम आदमी को समय रहते, ठीक-ठीक लग जाता तो लोगों को भिखारी की तरह नहीं भकटना पड़ता। जैसे ही सेना लोगों को बाढ़ से निकालकर बाहर लाई सरकार को उसे उसके अधिकारों और उसकी प्रक्रिया की जानकारी देने की व्यवस्था बनानी चाहिए थी लेकिन ऊपर बैठे लोग योजनाएं बनाना जानते हैं और नीचे बैठे लोग उनसे कमाना। यह कमाई ऊपर कितना पहुंचती है यह तो पता नहीं लेकिन धरातल पर सरकार की घोषणाएं और व्यवस्था एक दूसरे से इत्तेफाक नहीं रखते दिखे। अगर दुनियाभर की संस्थाएं आगे न आती तो सिर्फ़ सरकारी व्यवस्था के सहारे मुश्किल से 25 प्रतिशत लोगों को ही जिंदा रखा जा सकता था। याद रहे कि इस बाढ़ से 30 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।
फ़िर भी इन संस्थाओं की एक सीमा है। ये कितना कर सकती है, कब तक कर सकती है। अन्तत: इन लोगों को किसी दान के सहारे नहीं बल्कि हक और सम्मान के साथ सुरक्षित रखना सरकार की जिम्मेदारी है। परंतु जब सरकार की मध्यम और निचली मशीनरी अपने सुशासन के गरूर में काम करती हो, और लोगों तक उनके अधिकारों की जानकारी पहुंचाने को अपनी जिम्मेदारी न गिने तो लोग भिखारी बनकर खडे़ होने पर मजबूर तो होंगे ही।
बहुत अच्छी तरह से बिहार के बाढ़ की तस्वीर की है मनीष जी ने . ये बाढ़ किसी प्राकृतिक आपदा का संकेत है, ये असफलता है बिहार प्रशाशन की जो जनता को कुछ भी मुहैया नहीं करा पा रही है. और तो और लोगों के सवालों के जवाब भी नहीं हैं... स्थिति बहुत ख़राब है...लेख आँख खोलने वाला है.
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