सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

खेल ख़त्म हिसाब किताब शुरू (सरकार पर न छोड़ें, आईए हम खुद अपने पैसे का हिसाब मांगें)

कॉमनवेल्थ खेलों में करोड़ों का वारा न्यारा हुआ है. खेल खत्म हो गए हैं. 
इन खेलों पर जो पैसा खर्च हुआ है वह हमारा पैसा था. अगर यह पैसा हमसे टैक्स के रूप में न वसूला गया न होता तो हम इसे अपने परिवार के किए कई तरह की सुविधा और सामान जुटाने पर खर्च कर सकते थे. अपने आस पास, अपने गांव या शहर की बेहतरी पर खर्च कर सकते थे. लेकिन सरकार ने हमसे वह पैसा टैक्स के रूप में देश का विकास करने के नाम पर लिया और हमने दिया. उस पैसे में इतनी बड़ी हेराफेरी खून खौलाती है. 
हम लोग एक सब्ज़ी वाले से एक एक रुपए का हिसाब मांगते हैं, दूध वाले से एक एक रुपए का हिसाब किताब मांगते हैं, रिक्शा वाले से हिसाब किताब मांगते हैं, यहां तक कि अपने बच्चों को पैसा देते हैं तो उनसे भी पूछते हैं. 
तो फिर क्या अपनी मेहनत के अरबों रुपए की चोरी पर कुछ नहीं पूछेंगे... क्या सिर्फ जांच समिति, सीवीसी, सीबीआई के सहारे बैठे रहेंगे. सरकार के स्तर पर खेलों में हुए घपलों की कुछ जांच आदि की जा रही है. हमारा ऐसा कोई दुराग्रह नहीं है कि यह जांच कारगर नहीं होगी लेकिन भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए गए कदमों के इतिहास को देखते हुए भरोसा नहीं होता कि यह जांच भी किसी दोषी को सामने ला पाएगी. किसी को दण्ड दिलाना तो दूर की बात है. 

सरकार द्वारा की जा रही जांच का सम्मान करते हुए, हमें लगता है कि सिर्फ सरकार के भरोसे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा. सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए हम सबको, देश के अधिक से अधिक लोगों को सवाल उठाने होंगे. हमने अपनी समझ और कुछ साथियों से मिले सुझावों के आधार पर कुछ मुद्दे निकाले हैं और उनके संबन्ध में सूचना के अधिकार आवेदन तैयार किए हैं. यहां हम इन आवेदनों को इस अपेक्षा में प्रकाशित कर रहे हैं कि इन मुद्दों पर अधिक से अधिक लोग सवाल पूछ सके. मुद्दे और भी हो सकते हैं, अगर कुछ साथी अन्य मुद्दों को भी उठाना चाहते हैं तो वे मुद्दे सुझा सकते हैं, सूचना अधिकार आवेदन तैयार करने में हम मदद कर सकते हैं - 

गाड़ियों पर हुआ खर्च
1. 25 सितम्बर से 15 अक्टूबर तक कॉमनवेल्थ आर्गेनाइज़ेशन कमेटी के पास कुल कितनी गाड़ियां रहीं?
2. इसके बारे में निम्न विवरण भी उपलब्ध कराएं - 
   उपरोक्त में से कितनी ग़डियां किराए पर ली गईं थीं?
   कितनी गाड़ियां समिति की अपनी थीं?
   कितनी गाड़ियां किसी अन्य विभाग या संस्था की ओर से उपलब्ध थीं.
3. उपरोक्त गाड़ियों की सूची निम्न विवरण के साथ उपलब्ध कराएं 
वाहन का प्रकार (बस, कार, ट्रक...इत्यादि)
वाहन रजिस्ट्रेशन संख्या
 4. सितम्बर 2010 से 15 अक्टूबर 2010 के बीच प्रत्येक गाड़ी कितने कितने किलोमीटर चली?

स्वास्थ्य सेवाएं
  1. कॉमनवेल्थ विलेज में कुल कितने चिकित्सा अथवा स्वास्थ्य केन्द्र बनाए गए थे. 
  2. कुल कितने लोगों ने इन केन्द्रों पर उपलब्ध सुविधाओं का लाभ लिया?
  3. इन केन्द्रों के परिचालन पर कुल कितनी राशि खर्च की गई? 
  4. इन केन्द्रों के परिचालन पर कुल कितने चिकित्साकर्मी तैनात किए गए?
  5. इन केन्द्रों से कुल कितने व्यक्तियों को आगे इलाज के लिए किसी अन्य हॉस्पिटल में रेफर किया गया?

उदघाटन समारोह के टिकिट
  1. कॉमनवेल्थ खेलों के उद्घाटन समारोह में टिकिटों की बिक्री से कुल कितनी राशि प्राप्त हुई?
  2. उद्घाटन समारोह के लिए मूल्य के आधार पर कुल कितने प्रकार की टिकिट श्रेणिया(स्लैब) बनाई गई थीं? 
  3. इनमें से प्रत्येक श्रेणी का विवरण निम्न जानकारी के साथ दें 
    1. टिकिट दर
    2. प्रत्येक श्रेणी में बिक्री के लिए उपलब्ध कुल टिकिटों की संख्या
    3. प्रत्येक श्रेणी में बिके कुल टिकिटों की संख्या
    4. प्रत्येक श्रेणी में टिकिटों की बिक्री से उपलब्ध राशि
  4. उद्घाटन समारोह के दौरान स्टेडियम में कुल कितने लोगों के बैठने की व्यवस्था थी?
  5. उपरोक्त में से कुल कितनी सीटों के लिए टिकट बिक्री के ज़रिए उपलब्ध कराने की व्यवस्था थी?

समापन समारोह के टिकिट
  1. कॉमनवेल्थ खेलों के समापन समारोह में टिकिटों की बिक्री से कुल कितनी राशि प्राप्त हुई? 
  2. समापन समारोह के लिए मूल्य के आधार पर कुल कितने प्रकार की टिकिट श्रेणिया(स्लैब) बनाई गई थीं? 
  3. इनमें से प्रत्येक श्रेणी का विवरण निम्न जानकारी के साथ दें 
    1. टिकिट दर
    2. प्रत्येक श्रेणी में बिक्री के लिए उपलब्ध कुल टिकिटों की संख्या
    3. प्रत्येक श्रेणी में बिके कुल टिकिटों की संख्या
    4. प्रत्येक श्रेणी में टिकिटों की बिक्री से उपलब्ध राशि
  4. समापन समारोह के दौरान स्टेडियम में कुल कितने लोगों के बैठने की व्यवस्था थी?
  5. उपरोक्त में से कुल कितनी सीटों के लिए टिकट बिक्री के ज़रिए उपलब्ध कराने की व्यवस्था थी?
कॉमनवेल्थ लेन एवं दिल्ली पुलिस (1)
  1. कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए दिल्ली की सड़कों पर अलग कॉमनवेल्थ लेन बनाई गई थी. इस लेन पर वाहन चलाने के संबन्ध में दिल्ली पुलिस या अन्य संबद्ध विभागों की तरफ से कुछ दिशा निर्देश भी जारी किए गए थे. इन दिशा निर्देशों के जारी किए जाने के संबन्ध में निम्नलिखित सूचना उपलब्ध कराईए - 
  2. कॉमनवेल्थ (ट्रेफिक) लेन बनाए जाने, उस पर ट्रेफिक पुलिस तैनात करने, एवं अधिकृत वाहनों के अलावा अन्य वाहन चालकों के इस लेन पर आने की स्थिति में ज़ुर्माना लगाने का निर्णय जिन बैठक में लिया गया उस सभी बैठकों के मिनिट्स ऑफ मीटिंग की छायाप्रति उपलब्ध कराएं
  3. उपरोक्त  से संबन्धित फाईलों के फाईल नोटिंग्स की छाया प्रति भी उपलब्ध कराएं.

कॉमनवेल्थ लेन एवं दिल्ली पुलिस (2)
  1. कॉमनवेल्थ (ट्रेफिक) लेन बनाए जाने का निर्णय जिस बैठक में लिया गया उस बैठक के मिनिट्स ऑफ मीटिंग की छायाप्रति उपलब्ध कराएं
  2. कॉमनवेल्थ (ट्रेफिक) लेन पर चलने वाले सामान्य वाहन चालकों पर ज़ुर्माना लगाए जाने का निर्णय जिस बैठक में लिया गया उस बैठक के मिनिट्स ऑफ मीटिंग की छायाप्रति उपलब्ध कराएं. 
  3. उपरोक्त बैठक में भाग लेने वाले अधिकारियों/व्यक्तियों के नाम एवं पदनाम की सूची उपलब्ध कराएं
  4. कॉमनवेल्थ (ट्रेफिक) लेन पर चलने वाले सामान्य वाहन चालकों पर 2000 रुपए का ज़ुर्माना  लगाने (या कोई अन्य प्रावधान करने) का प्रस्ताव किस आधिकारी ने दिया उसका नाम व पदनाम बताएं.

विज्ञापनों पर हुआ खर्च
कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन समिति द्वारा 1 अप्रैल 2010 से इस पत्र का जवाब दिये जाने तक विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिकाओं, समाचार चैनलों को दिए गए विज्ञापनों के संबन्ध में निम्नलिखित सूचनाएं उपलब्ध कराएं :
  1. इस दौरान समिति द्वारा विज्ञापनों पर कुल कितनी राशि खर्च की गई?
  2. समिति द्वारा विज्ञापन देने का कार्य किन एजेंसियों के माध्यम से करवाया गया? उनके संबन्ध में निम्नलिखित सूचना दें 
    1. एजेंसी का नाम
    2. एजेंसी को भुगतान की गई राशि
    3. आयोजन समिति ने बगैर विज्ञापन एजेंसी के कितनी राशि के विज्ञापन सीधे जारी किए. 
    4. प्रत्येक एजेंसी द्वारा जारी अथवा समिति द्वारा सीधे समाचार माध्यम को जारी किए गए विज्ञापनों के संबन्ध में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध करायें - 
    5. विज्ञापन का विषय/नाम, 
    6. विज्ञापन प्रकाशित/प्रसारित होने की तारीख,  
    7. जिस कम्पनी, अखबार, टीवी चैनल या पत्रिका में विज्ञापन दिया गया उसका नाम व पता,
    8. विज्ञापन के लिए भुगतान की गई राशि, राशि के भुगतान का माध्यम नकद, चेक या किसी अन्य विवरण दें. (यदि चेक से किया गया हो तो चेक नंबर दें, यदि नकद या किसी अन्य माध्यम से किया गया हो तो प्राप्ति रसीद की प्रति दें.)
(यही सवाल दिल्ली सरकार से भी पूछे जाने हैं)

पत्र व्यवहार
पीएमओ
प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा १ अगस्त २०१० से १५ अक्टूबर २०१० के बीच कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के संबन्ध में विभिन्न विभागों के साथ किए गए पत्र व्ययहार की छायाप्रति उपलब्ध कराएं.  (इसमें कृपया इस विषय से संबन्धित विभिन्न ईमेल, आदेशों, दिशा निर्देशों आदि की छायाप्रति भी उपलब्ध कराएं)
सीएमओ
मुखयमंत्री कार्यालय द्वारा १ अगस्त २०१० से १५ अक्टूबर २०१० के बीच कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के संबन्ध में विभिन्न विभागों के साथ किए गए पत्र व्ययहार की छायाप्रति उपलब्ध कराएं.  (इसमें कृपया इस विषय से संबन्धित विभिन्न ईमेल, आदेशों, दिशा निर्देशों आदि की छायाप्रति भी उपलब्ध कराएं)
एलजी कार्यालय
उपराज्यपाल कार्यालय द्वारा १ अगस्त २०१० से १५ अक्टूबर २०१० के बीच कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के संबन्ध में विभिन्न विभागों के साथ किए गए पत्र व्ययहार की छायाप्रति उपलब्ध कराएं.  (इसमें कृपया इस विषय से संबन्धित विभिन्न ईमेल, आदेशों, दिशा निर्देशों आदि की छायाप्रति भी उपलब्ध कराएं)
ओसी.
१ अगस्त २०१० से १५ अक्टूबर २०१० के बीच कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के संबन्ध में प्रधानमंत्री कार्यालय, मुखयमंत्री कार्यालय(दिल्ली सरकार) एवं उपराज्य कार्यालय, दिल्ली के साथ किए गए पत्र व्ययहार की छायाप्रति उपलब्ध कराएं.  (इसमें कृपया इस विषय से संबन्धित विभिन्न ईमेल, आदेशों, दिशा निर्देशों आदि की छायाप्रति भी उपलब्ध कराएं)

उदघाटन समारोह पर खर्च
  1. कॉमनवेल्थ खेलों के उद्घाटन समारोह पर कॉमनवेल्थ आयोजन समिति की ओर से कुल कितनी राशि खर्च की गई?
  2. इस खर्च का मदवार ब्यौरा उपलब्ध कराएं 
  3. कॉमनवेल्थ खेलों के समापन समारोह पर कॉमनवेल्थ आयोजन समिति की ओर से कुल कितनी राशि खर्च की गई?
  4. इस खर्च का मदवार ब्यौरा उपलब्ध कराएं 

सड़कों पर बैनर (व्युकटर)
  1. कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान दिल्ली में विभिन्न स्थानों पर सड़कों के किनारे फ्लैक्स के बैनर लगाए गए थे.
  2. इन बैनर्स को लगाने का ठेका किस कंपनी को दिया गया था?
  3. इसके लिए कंपनी को कुल कितनी राशि का भुगतान किया गया?
  4. कंपनी ने कुल कितने बैनर लगाए?
  5. ये बैनर किन किन स्थानों पर लगाए गए, उन स्थानों के नाम की सूची उपलब्ध कराएं.

होटलों पर खर्च
  1. कॉमनवेल्थ आयोजन समिति के रिकार्ड के मुताबिक खेलों में शामिल होने के लिए कुल कितने विदेशी खिलाड़ी एवं अन्य प्रतिनिधि अधिकारिक रूप से भारत आए?
  2. इनमें से कितने खिलाड़ी या अन्य प्रतिनिधि कॉमनवेल्थ खेल विलेज में रहे?
  3. इनमें से कितने लोगों को सरकारी खर्चे पर होटल में ठहराया गया?
  4. आयोजन समिति के खर्चे पर होटलों में ठहराए गए लोगों की सूचना निम्न विवरण के साथ उपलब्ध करवाएं 
    1. मेहमान का नाम
    2. मेहमान का देश
    3. होटल का नाम
    4. होटल में ठहरने की अवधि (किस तारीख से किस तारीख तक)
    5. होटल को अदा की गई राशि

प्रतियोगिताओं के जज
  1. कॉमनवेल्थ खेलों की विभिन्न प्रतियोगिताओं के लिए जज के रूप में कुल कितने विशेशज्ञों की सेवाएं ली गईं?
  2. इन विशेशज्ञों के बारे में निम्न सूचना उपलब्ध करावाईए
    1. जज का नाम 
    2. जज का देश  
    3. किस प्रतियोगिता के लिए बुलाया गया
    4. जज को अदा की गई राशि (फीस आदि के रूप में)
    5. जज को लोकल कन्वेंस आदि के रूप में भुगतान की गई राशि
    6. जज को कहां ठहराया गया?
मेडल बनवाने पर खर्च
कॉमनवेल्थ खेलों में विभिन्न खिलाडियों कि दिए गए मेडल्स के बारे निम्नलिखित सूचना उपलब्ध कराईए
1. सोने के कुल कितने मेडल बनवाए गए
2. प्रत्येक मेडल के बनाने पर कितना खर्च आया
3. चान्दी के कुल कितने मेडल बनवाए गए
4. प्रत्येक मेडल के बनाने पर कितना खर्च आया
5. कांस्य के कुल कितने मेडल बनवाए गए
6. प्रत्येक मेडल के बनाने पर कितना खर्च आया
7. मेडल बनवाने का काम किन किन ऐजेंसियों से करावाया गया? उनके बारे में निम्न सूचना दें
ऐजेंसी का नाम एवं पता
8. ऐजेंसी से किस श्रेणी के तथा कितने मेडल बनवाए गए
9. एजेंसी को भुगतान की गई राशि

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

सूचना का अधिकार: अभी भी बची है उम्मीद (कानून बनने के पांच साल के सफर का `हासिल-जमा´)

  • प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विदश यात्राओं पर पिछले छह साल में देश की जनता का 141 करोड़ रुपया खर्च हुआ है। यह तो विदेशों में उनके ठहरने और गाड़ी आदि की व्यवस्था पर व्यय हुआ है इसमें उनकी हवाई उड़ानों पर हुआ खर्च शामिल नहीं है।
  • उनके मन्त्रिमण्डल के 78 में से 71 मंत्री, महज़ साढ़े तीन साल में 786 बार विदेश यात्राओं पर रहे। विदेश यात्राओं पर इन मन्त्रियों ने कुल मिलाकर 1 करोड़ 2 लाख किलोमीटर की हवाई यात्राएं कीं। इतनी दूरी चलने में धरती के 256 चक्कर लगाए जा सकते हैं।
  • जो कुर्सी बाज़ार में 1000 रुपए में नई खरीदी जा सकती है उसे 15 दिन के कॉमनवेल्थ खेल तमाशे के लिए 4000 रुपए देकर किराए पर लिया जा रहा है। इतना ही नहीं इस तमाशे पर खर्च करने के लिए जनता के टैक्स के वो 725 करोड़ रुपए भी लगा दिए गए जो अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण के लिए बजट में रखे गए थे।
  • कश्मीर में तैनात एक मेजर की मां जानती है कि उसके बेटे की आत्महत्या की कहानी झूंठी है और अब उसकी जानकारी के आगे मजबूर भारतीय सेना को मामले की पुन: जांच करानी पड़ रही है।
  • गाज़ियाबाद ज़िले के सरकारी स्कूलों में नौकरी कर रहे अध्यापक अपनी पहुंच और शायद पैसे के भी बल पर अपनी तैनाती ज़िला मुख्यालय में ही कराकर रखते हैं जिसके चलते दूर दराज़ के 200-400 बच्चों के स्कूलों को मुश्किल से एक अध्यापक नसीब होता है लेकिन शहर में 50-100 बच्चों के स्कूल में भी एक एक दर्जन अध्यापक हैं। यह जानकारी जनता में आती है तो पहुंच और पैसे की ताकत कमज़ोर पड़ जाती है।
ऊपर वर्णित और हज़ारों ऐसे ही अन्य खुलासे हमारे मुल्क के आम आदमी ने किए हैं। उस आम आदमी ने जो लोकतन्त्र के नाम पर पांच साल में एक बार अपना राजा चुनने के लिए तो स्वतन्त्र है लेकिन फिर अगले पांच साल उसी की गुलामी करने को मजबूर भी है। अपने नेताओं और अफसरों को पालता आया और उन्हीं के हाथों पग-पग पर शोषित होता आया आम आदमी आज उनसे अपने खून पसीने की कमाई से हुए खर्चे का हिसाब-किताब मांग रहा है। गुलामी के लंबे इतिहास के बाद हमारे देश में परिवर्तन की बेहद महत्वपूर्ण घटना घट रही है। और इस परिवर्तन का आधार बन रहा है 2005 में लागू सूचना का अधिकार कानून।
13 अक्टूबर 2010 को यह कानून पूरे देश में पांच साल पुराना हो जाएगा। किसानों, मजदूरों और लगभग हर क्षेत्र से जुड़े शुभचिन्तकों के करीब 15 साल के ज़मीनी संघर्ष के बाद बना यह कानून देश के लोगों के जीने का अन्दाज़ बदल रहा है। अनुमान है कि अभी तक इस कानून के अन्तर्गत सूचना मांगने के आवेदन 50 लाख  दाखिल हुए हैं। हर आवेदन से जुड़ा घटना क्रम सूचना के अधिकार के अधिकार के पांच साल का हासिल जमा है।
बिहार के झंझारपुर गांव (मधुबनी ज़िला) में रिक्शाचालक मज़लूम ने 2006 में ही जिस तरह इस कानून का इस्तेमाल किया उससे इसकी ताकत व उपयोगिता को लेकर एक नया भरोसा जगता है। इन्दिरा आवास योजना के तहत 25000 रुपए देने के लिए ब्लॉक डवलपमेंट अफसर (बीडीओ) के दफ्रतर में 5000 रुपए की रिश्वत मांगी जा रही थी। रिश्वत न खिला पाने से लाचार अनपढ़ और गरीब मज़लूम तीन साल से बीडीओ दफ्रतर के धक्के खा रहा था। मज़लूम की मदद गांव के ही सामाजिक कार्यकर्ता अशोक सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने का आवेदन बना कर की। सवाल पूछते ही एक सप्ताह में मज़लूम को 15 हज़ार का चैक मिल गया। एक महीने के बाद जब बाकी के 10000 रुपए लेने गए मज़लूम से रिश्वत मांगी गई तो अनपढ़ मज़लूम ने बीडीओ को कह दिया कि अगर मेरा पैसा नहीं दोगे तो फिर से ``सोचना की अर्जी´´ लगा दूंगा। सोचना और सूचना में फर्क न समझने वाले निरक्षर मज़लूम को एक ही अनुभव में समझ में आ गया कि यह यह कोई बड़ा परिवर्तन हो गया है। और यह समझ ही देश के लाखों मज़लूमों को सच्चे अर्थों में सशक्त बनाती है। सशक्तीकरण के बाकी तमाम प्रयास तो सिर्फ भाषा ही साबित हुए हैं।
उत्तर प्रदेश के बान्दा ज़िले में एक गांव की सत्ताईस अनपढ़ महिलाओं ने जब शिक्षा विभाग से पूछा कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत उनके बच्चों को किताबें और स्कूल ड्रेस, स्कूल खुलने के छह महीने के बाद भी क्यों नहीं दिए गए हैं तो पूरे ज़िले के तमाम सरकारी स्कूलों में ड्रेस और किताबें बांट दिए गए। बाद में सूचना दी गई कि हमने ज़िले में 1 करोड़ 14 लाख रुपए की ड्रेस और 1 करोड़ 9 लाख की किताबें बांट दी हैं। यह घटना हमें बताती है कि गांव की 27 अनपढ़ महिलाओं ने सूचना के अधिकार कानून के तहत सवाल करते हुए न सिर्फ अपने बच्चों को ड्रेस व किताबें दिलवा दीं बल्कि सवा दो करोड़ रुपए की चोरी भी रोक दी जो दिल्ली और लखनऊ में बैठे ईमानदार अधिकारी भी रोक नहीं सकते थे। 
शायद ऐसी ही संभावनाओं को देखते हुए, कानून बनवाने के संघर्ष के दौरान प्रभाष जोशी जी ने नारा दिया था- ``जानने का हक़-जीने का हक´´। यानि यह महज़ जानने का हक नहीं है जीने का हक़ है। और अच्छी बात ये है कि बीते पांच सालों में यह कानून देश के हज़ारों लोगों के लिए जीने का हक बनने में सफल हुआ है।
लेकिन पांच साल की यात्रा के बाद यह सवाल तो बनता ही है कि क्या इस कानून के आने से उस व्यवस्था की बुनियाद में कोई परिवर्तन हुआ है जिसके चलते लोगों को जीने मात्र के लिए भी सूचना के अधिकार जैसे कानूनों की ज़रूरत पड़ती है। इस कानून के लिए संघर्ष में अगुआ रहे और फिर केन्द्रीय सूचना आयुक्त बने शैलेष गाँधी मानते हैं कि इस तरह के बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। लेकिन थोड़ा गहराई से देखें तो व्यवस्था से लेकर नौकरशाही की मानसिकता तक में अभी कोई बदलाव आया नहीं है।
इस दिशा में एक बड़ी उपलब्धि सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की संपत्ति को सार्वजनिक किए जाने के मामले में उठा विवाद मानी जा सकती है। दिल्ली निवासी सुभाष अग्रवाल के सूचना अधिकार आवेदन से निकली चिंगारी की तपिश संसद से लेकर सत्ता के हर गलियारे में महसूस की गई और अन्त में माननीय न्यायधीशों को अपनी संपत्ति के खुलासे की स्वत: घोषणा पर सहमत होना पड़ा। इसके अलावा भी बहुत से उदाहरण हैं जहां सूचना मिलने से संघर्ष आसान हुए हैं। लेकिन आज तक किसी बड़े नेता या अधिकारी को आरटीआई के तहत निकली सूचना के चलते कोई सज़ा नहीं मिली। विगत पांच साल में मैंने इस कानून को बचाए रखने औ ठीक से लागू किए जाने के सिलसिले में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के शीर्ष नेताओं से मुलाकात की है। लगभग सभी का मानना रहा है कि सूचना का अधिकार कानून `बहुत अच्छी चीज़´ है लेकिन इसका `दुरुपयोग´ बहुत हो रहा है। लोग अनर्गल सूचना मांग रहे हैं।
सत्ता के गलियारों में ज़रा सी भी भूमिका रखने वाले नेता या किसी भी स्तर के सरकारी कर्मचारी से बात कर लीजिए सबके मुंह से सूचना के अधिकार के बारे में यही प्रतिकिया सुनने को मिलेगी.. ``यह कानून तो बहुत अच्छा है, बहुत ज़रूरी है, लेकिन इसका सदुपयोग नहीं हो रहा है...´´ `सदुपयोग´ और `दुरुपयोग´ की सबकी अपनी परिभाषा है। ज़ाहिर है यह परिभाषा कानून के आधार पर नहीं मानसिकता के आधार पर दी जाती है।
ऊपर वर्णित और इन जैसे हज़ारों उदाहरणों के बाद भी सूचना कानून के पांच साल के अनुभव को अगर एक वाक्य में बयान करें तो कहना गलत न होगा कि यह कानून ऊपर से नीचे तक पसरे भष्टाचार और  साम्राज्यवादी मानसिकता का शिकार हो रहा है। सूचना प्रदान करने वाला पक्ष एक तरफ तो इसी बात से आहत होता है कि भला इस मुल्क के आम आदमी की यह हिम्मत कि वह हमसे सवाल पूछे... दूसरे अपने तथा अपने आकाओं के भ्रष्टाचार को दबाए रखने का दवाब, सवाल पूछने वाले को परेशान करने यहां तक कि उसकी हत्या तक को मजबूर कर रहा है। वर्ष 2010 में ही अब तक नौ ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जहां लोगों की हत्या संवेदनशील जानकारी सूचना अधिकार कानून के तहत मांगने की हत्या कर दी गई।
अधिकारियों द्वारा डराने धमकाने, जेल में डाल देने या फिर ताकतवर लोगों द्वारा मार पिटाई के मामले तो लगभग हर ज़िले में मिल जाएंगे।
भ्रष्ट और अहंकारी अधिकारियों से तो उम्मीद नहीं थी कि वे इस कानून के आने के बाद लोगों को खुले हाथ से सूचनाएं बांटने लगेंगे लेकिन सबसे अधिक निराश किया है सूचना आयोगों ने। बीते पांच साल में सूचना कानून को सबसे ज्यादा नुकसान सूचना आयुक्त के रवैये से पहुंचा है। सूचना न मिलने पर केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग में किसी भी एक दिन आने नागरिकों से बात कर लीजिए, भ्रष्ट अधिकारियों का पक्ष लेने, आवेदको को हड़काने, सूचना न दिलवाने, ज़ुर्माना न लगाने की शिकायत करते ढेरों लोग मिल जाएंगे। इसकी एक वजह रही है सूचना आयोग की ताकतवर कुर्सी पर नियुक्ति की कोई स्पष्ट प्रक्रिया न होने के चलते नेताओं के करीबी लोगों का वहां पहुंच जाना। ज़ाहिर है राजनीतिक कृपा के रूप में कुर्सी पाने वाला व्यक्ति कानून का नहीं अपने `आका´ का ही ख्याल रखेगा।
समीक्षा करें तो तमाम बाधाओं के बाद भी सूचना के अधिकार को एक सफल कानून कहा जा सकता है। क्योंकि जिस तेज़ी से यह लोकप्रिय हुआ है वह अभूतपूर्व है। पांच साल में करीब 50 लाख लोगों द्वारा इस कानून का इस्तेमाल कोई छोटी बात नहीं है। वह भी तब जबकि इसमें बड़ी संख्या गांव में रह रहे लोगों की है। शायद यही वजह है कि पूरी तैयारी के साथ दो बार प्रयासों के बाद भी सरकार इस कानून को बदल कर कमज़ोर बनाने के मंसूबों में कामयाब नहीं हो पायी। लेकिन फिर भी दो स्पष्ट चुनौतियां है। पहली है सूचना आयोग की कुर्सी को राजनीतिक कृपा के साये से मुक्त करना। आयुक्त पद पर नियुक्ति के लिए स्पष्ट प्रक्रिया बनवाने के लिए शायद एक आन्दोलन की ज़रूरत है। और दूसरी चुनौती है सत्ता में बैठे लोगों का इस कानून के प्रति वैमनस्य भाव। इस कानून के प्रावधनों मे फेरबदल कर इसे कमज़ोर करने की योजना तो लंबित है ही नए कानूनों में गोपनीयता बनाए रखने के कड़े प्रवाधान भी लाए जा रहे हैं। जी.एम.फूड़ के संबन्ध् में प्रस्तावित कानून में ऐसे ही प्रावधान लाए जाने से विवाद इसका संकेत है। अगर नए कानूनों को सूचना अधिकार कानून 2005 से ऊपर कर दिया गया तो फिर यह कानून अपने आप ही दम तोड़ देगा।
अगर समय रहते इनका इलाज नहीं किया गया तो कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ साल बाद हम इस कानून के खत्म होने पर समीक्षात्मक लेख लिख रहे हों। वर्ना बहराईच के वनग्रामों में इस कानून का सहारा लेकर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही महिलाओं के मुताबिक ``इस कानून में दम तो है´´।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

सूचना के अधिकार को बचाने के लिए आमरण अनशन

वैसे तो सूचना  का अधिकार कानून इस देश के हर नागरिक को सशक्त बनाता है. और इसे कमजोर करने की कोई भी कोशिश अंतत: देश के हर आदमी को कमजोर करेगी. लेकिन हममें से बहुत से लोग जो अपने भ्रष्टाचार, जान पहचान, छल-कपट के गुण, पैसे, दिखावे आदि के दमपर इस तरह की कमजोरी से पार पाने के भ्रम में जी रहे हैं, उन्हें शायद सूचना के अधिकार कानून के कमजोर होने से फर्क नहीं पड़ेगा.  इसलिए उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि सूचना के अधिकार कानून को कमजोर किए जाने की किसी कोशिश के खिलाफ वे बोल सकेंगे.

लेकिन जिन्हें लगता है कि इससे उनके जीने में फर्क पड़ता है.. वे तो बोलें....

महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के रालेगन सिद्धि गाँव में सूचना अधिकार कार्यकर्ता कृष्ण राज राव भूख हड़ताल पर बैठे हैं. उनकी मांग है कि राज्य में मुख्य सूचना आयोग की नियुक्ति पारदर्शी तरीके से हो. पांच साल पहले बड़ी उम्मीदों के साथ लागू हुए सूचना अधिकार कानून के सामने आज सबसे बड़ी बाधा सूचना आयुक्त ही बने हुए हैं. हो भी क्यों न ? मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री द्वारा राजनीतिक तोहफे के रूप में मिली कुर्सी पर बैठने के बाद भला किसी से उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उसमें देश या जनता के बारे में सोचने के लिए कुछ दम बचा होगा.
अब जबकि महाराष्ट्र के मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति होनी है, कृष्णराज राव इसी मांग को लेकर धरने पर बैठे हैं कि इस नियुक्ति के लिए चयन समिति जिन नामों पर विचार करे वे बाकायदा लोगों के बीच से समिति के पास जाए. इसके लिए आवेदन मंगवाए जाए... और अंतत: जिन लोगों के नामों पर विचार हो वे पारदर्शी तरीके से चयन समिति के सामने लाए जाएं.
अगर सूचना के अधिकार कानून को बचाना है तो देश भर में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की वर्त्तमान परम्परा के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी. वरना दिन दूर नहीं कि हम अपने देश में सरकार के कामकाज में पारदर्शिता लाने का बहुत बड़ा मौक़ा खो देंगे.
कृष्णा राज राव की मांग के समर्थन में आप इन लोगों को इमेल, फैक्स, चिट्ठी भेज सकते हैं....

१. श्री अशोक चौहान (मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र) :
फैक्स : (022) 22029214  फोन : (022) 22025151 / (022)22025222.  ईमेल : ashokchavanmind@rediffmail.com  

२. श्री छगन भुजबल (उप-मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र)
फैक्स : (022) 22024873   फोन :  (022) 22022401 / (022) 22025014.

३. श्री एकनाथ खडसे (नेता, प्रतिपक्ष)
फैक्स :-- काम नहीं कर रहा,  फोन :  (022) 22024262 .  ईमेल : anilsmad2008@rediffmail.com

४. प्रमुख सचिव (सामान्य प्रशासन विभाग)
फैक्स :-- (022) २२०२७३६५ फोन :  (022)22886141..

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

आरटीआई के एक आवेदन से दिल्ली के कंज्यूमर कोर्ट को मिला टाइपिस्ट

-मोहित गोयल
मैं हमेशा सुनता था कि हमारे देश के न्यायालयों में न्याय की जगह तरीख़ मिलती है लेकिन डेढ़ साल पहले मुझे यह समझ में आया कि ऐसा क्यों कहते हैं। मेरा एक केस शालीमार बाग ज़िला कंज्यूमर फोरम में पिछले डेढ़ साल से चल रहा है, जब भी सुनवाई के लिए जाता हूं एक नई तारीख दे दी जाती है। मैंने जब वहां आये लोगों से बात की तो पता चला कि ऐसा नहीं है कि सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा हो रहा है। पिछले दो सालों से यहां अधिकतर मुकदमों में तारीख़ ही दी जा रही है। छानबीन करने पर पता चला कि इसका मुख्य कारण है टाइपिस्ट की कमी। कोर्ट के ही एक कर्मचारी ने बताया कि इस कोर्ट के लिए सरकार की तरफ से दो टाइपिस्ट स्वीकृत है परन्तु पिछले डेढ़ साल से एक ही टाइपिस्ट के भरोसे ही यहां काम चल रहा।
जब मैं अगली तारीख पर सुनवाई के लिए पहुंचा तो देखा कि जज साहब किसी वकील की बहस से परेशान हो कर कह रहे थे कि आप चाहे तो इस कोर्ट की कामकाज़ की शिकायत स्टेट फोरम को कर सकते है। जब मैंने जज साहब से इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि उनके कार्यालय से कई बार स्टेट कंज्यूमर फोरम को लिखा जा चुका है लेकिन कोई कार्यवाई नहीं हो रही है। उन्होंने बताया कि असल में स्टेट फोरम की भी इसमें गलती नहीं है वहां से भी कई पत्र फूड सप्लाई कंज्यूमर फोरम को लिखे गये हैं पर फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हो रही है। केवल एकमात्र टाइपिस्ट के भरोसे कोर्ट का काम तेजी से नहीं चल पा रहा है और सारे मुकदमे लंबित होते जा रहे हैं।