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शनिवार, 21 जून 2008

ललित मेहता की हत्या कटघरे में व्यवस्था

हमारे देश में आजादी के बाद लोकतंत्र तो स्थापित हो गया लेकिन यह जमीनी स्तर पर लागू होने से अभी भी कोसों दूर है। तभी तो यहां अपना अधिकार मांगने पर लोगों की हत्या कर दी जाती है। देश की नौकरशाही और सत्ता का चरित्र अब भी वही है जो गुलामी के समय था। यही वजह है कि झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता ललित मेहता की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी अधिनियम का सोशल ऑडिट करने का प्रयास किया था। वह इस योजना के तहत किए गए खर्च को आधिकारिक और वास्तविक धरातल पर जांचना चाहते थे। लेकिन सोशल ऑडिट से एक दिन पहले ही उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इंजीनियर से कार्यकर्ता बने ललित मेहता की किसी से जातीय दुश्मनी नहीं थी। वह तो पलामू जिले में भोजन के अधिकार अभियान के प्रमुख सदस्य थे।
पुलिस ने उनके मृत शरीर का जल्दबाजी में पोस्टमार्टम कराया और घटनास्थल से 25 किमी दूर ले जाकर दफना दिया। ललित मेहता की हत्या के 12 दिनों बाद सोशल ऑडिट हुआ और पाया गया कि जिले में योजना के तहत खर्च किए गए 73 करोड़ रूपये का एक बड़ा हिस्सा ठेकेदारों, अधिकारियों और विकास माफिया के हिस्से में गया है। सोशल ऑडिट से पलामू के लोगों ने जाना कि किस प्रकार उनके हिस्से के धन का हिस्सा गलत तरीकों से भ्रष्ट लोगों के पास पहुंच रहा है। रांची के थियोलाजिकल कॉलेज ग्राउंड में हजारों की तादाद में लोग इस हत्या के विरोध में एकत्रित हुए। इन लोगों ने ललित मेहता की हत्या की सीबीआई जांच की और दोषियों के खिलाफ कारवाई की मांग की।

ललित मेहता के अलावा देश के अनेक हिस्सों में इस प्रकार की घटनाएं हो रही हैं। अनेक स्थानों पर सूचना मांगने पर कार्यकर्ताओं को धमकियां मिल रही हैं। राजस्थान के झालावाड़ और बेन्सवाडा जिलों में पिछले 6 महीनों के दौरान सोशल ऑडिट करने वाली टीमों पर कई नियोजित हमले हुए हैं। कर्नाटक में भूमि घोटाले को उजागर करने कर सामाजिक कार्यकर्ता लियो सलदान्हा और उनकी पत्नी डॉक्टर लक्ष्मी नीलकांतन को कर्नाटक पुलिस और फोरेस्ट डिपार्टमेंट ने चंदन की लकड़ी की तस्करी और चोरी के मामले में उन पर निशाना साधा। इन्होंने विवादास्पद बंगलौर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कोरिडोर प्रोजेक्ट में भूमि घोटाले का पर्दाफाश करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

इसी प्रकार झारखंड के ही गिरीडीह में कमलेश्वर यादव नामक कार्यकर्ता की इन्हीं कारणों के चलते हत्या कर दी गई। उडीसा के कोरापुट जिले के नायब सरपंच और उडीसा आदिवासी मंच के सदस्य नारायण हरेका को भ्रष्टाचार उजागर करने पर मौत के घाट उतार दिया गया। हत्या से पहले उन्होंने ब्लॉक कार्यालय से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की जानकारी मांगी थी। ये सभी मामले दिखाते हैं कि लोकतांत्रित तरीकों से अपना अधिकार मांगना कितना खतरनाक है।

दरअसल हमारी व्यवस्था में एक बड़ा तबका ऐसा है जो शक्तिशाली है और सूचना देने से घबराता है क्योंकि इससे उसका नुकसान हो सकता है। ये तबका सूचना के प्रवाह को हर तरह से रोकने का प्रयास करता है। और इसके लिए उसे जो भी हथकंडे अपनाने पडें वह अपनाने से नहीं चूकता। यही वजह है कि लोगों की हत्याएं कराईं और उन्हें धमकाया जा रहा है। ऐसे लोगों से सख्ती से निपटने की जरूरत है ताकि असल में जनतंत्र स्थापित हो सके। लोगों को कल्याणकारी योजनाओं और कानूनों से लाभ हो सके व जवाबदेही तय हो सके। ऐसे लोगों से निपटने की जिम्मेदारी सरकार और नौकरशाह की है लेकिन जब यहां भी एक बड़ा वर्ग ऐसा हो तो भ्रष्टाचार से लड़ने वाले इन लोगों के पास क्या विकल्प बचता है ?


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