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रविवार, 12 सितंबर 2010

सूचना आयुक्त शैलैष गांधी के कामकाज की पहली जनसुनवाई

सूचना के अधिकार को लेकर यह अपनी तरह की पहली जनसुनवाई थी. इस कानून का इस्तेमाल करने वाले करीब 250 लोग सूचना आयुक्त शैलैष गांधी के कामकाज पर अपनी राय देने और चर्चा करने आए थे. दिल्ली स्थित गांधी शान्ति प्रतिष्ठान  में हुई इस जनसुनवाई में खुद सूचना आयुक्त शैलैष गांधी अपने ही कामकाज की कमियां सुन रहे थे.और वस्तुत: यह जनसुनवाई से ज्यादा एक संवाद की प्रक्रिया की शुरूआत थी जो सूचना के अधिकार कानून को मजबूती देने के लिए बहु प्रतीक्षित थी. कार्यक्रम का संचालन करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि यह संवाद सिर्फ सूचना आयुक्त शैलैष गांधी द्वारा सुने गए मामलों को लेकर है. बाकी सूचना आयुक्तों के फैसलों या सूचना कानून की कमियों की चर्चा का यहां कुछ लाभ नहीं होगा.
जनसुनवाई में सबसे बड़ा मुदा उठा - आयोग के आदेश के बाद भी सूचना न मिलना. लोगों ने अपने अपने मामलों के  सजीव उदाहरण देकर सैकड़ों कहानियां सुनाईं जहां उन्हें सूचना आयुक्त शैलैष गांधी के फैसले से तो सन्तुष्टि  तो  थी लेकिन उनके आदेश के महीनों बाद भी उन्हें सूचना नहीं मिली है. आदेश पर अमल न होने के इतने सारे मामलों को खुद सूचना मांगने वालों के मुंह से सुनने के बाद शैलैष गांधी ने भी कबूल किया कि आदेशों पर पर अमल नहीं होना वाकई एक बड़ी समस्या है. उन्होंने घोषणा की कि महीने में कम से कम एक दिन अब वे ऐसे मामलों को देंगे जहां उनके आदेश के बाद भी सूचना उपलब्ध नहीं कराई जा रही है.
हालांकि यह कोई स्थाई समाधान नहीं है और अरविन्द केजरीवाल ने सुझाव दिया कि अगर सूचना देने के  आदेश के बाद भी मामले की सुनवाई जारी रखें और मामले को तब ही बन्द करें जब आवेदक को सूचना मिल जाए तो इसका आसान समाधान निकल सकता है. इस सुझाव पर शैलैष गांधी का तर्क था कि इससे उनके पास लंबित मामलों की संख्या बढ़ जाएगी और अभी वो जिस तरह दो महीने के अन्दर ही अपील पर सुनवाई शुरू कर देते हैं जबकि बाकी आयुक्तों के यहां 8 से 10 महीने का वक्त लगता है, यह क्रम टूट जाएगा. इस पर उपस्थित लोगों ने एक स्वर मे कहा कि अगर आदेशों पर अमल नहीं होगा तो ऐसे सैकडों आदेश हर महीने पारित करने का भी क्या लाभ होगा.

जनसुनवाई के दौरान लोगों ने अपने खुद के उदाहरणों से जो दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा उठाय वो था धारा 18 के तहत दाखिल की गई शिकायतों पर शिकायतकर्ता को सुनवाई का अवसर दिए बिना ही आदेश पारित कर देना. हालांकि इस तरह के मामलों में अधिकतर लोक सूचना अधिकारी को सूचना उपलब्ध कराने को कहा जाता है लेकिन मामले को निपटाने की प्रक्रिया और आदेशों की भाषा  इस तरह होती है कि अधिकारी सूचना देते ही नहीं हैं. शैलैष गांधी ने माना कि उनकी इस प्रक्रिया में कुछ कमी है और निश्चय  ही वो इसमें बदलाव लाएंगे.
सूचना न देने वाले किसी अधिकारी को तो कारण बताओ नोटिस देना और उस पर ज़ुर्माना भी लगाना, वही कुछ अधिकारियों को सिर्फ सूचना देने के आदेश देकर छोड़ देने का मामला भी जनसुनवाई में उठा. इसी क्रम में यह मुद्दा भी उठा कि बहुत से अधिकारी आयोग के कई बार नोटिस देने पर भी न तो सूचना आयोग आते हैं और न सूचना उपलब्ध करा रहे हैं, ऐसे अधिकारियों पर सख्ती करने के मामले में शैलैष गांधी ने एक तरह से हाथ कर दिए. लोगों ने अरुणाचल प्रदेश का उदाहरण देते हुए सवाल उठाया गया कि वहां आयोग ने ऐसे पांच अधिकारियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी जारी किए हैं. इस पर गांधी  ने एक बार वही दुहाई दी कि अगर वे इस तरह की गतिविधियों में लग जाएंगे तो फिर उनके द्वारा सुने जा रहे मामलों की संख्या कम हो जाएगी और इस तरह लंबित मामलों की संख्या बढ़ जाएगी. इसका नुकसान भी आवेदकों को ही उठाना पड़ेगा. लोग इस तरक से सहमत नहीं थे लेकिन शैलैष गांधी ने भी अपनी ही बात रखी.
एक मुद्दा यह भी उठा कि लोक सूचना अधिकारी को कारण बताओ नोटिस दिए जाने के बाद उस पर ज़ुर्माना लगेगा या नहीं इस बारे में सुनवाई के लिए आवेद्क को बुलाया नहीं जाता. यहां तक कि कई मामलों में अपीलकर्ता ने आयोग को लिखित रूप से भी इन सुनवाईयों में बुलाए जाने को कहा. लेकिन फिर भी उन्हें नहीं बुलाया गया. इस पर शैलैष गांधी का कहना का कि इस तरह के आदेश में सुनवाई की तारीख तो होती है और आवेदक चाहे तो इस तरह की सुनवाई में आ सकता है.
कुल मिलाकर यह एक अच्छी शुरूआत थी. लोगों के अन्दर गुस्सा था, कुछ लोगों का गुस्सा सामने भी आया लेकिन बेहद सन्तुलित अन्दाज़ में. जनसुनवाई के बाद शैलैष गांधी ने भी माना कि इस तरह के  प्रयास की ज़बर्दस्त उपयोगिता है. सूचना आयोग के कामकाज के लिए भी और लोगों के लिए भी.

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