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मंगलवार, 3 मार्च 2009

क्या जज न्याय से परे हैं?

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल ने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सील करने का आदेश दिया जिससे सीधे-सीधे उनके बेटों और उनके सहयोगियों को लाभ पहुंचा। इस तरह श्री सब्बरवाल ने अपने पद का दुरूपयोग किया। न्यायाधीश वाई सब्बरवाल के बेटों ने उसके बाद 15 करोड़ रु का मकान खरीदा जबकि उस समय उनकी घोषित आय लाखों में ही थी। सरकार का कहना है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के गलत कामों की जांच की जाए। इतना ही नहीं मिड डे अखबार के जिन पत्रकारों ने इस घोटाले का पर्दाफाश किया, उन्हें न्यायालय की अवमानना के जुर्म में उच्च न्यायालय ने जेल भेजने की सजा सुना दी। कलकत्ता होई कोर्ट के जज सौमित्र सेन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जगजाहिर हैं। सौमित्रा सेन को महाभियोग के जरिए पद से हटाने के लिए राज्यसभा के 58 सदस्यों ने तो सभापति को याचिका भी सौंपी है।
न्यायाधीश जगदीश भल्ला के परिवार ने नोएडा में 7 करोड़ रुपये के बाजार मूल्य की जमीन मात्र 5 लाख रुपये में एक ऐसे भू माफिया से खरीदी जिसके खिलाफ कई फौजदारी मामले उन्हीं की निचली अदालतों के तहत चल रहे थे। कमेटी फॉर ज्यूडिशियल एकांउटेबिलिटी द्वारा कई बार शिकायत किए जाने के बावजूद भी कोई भी जांच नहीं की गई। उल्टा उन्हें हिमाचल के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिया गया।
पिछले दस सालों के दौरान जज नियुक्त करने की कमेटी से सलाह किए बिना और निर्धरित प्रक्रिया का उल्लंघन करके उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में कितने की जजों की नियुक्ति की गई है। कुछ जजों को तो उनके खिलाफ खुफिया विभाग द्वारा भ्रष्टाचार के मजबूत रिपोर्टों के दिए जाने के बाद भी नियुक्त कर दिया गया है। सरकार कहती है कि जजों की नियुक्ति सम्बन्धी फाइलें गुप्त हैं। तो क्या सरकार को भ्रष्ट न्यायपालिका की जरूरत है?
हाल ही में गाजियाबाद में प्रोविडेन्ट फंड घोटाला उजागर हुआ जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठासीन जज, उच्च न्यायालय के 10 जज और जिला अदालतों के 23 जज शामिल हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश प्रोविडेन्ट फंड में पफंसे जजों से सीधे सवाल पूछने की इजाजत पुलिस को नहीं दे रहे हैं। उन्होंने पुलिस को केवल लिखित सवाल भेजने के निर्देश दिए हैं। इतना ही नहीं जजों पर घोटाले के सूत्र धार आशुतोष अस्थाना को छिपाने के आरोप भी लगे हैं। घोटाले में लिप्त 69 कर्मचारियों को तो जेल भेज दिया गया लेकिन जजों पर हाथ डालने की हिम्मत किसी ने नहीं की।
1991 में वीरास्वामी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के बिना किसी भी जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। इस तरह न्यायपालिका ने किसी भी आपराधिक कार्रवाई से अपने को पूरी तरह से मुक्त कर लिया है, फ़िर जज का अपराध चाहे कितना भी गंभीर क्यों न हो। जजों द्वारा कई बार घोर अपराध किए जाने के बावजूद मुख्य न्यायाधीश ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की इजाजत नहीं दी है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश जजों की संपत्ति के ब्यौरे को भी सार्वजनिक करने से इंकार करते हैं जबकि नेताओं और नौकरशाहों के लिए संपत्ति का खुलासा करना जरूरी होता है। फ़िर जजों से क्यों नहीं? मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि कोई भी स्वाभिमानी जज अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने को राजी नहीं होगा। इतना ही नहीं, वे तो यह भी कहते हैं कि मुख्य न्यायाधीश का पद सूचना के न्यायाधीश के तहत नहीं आता। मजेदार बात यह है कि चुनाव लड़ने वाले नेताओं की संपत्ति का ब्यौरा देने का आदेश खुद सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था। कई उच्च न्यायालयों ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत अपनी सुविधानुसार नियम बना लिए हैं जिसमें प्रशासनिक और वित्तीय मामलों पर सूचना लेने की मनाही है। यही वजह है कि जजों या अन्य लोगों की नियुक्ति, लंबित पडे़ मामलों और यहां तक की अदालतों के बजट के बारे में भी सूचना आम जनता को नहीं मिल रही है।

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