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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

स्वतंत्र भारत का सबसे अनोखा कानून

चेतन चौहान

अक्टूबर 2005 में लागू होने के बाद सूचना के अधिकार कानून ने एक लंबा सफर तय किया है। नौकरशाहों के तमाम अडंगों के बावजूद सरकारी कार्यालयों में अब बेधड़क आरटीआई आवेदन जमा हो रहे हैं। इस कानून ने शासन की कार्यप्रणाली में बदलाव तो लाया ही है, साथ ही नौकरशाहों को भी अब एहसास हो गया है कि जनता उनकी कार्यप्रणाली पर उंगली उठा सकती है। पत्रकारीय बैठकों के दौरान कई नौकरशाहों ने मुझसे कहा कि आरटीआई के चलते वे अब फाइलों में लिखने से पहले दस बार सोचते हैं क्योंकि ये फाइलें अब जनता देख सकती है।
यह काफी दुखद है कि लगभग सभी नौकरशाहों के बीच आरटीआई को लेकर एक आम सहमति है कि यह कानून बेकार है और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश कई सारे नेता भी इससे सहमत दिख रहे हैं। लेकिन आरटीआई कार्यकर्ताओं और मीडिया को धन्यवाद, जो ऐसे नापाक इरादों को सपफल नहीं होने दे रहे हैं।
मैं अपने उन सभी पत्रकार साथियों को प्रशंसा करता हूं जो सरकारी विभागों से महत्वपूर्ण सूचनाएं एकत्र करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि हमेशा की तरह नौकरशाही रवैए के चलते मेरे लिए सूचना पाना कोई आसान काम नहीं रहा है। फ़िर भी, मीडिया में होने का फायदा मुझे मिला है जो आम नागरिकों को नहीं मिलता।
तीन साल पहले जब आरटीआई कानून लागू हुआ, मैंने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में दो आवेदन जमा किए। सिर्फ आवेदन जमा करने में मुझे एक दिन का समय लगा। कुछ इसी तरह का अनुभव मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ भी रहा। लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। मेरे विचार से आरटीआई आवेदन जमा करने का सबसे अच्छा तरीका है डाकघर का इस्तेमाल करना। इसमें 10 रूपये का आईपीओ लगाकर आवेदन को सीधे विभाग के पते पर पोस्ट कर दें। अब तक दो दर्जन से ज्यादा आवेदन मैने इसी तरह जमा किए हैं लेकिन इस प्रक्रिया की भी अपनी सीमा है। पहले तो आपको यह पता ही नहीं होता कि अमुक विभाग में आपका आवेदन पहुंचा भी है या नहीं क्योंकि अमूमन सरकारी विभाग इसका कोई जवाब नहीं देते। कुछ सरकारी विभाग मसलन, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार भवन ने आवेदन पहुंचने की जानकारी मुझे दी लेकिन योजना आयोग और सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय की तरह अन्य कई विभागों ने कभी भी इस तरह की जानकारी मुझे नहीं दी।
मेरे हिसाब से सरकारी विभागों में एक ऐसा तंत्र बनाया जाना चाहिए जिससे ईमेल के जरिए आरटीआई आवेदन जमा किए जा सकें और सूचना भी आवेदक को ईमेल के जरिए पहुंचाई जा सके। हालांकि यह अभी दूर की कौड़ी ही लगता है।
आरटीआई को लेकर जो मेरा अनुभव है उससे यही पता चलता है कि स्वतंत्र भारत में बने सभी कानूनों में यह कानून सबसे अनोखा है जिसने आम आदमी को सवाल पूछने की अद्भुत ताकत दी है। यहां तक की पत्रकारों को भी आरटीआई के तौर पर एक ऐसा हथियार मिला है जिसकी बदौलत नौकरशाहों के क्रियाकलापों पर सवाल उठाया जा सके।
एक बार मैंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय में मिड डे मील के बारे में सूचना मांगने के लिए एक आवेदन जमा किया। शुरू में अधिकारियों ने मुझे टालना चाहा लेकिन यह बताने पर कि समय पर सूचना नहीं देने के कारण उन्हें दंडित भी होना पड़ सकता है, समय पर जानकारी उपलब्ध करा दी गई। हालांकि यह सूचना इतनी ज्यादा थी कि मानो मुझ पर एक बोझ डाल दिया गया हो। अधिकारियों ने मुझसे सैकड़ों पृष्ठों की सूचना देने के बदले 10 हजार रूपये जमा कराने को कहा। जब मैंने सारी सूचनाएं सीडी, फ्लोपी, या डिस्क में मांगी तो उन्होंने फ़िर से आवेदन करने को कहा। मैंने ऐसा किया भी। फ़िर अगले 4 दिनों के बाद उन्होंने मुझसे 50 रूपये जमा करने को कहा। मेरे यह पूछने पर कि महज 50 रूपये जमा करने के लिए 4 दिन का समय क्यों लिया गया तो लोक सूचना अधिकारी ने जवाब दिया कि इसके लिए सचिव की अनुमति लेनी होती है। लेकिन सवाल ये उठता है कि जब कानून में इलेक्ट्रोनिक तरीके से सूचना उपलब्ध कराने की बात स्पष्ट है तो इसके लिए सचिव से अनुमति लेने की बात कहां तक जायज है। जबकि लोक सूचना अधिकारी मुझे सूचना उपलब्ध कराने के लिए ऑथराइज था।
यहां ये बताना भी महत्वपूर्ण है कि सूचना अधिकारी सूचना देने के लिए ऑथराइज तो है ही स्वतंत्र भी है। मतलब इसके लिए लोक सूचना अधिकारी को अपने वरिष्ठ अधिकारियों से अनुमति लेने की जरूरत नहीं। बावजूद इसके लगभग सभी सरकारी विभागों के लोक सूचना अधिकारी सूचना उपलब्ध कराने से पहले अपने वरिष्ठ अधिकारियों की अनुमति लेना कभी नहीं भूलते।
अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि लोक सूचना अधिकारियों को पूरी स्वायत्तता मिलनी चाहिए। साथ ही उनका एक अलग कैडर भी बनाया जाना चाहिए ताकि सूचना मुहैया कराने में कोई देरी न हो। इसके अलावा उन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण की भी जरूरत है।
दो मंत्रालयों के मेरे अनुभवों से यह साबित होता है कि जो सूचना अधिकारी जितनी जल्दी सूचना मुहैया कराता है उतनी ही जल्दी उसे पद से हटा भी दिया जाता है। परिणामस्वरूप नए सूचना अधिकारी को पुराने आरटीआई आवेदन के बारे में कोई जानकारी भी नहीं होती। नतीजा एक बार फ़िर बेवजह की देरी और अन्य परेशानियां। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को ऐसे आदेश जारी करने चाहिए जिससे सूचना अधिकारी का कार्यकाल तय किया जा सके।
मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है आरटीआई का इस्तेमाल। हम जितना ज्यादा कानून का इस्तेमाल करेंगे, उतना ही ज्यादा सरकार को जवाबदेह बना सकेंगे। लेकिन मैं यह भी कहना चाहूंगा कि आरटीआई कार्यकर्ता लोगों की व्यक्तिगत समस्याओं के लिए आरटीआई इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित न करें। यह कानून जन मुद्दों को सामने लाने के लिए बनाया गया है और इसका इस्तेमाल भी इसी के लिए होना चाहिए।

(लेखक हिन्दुस्तान टाइम्स से जुडे़ हैं)

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