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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

सूचना का अधिकार- पूर्ण स्वराज की तरफ़ एक कदम

अनिल दुबे

14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि, संसद भवन नई दिल्ली। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू देश को संबोधित कर रहे थे- हमने भाग्य की देवी से एक वादा किया था।
3 जुलाई 2006 की सुबह मैं राजस्थान के एक पिछडे़ जिले करौली पहुंचा था। मैं निकला था राजस्थान के गांवों में चल रहे नरेगा की दशा और दिशा दिखाने। विकास पत्राकारिता में यह मेरा दूसरा कदम था। मैं इससे पहले बुंदेलखंड के इलाके में नरेगा के कामों की रिपोर्टिंग कर चुका था। तमाम दावों के बावजूद वहां महोबा, बांदा और हमीरपुर जैसे इलाकों में स्थिति सुधरती हुई नहीं दिख रही थी। झुर्रिओं से भरे चेहरे हमारी तरफ एकटक खामोशी से बस यूं ही देखते रह जाते। हम बात करना चाहते लेकिन उनके होठों से शब्द नहीं निकलते। महोबा ब्लॉक में हालात बदतर थे। नरेगा के तहत तालाब खोदने का काम शुरू किया गया था। (यह जून का पहला सप्ताह था) गर्मी के दिनों में वहां से भारी पलायन शुरू हो जाता था, लेकिन इस साल कुछ लोग गांव में रुक गए थे। प्रधान और बीडीओ ने गांव में काम दिलाने का वायदा किया था। जब हम तालाब की जगह पहुंचे तो देखा कि कैसे छोटे-छोटे बच्चे जिनकी उम्र बमुश्किल 10-11 साल होगी, फावड़ा चला रहे हैं। मिट्टी ढोकर ले जा रहे हैं और फेंक रहे हैं। जब मैंने उनके पूछा कि कितना पैसा मिलता है तो उन्होंने बताया कि 30 रूपये। एक तो बाल मजदूरी और उस पर इतनी धूप में बड़ों की तरह ही पसीना बहाने के बावजूद आधा मेहनताना। हमने और भी लोगों से बात की। जॉब कार्ड, मस्टर रोल और भुगतान में बडे़ पैमाने पर अनियमितता बरती गई थी। उस समय सूचना का अधिकार लागू हो चुका था। मैंने लोगों से सूचना के अधिकार के तहत आवेदन कर अपने हक की लड़ाई लड़ने की सलाह दी। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ जब लोगों ने मुझसे पूछा ये आरटीआई क्या है?

एक महीने बाद मैं राजस्थान के करौली में था। करौली प्रखंड में नरेगा के तहत खुद रहे तालाब पर लोगों से मिलने पहुंचा था। स्थिति बेहतर दिखी। काम करने वालों में अधिकतम महिलाएं थीं। वहां सबको पैसे भी ठीक से मिल रहे थे, लेकिन यह एक आदर्श स्थिति थी। मैं करौली में किसी को जानता नहीं था। और किसी से मिलने का समय भी नहीं मिल पा रहा था। इसलिए बीडीओ को साथ ले लिया और उन्होंने जिले की सबसे अच्छी साइट चुनी थी हमारी रिपोर्टिंग के लिए। मैं थोड़ा निराश हुआ लेकिन मैं गलती कर चुका था। हम वापस जिला मुख्यालय पहुंचे। मुझे नरेगा को लेकर डीएम से बात करनी थी। वहां पहुंचते ही सारा मामला खुल गया। करौली के पड़ोसी जिले ब्लॉक से करीब 40 लोग इकट्ठा हुए थे। वे लोग डीएम साहब से फरियाद करने आए थे। मानो अपने राजा से फरियाद कर रहे हों। हुजूर हमे बचा लो। हमारा प्रधान, असिसटेंट इजीनियर और बीडीओ मिले हुए हैं। हमारे सभी जॉब कार्ड प्रधान ने अपने पास जमा करा लिए हैं और एई कहता है कि यदि तुमको पूरी मजदूरी चाहिए तो प्रति व्यक्ति 20 रुपये जमा करो। नहीं तो पूरी खंती का पैसा नहीं मिलेगा। डीएम साहब ने भी उसी अंदाज में अपना एक हाथ उठाकर लोगों को शांत किया और लोगों को मामले की जांच का आश्वासन देकर उनको चलता किया। मैंने लोगों को रुकने का इशारा किया और डीएम साहब के केबिन की तरफ बढ़ा। वहां बैठे शख्स ने डीएम से मुलाकात कराई। वहीं वे बीडीओ थे जिस पर आरोप लगे थे। मैंने उनसे पूछा कि माजरा क्या है? उन्होंने कहा- सब कामचोर हैं। खंती पूरा नहीं कराते और पूरी मजदूरी भी चाहिए। मजदूरी काट ली थी इसीलिए भागे-भागे आए।
डीएम ने ठहाका लगाते हुए तीन चाय का ऑर्डर अपने अर्दली को पास कर दिया।

मैं जब बाहर आया तो देखा कि लोग एक स्टॉल को घेरकर खडे़ हैं। मैंने नजदीक जाकर देखा तो स्टॉल घूस को घूंसा कैंपेन का हिस्सा था। वहां बैठे सामाजिक कार्यकर्ता लोगों को सूचना के कानून के तहत आवेदन लिखा रहे थे। लोगों को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि एक आवेदन चीजें बदलेगी। एक आदमी बोल रहा था- आपसे जो 20 रूपया एई मांग रहा था उसी में से 10 रूपया खर्च करें। आरटीआई के तहत आवेदन करो सवाल पूछो अपने मेहनताने के बारे में, मस्टर रोल के बारे में। सवाल पूछो। इतना सब कुछ किया कुछ नहीं हुआ आजतक। यह भी कर लो। 20 लोगों के आवेदन बने और जमा होने चल पडे़। डीएम साहब के ना नुकुर के बाद आवेदन जमा हो गए। उन्होंने सब कुछ ठीक कराने का भरोसा दिलाया। पिछली बार जिलाधिकारी ने देख लेने का आश्वासन दिया था, लेकिन चेहरे पर माखौल उड़ाने का भाव था। इस बार वह सब कुछ ठीक कराने का भरोसा दे रहे थे लेकिन चेहरे पर परेशानी और चिंता के भाव थे। ग्रामीणों की आंखों में उम्मीद की किरण थी। ये कमाल आरटीआई का था।

हम जैसे-जैसे राजस्थान के दूसरों जिलों में आगे बढ़े उम्मीद की किरणें सच्चाई में तब्दील होती नजर आई। आत्मविश्वास बढ़ता नजर आया। बंसवाडा, झालावाड, डूंगरपुर, उदयपुर, सिरोही......
लोगों को सरकारी अधिकारियों की आंखों में आंखें डालकर बातें करना कुछ और ही इशारा कर रहा था। दिल्ली लौटते-लौटते मैं सोच चुका था यदि मौका मिलेगा तो अब से उन आंखों की कहानी लोगों को सुनाउंगा। जो आंखे डर से सहमी हुई नहीं दिखतीं आत्मविश्वास से लबरेज दिखती हैं। मैं उन लोगों की कहानी सुनाऊंगा जो हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहते बल्कि अपनी तकदीर खुद लिखने के लिए ऐसा हथियार उठाते हैं जिसकी हर चोट हमारी इस शासन व्यवस्था में लोकतंत्र की एक और कील मजबूती से ठोक देती है। और वह हथियार होता है- सूचना का अधिकार कानून।

जब मैं लौटा तो पता चला कि सूचना का अधिकार कानून पर कोई कार्यक्रम शुरू कराने की बात चल रही है। मैंने राजस्थान के अपने अनुभव बांटे। उस प्रोग्राम की टीम में शामिल होने का प्रस्ताव मुझे मिला। मैंने तुंरत हां कर दी। फ़िर क्या था, शुरू हुआ जानने के हक का सफर। (जो आज 110 एपिसोड पार कर चुका है)
हमने देश के कोने-कोने से सफलता की कहानियां उठाईं और इस प्रोग्राम में दिखाईं। लोगों को रिस्पोंस जबरदस्त था। उनके कॉल आने शुरू हुए जिसका सिलसिला आज तक जारी है। हर सप्ताह करीब 17-18 राज्यों से फोन कॉल आते हैं। तय करना मुश्किल होता है कि कौन-कौन से राज्य को एक एपिसोड में शामिल करें।
देश भर में घूम-घूम कर आरटीआई की स्टोरी कवर करने के दौरान जितने भी लोगों से मिला उन सबके चेहरे मुझे आज तक याद हैं। चाहे वे सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड के गांव में राशन को तरस रहे रामअवतार की कहानी हो या नागापटि्टनम में सुनामी में अपने पूरे परिवार को खो चुकी मेघला की कहानी। सबकी कहानी एक-सी है बस चेहरे बदल जाते हैं। कहानी फिल्मों सी ही हैं लेकिन इसमें हीरो आरटीआई है जो सबको सरकारी अधिकारियों, ग्राम प्रधानों से परेशान जनता को उनका हक दिलाता है।

हमने रिपोर्टिंग करते हुए देखा कि जो लोग कल तक डीएम और बीडीओ के दफतर तक नहीं पहुंच पाते थे वो आज उन्हीं से सवाल पूछ रहे हैं। अपने राशन कार्ड के बारे में, अपने बीपीएल कार्ड के बारे में, इंदिरा आवास के तहत मिलने वाले अपने घर के बारे में, पीने के साफ पानी के बारे में, अपने जंगलों के बारे में, विस्थापन के बाद पुनर्वास के बारे में। लोगों को यह महसूस होने लगा है कि यह सरकार हमारे पैसों पर चलती है। इस कानून की पहुंच का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां सरकारी मशीनरी नहीं पहुंच पा रही है वहां भी यह कानून पहुंच चुका है और लोगों को उनका हक दिला रहा है। छत्तीसगढ़, झारखंड और उडीसा में कुछ ऐसे इलाकों में सूचना का अधिकार कानून स्वराज का पाठ पढ़ा रहा है जो पूरी तरह से नक्सली प्रभावित हैं। संभलपुर के राधखोल ब्लॉक में जंगल के अंदर नदी पार कर (उस नदी पर पुल नहीं है) और तीन किमी अंदर चलकर हम एक गांव में पहुंचे थे। मेरे साथ थे सामाजिक कार्यकर्ता कल्याण आनंद। एक गांव में उडिया में लिखा था-हमारा पैसा हमारा हिसाब। आनंद कह रहे थे- हमें आजाद हुए साठ साल से ज्यादा हो गए लेकिन अभी पूरी आजादी नहीं मिली है। सही मायने में लोकतंत्र नहीं आया है। जब तक निर्णय लेने की पूरी प्रक्रिया में गांव के लोगों की हिस्सेदारी नहीं होगी, लोकतंत्र की बात करना बेमानी है। हमने जानना चाहा आखिर क्या रास्ता हो सकता है तो आनंद ने कहा आरटीआई।

मेरे कानों में प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के वो शब्द कोनों में गूंज उठे जब उन्होंने 1929 में लाहौर में रावी नदी के तट पर खडे़ होकर शपथ ली थी-जब तक हमें पूर्ण स्वराज नहीं मिल जाता... क्या हुआ? मिला पूर्ण स्वराज? आनंद की बात कानों में गूंजती है... लोकतंत्र की बात करना बेमानी है अभी.... आरटीआई एक रास्ता हो सकता है वहां तक पहुंचने के लिए.....

(लेखक डीडी न्यूज में एंकर एवं संवाददाता हैं)

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