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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

न्यूज चैनल में आरटीआई रिपोर्टर!

शशि शेखर

हो सकता है कि इस लेख का शीर्षक पढ़कर आप थोडे़ आश्चर्य में पड़ गए हों कि आखिर ये आरटीआई रिपोर्टर क्या बला है? लेकिन सच कहता हूं, मैं शायद भारतीय मीडिया का पहला ऐसा रिपोर्टर था जिसे आरटीआई कवर करने और साथ ही इसका इस्तेमाल कर खबर निकालने के लिए रखा गया। कहा जा सकता है कि पहली बार आरटीआई को एक बड़ी बीट के रूप में मानते हुए एक रिपोर्टर को पूर्णकालिक जिम्मेदारी दी गई।
अक्टूबर 2007 की बात है। इंडिया न्यूज के नाम से एक चैनल की लांचिग की तैयारी चल रही थी। तब मैं अपना पन्ना मैगजीन में सहायक संपादक की हैसियत से काम कर रहा था। आरटीआई की पृष्ठभूमि से वाकिफ था। सो चैनल में नियुक्ति प्रक्रिया देख रहे अजीत द्विवेदी जी ने आरटीआई पर काम करने के लिए मेरा चयन कर लिया। और जब मैनें उनसे पूछा कि मेरा पदनाम क्या होगा तो उन्होंने बताया- आरटीआई रिपोर्टर। तब मैं भी यह सुनकर चौंका था। बहरहाल इलेक्ट्रोनिक मीडिया में पहली नौकरी मिल रही थी, सो ज्यादा सवाल जवाब करना ठीक नहीं समझा। मैने काम करना शुरू किया और पहले ही दिन अजीत द्विवेदी ने मेरे हाथों में 3-4 मोटी फाइलें पकड़ा दीं। देखा, इसमें करीब 20-25 आरटीआई आवेदन और उनके जवाब में मिली सूचना की फाइल थी। सारे आवेदन खुद द्विवेजी जी के नाम से थे और 2-3 माह पुराने भी। मतलब साफ था कि द्विवेजी जी ने इस चैनल मे आरटीआई को महत्वपूर्ण दर्जा देने की तैयारी बहुत पहले से ही कर रखी थी। और शायद इसी का नतीजा था कि मुझे उन्होंने आरटीआई पर काम करने को चुना भी।
बहरहाल, मैनें भी अपने बीट पर जोर-शोर से काम करना शुरू कर दिया। अलग-अलग मुद्दों पर रोज 2-3 आरटीआई आवेदन तैयार करता, उसे पोस्ट करता। इसमें मेरे पूर्व संस्था के सहयोगियों का भी खूब सहयोग मिला। चूंकि चैनल लांच होने में 2-3 महीने का समय था, सो इस बीच जमकर आरटीआई आवेदन बनाया गया। 1-2 महीने में इसका नतीजा भी सामने आने लगा। चैनल शुरू होने से पहले ही हमारे पास काफी संख्या में एक्सक्लूसिव स्टोरीज इकट्ठी हो गई थीं। चैनल ऑन एयर होने के पहले ही सप्ताह में हमने उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती पर एक जोरदार स्टोरी की। मामला सरकारी पैसे पर दिल्ली के एक फाईव स्टार होटल में पार्टी का था। हालांकि इस बात का थोड़ा दुख भी होता है कि इतनी अच्छी स्टोरी तब चला दी गई जब हमारे चैनल की रीच बहुत ही कम थी। फ़िर इसके बाद अफसल पर भी एक बेहतरीन स्टोरी हुई। कह सकते हैं कि यह स्टोरी आरटीआई की सहायता से ही ब्रेक हुई। मामला अफजल की क्षमा याचिका से सम्बंधित था, जो दो सालों से दिल्ली सरकार के पास पेंडिंग है। बाद में यह खबर कई अखबार में प्रमुखता से छपी। लेकिन उस वक्त भी चैनल की रीच बहुत कम होने की वजह से यह खबर लोगों के ध्यान में नहीं आ पाई।
खैर ये तो आरटीआई से एक्सक्लूसिव स्टोरीज मिलने की बात है। लेकिन आरटीआई पर काम करना किसी चुनौती से भी कम नहीं। एक तो ये टाईम टेंकिग प्रोसेस है, फ़िर कई बार सरकारी अधिकारियों और बाबुओं की लालफीताशाही इसे और भी जटिल बना देती है। इसके लिए दो उदाहरण देना चाहूंगा।
गोवा पुलिस पिछले 6 महीने से मेरे पास एक पत्र लगातार भेज रही है, जिसमें मुझसे लगातार कहा जाता है कि एक पेज की सूचना लेने के लिए मैं पणजी स्थित उनके कार्यालय में पहुचूं या फ़िर दो रूपये का डिमांड ड्राफ्ट बना कर भेजूं। खास बात यह है कि ये पत्र दिल्ली स्थित एक पुलिस स्टेशन के सिपाहियों के माध्यम से मेरे पास तक पहुंचता है। जो एक तरह से मुझपर दबाव डालते हैं कि मैं सूचना क्यों नहीं लेता। एक बार छुट्टी के दिन भी मुझे पुलिस स्टेशन जाकर वह पत्र रिसीव करना पड़ा था। अब आप ही बताएं कि जब गोवा पुलिस इस तरह के पत्राचार पर सैकड़ों रूपये खर्च कर सकती है तो क्या वो एक पेज की सूचना सीधे सीधे मेरे पास नहीं भेज सकती। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार और दिल्ली मेट्रो रेल ने सूचना देने के एवज में मुझसे क्रमश: 36 हजार और 1200 रूपये की मांग की। कई विभागों ने तो सूचना देने के बजाय मुझसे यहां तक पूछा कि आपका ये सूचना क्यों चाहिए और आपके पास अमुक डाक्यूमेंट कहां से आए।

बहरहाल, जैसे हरेक कानून की अपनी पेचिदगियां होती हैं, आरटीआई कानून को भी पेचीदा बनाने की भरपूर सरकारी कोशिश की जाती रही है। लेकिन न्यूज चैनल और आरटीआई के बीच के संबंध को इस साल में मैंने जितना समझ पाया है, उससे यह साबित हो जाता है कि न्यूज चैनल आरटीआई से खबर तो लेना चाहता है लेकिन आरटीआई कानून की खबर लेना उसके एजेंडे में शामिल नही है। कई बार मेरे पास ऐसी खबरें आईं जिसमें सरेआम इस कानून की धज्जियाँ उडाई गई थी। लेकिन चैनल इसे हर बार एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग के कसौटी पर कसता था। जाहिर है, इस कसौटी पर वैसी खबरें टिकती नहीं थीं। कई बार दुखी मन से वैसी खबरों या पीड़ित पक्ष को समझा बुझाकर वापस भेजना पड़ता था। मेरी इतनी हैसियत तो थी नहीं कि मैं अपने बॉस को समझाउ कि हथियार के कारगर उपयोग के लिए हथियार के देखभाल की भी जरूरत होती है।

(लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं)

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