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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

अदालत, आयोग और उत्तरपुस्तिका

भागीरथ
देश के करोड़ों छात्रों का भविष्य परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंकों पर निर्भर करता है। ऐसे में कई छात्रों की शिकायत होती है कि उन्हें उम्मीद से कम अंक मिले हैं। कई बार ये शिकायत वाजिब भी होती है। लेकिन परीक्षा लेने वाली संस्थाएं किसी भी कीमत पर उत्तरपुस्तिका को सार्वजनिक नहीं करना चाहती। लेकिन सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद परिस्थितियां कुछ-कुछ बदली हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग, कई राज्य सूचना आयोग और उच्च न्यायालय ने इस ऐसे मामलों में छात्रहित में फैसला सुनाया है और परीक्षा लेने वाली संस्थाओं को उत्तरपुस्तिका छात्र को मुहैया कराने के आदेश दिए हैं। यहाँ छात्रहित से जुडे़ कुछ ऐसे ही मामलों का उल्लेख किया जा रहा है ताकि आम आदमी और खासकर छात्र वर्ग इससे लाभ उठा सके।

कलकत्ता उच्च न्यायालय:
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कलकत्ता विश्वविद्यालय को सूचना के अधिकार के जरिए आवेदक प्रीतम रूज को उत्तर पुस्तिका दिखाने का आदेश दिया है। विश्वविद्यालय के प्रेजीडेंसी कॉलेज मे पढ़ने वाले प्रीतम के एक पेपर में 28 अंक आए थे। कॉलेज द्वारा छात्र के कहने पर समीक्षा की गई तो 32 अंक हासिल हो गए। पेपर में क्या गड़बड़ी हुई, यही जानने के लिए छात्र ने आरटीआई के जरिए उत्तर पुस्तिका दिखाने की मांग की थी। उत्तर पुस्तिका दिखाना विश्वविद्यालय के नियमों में नहीं है इस आधार पर विश्वविद्यालय ने उत्तर पुस्तिका दिखाने की मांग खारिज कर दी। आवेदक ने सूचना आयोग में जाने के बजाय सीधे उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की, जहां जस्टिस संजीव बनर्जी की एकल बैंच ने आवेदक के पक्ष में फैसला सुनाया। विश्वविद्यालय को इससे तसल्ली नहीं हुई और उसने एकल बैंच के इस फैसले को चुनौती दी थी।
कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस एस निज्जर और दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने एकल बैंच के पूर्ववर्ती फैसले को बरकरार रखते हुए विश्वविद्यालय, सीबीएसई और अन्य परीक्षा आयोजित करने वाली एजेंसिओं को कानून के दायरे में बताया है। न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 19 के अनुसार अभ्यर्थियों को उत्तर पुस्तिका हासिल करने का अधिकार है। निरीक्षण न करने देने से अभिव्यक्ति और सूचना के सांवैधनिक अधिकार को कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

केन्द्रीय सूचना आयोग:
केस संख्या 1- केन्द्रीय सूचना आयोग ने एक अपील की सुनवाई की बाद पोंडिचेरी विश्वविद्यालय को आवेदक अजय कुमार साहू को न केवल उत्तर पुस्तिका दिखाने बल्कि उनकी छायाप्रति उपलब्ध कराने के आदेश भी दिए। उत्तरपुस्तिका न दिखाने के लिए अपीलीय अधिकारी ने दलील दी थी कि विश्वविद्यालय में उत्तरपुस्तिका दिखाने का कोई नियम या प्रावधन नहीं है और इस तरह की सूचना कानून की धारा 8(१)(ई) और (जे) के तहत आच्छादित है। आयोग ने सुनवाई में इन दलीलों को निराधर पाया और लोक सूचना अधिकारी को चेतावनी दी कि वह इस धारा का गलत इस्तेमाल न करे।

केस 2- सीआईसी ने मुकेश कुमार के नरेश बनाम सीबीएसई के निर्णय में सीबीएसई को उत्तरपुस्तिका दिखाने के आदेश दिए। आवेदक मुकेश कुमार ने अपने पुत्र रवि नरेश की उत्तरपुस्तिका दिखाने की मांग की थी जिसे सीबीएसई ने कानून की धरा 8 (१)(ई) का सहारा लेकर ठुकरा दिया था। मुकेश कुमार ने दलील दी की उनका पुत्र एक मेधावी छात्र है और उसने अनेक प्रतियोगी परीक्षाएं पास की हैं। उन्होंने अपने पुत्र के 90 प्रतिशत अंक प्राप्त होने की उम्मीद जताई थी। परीक्षा में कम अंक प्राप्त होने की वजह वह उत्तरपुस्तिका देखकर जानना चाहते थे। आवेदक की दलीलों से सहमत होते और पारदर्शिता का ख्याल रखते हुए आयोग ने सीबीएसई को उत्तरपुस्तिका दिखाने का आदेश दिया।

केस 3- दिल्ली के प्रमोद सरीन ने दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज से 27 मई 2007 को आयोजित किए गए संयुक्त प्रवेश परीक्षा की टेस्ट बुकलेट, उत्तर और ओएमआर की प्रतियां मांगी, जिसे विश्वविद्यालय की बौद्धिक संपदा मानते हुए देने से मना कर दिया गया। साथ ही दलील दी कि इससे अन्य प्रतियोगी छात्रों पर भी बुरा असर पडे़गा। आयोग ने इन दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि वस्तुनिष्ठ प्रश्न तैयार करना कोई ऐसी कला नहीं है जिसे बौद्धिक संपदा माना जाए। आयोग ने विश्वविद्यालय की इस दलील को भी खारिज कर दिया है कि ओएमआर प्रति सार्वजनिक करने से भविष्य में अन्य विवाद और अदालती मामलों की संख्या बढ़ सकती है। इस संबंध में आयोग का मानना था कि भविष्य में आने वाली समस्याओं को आधार मानकर अपना फैसला नहीं दे सकती।

बिहार सूचना आयोग:
एलएन मिथिला विश्वविद्यालय के बी. कॉम प्रथम वर्ष के छात्र मुरारी कुमार झा ने अपनी उत्तरपुस्तिका निरीक्षण की मांग की लेकिन विश्वविद्यालय ने कानून की धरा 8(१)(ई) यानि वैश्वासिक रिश्ते की आड़ लेकर इसकी इजाजत नहीं दी। विश्वविद्यालय ने दलील दी कि परीक्षक और परीक्षा आयोजित करने वाली संस्था के बीच एक वैश्वासिक रिश्ता होता है। उत्तरपुस्तिका निरीक्षण की अनुमति देने से यह इस रिश्ते पर विपरीत असर पडे़गा, इसलिए निरीक्षण की अनुमति नहीं दी जा सकती। आयोग को इन दलीलों में कोई दम नजर नहीं आया। आयोग का मानना था कि जो रिश्ता विश्वविद्यालय और छात्र के बीच होता है वह विश्वविद्यालय और परीक्षक के बीच रिश्ते से अधिक मजबूत और महत्व पूर्ण होता है, इसलिए इसकी आड़ में निरीक्षण या उत्तरपुस्तिका दिखाने से मना नहीं किया जा सकता।

त्रिपुरा सूचना आयोग:
अगरतला की सोमाश्री चौधरी बनाम त्रिपुरा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मामले में त्रिपुरा राज्य सूचना आयोग ने बोर्ड को उत्तरपुस्तिका दिखाने के आदेश दिए हैं। सोमाश्री चौधरी ने 2007 की परीक्षा में कम अंक आने पर बोर्ड से बंगाली, गणित और जीवविज्ञान की उत्तरपुस्तिका दिखाने की मांग की थी। उत्तरपुस्तिका न दिखाने के लिए बोर्ड ने दलील दी थी कि इससे परीक्षक की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसके अलावा बोर्ड ने उत्तरपुस्तिका न दिखाने के पक्ष में उच्चतम न्यायालय, कलकत्ता उच्च न्यायालय और केन्द्रीय सूचना आयोग का भी हवाला दिया था लेकिन राज्य सूचना आयोग ने इन दलीलों को खारिज कर दिया और साथ की बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी पर जुर्माना भी लगाया।

पश्चिम बंगाल सूचना आयोग
पश्चिम बंगाल सूचना आयोग ने कलकत्ता के सुजोय दास गुप्ता बनाम बर्धवान विश्वविद्यालय के मामले में उत्तरपुस्तिका आवेदक को उपलब्ध कराने के आदेश दिए हैं। एम ए राजनीति विज्ञान के एक पेपर (इंटरनेशनल लॉ) में सुजोय के 56 अंक आए थे जो समीक्षा कराने पर 47 हो गए। सुजोय दास गुप्ता इसी पेपर का निरीक्षण करना चाहते थे। लेकिन विश्वविद्यालय ने इसे निजी सूचना और व्यापक जनहित से सम्बंधित न होने और नियमों में ऐसा न होने की दलील देकर आवेदक को निरीक्षण करने की अनुमति नहीं दी। आयोग ने इन दलीलों को नहीं माना और कहा कि विश्वविद्यालय प्राधिकरण को अधिक से अधिक सूचना प्रदान करने की मानसिकता विकसित करनी चाहिए। साथ ही कहा कि विश्वविद्यालय को उत्तरपुस्तिका दिखाने का पूर्ण तंत्र विकसित करना चाहिए। और सुजोय दास गुप्ता को उत्तरपुस्तिका उपलब्ध करानी चाहिए।

उपरोक्त राज्य सूचना आयोगों और कलकत्ता हाईकोर्ट के निर्णय के अलावा गुजरात और छत्तीसगढ़ सूचना आयोग ने भी ऐसे निर्णय दिए हैं। हालांकि कुछ फैसलों के खिलाफ उच्च न्यायालयों में अपील की गई है। प्रतियोगी परीक्षाओं में भी आयोगों और उच्च न्यायालयों का उत्तरपुस्तिका को सार्वजनिक करने को लेकर सकारात्मक रूख रहा है। पहले केन्द्रीय सूचना आयोग और फ़िर दिल्ली उच्च न्यायालय ने यूपीएससी का उत्तरपुस्तिका दिखाने का ऐसा ही आदेश दिया है। हालांकि यह मामला फिलहाल उच्चतम न्यायालय में लंबित है। इसी तरह पटना उच्च न्यायालय भी एक फैसले में बिहार लोक सेवा आयोग को अभ्यर्थियों के प्राप्तांकों को सार्वजनिक करने के आदेश दिए हैं।
उधर छत्तीसगढ़ में राज्य सिविल सेवा परीक्षा में जबरदस्त धांधली का खुलासा भी सूचना के अधिकार की बदौलत ही हुआ था। इस मामले में राज्य लोक सेवा आयोग तात्कालीन चेयरमैन के खिलाफ मामला भी चल रहा है।

सवाल ये है कि विश्वविद्यालय को उत्तर पुस्तिका दिखाने में ऐतराज क्यों है? दरअसल विश्वविद्यालय को लगता ही नहीं है कि परीक्षा जांच में उनसे कोई गड़बड़ी हो सकती है। यह अलग बात है कि अनेक बार विश्वविद्यालय इस मामले में पहले ही कठघरे में खडे़ हो चुके हैं। दूसरा, उन्हें लगता है, ऐसा होने पर उनके कामकाज पर अनावश्यक भार पड़ जाएगा और पूरा परीक्षा तंत्र ढह जाएगा क्योंकि अगर एक बार उत्तर पुस्तिका दिखा दी तो उत्तर पुस्तिका देखने वाले छात्रों की बाढ़ आ जाएगी। विश्वविद्यालय की इन दलीलों से शायद ही कोई जवाबदेही और पारदर्शिता की उम्मीदें करने वाला सहमत होगा।
सवाल ये भी है कि क्या विश्वविद्यालयों और परीक्षा बोर्डों को गोपनीयता के नाम पर छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करने खुली छूट दी जा सकती है? क्या छात्र को यह जानने का अधिकार नहीं है कि उत्तर पुस्तिका देखकर वह अपनी कमियां दूर कर सके ताकि आगामी परीक्षाओं में उन्हें न दोहराया जाए?

सच हुए सपने

सुंदर नगरी का मोहन अब अर्वाचीन पब्लिक स्कूल में पढ़ता है और कांगो प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीतता है। दूसरी और दिलशाद पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले साजन और चैंपियन अपनी कक्षा में अव्वल आते हैं। ऐसे बच्चों की फेहरिस्त काफी लंबी है। पहले इन्हीं बच्चों को दाखिला देने से बचने के लिए पब्लिक स्कूलों का तर्क होता था कि ऐसे बच्चे स्कूल का माहौल खराब कर देंगे क्योंकि ये अपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं, गंदे माहौल में रहते हैं। लेकिन अब स्कूल प्रशासन भी इन बच्चों की लगन और काबिलियत देखकर चकित है। और यह कमाल हुआ है सूचना के अधिकार कानून की बदौलत। झुग्गी झोपड़ियों और पुनर्वास बस्तियों में रहने वाले हजारों बच्चों के सपने इस कानून ने न केवल पूरे किए हैं बल्कि उन्हें इससे एक नई ताकत भी मिली है।

इस चमत्कार को समझने के लिए थोड़ा पृष्ठभूमि में जाना होगा। दरअसल, डीडीए और भूमि और विकास कार्यालय ने दिल्ली के 361 स्कूलों को निशुल्क और सस्ती दर पर जमीन इस शर्त पर दी थी कि वे 25 प्रतिशत तक सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों को देंगे। इस शर्त की भनक किसी को नहीं लगी और न ही स्कूलों ने इसे अमल में लाने में कोई दिलचस्पी दिखाई। थोड़े बहुत लोगों को इसकी जानकारी तब मिली जब अधिवक्ता अशोक अग्रवाल ने इस संबंध में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की और हाईकोर्ट ने शिक्षा निदेशालय को इसे कढ़ाई से लागू कराने का आदेश दिया। हाईकोर्ट के आदेश के बाद शिक्षा निदेशालय को इस संबंध में दिशा निर्देंश तय करने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि बाद में हाईकोर्ट ने इस कोटे को पचीस प्रतिशत से घटाकर बीस प्रतिशत कर दिया लेकिन एक अच्छी आत यह रही कि सभी मान्यताप्राप्त स्कूलों को इसके दायरे में ला दिया। 2008 में हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में सभी स्कूलों को कम से कम 15 प्रतिशत दाखिले गरीब परिवार के बच्चों के लिए अनिवार्य कर दिया।
डीडीए द्वारा स्कूल को सस्ती जमीन दिए जाने की शर्तों और हाईकोर्ट के आदेश को जानने के बाद लोगों ने स्कूल में अपने बच्चों को दाखिला दिलाने की कोशिशें शुरू कीं लेकिन अधिकांश स्कूलों ने इस सबके बावजूद बच्चों को दाखिला नहीं दिया। इसके बाद लोगों ने बड़ी संख्या में उप शिक्षा निदेशक के पास इन स्कूलों की शिकायत की और कुछ ही दिनों बाद उप शिक्षा निदेशक द्वारा शिकायत पर की गई कार्रवाई की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मांगी। इन आवेदनों ने उप शिक्षा निदेशक पर इतना दबाव बना दिया कि उन्हें ऐसे बच्चों के दाखिले सुनिश्चित कराने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन इसके लिए बहुत बार लोगों को उप शिक्षा निदेशक के यहां आरटीआई आवेदन जमा कराने में भी कई तरह की दिक्कतों का सामना पड़ा और दर्जनों मामलों में अपील भी करनी पड़ी।

इन तमाम दिक्कतों के बावजूद बच्चों के दाखिले हुए हैं। हालांकि कई गैर सरकारी संस्थाओं ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। `आई एस एस टी ´ संस्था की अमिता जोशी बताती हैं कि मयूर, अहलकोन सहित अनेक पब्लिक स्कूलों ने पहले फ्रीशिप कोटे के तहत दाखिले के फार्म देने से ही मना कर दिया। आरटीआई आवेदनों का भी उप शिक्षा निदेशक के यहां से कोई जवाब नहीं मिला लेकिन अपील करते ही शिक्षा विभाग में खलबली मच गई। मयूर पब्लिक स्कूल ने शिक्षा निदेशालय कें आदेश के बाद दाखिले के लिए झुग्गियों में फार्म भिजवा दिए। इसके बाद 9 बच्चों का दाखिला हुआ।

और सफलता का यह सिलसिला आज भी जारी है। ग्रीन फील्ड, नूतन विद्या मंदिर, हंसराज, फ्लोर डेल, ग्रीनवे, सिद्धार्थ इंटरनेशनल, अर्वाचीन, मयूर, बालभवन, मदर टेरेसा, प्रीत, यूनिवर्सल, विवेकानंद, नेशनल विक्टर आदि पब्लिक स्कूलों में दाखिले हुए हैं और अब भी हो रहे हैं। इस संबंध में हाईकोर्ट में याचिका डालने वाले अधिवक्ता अशोक अग्रवाल का कहना है कि साल 2008 में पब्लिक स्कूलों में 10 हजार गरीब बच्चों के दाखिल हुए हैं। उनका कहना है कि इस कोटे के तहत हर साल 40 हजार बच्चों का पब्लिक स्कूल में दाखिला हो सकता है। लेकिन लोगों में जागरूकता की कमी के चलते ऐसी सीटें नहीं भर पा रही हैं।

सीमा पुरी के रहने वाले आरटीआई कार्यकर्ता रामआसरे बताते हैं कि यदि सूचना का अधिकार नहीं होता तो दिल्ली के हजारों गरीब बच्चों के दाखिले नहीं हो पाते। रामआसरे स्वयं एक पुनर्वास बस्ती में रहते हैं और उनके बच्चे हंसराज पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। पिछले साल उनके बच्चे यश ने अपनी कक्षा में चौथा स्थान हासिल किया था। उनका कहना है कि गरीब परिवारों के बच्चों किसी मायने में अमीरों के बच्चों से कमतर नहीं हैं। यदि मौका मिले तो झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बच्चे भी अच्छा कर सकते हैं और दिल्ली के अनेक बच्चों ने इसे साबित करके दिखाया भी है।
(अपना पन्ना के अप्रैल अंक में प्रकाशित)

छोटी उमर के बुलंद हौसले

दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में गरीब-गुरबत बच्चों का दाखिला टेढ़ी खीर है लेकिन सरकारी स्कूल भी इस मामले में कुछ कम नहीं हैं। दिल्ली सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के तहत छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्तियां भी कई बार जरूरतमंदों तक पहुंचने से पहले या तो दम तोड़ देती हैं। लेकिन इन्हीं सरकारी स्कूलों की लड़कियों ने सूचना कानून का इस्तेमाल कर भ्रष्ट शिक्षा व्यवस्था की कुम्भकर्णी नींद को तोड़ने का काम किया है। पेश है अपना पन्ना की एक रिपोर्ट:-

बंटी छात्रवृति
दिल्ली के कल्याणपुरी राजकीय उच्चतर माध्यमिक कन्या विद्यालय के बच्चों की छात्रवृत्तियों की रकम स्कूल प्रशासन हड़पने के फिराक में था। लेकिन स्कूल की ही छात्रा सुनीता ने सूचना के अधिकार का सहारा लेकर स्कूल प्रशासन के इरादों पर पानी फेर दिया। सुनीता ने न केवल अपनी बल्कि स्कूल की सभी छात्राओं को छात्रावृत्ति दिलाकर ही चैन की सांस ली।
मामला कुछ इस तरह है। स्कूल की तमाम छात्राओं के परिजनों से हस्ताक्षर करवा लेने के चार महीने बाद भी छात्रवृत्तियां आबंटित नहीं की गई थीं। सुनीता ने सूचना के अधिकार के जरिए अधिकारियों से जवाब तलब किया। आवेदन ने असर दिखाया और दो दिन बाद ही अधिकारी स्कूल में इस संबंध में जांच करने आए। इस बीच प्रिंसिपल ने छात्राओं को नाम काटने की धमकी देते हुए कहा कि वह अधिकारियों के सामने छात्रवृत्ति मिलने की बात कहें। अधिकारियों ने जब छात्राओं से इस बारे में पूछा तो उन्होंने अपनी प्रिंसिपल के कहे अनुसार जवाब दिए लेकिन सुनीता ने ऐसा नहीं किया। अधिकारियों के सामने उसने बेबाकी से प्रिंसिपल की शिकायत की और उसका काला चिट्ठा अधिकारियों के सामने रख दिया। सुनीता को इस तरह बोलते देख बाकी छात्राओं में भी उत्साह जगा और उन्होंने भी सब कुछ साफ-साफ बता दिया। इसके कुछ दिनों बाद स्कूल की सभी छात्राओं को छात्रवृत्तियां वितरित कर दी गई।

अफरीदा ने पाया दाखिला
आजमगढ़ से पढ़ाई के सपने संजोकर दिल्ली आई अफरीदा बानो के सपने उस वक्त बिखरने लगे जब कोंडली के दो और दल्लूपुरा के एक स्कूल ने उसे दाखिला देने से मना कर दिया। नौंवी कक्षा में दाखिले के लिए उसने अपने पिता सनीफ अहमद के साथ अनेक चक्कर काटे लेकिन स्कूल ने जैसे दाखिला न देने की कसम खा ली थी। उप शिक्षा अधिकारी को दाखिले के लिए प्रार्थना पत्र भेजा और वहां से स्कूल को दाखिला करने के निर्देश मिले। लेकिन स्कूल ने इस बार भी यह कहकर दाखिला देने से मना कर दिया कि कोई सीट खाली नहीं है। तब जाकर सनीफ ने सूचना के अधिकार का सहारा लिया। उपशिक्षा निदेशक कार्यालय आवेदन दाखिल कर उन्होंने निम्न प्रश्न पूछे-
-मेरी शिकायत की डेली प्रोग्रेस रिपोर्ट बताएं और यह किस अधिकारी के पास है, उसका नाम पद और फोन नंबर बताएं
-मेरी बेटी का एडमिशन कब तक हो पाएगा, तारीख बताएं
-शिक्षा अधिकारी द्वारा निर्देश दिए जाने के बावजूद प्रधानाचार्य ने प्रवेश देने से इंकार कर
दिया। क्या यह शिक्षा सम्बन्धी कानून का खुला उल्लंघन नहीं है?
-कृपया यह बताएं कि शिकायत में उल्लखित तीनों सरकारी विद्यालयों में कक्षा नवीं के लिए कितने सेक्शन हैं तथा प्रति सेक्शन कितने बच्चों को प्रवेश दिया गया है, कृपया प्रवेश रजिस्टर की कॉपी दें।
आवेदन में पूछे गए सवालों का असर ये हुआ कि उपशिक्षा निदेशक कार्यालय हरकत में आया है और अफरीदा बानो का शीघ्र दाखिला हो गया। यह दाखिला आध सत्र बीत जाने के बाद यानि अक्टूबर माह में किया गया।

यूजीसी का आदेश: पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य

गिरीश चन्द्र करगेती
पर्यावरण संरक्षण का कार्य विभिन्न व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा लंबे समय से किया जा रहा है लेकिन अब तक सफलता नहीं मिली है। इसी क्रम में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पर्यावरणविद एम सी मेहता ने भारत के समस्त विद्यालयों, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय एवं अन्य शिक्षण संस्थानों में पर्यावरण का अनिवार्य पाठ्यक्रम लागू करने के लिए एक याचिका (संख्या 860/१९९१) उच्चतम न्यायालय में दाखिल की ताकि बचपन से ही विद्यार्थियों के मन में पर्यावरण संरक्षण की सोच विकसित हो सके। उच्चतम न्यायालय ने 18 दिसंबर 2003 में इस याचिका पर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया जिसके अन्तर्गत एआईसीटीई, एनसीईआरटी, यूजीसी को पर्यावरण का अनिवार्य पेपर 2004-05 सत्र से लागू करने का आदेश दिया और पालन न करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की बात कही। उच्चतम न्यायालय के पूर्ण आदेश मिलने से पहले ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उच्चतम न्यायालय के अंतरिम आदेश का पालन करते हुए भारत के समस्त विश्वविद्यालयों और संस्थानों को सिक्स मंथ मोड्यूल सिलेबस पफॉर इनवायरमेंट स्टडीज इन अंडरग्रेजुएट्स कोर्सेस में लागू करने का आदेश अपने पत्र डी ओ संख्या एफ13-1/2000 (एफए /ईएनयू/सीओएस-एफ) 23 जुलाई 2003 को प्रेषित किया और पत्र में वर्तमान सत्र में पेपर लागू करने का आदेश भी दिया।
लेकिन सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने पर ये पता चला कि अब तक मात्र 94 विश्वविद्यालय और संस्थानों में ही यह पेपर लागू हुआ था। अप्रैल 2007 में जानकारी मांगी गई थी कि कितने विश्वविद्यालयों और संस्थानों ने छह माह का अनिवार्य पेपर लागू किया है। मई 2007 में यूजीसी ने उत्तर दिया कि भारत में 94 विश्वविद्यालयों और संस्थानों ने उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करते हुए अनिवार्य पर्यावरण का पेपर लागू किया और 268 विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों ने 2007 तक इसे लागू नहीं किया। पेपर लागू न करने पर कार्रवाई के बारे में पूछने पर यूजीसी ने समस्त संस्थानों को जुलाई 2003 का पत्र अनुस्मारक के रूप में प्रेषित किया ताकि तुरंत पेपर लागू किया जा सके।

इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए जुलाई 2007 में पुन: आरटीआई आवेदन डालकर पेपर लागू न करने वाले संस्थानों के विरुद्ध की गई कार्रवाई की स्थिति जाननी चाही। यूजीसी ने जवाब दिया कि पुन: अनुस्मारक भेजा गया है और उच्चतम न्यायालय की अवमानना तथा सख्त कार्रवाई की स्थिति के संदर्भ में उन्होंने लिखा कि आयोग अपने वकील से संपर्क बना रहा है। कुछ समय बाद मई 2008 को यूजीसी के वकील के पत्र की प्रति और अप्रैल 2008 तक कितने संस्थानों ने पेपर लागू किया है, की सूचना मांगी गई। जवाब में यूजीसी के वकील अमितेश कुमार के पत्र की प्रति और कुछ विश्वविद्यालय और संस्थानों की सूची दी गई जिन्होंने पेपर लागू कर दिया था। वकील के पत्र में संयुक्त सचिव को सुझाव दिया गया था कि जो संस्थान आदेश नहीं मान रहे हैं उनका अनुदान रोक लिया जाए। और इस संदर्भ में मेमो भी जारी करे। इसके बाद यूजीसी ने भारत के समस्त संस्थानों को अंतिम मेमो भेजा और स्पष्ट किया कि पर्यावरण का पेपर लागू न करने की स्थिति में वार्षिक अनुदान रोक लिया जाएगा।
जाहिर है यह आरटीआई का ही कमाल था कि यूजीसी को इस मामले पर रूख अपनाना पड़ा। और इसका नतीजा ये निकला कि अब देश के सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों को पर्यावरण का पाठ पढ़ाया जाएगा।

(अपना पन्ना के अप्रैल अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

कैसी प्लानिंग, कैसा मैनेजमेंट...

शशि शेखर
दागदारों ने बना दिया है शिक्षा को धंधा एक तरफ जर्मनी में वांटेड है एमिटी के निदेशक चौहान बंधु और इनके ख़िलाफ़ इंटरपोल से जारी है रेड कॉर्नर नोटिस तो दूसरी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ प्लानिंग मैनेजमेंट (आईआईपीएम,दिल्ली) के खिलाफ वित्त मंत्रालय में कर चोरी की शिकायत तो है ही इसके साथ कई और आरोपों से भी घिरा है ये संस्थान। अपना पन्ना के अंक में आरटीआई की मदद से इन शिक्षण संस्थानों की खबर लेती ये रिपोर्ट:
एमिटी--
भारतीय संस्कृति में गुरु को गोविंद यानि भगवान से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त है और शिक्षण संस्थानों का महत्व किसी मंदिर से ज्यादा। लेकिन बाजारवाद के दौर में जब शिक्षा के इसी मंदिर को दुकान बनाकर गुरु खुद दुकानदार बनकर जाएं और फ़िर नैतिकता की बात करे, तो इसे क्या कहेंगे? कुछ ऐसा ही मामला दिल्ली और एनसीआर में फल-फूल रहे निजी शिक्षण संस्थानों का है जो हजारों बच्चों और उनके मां-बाप को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं जबकि खुद सपनों के इन सौदागरों का भूत और वर्तमान इतना दागदार है जिसे जानना देश का भविष्य कहलाने वाले बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए बेहद जरुरी है। अपना पन्ना के पास सूचना का अधिकार कानून की मदद से निकाले गए जो दस्तावेज हैं उससे इन शिक्षण संस्थानों और इसके निदेशकों की असलियत का साफ-साफ पता चलता है।

राज्य सभा में पूछे गए एक प्रश्न का हवाला देते हुए सूचना कानून के तहत विदेश और गृह मंत्रालय से एमिटी के निदेशक अशोक कुमार चौहान और अरुण कुमार चौहान के संबंध में कुछ सवाल पूछे गए थे। सीबीआई की तरफ से उपलब्ध कराए गए दस्तावेज के मुताबिक चौहान बंधुओं का नाम जर्मनी के वांटेड की लिस्ट में शामिल है और इनकी गिरफ्तारी के लिए बकायदा इंटरपोल ने रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी किया हुआ है। इसके अलावा इनके प्रत्यर्पण के लिए जर्मनी ने भारत सरकार से अनुरोध भी किया है। हालांकि अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है। वजह, 2005 में चौहान बंधुओं ने देश के अंदर अपने खिलाफ आपराधिक मामला नहीं चलाए जाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी और उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्पण संधि की धारा (६) के मुताबिक देश के अंदर इनके खिलाफ आपराधिक मामला नहीं चलाने का अंतरिम आदेश 31-05-2005 को दे दिया।

दरअसल ये पूरी कहानी 90 के दशक में शुरु होती है जब चौहान बंधु जर्मनी में रहा करते थे और एकेसी बिजनेस ट्रस्ट चलाते थे। इस ट्रस्ट के अंतर्गत लगभग 40 कंपनियां काम कर रही थीं। साल 1993-1994 के दौरान चौहान बंधुओं पर जर्मनी के कुछ बैंकों से धोखाधडी कर लेने का आरोप लगा और जिसके चलते उन बैंकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद दोनों ने भारत आ कर शिक्षा के क्षेत्र में हाथ आजमाने का फैसला किया। और आज एमिटी नाम से दर्जनों स्कूल,कॉलेज दिल्ली और एनसीआर में चल रहे हैं।

आईआईपीएम,दिल्ली-
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ प्लानिंग मैनेजमेंट यानि आईआईपीएम जो अपने विज्ञापनों के माध्यम से छात्रों को आईआईएम से हट कर सोचने को कहती है और जिसके पाठ्यक्रम का नाम भले ही एमबीए हो (एमबीए डिग्री के साथ एक तारा भी चमकता दिखाई देता है,जिसका विशेष अर्थ कहीं कोने में लिखा होता है) लेकिन पढ़ाई प्लानिंग और इंटरप्रेन्योरशिप की होती है। सूचना का अधिकार कानून के इस्तेमाल से निकाले गए दस्तावेज के अनुसार आईआईपीएम का कोई भी पाठ्यक्रम यूजीसी (विश्व विद्यालय अनुदान आयोग) और एआईसीटीई से मान्यताप्राप्त नहीं है। सूचना कानून के तहत दिए अपने जवाब में यूजीसी ने माना है कि संस्थान द्वारा चलाए जा रहे कोर्स के संबंध में उसे शिकायत मिली है और इसके बारे में कारण बताओ नोटिस भेजे जाने की तैयारी की जा रही है।

इसके अलावा आईआईपीएम पर वर्ष 2005-06, 2006-07 के दौरान आयकर कानून, 1961 की धारा 10(23सी) के तहत छूट पाने के लिए गलत दावे करने की शिकायत भी वित्त मंत्रालय को मिली थी। जनवरी 2008 को मंत्रालय की तरफ से सूचना कानून के तहत उपलब्ध कराए गए दस्तावेज में बताया गया है कि इस मामले की जांच की जा रही है और इस शिकायत को आगे की जांच के लिए इसे आयकर महानिदेशक(छूट) के पास भी भेज दिया गया है।

शिकायतों की फेहरिश्त यहीं खत्म नहीं होती है। कारपोरेट कार्य मंत्रालय में भी आईआईपीएम के खिलाफ शिकायत पहुंची थी जहां महानिदेशक (आई एंड आर) ने अपनी प्रारंभिक जांच रिपोर्ट एकाधिकार तथा अवरोधक व्यापारिक व्यवहार आयोग (एमआरटीपी आयोग) के पास जमा करा दिया था और 3 मार्च 2008 को आयोग में इसकी सुनवाई होनी थी।

ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि जिनके खुद के दामन पर छींटे पड़े हो और धोखाधडी, कर वंचना जैसा संगीन आरोप हो वो क्या और कैसी शिक्षा हमारे बच्चों को दे रहें होंगे? आखिर क्यों ऐसे लोगों को शिक्षण कार्य शुरु करने की इजाजत दी जाती है? शायद उदारीकरण के उस शुरुआती दौर में जब कुकरमुत्तों की तरह दर्जनों प्राइवेट शिक्षण संस्थान पनपने लगे थे, तब सरकार ने भी मानो अपनी आंखें मूंद ली थीं और बिना आगे-पीछे का कोई रिकॉर्ड देखे ऐसे संस्थानों को मंजूरी दे रही थी।